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चलता है कि भगवान आदि नाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तक जो २३ तीर्थंकर हुए हैं, इन समस्त तीर्थङ्करो की अपेक्षा चोबीसवे तीर्थङ्कर महावीर का कर्म-भार बहुत ही प्रवल और अधिक था । यही कारण है कि अकेले भगवान महावीर को साधना काल मे जितने कप्टो, सकटो और उपसर्गो का भोग करना पड़ा उतने कष्टो सकटो और उपसर्गों का उपभोग २३ तीर्थकरों ने नही किया ।
भगवान महावीर के साधनाकाल मे एक ओर यदि सकट अपनी भयकरता की चरमसीमा पार करते दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर भगवान महावीर की सहनशीलता भी अपनी उत्कृष्टता की पराकाष्ठा पर पहुची हुई दृष्टिगोचर होती है । मध्यपावा नगरी के बाहिर ग्वाले ने भगवान महावीर के कानो मे कीलिया ठोक कर जो कष्ट दिया था, यह भगवान के साधक - जीवन का अन्तिम उपसर्ग माना जाता है । आश्चर्य इस बात का है कि साधना काल मे सबसे पहला उपसर्गभ ग्वाले के हाथो से हुआ था और अन्तिम उपसर्ग भी ग्वाले के द्वारा ही दिया गया था ।
साधनाकाल की तपस्या
भगवान महावीर का साधनाकाल कुछ अधिक साढ़े बारह वर्ष का था, कल्पसूत्रकार भगवान का साधनाकाल कुछ अधिक बारह वर्ष मानते हैं, इतने लम्बे काल मे प्रभु ने केवल तीन सौ उनचास दिन ही आहार ग्रहण किया । गेष सब दिन तप. - सावना मे ही व्यतीत किए। इस तपस्या मे जल का उपयोग भी नही किया गया था । निर्जल तपस्या के पारणे भी नीरस आहार से किये जाते थे । तपस्या तो सभी तीर्थङ्कर करते रहे हैं, परन्तु जो कठोर उपसर्ग-सहित तप साधना भगवान महावीर ने की है, वह किसी अन्य तीर्थङ्कर ने नही की । इसीलिये यह विना किसी झिझक के कहा जा सकता है कि भगवान महावीर की तपस्या प्रतीत के अन्य तीर्थङ्करो से उत्कष्ट थी । साधनाकाल मे भगवान महावीर ने जो उपवास - तपस्या की उसकी तालिका इस प्रकार है :
एक छमासी तप, एक पाच दिन कम छमासी तप, नौ-चातुर्मासिक पञ्च-कल्याणक ]
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