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परन्तु महाभारत काल के पास पहुंचते-पहुंचते नारी केवल समाज की बीमारी रह गई थी, अब उसके अधिकार भी केवल पति-पादोदक तक सीमित हो गए थे। शूद्रो के समान अब उसे भी खुले आम बाजारो में, बेचा जाता था। चम्पापुर नरेश महाराज दधिवाहन की पुत्री वसुमती (जो चन्दना के नाम से साध्वी रूप मे महावीर के साध्वी-सघ की प्रमुख बनी) का कौशाम्वी के बाजार मे वेचा जाना इसका प्रमाण है। इस प्रकार नारी निरीह बन चुकी थी, नारीत्व कराह रहा था, सडी गली रूढियो की दुर्गन्ध से उसका दम घुट रहा था, अत. नारी-हृदय ऐसी भयावह परिस्थिति मे किसी महाशक्ति का आवाहन कर था । इसी आवाहन के आकर्षण ने 'महावीर' को अवतरित किया था।
वेचारी दुनियारी तो 'भिखारी बन ही चुकी थी, परलोक 'विषयक सत्य भी तिरोहित हो रहा था। 'मोक्ष' शब्द तो केवल कोषो की शोभामात्र रह गया था। स्वर्ग ही सव का लक्ष्य था, क्योकि वहा पर सुन्दरियो के आकर्षण हैं, दैहिक दु.खो का अभाव है, मनचाहे सुखो की प्राप्ति एव स्वर्गीय लोभावरणो से जन-मन को स्वर्ग-परायण बनाया जा रहा था। इतना ही नही यज्ञो मे मारे गए पशुओ की भीड भी स्वर्ग में ही बढ रही थी। ऐसी दशा मे धर्म-मर्यादाए भटक रही थीं, रूढियो से जकड रही थी, अनेकवाद अपने-अपने विचारो के बाडो मे पशुओ की तरह जनता को बन्द कर रहे थे। उस समय लगभग ३६३ 'मत-मतान्तर जनता को मिथ्या आडम्बरो मे उलझा रहे थे ।
इस प्रकार खोई-खोई सी जनता त्राण चाहती थी, पथ-प्रदर्शन चाहती थी, उस गहन अधकार मे ज्योति चाहती थी 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के स्वर किसी ज्योति-पुरुष को पुकार रहे थे, इसी पुकार की पूर्ति के रूप मे भगवान महावीर के चरणो ने इस धरा को पावन किया था।
वैशाली का सौभाग्य जागा जन्म और मृत्यु ये दोनो हमारे जाने-पहचाने शब्द हैं, क्योकि यहां हम प्रतिदिन जन्म और मरण देखते रहते हैं । जन्म हमारे लिये
पञ्चकल्याणक ]
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