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कोटि वर्प नामक नगर में पहुंचा और वहा के किरात गजा को उसने अनेक बहुमूल्य रत्न भेट किए। किरातराज रत्नो को देखकर अत्यन्त हपित हुअा और बोला-' ऐसे रत्न कहा उत्पन्न होते है ?"
जिनदेव ने अपने देश भारत का नाम लिया तो किरात राज भारत मे आने को प्रस्तुत हो गया। जिनदेव साकेत नग में प्राजा लेकर किरातराज को साकेत ले आया। सौभाग्य से किरातराज जिनदेव के साथ भगवान के समवसरण मे भी आ पहुचा और भगवान से जानदर्शन और चारित्र रूप महारत्नों का परिचय प्राप्त कर कृत-कृत्य हो गया और उसने भी भगवान से दीक्षा ग्रहण कर रत्न-त्रय की सम्यक आराधना प्रारम्भ कर दी।
यहा से प्रभु महावीर काम्पिल्य होते हुए मथुरा आए और शौर्यपुर नन्दीपुर आदि की स्पर्गना करते हुए मिथिला पाए। वर्षावास का सौभाग्य मिथिला को ही प्राप्त हुआ। तीर्थकर जीवन : सैतीसवां चातुर्मास
वर्षावास की पूर्णता पर भगवान की विहार-यात्रा प्रारम्भ हो गई और वे साधु-मण्डल के साथ राजगृह के गुणगील चैत्य नामक उद्यान में पधारे । यहा अनेक वर्मावलस्त्रियो ने भगवान से वोव प्राप्त किया । इसी वर्ष अनगार कालोदायी ने पष्ठ भक्त अप्ठम भक्त आदि नपस्याएं करके निर्वाण प्राप्त किया । गणवर प्रभास भी एक मास का अनगन करके निर्वाण-प्राप्ति मे सफल हए । अनेक माधुयो ने विपुलाचल पर अनगनपूर्वक देह त्याग कर मोक्ष प्राप्त किया। वर्षावास के लिये भी राजगृह मे ही महावीर ठहरे रहे। तीर्थकर जीवन : अठतीसवां चातुर्मास
वर्षावास की समाप्ति पर भी भगवान मगध मे ही विचरण करते रहे और वर्षाकाल मे राजगृह मे लौट आए।
यहां पर गौतम स्वामी ने भगवान से क्रियाकाल, निष्ठाकाल, परमाणु-सयोग, भाषा-जान, क्रिया की दुखात्मकता दुख की अकृत्रिमता आदि विषयो का गम्भीर नान प्राप्त किया।
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[वल-ज्ञान-कल्यणाक