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________________ विगत रात्रि मे पौषधशाला मे पौषध करते हुए क्या तुम्हे अनुभव हुना कि कोई देव पिशाच, हाथी और सर्प का रूप धारण करके मुझे साधना से विचलित करना चाहता है, परन्तु तुम अपने साधना-मार्ग से नाममात्र भी विचलित नहीं हुए। कामदेव ने साश्चर्य कहा-'भगवन् | आप ठीक कह रहे हैं।' भगवान ने कहा-'मुनिवृन्द | यह एक गृहस्थ श्रावक है, इसने कभी भी किसी भय से अपने साधना-मार्ग का परित्याग नही किया तो तुम विरक्तो को तो किसी भी दशा मे सयम-साधना से विचलित नहीं होना चाहिए। दशार्णभद्र राजा की दीक्षा : __ चम्पा से भगवान् सुदीर्घ यात्रा करते हुए दशार्णपुर पहुचे ।' दशार्णभद्र अपनी पाच सौ रानियो एव अपार वैभव के प्रदर्शन के साथ प्रभु के दर्शनार्थ आ रहा था। उसके मन मे अपने वैभव का अहकार जाग रहा था। तभी उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो इन्द्र भी अपने अद्भुत एव अपार वैभव के साथ दर्शनार्थ आ रहा है । इन्द्र के वैभव को देख कर उसे अपना वैभव अत्यन्त तुच्छ प्रतीत होने लगा, अत. उसे उस तुच्छ वैभव से विरक्ति हो गई और उसने भगवान के प्रवचन सुनने के अनन्तर प्रभु के वरद हस्त से पावनी आहती दीक्षा स्वीकार कर ली। सोमिल भी दीक्षा के महापथ पर : भगवान् दशार्णपुर से पुन. विदेह की ओर लौटे और वाणिज्य ग्राम मे पधारे और इस बार वे दूतिपलासचैत्य उद्यान मे ठहरे । वाणिज्य ग्राम का एक विद्वान् ब्राह्मण सोमिल भी प्रभु के पास आया और उसने भगवान से अनेक प्रकार के प्रश्न किए। उसका प्रमुख प्रश्न था'भगवन आपके सिद्धान्त मे क्या यात्रा, यापनीय अव्यावाघ और प्रासुक विहार है ? भगवान ने उत्तर दिया 'सोमिल तप, नियम-सयम स्वाध्याय और ध्यान आदि के लिये उद्यम करना ही मेरी यात्रा है । इन्द्रियो को बश मेरखना यह मेरा 'इन्द्रिय-यापनीय' है और क्रोध, मान, माया और १ दशार्णपुर माधुनिक भूपाल के पास विदिशा नामक नगर । पञ्च-कल्याणक ] [ १२९
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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