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निर्वाण-कल्याणक
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निर्वाण-भूमि की ओर बढ़ते चरण
तीर्थकर भगवान महावीर ने विभिन्न जनपदो मे विचरण करते हुए अपने तीर्थ दूर जीवन का अन्तिम चातुर्मास (४२वा वर्षावास) करने के लिये मध्यमा पावापुरी के राजा हस्तिपाल की पुरानी रज्जुकसभा अर्थात् लेखपाल-शाला मे पधारे। यह वही नगरी थी जहा पर भगवान महावीर द्वारा धर्मसंघ (तीर्थ) की स्थापना हुई थी, जहा उनके पास ११ गणधर अपने शिष्यो सहित दीक्षित हुए थे। हस्तिपल राजा तो तीर्थ-स्थापना के समय से ही भगवान महावीर के प्रति भक्तिविभोर हो चुका था, अत. उसने अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति के साथ अपनी लेखपालशाला मे तीर्थकर भगवान महावीर को वर्षावास के लिये स्थान दिया। लेखपालो का यह कार्यालय बहुत विशाल था । निर्वाण से पूर्व की स्थिति
एक-एक करके वर्षाकाल के तीन महीने भी व्यतीत हो चुके थे और चौथा महीना लगभग आधा बीतने को आया था। कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी का प्रात काल का समय था। पाक्षिक दिन होने के कारण प्रात:काल ही भगवान महावीर के अनन्य श्रमणोपासक, काशी-कोशल के मल्ल वीगण के ह एवं लिच्छवीगण के ६, कुल अठारह राजा' पौपध करने लिये आ पहुचे थे। मालूम होता है कि उस समय भगवान के दर्शनार्थ और भी श्रद्धालु जन-समूह उपस्थित होगा। इन राजाप्रो के १. रज्जुगा-लेहगा तेसि सभा रज्जुयसमा, अपरिभुज्जमाणा करणमाला ।
कल्पसून चूणि १२२ २ कल्पसूत्र चूणि १२७ पञ्च-कल्याणक
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