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ग्रहण न करता तो सचमुच मेरा जीवन-भवन धरागायी हो जाता। भगवन् ! आप वास्तव मे अशरण-गरण हैं।" राजकुमारी चन्दनवाला :
भगवान महावीर मुमुमार नगर से विहार करके ग्राम-नगरों में विवरते हुए कौशाबी मे पधारे । यहा पर प्रभु ने एक कठोर अभिग्रह अर्थात् प्रण धारण किया- "अविवाहित और बाजार मे विकी राज-कन्या हो, मिर मुंडा हुया हो, हाथो ने हयकडिया और पावो मे वेडिया हो, तोन दिनो की भूबो हो, न घर मे हो और न ही घर से वाहिर हो, किपा अनियि को प्रतीक्षा मे हो, खाने के लिये उबले हुए वाकले छाज मे लिये खडो हो, प्रसन्न-मुख हो, पर आखो मे ग्राम् भी हो" ऐसी राज-कन्या मुझे आहार दे तो मैं आहार ग्रहण करू गा। अन्यथा छ: महीने तक भोजन ग्रहण नहीं करू गा।' इस अभिग्रह को धारण करने के अनन्तर प्रमु जब भिक्षा के लिये नगरी मे जाते तो अभिग्रह की गर्ते पूरी न होने से खाली ही वापिस लौट आते। ऐसे करते-करते प्रभु को पाच महीने पच्चीस दिन हो गए। समस्त नगर-निवासी प्रभु के आहार ग्रहण न करने से व्यथित थे पर किसी का कोई वा नही चल रहा था। सभी को इस बात का अवश्य प्राश्चर्य था कि इतने दीर्घ उपवास की दशा में भी प्रभु के मुख-मण्डल पर तप साधना-जनित तेज कुछ निराली ही छटा दिखला रहा था।
एक दिन प्रभु कीनाम्बी नगरी के विख्यात सेठ धन्ना के घर मे भिक्षार्थ गए तो वहा पर तीन दिनो की भूग्बी राजकुमारी चन्दनवाला छाज मे उडद के वाकले लिये भिक्षा देने के लिये किमी जगतारक सन्त की प्रतीक्षा कर रही थी। दीर्य तपस्वी तेजस्वी भगवान महावीर को देख कर उसका रोम-रोम मुस्करा उठा । उसने तत्काल प्रभु से भोजन ग्रहण करने को विनोत प्रार्थना को । अभिग्रह की अन्य सभी शर्ते पूर्ण थी, किन्तु एक अपूर्ण थो-राजकुमारी की आखो मे आंसू नही थे, इसलिये प्रभु वापिस लौटने लगे। पर भगवान को वापिस जाते हुए देख कर चन्दनवाला अपने आपको कोसती हुई विह्वल हो उठी'भगवन् !- मुझ अभागिन से क्या अपराध हो गया है ? सन्त तो परम कृपानु, जगतारक होते हैं, इस दीन मेविका को क्यो ठुकराते हो ? ७६ ]
दीक्षा-कल्याणक