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(विशुद्ध सदाचरण) का पालन करने से, गुरु आदि पूज्य जनो को विनय करने मे, निरन्तर षड् आवश्यक का अनुष्ठान करने से, गील अर्थात् ब्रह्मचर्य अथवा उत्तर गुणो एवं मूल गुणो का तथा प्रत्याख्यान का अतिचार रहित पालन करने से, सदैव वैराग्य-भाव रखने से, वाह्य और आभ्यतर तप करने से, सुपात्र को दान देने से गुरु, रोगी, तपस्वी वृद्ध तथा नवदीक्षित मुनि की सेवा करने से, क्षमाभाव रखने से, नित्य नये ज्ञान का अभ्यास करने से, आदरभाव से, जिनेश्वर भगवान के प्रवचनो पर श्रद्धा करने से और तन, मन, धन से जिन-गासन की प्रभावना करने से जीव तीर्थ वर बनने को योग्यता प्राप्त कर पाता है।'
उपर्युक्त वीस साधनाए भगवान महावीर के जीव के द्वारा सम्पन्न हुई , यह साधना करते हुए तीयंकर गोत्र का उपार्जन भगवान के जीव ने नन्दन के जन्म मे किया था । इस जन्म की आयु पूर्ण कर इनका जीव दसवे स्वर्ग मे स्थित हो गया।
दसवें स्वर्ग मे भगवान महावीर के जीव ने बहुत लम्बी देवआयु प्राप्त की और देवलोक के सुखो का उपभोग किया । देवलोक की आयु पूर्ण होने पर जम्बू द्वीप के दक्षिण भाग मे अवस्थित भरत क्षेत्र मे भगवान ने इस घरा घाम को अपने जन्म से पवित्र बनाया ।
जैन धर्म की मान्यता है कि तीर्थङ्कर बननेवाला जीव क्षत्रियकुलोद्भव राजकुमार ही होता है । वह शासक होता है शासित नही, परन्तु भगवान के जीव को पहले देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ मे आना
१- अरिहन्त-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-वहुस्सुय-तवरसीसु ।
वच्छलया य तेसि, मभिक्खणाणोवनोगे य ॥ दसण-विणय श्रावस्सय, सीलव्वए य निरइयारे । खणलव तवच्चियाए, वयावच्च समाहीय ।। अपुवणाण गहणे, सुयभत्ती पवयणे भावणया । एएहि कारणेहिं, तित्ययरत्त लहइ जीवो ।।
(श्री ज्ञाताधर्म कथांग, अध्याय आठवा)
[ च्यवन कल्याणक