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वे अशोक-वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर आत्म-साधना करने लगे। उस समय नवजात असुरजाति के देवो के स्वामी चमरेन्द्र ने जव अवधिज्ञान से अपने ऊपर प्रथम-देवलोक के स्वामी शकेन्द्र महाराज को सिहासन पर बैठे देखा तो वे क्रोध से तमतमा उठे। कहने लगे-"यह मेरे सिर पर बैठने वाला कौन है ?" साथी देवताओ ने कहा-"देवेश ! ये पहले देवलोक के नाथ शक्रेन्द्र महाराज है। अपने सिंहासन पर विराजमान हैं। नीचे-ऊपर बैठने का यह क्रम तो सदा से ऐसे ही चला आया है, अत आप इससे खिन्न न हो।"
चमरेन्द्र अभिमानी थे, अत: अभिमान की भापा में वोले"मैं चमरेन्द्र ह, मेरे से पहले जो यहां थे वे सव चमरिया थी। मैं जव तक गक्रेन्द्र को सिंहासन से गिरा नहीं देता, तव तक मैं चैन न लू गा। चमरेन्द्र वहाँ से उठे और यह सोचते हुए कि मुझे किसी परम-शक्ति का सहारा लेना आवश्यक है, वे जहां भगवान महावीर ध्यान लगा कर .खड़े थे, वहा पाए, प्रभु को चरण-वन्दना करके वोले - 'प्रभो ! मैं आपके चरण की शरण लेकर शक्रेन्द्र को दण्डित करने जा रहा हू।" ।
वे अपनी वैक्रिय शक्ति से सीवे सौधर्म देवलोक मे जा पहुचे, जाते ही ऐसी भयकर हुंकार की, जिस से समूचा देव-विमान काप उठा। कुछ क्षणो के लिये तो स्वय देवेन्द्र भी स्तब्ध रह गए, परन्तु सारी स्थिति समझकर उन्हे वड़ा क्रोध आया, फलत. उन्होने सिंहासन पर बैठे-बैठे ही अपना वज्र फैका । हजारो भयकर ज्वालाए वखेरता हुआ वज्र जव चमरेन्द्र की ओर आया तो वे घवरा उठे। वे तत्काल वापिस दोडे, वज्र भी पीछे-पीछे आने लगा। कही शरण न पाकर, चमरेन्द्र भगवान महावीर के चरणो मे "वचारो-बचाओ" कहते हुए जा छिपे । इधर इन्द्र ने अवधिज्ञान से चमरेन्द्र को प्रभु के चरणो मे छिपा देखा तो वे शीघ्र ही स्वर्ग-लोक से दौड़े, भगवान से वज्र अभी चार अगुल दूर था कि देवराज ने उसे पकड़ लिया। चमरेन्द्र ने भगवान की चरण-शरण ग्रहण कर ली थी. इसलिये उसे अभयदान दे दिया और स्वय प्रभुचरणो को नमस्कार करके वापिस स्वर्ग पुरी मे चले गए । देवेन्द्र के चले जाने पर चमरेन्द्र भी प्रभु के चरणो से निकले और अपने स्थान की ओर यह कहते हुए चल दिए कि "प्रभो ! यदि नाज आपकी चरण-शरण पञ्च-कल्याणक]
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