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________________ लोभ मैं इन्हे अपने पास नहीं आने देना, यही मेरा नो-इन्द्रिययापनीय' है। अपने शरीर मे वात-पित्त एवं कफ आदि के कारण उत्पन्न रोगो से शरीर को मुक्त रखना यही मेरा अव्यावाध है और विरक्त साधु के योग्य स्थानो मे निर्दोष शय्या सस्तारक आदि स्वीकार करना यही मेरा प्रासुक विहार है। सोमिल ने एक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न किया-"भगवन् ! आप एक है या दो ? क्या आप अभय, अव्यय एव अवस्थित है ? क्या आप भूत, वर्तमान और भविष्यत काल के अनुरूप अनेक है ?" भगवान ने अनेकान्तवाद से उत्तर दिया-'सोमिल | मै आत्मा की दृष्टि से एक है, मैं ज्ञान-दर्शन रूप से दो भी हू । मैं आत्म-प्रदेशो की अपेक्षा से अव्यय, अक्षय एव शाश्वत भी हू। उपयोग की दृष्टि से परिवर्तनशील होते हुए अनेक भी हू । ___इस प्रकार के अनेक प्रश्नो के उत्तर पाकर सोमिल के हृदय में निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति अपार श्रद्धा जागृत हुई और वह भी प्रभु का शिष्य बन कर साधना-मार्ग मे प्रवृत्त हो गया । भगवान ने यह चातुर्मास वाणिज्यग्राम मे ही व्यतीत किया। तीर्थकर जीवन : इकत्तीमवां चातुर्मास चातुर्मास की पूर्णता पर भगवान महावीर साकेत एव श्रावस्ती आदि नगरो को स्पर्गना करते हुए काम्पिल्य नगर' के बाहर सहस्राम्र वन मे ठहरे। गौतम स्वामी जव आहार-पानी के लिये नगर मे गए तो उन्होने सुना कि अम्बड नामक परिव्राजक जो सात सौ शिष्यो का गुरु है वह एक साथ सौ घरो मे भाजन करता है। इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् से पूछा तो उन्होने बताया अम्बड निरन्तर षष्ठभक्त तप करता है और उसने तपस्या के द्वारा "वक्रिय लन्धि" नामक सिद्धि प्राप्त कर ली है। १. यह बिहार मे फर्रुखाबाद ने पच्चीस मील उत्तर-पश्चिम की ओर बूढी गगा के किनारे कपिला नाम से आज भी विद्यमान है । उस समय यह नगर दक्षिण पाचाल की राजधानी के रूप मे था । १३० ]. -ज्ञान-कल्याणक
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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