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________________ उसने निकाचित अर्थात् बिना भोग के समाप्त न होने वाले दृढ कर्म का वध किया। प्रियमित्र के रूप मे इस प्रकार इस जन्म मे अनेक प्रकार के भोगो का उपभोग कर जन्म-मरण की परम्परा को पार करते हुए यह जीव प्रियमित्र चक्रवर्ती के रूप में अवतरित हुआ। चक्रवर्ती के रूप मे उसने छ खण्डो पर शासन कर सांसारिक भोगों का उपभोग किया । नन्दन के रूप में अब वह छत्रा नामक नगरी में एक राज घराने में उत्पन्न हमा। यहा इसका नाम 'नन्दन'रखा गया। नन्दन जव किशोरावस्था मे प्रविष्ट हुए तव इनके पिता ने इनके कन्धो पर राज्य का भार रखकर स्वय साधु-वृत्ति ग्रहण करली। कुछ वर्षों के वाद नन्दन के मन मे भी वैराग्य की तरगे ठाठे मारने लगी और उसने सम्पूर्ण सांसारिक वैभव को ठुकरा कर कौटिल्याचार्य के पास पहुचकर साधु-दीक्षा ग्रहण करली। इस प्रकार पूर्व जन्मो मे भगदान महावीर का जीव सम्यक्त्व का स्पर्श कर चुका था । अव उसके लिये आत्म-साधना के द्वार खुल गए, अतः वह कर्मों से मुक्त होने लगा। उसकी प्रवल साधना सफलीभूत होने लगी। नन्दन ने इसी जन्म मे तीर्थङ्कर गोत्र का उपार्जन कर लिया । नन्दन ने उत्कट भावो से तप, जप स्वाध्याय और ध्यान मे उत्कृष्ट भक्ति भाव मे तल्लीन होकर तीर्थङ्कर बनने की योग्यता प्राप्त कर ली। जैन धर्म मे तीर्थकर पद को प्राप्त करने के लिये विशेष रूप से आत्म-साधना करते हुए वीस गुणो की उपलब्धि आवश्यक मानी गई है । आगमकारो ने उन वीस गुणो का परिचय इस प्रकार दिया है : अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, (भगवान के उपदेश) गुरु, स्थविर, (वृद्धमुनि) वहुसूत्री पण्डित, तपस्वी. इन सातो का गुणानुवाद करने से, वार-बार मनोवृत्तियो को ज्ञानोन्मुखी बनाने से, निर्मल सम्यक्त्व पञ्चकल्याणक ]
SR No.010168
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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