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पुन: दोहराया। फलत भगवान ने उसे साथ रहने की स्वीकृति प्रदान करदी।
कोल्लागसन्निवेश से विहार कर देने पर भगवान स्वर्णखल पधारे । मार्ग मे कुछ ग्वाले खीर बना रहे थे। खीर को देखते ही गोशालक के मुंह में पानी आगया। उसने कहा - "खीर खाकर चलेगे।"
भगवान तो मौन रहे, पर सिद्धार्थ देव ने कह दिया .- "खीर खा नही सकेगे, हण्डिया टूट जाने की स्थिति बन रही है।"
भगवान आगे बढे, पर गोशालक खीर खाने के लिये वही पर ठहर गए। कुछ ही क्षणो के वाद खीरवाली हण्डिया टूट गई, अत. गोशालक निराश होकर म्लान-मुख लिये भगवान के पास आ गया, इस घटना से उसे इस बात का भी दृढ विश्वास हो गया कि नियति अर्थात् होनहार टलती नही अत: नियतिवाद सर्वथा-यथार्थ है । तीसरा चातुर्मास :
स्वर्णखल से विहार करते हुए भगवान ब्राह्मणगाव पधारे, यहा भगवान ने भोजन किया। तदनन्तर प्रभु चम्पापुरी आ गए। तीसरा चातुर्मास यही पर व्यतीत किया, चातुर्मास मे दो-दो महीने की तपस्या की। चातुर्मास की पूर्णता पर प्रभु 'कालयसन्निवेश' पधारे । यहा गोशालक को अपनी अनियन्त्रित प्रकृति के कारण जनता से प्रताडित और अपमानित होना पडा। गोगालक स्वच्छन्द और उद्दण्ड स्वभाव के थे, जहा कही भी जाते, कोई न कोई अझट खडा कर लेने के कारण लोगो से फटकार प्राप्त कर लेते थे। चौथा चातुर्मास :
भगवान महावीर ने चतुर्थ चातुर्मास 'पृष्ठ चम्पा' नामक नगरी मे सम्पन्न किया। इस चातुर्मास मे प्रभु ने चार मास का लम्बा तप किया। चातुर्मास की पूर्णता पर तप का पारणा किया और विहार करने पर प्रभु एक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर खडे हो गए। वहा अन्य १ "गोसालस्स मखलिपुत्तस्स एयमट्ठ पडिसुणेमि"
-भगवती० शतक १५/१ पञ्चकल्याणक]
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