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राजा सिद्धार्थ और महा रानी त्रिशला ने निश्चय किया कि इस जीव के गर्भ मे आने से धन-धान्य की वृद्धि हुई है और यश तथा प्रभाव" मे समृद्धि हुई है, अतः जन्म के पश्चात् इस बालक का नाम 'वर्धमान' ही रखा जायेगा ।
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मनोविज्ञानवादियो ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि शुभ भावनाम्रो से भर कर आप यदि कही भी जाते है तो वहा का वातावरण श्रानन्दमय और मगलप्रद हो जाता है । सकल्प और भावो मे महान शक्ति है । शुभ परिणामो ग्रौर गुभ मकल्पो से दूर बैठकर भी हम अपने इष्ट मित्रो का महान हित कर सकते है और बुरे सकल्पो से दूर बैठे ही किसी का अनिष्ट किया जा सकता है । जबकि साधारण प्राणियो के शुभाशुभ सकल्पो मे हिताहित हो सकता है तो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि महाशक्तियो के धारक प्रभु महावीर के माता की कुक्षि मे आने से वातावरण ग्रानन्दिन तथा सुखमय वन गया हो तो इसमे विस्मय की कोई बात नही है ।
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इस प्रकार के जीव प्रति दयालु और अनुकम्पा से युक्त होते है | उनका हृदय दूसरो के दुखो को देखकर द्रवित हो उठता है । परदुखकातरता उनकी जीवन-वाटिका का मधुर फल है । वे नवनीत के समान कोमल हृदयवाले होते हैं । भगवान महावीर अत्यन्त दयालु और अनुकम्पा से युक्त थे । माता के गर्भ मे उन्होने अवधि ज्ञान से देखा कि मेरी हिलने-डुलने की क्रियाओ से माता को कुछ पीडा होती है, अत उन्होने अनुकम्पा एव मातृ-भक्ति से अपने को योगी की तरह स्थिर कर लिया । मातृ-भक्ति और मातृ-प्रेम का इस से बढकर उज्ज्वल उदाहरण और कौन सा हो सकता है ?
परन्तु इस घटना से माता त्रिशला को गर्भ की निष्प्राणता का भ्रम पैदा हो गया श्रौर वह शोक-सागर मे डूब गई । मानो उसके हाथ मे आया हुआ रत्न किसी ने छीन लिया हो ।
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माता को दुखी देखकर गर्भस्थ महावीर ने विचार किया कि मोह की गति बडी विचित्र है । मैने अपनी माता के सुख के लिये अग - सचालन बन्द किया था, परन्तु मेरी यह क्रिया माता के लिये कष्ट-कारक सिद्ध
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पञ्चकल्याणक ]
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