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कालकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित
आदिनाथ चरित्र
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अनुवादक पूज्यपाद प्रतापमुनिजी महाराज
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प्रकाशक वृहद् (बड़) गच्छोय श्रीपूज्य जैनाचार्य श्री चन्द्रसिंह
सूरीश्वर चरणोपासक शिष्य पण्डित काशीनाथ जैन नं० २०१ हरिसन रोड,
कलकत्ता ।
थमवार २५०० ] १९२४ [मूल्य सजि०५) अजिनमें h=___
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कलकत्ता ६०१ हरिसन रोड के "नरसिंह प्रेस" में पण्डित काशीनाथ जैन,
द्वारा मुद्रित ।
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प्राग्वचन
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न ग्रन्थों में जो ज्ञानका अक्षय भण्डार भरा पड़ा है, उसके चार विभाग किये गये हैं--द्रव्यानुयोग, कथानुयोग, गणितानुयोग और चरणकरणानुयोग । द्रव्यानुयोग फिलासफ़ी अर्थात् दर्शनको कहते हैं। इससे वस्तुओंके स्त्ररूपका ज्ञान प्राप्त होता है। जीव-सम्बन्धी विचार, षद्रव्य सम्बन्धी विचार, कर्म-सम्बन्धी विचार - सारांश यह, कि सभी वस्तुओं की उत्पत्ति, स्थिति और नाशका तास्विक बोध इसमें भरा हुआ है । यह अनुयोग बड़ा ही कठिन है और बड़े-बड़े आचार्योंने इसे सरल करने की भी बड़ी चेष्टा की है। इस अनुयोग में अतीन्द्रिय विषयोंका भी समावेश हो जाता है, इसलिये इसके रहस्य समझने में कठिनाई का होना स्वभाविक ही है । इसके बाद ही कथानुयोगका नम्बर आता है। इस ज्ञाननिधि में महात्मा पुरुषोंके जीवनचरित्र और उनके द्वारा प्राप्त होनेवाली शिक्षाएँ भरी हैं। तीसरे अनुयोग में गणितका विषय है। इसमें गणित और ज्योतिष के सारे विषय भरे है। चौथे अनुयोग में चरण- सत्तरी और करण सत्तरीका वर्णन और तत्सम्बन्धी
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( २ )
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विधियां दी हुई हैं। इन चारों अनुयोगों पर बहुत से सूत्रों और ग्रन्थोंकी रचना हुई है । इनमें से बहुतेरे तो नष्ट हो चुके हैं तो भी अभीतक बहुत से जैन ग्रन्थ मौजूद हैं, जिनमें किसीमें तो एक और किसी-किसीमें एकसे अधिक अनुयोगोंका विवेचन किया गया है ।
वर्त्तमान ग्रन्थ चरितानुयोगका है। इस तरह के ग्रन्थोंसे साधारण व्यक्तियों से लेकर विद्वान् तक एक समान लाभ उठा सकते हैं । सब मनुष्योंका बुद्धिबल एकसां काम नहीं कर सकता । ख़ास करके द्रव्यानुयोगके गहन विषयोंको तो सर्वसाधारण भली भाँति समझ भी नहीं पाते इसके विपरीत कथा-कहानियों में सबका जी लगता है । बड़े-बड़े पण्डितों से लेकर गवई - गाँव के रहनेवाले अनपढ़ किसान तक कथा-कहानी कहते, सुनते और पढ़ते हैं । प्रायः देखा जाता है, कि कोई धार्मिक या राजनीतिक व्याख्यान सुनकर घर लौटने पर उसकी कुल बातें मुश्किलसे ही याद रहती हैं; लेकिन कहीं से कोई कथा सुनकर आओ, तो रातको दस-पाँच आदमियों को तुम स्वयं उसकी आवृत्ति करके सुना सकते हो। मनुष्य-स्वभावका परिचय रखनेवाले शास्त्रकार्रोने यही देखकर इससे लाभ उठानेका तरीका निकाला और कथाके छलसे धर्म, ज्ञान, व्यवहार, नीति, चारित्र सम्बन्धी जीवनको उत्तम बनानेवाले नियमोंको मनुष्य समाज में प्रचारित करना आरम्भ किया। बड़े-बड़े महात्माओं और महापुरुषोंने किस ढंग से जीवन व्यतीत कर संसार में सब तरह के सुख पाये, किन किन
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गुणोंका अवलम्बन करनेसे उनका जीवन आदश बन गया, यही सब बातें बतलाकर मनुष्यके चरित्रकी उन्नति करनेका प्रयास किया गया। इसी चेष्टाके परिणाम स्वरूप कथा-शास्त्र और इतिहासोंको सृष्टि हुई। इन शास्त्रीय कथाओं में सभी तरहके गहन विषयोंको सरलताके साथ सर्वसाधारणमें प्रचलित करनेकी चेष्टा की गयी। संस्कृत-साहित्यमें ऐसे अनेक गद्य-पद्यमय ग्रन्थ हैं। प्राकृतमें भी बहुतसे ऐसे ग्रन्थ बने। इस कथानुयोग द्वारा मनुष्यसमाजका बड़ा उपकार हुआ है और आगे भी होता रहेगा। - कलिकाल-सवेश श्री हेमचन्द्राचार्य जैन-धर्मके एक बड़े भारी आचार्य हो गये हैं । उन्होंने ही कुमारपाल राजाको धर्मोपदेश देकर जैनी बनाया था और समस्त देशमें जैन-धर्मकी विजयपताका फह. रायोथी। उनके नामसे जैन-धर्मावलम्बी-मात्र भली भाँति परिचित है। इन्हीं आचार्य महोदयने राजा कुमारपालके अनुरोधसे 'त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र' नामका एक बड़ा ही उत्तम ग्रन्थ, लोककल्याणके निमित्त, लिख डाला। जिस प्रन्थके रचयिता कलिकाल सर्वशकी पदवी धारण करनेवाले श्री हेमचन्द्राचार्य हों
और जो राजा कुमारपाल जैसे श्रेष्ठ आहेत राजाके बोधके निमित्त लिखा गया हो, उसकी उत्तमता, काव्य-चमत्कार और विषयको उपयोगिताके सम्बन्धमें भला किसे सन्देह हो सकता है ?
आचार्य हेमचन्द्रने इस प्रन्थमें इतने चरित्रोंका इस खुबीसे समावेश किया है, उनके लिखनेका ढंग ऐसा रोचक और प्रभावोत्पादक है, कि पाठकों और श्रोताओंको उनकी बद्धिकी विशा
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भर दिया है। भिन्न
लता, वर्णनकी शक्ति और प्रतिभाकी अलौकिकता देखकर आश्चर्य में डूब जाना पड़ता है। आचार्यने इस ग्रन्थको दल भागों में बाँटा है। प्रत्येक भाग पर्व कहलाता है । इन पर्वो में आचार्य ने जैन - सिद्धान्त के सारे रहस्योंको कूट-कूटकर भिन्न प्रभुओंकी देशनामें नयका स्वरूप, क्षेत्र- समास, जीवविचार, कर्मस्वरूप, आत्माके अस्तित्व, बारह भावना, संसारसे वैराग्य, जीवनकी चञ्चलता और बोध तथा ज्ञान के सभी छोटेबड़े विषयोंका इस सरलता और मनोरञ्जकताके साथ इसमें समावेश किया गया है, कि कथानुयोगकी महत्ता और प्रभावोत्पादकता स्पष्टही विदित हो जाती है । इन सब बातों को पढ़सुनकर पाठकों और श्रोताओंके मनपर स्थायी प्रभाव पड़ता है और उनकी कर्त्तव्य-बुद्धि जागृत हो जाती है। इस ग्रन्थकी बड़ेबड़े पाश्चात्य विद्वानोंने भो प्रशंसा की है। यह संवत् १२२० में अर्थात् आजसे प्राय; आठसौ वर्ष पहले लिखा गया था ।
वर्तमान ग्रन्थ उसी 'त्रिषष्टि- शलाका पुरुष- चरित्र' नामक महाकाव्य के प्रथम पर्वका अनुवाद है। इसमें ६ सर्ग हैं। पहले सर्ग में श्री ऋषभदेव के प्रथमके १२ भावोंका वर्णन है, जिसमें धर्मघोष सूरिकी देशना ख़ास करके देखने लायक है । महाबल राजाकी सभा में मंत्रियों का धार्मिक संवाद भी ख़ूब गौरके साथ पढ़ने की चीज़ है । अन्तमें मुनियोंकी उपार्जित लब्धियों तथा २० स्थानकों का वर्णन भी पाठ करने योग्य है ।
दूसरे सर्ग में कुलधारोत्पत्ति और श्री ऋषभदेव भगवान्के
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जन्म से लेकर दीक्षा लेनेकी इच्छा उत्पन्न होनेतक को कथा लिखी है । प्रारम्भमें कुलकर विमलवाहनके पूर्वभवकी - सागरचन्द्रकी - कथा पढ़ने योग्य है। इसमें दुष्टोंको दुष्टता और सतीके सतीत्व और दृढ़ताका अच्छा चित्र अङ्कित किया गया है। देवदेवियोंके द्वारा किये हुए प्रभुके जन्मोत्सव और प्रभु तथा सुनन्दाके रूपका वर्णन बड़े विस्तार के साथ किया गया है। देवताओंने भगवान्के विवाहका जो महोत्सव किया था, उसका और वसन्त ऋतुका जो ख़ासा वर्णन इसमें किया गया है, वह afas गौरवका सच्चा चित्र है ।
तीसरे सर्गमें प्रभुके दीक्षा महोत्सव, केवल-ज्ञान और देशनाका समावेश किया गया है। चौथेमें भरतचक्रीके दिग्वजयका वर्णन है। यह कथा बड़ी ही मनोरञ्जक है । पाँचवें सर्गमें बाहु बलिके साथ विग्रहकी कथा है। इसी प्रसङ्गमें सुवेगका दौत्य भी दर्शनीय हैं। उस ज़मानेके युद्धोंका इसमें ख़ासा चित्र अङ्कित किया गया है। छठे सर्ग में भगवान्के केवली हो जाने पर विहार करनेका वर्णन है । भगवान् तथा भरतचक्रीके निर्वाण तककी कथा इसमें लिखी गयी है। इसमें अष्टापद और शत्रुञ्जय तथा अष्टापदके ऊपर भरतचक्रीके बनाये हुए सिंह- निषद्या : -प्रसादका वर्णन ख़ास कर पढ़ने योग्य है ।
प्रत्येक सर्गमें जहाँ जहाँ इन्द्र तथा भरतचक्री आदिने प्रभुकी स्तुति की है, वह ध्यान देकर पढ़ने योग्य है; क्योंकि उसमें बहुत सी बातें बतलायी गयी हैं
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आज हम पाठकोंके सामने इस महोपकारी ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद उपस्थित करते हुए आशा करते हैं, कि हमारा यह उद्योग उनकी सहायता, - उदारता और कृपाका भाजन हो सकेगा । अबतक हिन्दी भाषा में इस ग्रन्थका कोई अनुवाद नहीं था, इसलिये लोग बड़े ही लालायित थे । इस कार्य में हमें बहुत सा श्रम और व्यय उठाना पड़ा है। आशा है, कि इस ग्रन्थ को अपनाकर हमें इसके अन्यान्य पर्वो को प्रकाशित करनेके लिये उत्साहित करेंगे ।
इस पुस्तक में दृष्टि दोष से अनेक अशुद्धियों एवम् दोषोंका रह जाना संभव है, अतएव मैं आप लोगों से इसके लिये क्षमायाचना पूर्वक इसकी त्रुटियोंको सुधार कर पढ़ने के लिये प्रार्थना करता हूँ ।
शेष में हम अपनी परम माननीया साद्वी शिरोमणि सोहनश्रीजी तथा विदुषी विनयश्रीजी के पूर्ण उपकृत हैं, जिन्होंने इस पुस्तक के निमित्त पहले से ग्राहक बनाने की कृपा की है । अस्तु ।
सा० २५ जनवरी १९२४ "नरसिंह प्रेस"
२०१ हरियम रोड,
कलकत्ता ।
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बाबू लक्ष्मीचन्द जी करणावटकी पवित्र स्मृति में सादर समर्पित है ।
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स्वर्गीय बाबू लक्ष्मीचन्दजी करणावट हनुमानसिंहजी लक्ष्मीचंदजी की फार्म के अध्यक्ष
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परलोक गत श्रीमान् बाबू लक्ष्मीचन्द्रजी करणावट के वृहद् पुत्र बाबू छन्नुलालजी करणावट के पुत्ररत्न बाबू रिखबदासजी
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RECORDS प्रादिनाथ चरित्र
सकलाईतप्रतिष्ठानमधिष्ठानं शिव श्रियः। भूर्भुवः स्वस्त्रयांशानमार्हन्त्यं प्रणिदध्महे ॥१॥
सारे तीर्थङ्करोंकी प्रतिष्ठा-महिमाके कारण, मोक्षके आधार, स्वर्ग, मर्त्य और पाताल-इन तीनों लोकों के स्वामी “अरिहन्तपद का हम ध्यान करते हैं। ___खुलासा-जो "अरिहन्त-पद" समस्त तीर्थङ्करों की प्रतिष्ठा का कारण है, जो अरिहन्त मोक्ष या परमपद का आश्रय है, जो स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताल लोक-इन तीनों लोकों का स्वामी है, हम उसी अरिहन्त-पद का ध्यान करते हैं ; अर्थात हम अनन्त ज्ञानादिक अन्दरूनी विभूति और समवसरण आदि बाहरी विभूति का ध्यान करते हैं।
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व
नामाकृतिद्रव्यभावैः, पुनतस्त्रिजगज्जनम् । क्षेत्रे काले च सर्व्वस्मिन्नहतः समुपास्महे ॥२॥
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समस्त लोकों और सब कालों में, अपने नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव – इन चार निक्षेपों के द्वारा, संसार के प्राणियों को पवित्र करने वाले तीर्थङ्करों की उपासना हम अच्छी तरह से करते हैं ।
खुलासा - तीर्थङ्कर क्या करते हैं ? तीर्थङ्कर जगतके प्राणियोंको पापमुक्त या पवित्र करते हैं । हाँ, तीनों लोक और तीनों कालों में तीर्थङ्कर प्राणियों को पवित्र करते हैं, उनको पापों-दुःखों से छुड़ाते हैं । तीर्थङ्कर किसके द्वारा प्राणियों को पवित्र करते हैं ? अपने नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों + द्वारा । ऐसे संसार को पवित्र करनेवाले तीथङ्करों की उपासना या अराधना सभी लोगों को करनी चाहिए । ग्रन्थकार महाशय कहते हैं, जो
+ नाम = नाम अरिहन्त = किसी व्यक्ति की अरिहन्त संज्ञा । स्थापना = स्थापना अरिहन्त = अरिहन्त का चित्र या मूर्त्ति । द्रव्य = द्रव्य अरिहन्त = जो रिहन्त पद पा चुका या पानेवाला है। भाव =भाव अरिहन्त = जो वर्त्तमान
रिहन्त पद का अनुभव कर रहा हैं । नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव - ये शब्द के विभाग हैं। इन विभागों को ही "निक्षेप" कहते हैं ।
इन चारों निक्षेपों द्वारा तीर्थङ्कर प्राणियोंको पवित्र करते हैं। दूसरे शब्दों में हम यों भी कह सकते हैं कि, हम जगत के प्राणी अरिहन्तों के नाम, अरिहन्त की मूर्तियों या तस्वीरों, अरिहन्त पद पा चुकने वाले या पाने ही वाले और वर्त्तमान समय में अरिहन्त पदका अनुभव करनेवालों द्वारा पवित्र होते हैं ।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र तीर्थङ्कर जगत के प्राणियों को पवित्र करते हैं, हम सुन्दर विधि से उन्हीं की उपासना करते हैं।
आदिमं पृथिवीनाथमादिमं निष्प्ररिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः॥३॥
जो इस अवसर्पिणी कालमें पहला ही राजा, पहला ही त्यागी मुनि और पहला ही तीर्थङ्कर हुआ है, उस ऋषभदेव स्वामी की हम स्तुति करते हैं।
खुलासा-इस महीका पहला महीपति कौन हुआ ? ऋषभदेव स्वामी ! इस पृथ्वी पर पहला त्यागी कौन हुआ ? ऋषभदेव स्वामी ! पहला तीर्थ नाथ या तीर्थङ्कर कौन हुआ ? ऋषभदेव स्वामी ! ग्रन्थकर्ता-प्राचार्य कहते हैं-इस संसार के पहले राजा, पहले त्यागी और पहले तीर्थङ्कर ऋषभदेवजी हुए हैं। हम उन्हीं सब से पहले नरेश, सब से पहले त्यागी और सब से पहले तीर्थङ्कर की स्तुति करते हैं।
अर्हन्तमजितं विश्व कमलाकर भास्करम् ।
अम्लान केवलादर्श सक्रान्त जगतं स्तुवे ॥४॥ - जिस तरह सूर्य से कमल-वन आनन्दित होता है, उसी तरह जिस से यह सारा जगत् आनन्दित या प्रफुल्लित है, जिसके केवल ज्ञान रूपी निर्मल दर्पण में सारे लोकों का प्रतिबिम्ब पड़ता है, उस अजितनाथं प्रभु की हम स्तुति करते हैं।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
___ खुलासा-जिस अजितनाथ स्वामी से संसार उसी तरह सुखी होता है, जिस तरह कमल-वन सूर्य से सुखी या प्रफुल्लित होता है, जिस के ज्ञानरूपी आईने में सारे लोकों-सारी दुनियाओंका प्रतिबिम्ब-अक्स पड़ता है, हम उसी अजित अर्हन्त-अजित नाथ स्वामी की स्तुति करते हैं। विश्वभव्यजनारामकुल्यातुल्या जयन्ति ताः । देशना समये वाचः श्रीसंभवजगत्पतेः ॥५॥
जिस तरह नाली का पानी बागीचे के वृक्षों की तृप्ति करता है ; उसी तरह श्री संभवनाथ स्वामी के उपदेश-समय के वचन समस्त जगत् के प्राणियों की तृप्ति करते हैं। भगवान् के ऐसे वचनों की सर्वत्र जय जयकार हो रही है।
खुलासा-जिस तरह नाली के जल से बागीचे के वृक्ष और लतापतादि तृप्त होकर प्रफुल्लित हो जाते हैं; उसी तरह श्री संभवनाथजी महाराज के उपदेश देनेके समयके बचनों को सुनकर, संसार के प्राणी, तृप्त होकर, प्रफुल्लित हो जाते हैं । जिस तरह नाली के जलसे वृक्ष खिल उठते हैं, उनमें चमक-दमक अाजाती है, उसी तरह श्री संभवनाथजीके उपदेशामृतको पान करके संसारी प्राणियों के मुरझाये हुए कुन्द दिल खिल उठते हैं, उन के चेहरों पर रौनक
आजाती है। उन का भय भग जाता है, चिन्ता दूर हो जाती है। और पाप या दुःख नौ दो ग्यारह होते हैं। स्वामी संभवनाथजीके तृप्तिकारक और शान्तिदायक अमृत समान वचनों की सर्वत्र जय हो रही है । संसारी या भव्य प्राणी उनको बड़ी श्रद्धा भक्तिसे सुनते और उनपर अमल करते हैं।
अनेकान्तमताम्भोधि समुल्लासनचन्द्रमाः। दद्यादमन्दमानन्दं भगवानभिनन्दनः ॥६॥
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र जिस तरह चन्द्रमा को देखकर समुद्र बढ़ता है ; उसी तरह जिस से स्याद्वाद मत बढ़ा, वह अभिनन्दन भगवान सब को पूर्ण तया सुखी और आनन्दित करें!
खुलासा-चन्द्रमा की तरह ® स्याद्वाद मत रूपी समन्दर को उल्लसित करने वाले अभिनन्दन भगवान् सब लोगों को पूर्ण रूप से सुखी करें। द्युसकिरीटशाणग्रोत्ते जितांघ्रिनखावलिः । भगवान् सुमतिःस्वामी तनोत्वभिमतानिव ॥७॥
जिन के चरणों के नाखून, वन्दना करने वाले देवताओं के मुकटों की नौकों से घिस-घिस कर, सान से घिसकर साफ हो जाने वाले शस्त्र की तरह, साफ होगये हैं, वह सुमतिनाथ भगवान् तुम्हारे मनोरथों को पूर्ण करें। - खुलासा-जिन भगवान् सुमतिनाथ के चरण-कमलोंमें देवता लोग अपने मस्तक रगड़ते या नवाते हैं, वे भगवान् तुम्हारी अभिलाषाओंको पूरी करेंतुम जो चाहते हो, वहीं तुम्हें दें। ____ यों भी कह सकते हैं, भगवान् सुमतिनाथ महामहिमान्वित हैं। देवता तक उन के चरण-कमलों में मस्तक झुकाते हैं। इस से प्रतीत होता है, वे
® समुद्र का स्वभाव है कि, वह चन्द्रमा को दे खकर उल्लसित या खुश होता है। खुश होकर, वह उस के पास जाना चाहता है । देखते हैं, पूर्णा मासी के दिन, जब चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं से उदय होता है, तब, समुद्र उमगता है, उस की लहरें इतनी ऊँची उठती हैं कि, चन्द्रमा को छ लेना चाहती हैं।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व देवताओं के भी स्वामी हैं। और सबको छोड़कर, केवल उन्हींके चरणोंमें मस्तक झुकाओ, उन्हींकी वन्दना, अाराधना और उपासना करो। वे देव देवेश तुम्हारी अभिलाषाओं को पूर्ण करेंगे। पद्मप्रभप्रभोदहभासः पुष्णन्तु वः शिवम् । अन्तरंगारिमथन कोपाटोपादिवारुणाः ॥८॥
शरीर के अन्दर रहनेवाले शत्रुओं को दूर भगाने के लिए, भगवान् पद्मप्रभ स्वामी ने इतना कोप किया कि, उनके शरीर की कान्ति लाल हो गई। भगवान् की वही कान्ति तुम्हारी सम्पत्ति की वृद्धि करे।
खुलासा-बाहर के शत्रुओं की अपेक्षा भीतर के शत्रुओं को अपने वश में करना, और उन्हें पराजित करके बाहर निकाल देना परमावश्यक है। बाहरी शत्रुओं से हमारी उतनी हानि नहीं है, जितनी कि काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि भीतरी शत्रुओं से है। ये शत्रु प्राणी के इहलोक के सुख और माक्ष-पद लाभ करने में पूर्ण रूप से बाधक हैं। इनके शरीर में रहने से प्राणी का हर तरह अनिष्ट साधन ही होता है। उसे सिद्धि किसी हालत में भी नहीं मिल सकती। इसी से सिद्धि चाहनेवाले को इन्हें शरीर से निकाल देना चाहिये। ग्रन्थकार कहता है, इन भीतरी शत्रुओं के शरीर रूपी किले से बाहर निकाल देने के लिए भगवान् ने इतना क्रोध किया, कि क्रोध के मारे उनके शरीर का रंग लाल होगया। भगवान् की वही लाल रंग की कान्ति तुम्हारी सम्पत्ति को बढ़ावे !
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
श्रीसुपार्श्वजिनन्द्राय महेन्द्रमहितांघ्रये । नमश्चतुर्वर्णसंघ गगनाभोगभावते ॥६॥
जिस तरह सूर्य से आकाश शोभायमान होता है; उसी तरह जिन भगवान् सुपार्श्व नाथ से साधु-साध्वी एवं श्रावक और श्राविका रूपी चार प्रकार का संघ शोभायमान होता है, जिनके चरणों की बड़े-बड़े इन्द्रों या महेन्द्रों ने पूजा की हैं, उन्हीं भगवान् श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र को हमारा नमस्कार है ।
खुलासा - जिस तरह सूर्य आकाश में शोभित होता है; उसी तरह भगवान् सुपार्श्वनाथ साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविकाओं के संघ रूपी आकाश में शोभित होते हैं। जिस तरह सूर्य्य आकाश में रौशनी फैला देता और वहाँ अन्धकार हर लेता है; उसी तरह भगवान् पार्श्वनाथ साधु-स्वाधी और श्रावक-श्राविकाओं के अन्धकार - पूर्ण हृदयों में रोशनी करते और उनके ज्ञान अन्धकार को हरा कर लेते हैं, बड़े बड़े इन्द्र उन की चरण वंदना करते हैं । ऐसे भगवान् श्री सुपार्श्वनाथ जी को हमारा नमस्कार है ।
चन्द्रप्रभप्रभोश्चन्द्रमरीचिनिच योज्ज्वला । मूर्तिर्मूर्त्तसितध्यान निर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥ १० ॥
भगवान् चन्द्रप्रभ स्वामीकी देह चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल या निर्मल है। इसलिये, ऐसा मालूम होता है, मानों वह * साधु = संसार त्यागी पुरुष । साध्वी = ससारत्यागनेवाली स्त्री । श्रावक = उपदेश सुननेवाला । श्राविका = उपदेश सुननेवाली ।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पव
मूर्तिमान शुक्लध्यान से बनी है। भगवान् की स्वभावसे ही सुन्दर देह तुम सब का कल्याण करे! करामलकवद्विश्वं, कलयन् केवलश्रिया। अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः,सुविधिबाँधयेऽस्तुवः॥१२॥
जो अपने केवल ज्ञान से, समस्त संसार को, हाथ में रक्खे हुए आँवलेकी तरह, साफ देखनेवाले हैं, जो* अचिन्तनीय माहात्म्य या प्रभाव के ख़ज़ाने हैं, वे सुविधिनाथ भगवान् तुम्हारे-सम्यक्त्व पाने में सहायक हों! ___ खुलासा-जिन सुविधिनाथ भगवान् को सारा भूमण्डल, उन के केवलज्ञान के बल से, हाथ में रखे हुए आँवले + की तरह, हरतरफ से साफ दिखाई देता है, और जो अचिन्तनीय प्रभाव के भण्डार हैं, वेही सुविधिनाथ भगवान्
आप लोगों के सम्यकृत्व-पूर्णता-सत्य के प्राप्त करने में सहायक हों; अर्थात उनकी कृपा या सहायता से आप लोगों को सत्य की प्राप्ति होजाय ।
___® अचिन्तनीय माहात्म्य = ख़याल में भी न आने योग्य महिमा या शक्ति । ___ + जिस तरह मनुष्य को हाथ में रखे हुए भाँवले को हर पहल से देख सकना आसान है। उसी तरह भगवान् को सारे संसार को देख लेना भासान है। मनुष्य अपने चर्मचचूओं से हाथ के आँवले को स्पष्ट देख सकता है, भगवान् सुविधिनाथ अपने केवल ज्ञान से संसार को स्पष्ट देख सकते हैं। - अचिन्तनीय=जिसका खयाल भी न किया जासके, जिसको कल्पना भी न हो सके।
$ सम्यकस्व-सत्य, पूर्णता, पूर्ण ज्ञान ।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
सत्वानां परमानन्दकन्दाद्भेदनवाम्बुदः । स्याद्वादामृतनिष्यन्दी शीतलः पातुवोजिनः ॥१२॥
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जो प्राणियों के परमानन्द रूपी अङ्कुर को प्रकट करनेके लिए नवीन मेघ के समान हैं और जो स्याद्वाद रूपी अमृत की वर्षा करने वाले हैं, वेही भगवान् श्री शीतलनाथजी तुम्हारी रक्षा करें !
खुलासा- जिस तरह नवीन मेघके बरसनेसे अङ्कुर प्रकट होते हैं; उसी तरह भगवान् श्री शीतलनाथजी के उपदेशामृत की वर्षा करने से संसारी प्राणियों के हृदयों में परमानन्द या परम सुखका अङ्कुर प्रकट होता है । ग्रन्थकार कहता है, जिन भगवान् के उपदेशों से प्राणियों के हृदय में परमानन्द का उदय होता है, वे ही भगवान् आप लोगों को सब प्रकार के दुःख, क्लेश, कष्ट और आपदाओं से बचावें; कुपथ से हटा कर सुपथ पर लावें और पापताप के गहों में गिरने से रोकें ।
भवरोगार्त्तजन्तुनामगदंकारदशर्न: । निःश्रेयसश्रीरमणः श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः॥ १३॥
जिस तरह चिकित्सक या वैद्य का दर्शन रोगियों को आनन्द देने वाला है; उसी तरह संसार के दुःख और क्लेशों से दुखी प्राणियों को जिन भगवान् श्रेयांसनाथका दर्शन आनन्द देने वाला है, और जो मोक्ष-लक्ष्मी के स्वामी हैं, वे ही श्रेयांसनाथ स्वामी तुम्हारा कल्याण करें !
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आदिनाथ चरित्र
१०
प्रथम पर्व
खुलासा- जिस तरह वैद्य को देखते ही रोगी को आनन्द होता है, रोगशत्रु से पीछा छूट जाने की आशा से खुशी होती है; उसी तरह संसार रूपी रोग से पीड़ित प्राणियों को भगवान् श्रेयांसनाथ के दर्शनों से प्रसन्नता होती है, उनको पाप-ताप के भय और भयङ्कर चिन्ताग्नि से रिहाई मिलती है, उनके मुये हुए हृदय-कमल खिल उठते हैं; क्योंकि भगवान् मोक्षलक्ष्मी रमण या मोक्ष के स्वामी हैं । वे दुखिया प्राणियों का दुःख गर्त्त से उद्धार कर सकते हैं, उन्हें जन्म-मरण के घोर दुःखों से छुड़ा सकते हैं, उन्हें परम पद या मोक्ष दे सकते हैं । ग्रन्थकार कहता है, ऐसे ही परमानन्द के दाता और मोक्ष के स्वामी भगवान्, श्रेयांसनाथ, आप लोगों का कल्याण करे !
विश्वोपकार की भूततीर्थ कृत्कर्मनिर्मितिः । सुरासुरनरैः पूज्यो वासुपूज्यः पुनातु वः ॥ १४ ॥
जिन्होंने जगत् के उपकार करनेवाले तीर्थङ्कर नामम-कर्मको बाँधा है; जो सुर, असुर और मनुष्यों द्वारा पूजने योग्य हैं; वे वासुपूज्य भगवान् तुम्हें पवित्र करें !
विमलः स्वामिनो वाचः कतकक्षोदसोदराः । जयन्ति त्रिजगतो जलनैर्मल्य हेतवः ॥ १५॥
* मोक्ष = जन्म से रहित । जिस की मोक्ष हो जाती है, उसे फिर जन्म लेना नहीं पड़ता । जिस का जन्म नहीं होता, उस की मृत्यु भी नहीं हो सकती । जन्म-मरण से पीछा छूट जाने को ही मोक्ष होना कहते हैं ।
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प्रथम पव
प्रथम पव
११ ।। आदिनाथ-चरित्र जिस तरह निर्मली का चूर्ण जल में घोल देने से जल को निर्मल या साफ कर देता है ; उसी तरह भगवान विमलनाथ की वाणी तीनों जगत् के प्राणियों के अन्त:करणों का मैल दूर करके उन्हें पवित्र करती है । आप की अलौकिक वाणी की सवत्र जय हो रही है !
खुलासा-निर्मली एक प्रकारकी वनस्पति होती है । उसको पीसकर गदले से गदले पानी में घोल देने से जल बिल्लौरी शीशे की तरह साफ होजाता है। ग्रन्थकार कहता है, भगवान् विमलनाथ के उपदेश या वचन भी निर्मली की तरह ही तीनों लोकों के प्राणियों के मैले अन्तःकरणों को शुद्ध और साफ कर देते हैं ; यानी उन के अन्तः करणों पर जो काम क्रोध, लोभ, मोह
और ई-द्व प प्रभृति का मैल जमा रहता है, वह भगवान के उपदेशों से दूर हो जाता है, और अन्तः करण निर्मल पाइने की तरह स्वच्छ और साफ हो जाते हैं। भगवान् की ऐसी लोकोत्तर वाणी की सर्वत्र जय जयकार हो रही है । संसार उन के उपदेशों को शृद्धा और भक्ति से सुनता और उन पर अमल करता है।
स्वयंभूरमणस्पर्डीकरुणारसवारिणा । अनंत जिदनंतां वः प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥१६॥
जिस तरह स्वयं भूरमण नामक समुद्र में अनन्त जलराशि है ; उसी तरह श्री अनन्तनाथ स्वामी में अनन्त–अपार दया है । वही अनन्तनाथ प्रभु अपनी अपार दया से तुम्हें अनन्त सुख-सम्पत्ति दें !
खुलासा-श्री अनन्तनाथ स्वामी स्वयंभूरमण-समुद्र से स्पर्धा करते हैं। जिस तरह उस समन्दर में अनन्त जल भरा है, उसी तरह भगवान में
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व अनन्त-अपार दया-जल है । जिन भगवानमें अनन्त दया है, वही भगवान् दया करके आपलोगों को अनन्त अक्षय सुखैश्वर्य प्रदान करें, यही ग्रन्थकारका प्राशय है।
कल्पद्रुमसधर्माणमिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् । चतुर्धाधर्मदेष्टारं धर्मनाथमुपास्महे ॥१७॥
जो भगवान् प्राणियों को उनके मन-चाहे पदार्थ देने में कल्पवृक्ष के समान हैं और जो चार प्रकार के धर्म का उपदेश देनेवाले हैं, उन भगवान् श्री धर्मनाथजी की हम उपासना करते हैं। ___ खुलासा-कल्पवृक्ष या कल्पद्रुम में यह गुण है, कि उससे जो कोई जिस पदार्थकी कामना करता है, उसे वह वही पदार्थ आसानी से दे देता है। भगवान् धर्मनाथजी संसार के प्राणियों के लिए सकल्पवृक्ष हैं । संसारी लोग उन भगवान से जो चीज़ माँगते हैं, भगवान उन्हें वही चीज, सहज में दे देते हैं । इस के सिवा वे दान, शील, तप और भाव रूपी चार प्रकार के धर्म का उपदेश भी देते हैं । हम उन्हीं कल्पतरु के समान मनवांछित फल दाता भगवान् की उपासना करते हैं। सुधासोदरवाग्ज्योत्स्ना निर्मलीकृतदिङ्मुखः। मृगलक्ष्मा तमःशांत्यै शांतिनाथजिनोऽस्तुवः॥१८॥
* कल्पवृक्ष-एक वृक्ष का नाम है, जो माँगने पर मनचाहे पदार्थ देता है, यानी उससे जो माँगा जाता है, वही देता है। भगनान् भी भक्तों के लिए कल्पतरु हैं, उनसे प्राणी जो माँगते हैं, उन्हें वह वही देते हैं, स्त्री चाहने वाले को स्त्री, पुत्र कामी को पुत्र और धन-कामी को धन प्रभृति ।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र __ जिन्होंने अमृत-समान वाणी रूपी चाँदनी से दिशाओंके मुखों को निर्मल कर दिया है और जिन में हिरन का लाञ्छन है, वह शान्तिनाथ जिनेश्वर तुम्हारे तमोगुण अज्ञान को दूर करें!
खुलासा-जिस तरह सुधाकर-चन्द्रमा को सुधामय किरण की चाँदनी ते दिशायें प्रसन्न हो उठती हैं; उसी तरह श्रीशान्तिनाथ स्वामीके सुधा-समान उपदेशों से सुनने वालों के मुख प्रसन्न हो उठते हैं। जिस तरह चन्द्रमाके उदय होने से, उसकी निर्मल चाँदनी छिटकने से दशों दिशाओं का घोर अन्धकार दूर हो जाता है; उसी तरह भगवान् शान्तिनाथ के अमृतमय वचनों के सुनने से श्रोताओं के हृदयकमल खिल उठते हैं, उन के हृदयों का अज्ञान-अन्धकार दूर हो जाता है, उनके शोक-सन्तप्त हृदयों में सुशीतल शान्ति का सञ्चार हो उठता है, वे हिरन के लाञ्छन वाले भगवान् श्राप लोगों के अज्ञान-अन्धकार को उसी तरह नष्ट करें, जिसतरह चन्द्रमा जगत के अन्धकार को नष्ट करता है।
श्रीकुंथुनाथो भगवान् सनाथोऽतिशयद्धिभिः । सुरासुरनृनाथानामेकनाथोऽस्तु वःश्रिये ॥१६॥ _ जिस के पास अतिशयों की ऋद्धि या सम्पत्ति है और जो देवताओं, राक्षसों और मनुष्यों के राजाओं का एक स्वामी है, श्रीकुन्थुनाथ भगवान् तुम्हारी सम्पत्ति की रक्षा करें!
खुलासा-जो श्रीकुन्थुनाथ भगवान् चौंतीस अतिशयों की सम्पत्ति के स्वामी और देवेन्द्र, दनुजेन्द्र तथा नरेन्द्रोंके भी नाथ हैं, वही भगवान् तुम्हारा कल्याण करें।
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आदिनाथ-चरित्र
१४.
अरनाथस्स: भगवांश्चतुर्थारनभोरविः । चतुर्थ पुरुषार्थ श्रीविलासं वितनोतु वः ॥ २० ॥
प्रथम पर्व
जो भगवान् श्री अरनाथजी चौथे आरे में उसी तरह शोभायमान थे, जिस तरह आकाश में सूर्य शोभायमान होता है, वह भगवान् तुम्हें मोक्ष दें ।
काल-चक्र के दो भाग होते हैं : - ( १ ) उत्सर्पिणी, और ( २ ) अवसर्पिणी, इन दोनों मुख्य भागोंके छह-छह हिस्से होते हैं । इन हिस्सों को ही "आरे" कहते हैं ।
सुरासुरनराधीश मयूरनववारिदम् । कर्मद्रून्मूलन हस्तिमल्लं मल्लिभिष्टुमः ॥२१॥
जिन भगवान् को देखकर सुरपति, असुरपति और नरपति उसी तरह प्रसन्न हुए; जिस तरह नवीन मेघको देखकर मोर प्रसन्न होते हैं और जो भगवान् कर्म-रूपी वृक्षको निर्मूल करनेमें ऐरावत हाथी के समान हैं, उन्हीं मल्लीनाथ भगवान् की हम स्तुति करते हैं ।
* कर्म - बन्धनमें बँधे रहने से प्राणी का जन्म-मरणसे पीछा नहीं छूटता । जब तक कर्मों की जड़ नाश नहीं होती, तब तक प्राणी को बारम्बार जम्म सेना और मरना पड़ता है। जो कर्म को जड़ से उखाड़ फेकते हैं, वे मोह लाभ करते हैं, उन्हें फिर जनमना और मरना नहीं पड़ता ।
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प्रथम पर्व
१५ आदिनाथ-चरित्र जगन्महामोहनिद्रा प्रत्यूषसमयोपमम् । मुनिसुव्रतनाथस्य देशनावचनं स्तुमः ॥२२॥
श्रीमुनिसुव्रत स्वामीका उपदेश, जो जगत्को महान् अज्ञानरूपी निद्रा के नाश करने के लिए प्रातःकाल के समान है, हम उसकी स्तुति करते हैं।
खुलासा-यह जगत् मिथ्या और प्रसार है। आयु फूटे घड़े के छद से पानी निकलने की तरह दिन-दिन घटती जाती है, मौत सिर पर मँडराया करती है, लन्मी और स्त्री पुत्रादि सब चपला की समान चन्चल हैं; फिर भी प्राणियों को होश नहीं होता; क्योंकि वे जगत् की महामोहमयी निद्रा में मग्न हैं । उन मोहनिद्रा में सोने वालों को जगाने के लिए, श्री मुनिसुव्रत स्वामी का उपदेश-वचन प्रातः काल के समान है। जिस तरह प्रातःकाल होने से प्राणी निद्रा त्याग कर उठ बैठते हैं ; उसी तरह सुव्रत स्वामी जी महाराज के उपदेशों को सुन कर, मोहनिद्रा में गर्क रहने वाले चैतन्य लाभ करते और कर्म बन्धन काटने की चेष्टा करते हैं । ग्रन्थकार कहता है, हम उन्हीं मुनि महाराज के उपदेश-वचनों की स्तुति या प्रशंसा करते हैं; क्योंकि वे मोहनिद्रा दूर करने में अव्यर्थ महौषधि के समान हैं ।
लुठन्तो नमतां मूर्ध्नि निर्मलीकार कारणम् । वारिप्वला इव नमः, पान्तु पादनखांशवः ॥२३॥
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व
श्रीनेमिनाथ भगवान् के चरणोंके नाखूनों की किरणें, उन के चरणों में सिर नवानेवालों के सिर पर जल-प्रवाह की भाँति पड़तीं और उन्हें पवित्र करती हैं । भगवान्के नाखूनों की वे ही किरणें तुम्हारी रक्षा करें !
खुलासा - जो प्राणी भगवान् नेमिनाथ के चरण-कमलों में सिर झुकाते हैं, उनकी पदवन्दना करते हैं उनके सिरों पर भगवान् के चरणों के नाखूनों की किरणें गिरती और उन्हें पापमुक्त करती हैं। जिन किरणों का ऐसा प्रभाव है, वे किरणें आप की रक्षा करें !
यदुवंशसमुद्रन्दुः कर्मकच हुताशनः । अरिष्टनेमिर्भगवान्, भूयाद्वोऽरिष्टनाशनः ॥ २४ ॥
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जो यदुवंश रूपी समुद्र के लिए चन्द्रमाके समान और कर्म रूपी वन के लिए अग्नि के समान थे, वह श्री नेमिनाथ भगवान तुम्हारे अरिष्ट को नष्ट करें।
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खुलासा- जिस तरह चन्द्रमा के प्रभाव से समुद्र बढ़ता है; उसी तरह जिन भगवान् के प्रभाव से यदुवंश की वृद्धि हुई और जिन्होंने कर्म को उसी तरह भस्म कर दिया, जिस तरह आग वन को जला कर भस्म कर देती है, वही अरिष्टनेमि भगवान् श्री नेमिनाथ स्वामी आप का अमंगल नाश करें !
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
कमठेघरणन्द्रे च, स्वोचितकर्मकुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः,पार्श्वनाथ श्रियेऽस्तु वः॥२५
अपने अपने स्वभाव के अनुसार आचरण करनेवाले कमठ नामक दैत्य और धरणेन्द्र नामक असुरकुमार-वैरी और सेवक पर जिनकी मनोवृत्ति समान रही, वही भगवान् पार्श्वनाथ तुम्हारी सम्पत्ति के कारण हों! __ खुलासा-पूर्वभव में भगवान् पार्श्वनाथने धरणेन्द्र की अग्नि से रक्षा की थी, इससे इस जन्म में वह उनकी भक्ति करता और उपसर्ग बचाता था ; किन्तु कमठ उनका वैरी था; वह उपसर्ग करता था यानी उनपर आपदायें लाता था, पर भगवान् समदर्शी थे, उनकी नजरों में शत्रु-मित्र समान थे, वे शत्रु और सेवक दोनों पर समभाव रखते थे। ग्रन्थकार कहता है, वेही समदर्शी भगवान् पार्श्वनाथ तुम्हारी सुख-सम्पत्ति की वृद्धि करें-तुम्हारा कल्याण करें !
कृतापराधेऽपिजने, कृपामन्थर तारयोः । ईषद्वाष्पाईयोर्भद्रं, श्रीवीर जिननेत्रयोः ॥२६॥
श्रीमहावीर प्रभु में दया की मात्रा इतनी अधिक थी, कि उन्हें पूर्ण रूप से सताने और दुःख देनेवाले 'संगम' नामक देव
* एक सत्य महावीर भगवान् तप करते थे। उस समय संगम नामक देवने उन पर ६ मास तक उपसर्ग किया; मगर प्रभु विचलित न हुए। भगवान् की दृढ़ता देख कर, देवने स्वर्ग जाने की इच्छा से कहा-'हे देव !
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भादिनाथ-चरित्र १८
प्रथम पर्व पर उन्हें दया आगई, इससे उनकी आँखों की पुतलियाँ उस पर झुक गई:-इतना ही नहीं, आँसुओं से उनकी आँखें तक तर होगई। ऐसे द्या-भाव पूर्ण प्रभु के नेत्रों का कल्याण हो। .. खुलासा-भगवान् इतने दयालु थे कि, उन्हें अपने अनिष्ट-कारियों परं भी दया पाती थी। वे अपने कष्टों को भूल कर, सतानेवाले के कष्टों की ही फिक्र करते थे।
अब आप स्वेच्छा-पूर्वक आहार के लिए भ्रमण कीजिये। मैं आपको उपसर्ग नहीं करूंगा। भगवान् ने जवाब दिया-"मैं तो अपनी इच्छा से ही भ्रमण करता हूँ, किसी के कहने या दबाव डालने से नहीं।" जिस समय देव वहाँ से चलने लगा, तब भगवान् की आँखों में यह सोच कर आँसू
आगये कि, इस बेचारे ने जो अनिष्ट कर्म किये हैं, उनके कारण इसे दुःख होगा। प्रभु की इस दृष्टि को लक्ष्य में रख कर ही कलिकाल-सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य ने इस स्तुति-श्लोक की रचना की है।
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15
चरित्रारम्भ
ऊ
पहला भव
पर जिन तीर्थङ्करों को नमस्कार किया गया है, उन्हीं के समय और उन्हीं के तीर्थों में १२ चक्रवर्ती, ६ अर्द्धचक्री - वासुदेव, ६ बलदेव और ६ प्रति वासुदेव हुए हैं
1
ये सब महा पुरुष त्रिषस्ठि शलाका पुरुषों के नामसे प्रसिद्ध हैं । इनमें से कितने ही मोक्ष-लाभ कर चुके हैं और कितने ही लाभ करने वाले हैं । इन्होंने अवसर्पिणी कालमें जन्म लेकर भरत क्षेत्र को पवित्र किया है । शलाका पुरुषत्व से सुशोभित इन्हीं पुरुष रत्नों के चरित्रों का वर्णन हम करते हैं; क्योंकि महापुरुषोंका कीर्त्तन कल्याण और मोक्षके देनेवाला होता है । हम सबसे पहले भगवान् श्री ऋषभदेव स्वामी का जीवन चरित्र, “उस भवसे जिसमें उन्हें सम्यक्त्व प्राप्त हुवा था" लिखते हैं ।
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ये सब उसी भवमें अथवा आगामी भव में निश्चयतः मोक्ष-गामी होने से शलाका पुरुष कहलाते हैं ।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
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___असंख्य समुद्र और असंख्य द्वीपरूपी कंकों एवं वज्रवेदिका से परिवेष्ठित एक द्वीप है। उसका नाम जम्बूद्वीप है। वह अनेक नदियों और विर्षधर-पर्वतों से सुशोभित है। उस द्वीप के बीच में स्वर्ण-रत्नमय मेरु नामक पर्वत है। वह उसकी नाभि के समान शोभायमान है और वह एक लाख योजन ऊँचा है। तीन मेखलायें उसकी शोभा बढ़ाती हैं । उसपर चालीस योजन की चूलिका-समतल भूमि है । वह श्री अर्हन्तोंके मन्दिरों से जगमगा रही है। उसके पश्चिम ओर विदेहक्षेत्र है। उस क्षेत्रमें भूमण्डलके भूषण-समान क्षिति-प्रतिष्ठितपुर नामका एक नगर है।
उस नगर में, किसी समय में, प्रसन्नचन्द्र नामका राजा राज्य करता था। वह नरपति धर्म-कर्म में आलस्य-रहित था। महान ऋद्धियों के कारण, वह इन्द्र की भांति शोभायमान था। उस राजा के नगर में धन नामका एक साहूकार था। जिस तरह अनेकों नदियाँ समुद्र में आकर आश्रय लेती हैं, उसी तरह नाना प्रकार की धनराशियोंने उसके यहाँ आश्रय ग्रहण किया था। उसके पास अनन्त धन-सम्पत्ति थी, जो चन्द्रकी चन्द्रिका की .तरह छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे सभी का उपकार साधन करती थी; अर्थात् उसकी सम्पत्ति परोपकार के कामों में ही खर्च होती थी। विष-क्षेत्र उसको अलग करने वाला वर्षधर-पर्वत ।
पहली मेखला में नन्दन वन,दूसरी मेखला में सोमनस वन और तीसरी मेखलामें पांडुक वन है।
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२१
प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र जिस तरह महावेगवती नदीके प्रवाह में पर्वत अचल और अटल रहता है, उसी तरह धन सेठ, सदाचार रूपिणी नदी के प्रवाह में, पर्वत के समान अचल और अटल था। वह सत्पथ से विच. लित होने वाला नहीं था। बहुत क्या-वह सारी पृथ्वी को पवित्र करने वाला सेठ सभी से पूजा जाने योग्य था। उसमें यशरूपी वृक्षके अमोघ बीज के समान औदार्य, गाम्भीर्य और धैर्य आदि गुण थे। अनाज की ढेरियों की तरह उसके घरमें रत्नों की ढेरियाँ थीं। जिस तरह शरीर में प्राण-वायु मुख्य होता है, उसी तरह वह धन सेठ धनवान, गुणवान् और कीर्तिमान लोगों में मुख्य था। जिस तरह बड़े भारी तालाब के आसपास की ज़मीन उसके सोतों से तर रहती है; उसी तरह उस सेठ के धनसे उसके नौकर-चाकर प्रभृति तर रहते थे।
वसन्तपुर जानेकी तैयारी एक, दिन मूर्तिमान उत्साह की तरह, उस साहूकारने किराना लेकर वसन्तपुर जानेका इरादा किया। उसने नगरमें अपने आदमियों द्वारा यह डौंडी पिटवादी-“धन सेठ वसन्तपुर जाने वाले हैं। जिस किसी को वसन्तपुर चलना हो, वह उनके साथ होले। जिसके पास चढ़ने को सवारी न होगी, उसे वह सवारी देंगे! जिसके पास खाने-पीने के बर्तन न होंगे, उसे वह बर्तन देंगे। जिसके पास राह-खर्च न होगा, उसे वह राह-खर्च देंगे। राहमें चोरों और डाकूओं तथा सिंह व्याघ्र आदि हिंसक
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
पशुओं से सबकी रक्षा करेंगे। जो कोई अशक्त होगा, उसकी पालना वह अपने बन्धुओंकी तरह करेंगे ।" इस तरह डौंडी पिटजाने पर, कुलाङ्गनाओंने उसका प्रस्थान-मंगल किया। इसके बाद वह आचार युक्त सार्थवाह सेठ, शुभ मुहूर्त्त में, रथमें बैठ कर, शहर के बाहर चला। सेठ के कूच करने के समय जो भेरी बजी, उसको वसन्तपुर निवासियोंने अपने बुलाने वाला हरकारा समझा । भेरी - नाद सुन-सुनकर, सभी लोग तैयार हो गये और नगर के बाहर आगये ।
धर्मघोष आचार्य |
इसी समय अपनी साधुचर्या और धर्माचरण से पृथ्वी को पवित्र करने वाले एक धर्मघोष नामक आचार्य उस साहूकार के पास आये। उन्हें देखते ही वह साहूकार विस्मित होकर अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर उन सूर्यके समान तेजस्वी और कान्तिमान् आचार्य को नमस्कार किया और उनसे पधारनेका कारण पूछा। आचार्य महाराज ने कहा- “हम तुम्हारे साथ वसन्तपुर चलेंगे ।" सार्थवाह बोला- "महाराज ! आज मैं धन्य हूँ, कि आप जैसे साथ चलने योग्य महापुरुष मेरे साथ चलने को पधारे हैं। आप सानन्द मेरे साथ चलिये ।” इसके बाद उसने रसोई बनाने वालोंसे कहा कि, तुम लोग महाराजके लिए अन्न पानादिखाने पीनेके समान सदा तैयार रखना । सार्थवाह की यह आज्ञा सुनते ही आचार्य ने कहा- “साधुओं
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आदिनाथ चरित्र -
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०-est
इसके बाद सार्थवाह बड़ी-बड़ी तरंगों वाले समुद्रकी तरह अपने चञ्चल घोड़े, ऊँट, गाड़ी और बैलोंके सहित चलने लगा ।
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.: प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
को वही आहार ग्रहण करना चाहिये, जो न तो उनके लिए कराया गया हो और न संकल्प ही
तैयार किया गया हो, न किया गया हो । सेठ जी ! जिनेन्द्र शासन में साधुओं के लिए कूएँ, बावडी और तालाब का जल पीने की भी मनाही है: क्योंकि वह अग्नि वगेर: शस्त्रोंसे अचित किया हुआ नहीं होता ।” ये बातें हो ही रही थीं कि, इतने में किसी पुरुष ने आकर सन्ध्या. कालके बादलों के समान, सुन्दर रंगवाले, प हुए आमोंसे भरा हुआ एक थाल सार्थवाह के पास रख दिया । धन सार्थवाहने, अतीव प्रसन्न चित्तसे, आचार्य से कहा - " आप इन फलों को ग्रहण करें, तो मुझपर बड़ी कृपा हो ।” आचार्य ने कहा- “हे श्रद्धालु ! साधुओं के लिए सचित्त फलोंके छूने तक की मनाही है; खाना तो बड़ी दूर की बात है ।" सार्थवाह ने कहा- “आप महा दुष्कर व्रत धारण करते हैं। प्रमादी यदि चतुर भी हो, लोभी ऐसा व्रत एक दिन भी नहीं पाल सकता | खैर, आप साथ चलिये । आप को जो अन्न-पानादि ग्राह्य होंगे, मैं यही आपको दूंगा ।" इस तरह कहकर और नमस्कार करके, उसने उनको किया ।
सेठ का पन्थगमन ।
इसके बाद सार्थवाह बड़ी-बड़ी तरङ्गों वाले समुद्रकी तरह अपने चञ्चल घोड़े, ऊँट, गाड़ी और बैलोंके सहित चलने लगा । आचार्य महाराज भी मानो मूर्त्तिमान मूल गुण और उत्तर गुण हों, ऐसे साधुओं से घिर कर चलने लगे । सारे संघ के
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व आगे-आगे धन सार्थवाह चलता था। उसके पीछे-पीछे उसका मित्र मणिभद्र चलता था। उनके दोनों ओर सवारोंका दल चलता था। उस समय सार्थवाह के सफेद छत्रोंके देखने से शरद् ऋतुके बादलों का और मोरकी पूंछ के छातों से वर्षा ऋतुके मेघों का भान होता था; यानी जब सफेद छातों पर नज़र जाती थी, तब आकाश शरद् के मेघोंसे और जब मयूर-पुच्छ के छातों पर दृष्टि पड़ती थी, तब वर्षा-काल के बादलों से व्याप्त मालूम होता था। घनवात यानी पृथ्वी की आधारभूत वायु जिस तरह पृथ्वी को वहन करती है; उसी तरह सार्थवाह के ऊँट, बलध, साँड, खच्चर और गधे उसके कठिन से ढोने योग्य सामान को ढो रहे थे। वे इतनी तेजी से चल रहे थे कि, उनके कदम ज़मीन को छूते मालूम न होते थे। ऐसा जान पड़ता था, गोया हिरनों की पीठों पर गौने लाद दी गई हैं। ऊँट इतनी तेजी से चल रहे थे कि, ऊँची-ऊँची पंखों वाले पक्षीसे मालूम होते थे। अन्दर बैठे हुए जवानों के क्रीड़ा करने योग्य गाड़ियाँ ऐसी मालूम होती थीं, मानों चलते-फिरते घर हों। विशालकाय मोटे-मोटे कन्धों वाले भैंसे, आकाश से पृथ्वी पर आये हुए बादलों के समान, जल को ढोते और लोगोंकी प्यास बुझाते थे। गाड़ियों के पहियोंके चूँ चूँ शब्दों से ऐसा मालूम होता था, मानो सार्थवाह के सामान के बोझ से दबी हुई पृथ्वी चीत्कार कर रही हो । बैल, ऊँट और घोड़ों के पैरोंसे उड़ी हुई धूलि आकाश में ऐसी छा गई थी, कि सूचीभेद अन्धकार हो गया था हाथ को हाथ न सूझता
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र था। दिशाओं के मुख-भाग को बहरे करने वाली, बैलों के गलों की घण्टियों की टनकार दूर से ही सुनकर, चमरी मृगोंने बच्चों समेत अपने कान खड़े कर लिये और डरने लगे। भारी बोझको ढोने वाले ऊँट चलते-चलते भी अपनी गर्दनों को घुमाघुमाकर बारम्बार वृक्षों के अगले भागोंको चाटने लगते थे। मालसे भरे बोरोंसे लदे हुए गधे अपने कान ऊँचे और गर्दनें सीधी करके एक दूसरे को दाँतों से काटते और पीछे रह जाते थे। हर ओर हथियारबन्द रक्षकों से घिरा हुआ वह संघ, बज्रके पींजरे में रखे हुए की तरह, मार्ग में चलता था। महामूल्यवान् मणिको धारण करने वाले सर्पके पास लोग जिस तरह नहीं जाते; उसी तरह ढेर धन वहन करने वाले इस संघ के पास चोर नहीं आते थे--दूर ही रहते थे। निर्धन और धनवान् दोनों को एक नज़र से देखने वाला, दोनों की ही रक्षा का समान रूपसे उद्योग करने वाला सेठ सार्थवाह सब को साथ लेकर उसी तरह चलने लगा, जिस तरह यूथपति हाथी अपने साथ के सब हाथियों को लेकर चलता है। नयनों को प्रफुल्लित करके, लोगों से सम्मान पाता हुआ धन-सार्थवाह सूर्य की तरह रोज़ रोज़ चलने लगा।
ग्रीष्म-वर्णन।
उसी समय नदियों और सरोवरों के जल को, रात्रियों को तरह, संकुचित करने वाली, पथिकों के लिए भयङ्कर और महा
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
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उत्कट ग्रीष्म ऋतु आगई । भट्टी के अन्दर की लकड़ियों से निकलने वाले उत्ताप के जैसा, घोर दुःसह पवन चलने लगा । सूर्य अपनी अग्नि-कणों के समान जलती हुई तेज़ धूपको चारों ओर फैलाने लगा । उस समय, संघ के पथिक, गरमी से घबरा कर, मार्ग में आने वाले अगल-बगल के वृक्षों के नीचे विश्राम करने और प्याऊओं में जल पी-पीकर लेट लगाने लगे । गरमी के मारे, भैंसे अपनी जीभें बाहर निकालने और कोड़ों की मार की परवा न करके नदी की कीचड़ में घुसने लगे । बैलों पर तड़ातड़ चाबुक पड़ते थे, तोभी वे अपने हाँकने वालों का निरादर और मार की पर्वा न करके, बारम्बार कुमार्ग के वृक्षों के नीचे जाते थे। सूर्य की तपाई हुई, लोहे की सूइयों-जैसी, किरणों की तपत से मनुष्य और पशुओं के शरीर मोम की तरह गलने लगे । सूर्य नित्य ही अपनी किरणों को तपाये हुए लोहेके फलों जैसी करने लगा । पृथ्वी की धूलि, मार्ग में फेंकी हुई कण्डों की आग की तरह, विषम होने लगी। संघ की स्त्रियाँ राह में आने वाली नदियों में घुस - घुसकर और कमलनाल तोड़तोड़कर अपने-अपने गलों में डालने लगीं । सेठ सार्थवाह की स्त्रियां पसीनों से तरबतर कपड़ों से, जल में भींगी हुई की तरह, राहमें बहुत ही अच्छी जान पड़ने लगीं । कितने ही पथिक ढाकपलाश, ताड़ और कमल प्रभृति के पत्तों के पंखे बना-बनाकर धूप से हुए श्रम को दूर करने लगे ।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र वर्षा-वर्णन । इसके बाद, ग्रीष्म ऋतु की तरह, प्रवासियों की चाल को रोकने वाली, मेघ-चिह्न-स्वरूपिणी, वर्षा ऋतु आगई। आकाश में यक्ष के समान धनुष को धारण करके, धारा रूपी बाणों की वृष्टि करता हुआ मेघ चढ़ आया। उससे संघ के लोगों को बड़ा कष्ट हुआ, वह मेघ सिलगाये हुए फूली की भाँति बिजली को घुमा-घुमाकर, बालकों की तरह, संघके सभी लोगों को डराने लगा; अर्थात् बालक जिस तरह घास की पुले को जलाकर घुमाते और लोगों को डराते हैं; उसी तरह वह मेघ रिजली को चमका-चमका कर संघवालों को भयभीत करने लगा। आकाश तक गये हुए और फैले हुए जलके प्रवाहने, पथिकों के हृदयों की तरह, नदियों के विशाल तटों-किनारों को तोड़ डाला ! नार्म के पानी ने पृथिवी के ऊँचे नीचे भागों को समान कर दिया। कमोकि जड़ पुरुषों का उदय होने पर भी, उनमें विवेक स्तापाता है ? अर्थात् मूों का अभ्युदय होने पर भी उनमें विवेक या विचार का अभाव ही रहता है। पानी, कीचड़ तथा काँटों से दुर्गम हुए मार्ग में एक कोस राह चलना चार सौ कोस के समान मालूम होने लगा। घुटनों तक कीचड़ में फंसे हुए लोग, जेल से छूटे हुए कैदियों की तरह, धीरे-धीरे चलने लगे। जल-प्रवाह को देखकर ऐसा भान होता था, मानो दुष्ट दैव ने, प्रत्येक राह में, प्रवाह के मिष से, अपनी भुजा-रूपी आगल लोगों के रोकने के
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
लिए फैलादी है। उस समय, कीचडमें गाड़ियों के फँसने से ऐसा प्रतीत होता था, मानो चिरकाल से मर्दन होती हुई पृथ्वी ने क्रोध करके उनको पकड़ लिया हो। ऊँटों के चलाने वाले राह में नीचे उतर कर, रस्सियाँ पकड़-पकड़, कर ऊँटों को खींचने लगे, पर ऊँटों के पैर, ज़मीन पर न टिकने की वजह से, फिसलने लगे और वे पद-पदपर गिरने लगे। धन-सार्थवाह ने वर्षाकालमें राह की कठिनाइयों का अनुभव करके, उस घोर वनमें तम्बू तनवा दिये। संघके लोगों ने भी यह समझ कर कि, वर्षा ऋतु यहीं काटनी होगी, अपनी-अपनी झोंपडियाँ बनाली; क्योंकि देश-कालका उचित विचार करने वालों को दुखी होना नहीं पड़ता हैं। मणिभद्रने निर्जन्तु स्थान में बनी हुई एक झोंपड़ी या उपाश्रय दिखलाया। उसमें साधुओं-सहित आचार्य महाराज रहने लगे। संघमें बहुत लोगों के होने और वर्षा-कालका लम्बा समय होनेसे, सब का खाने-पीने का सामान और पशुओं के खाने के घास प्रभृति पदार्थ समाप्त.हो गये। इसलिये संघ के लोग भूखके मारे, मलिन वस्त्रवाले तपस्वियों की तरह, कन्दमूल और फल-फूल प्रभृति खाने के लिए इधर-उधर भटकने लगे। संघके लोगों की ऐसी बुरी हालत देखकर, सार्थवाह के मित्र मणिभद्र ने, एक दिन, सन्ध्या-समय, ये सारा वृत्तान्त सार्थवाह से निवेदन किया। संघके लोगों की तकलीफों की बात सुनकर, सार्थवाह उनकी दुःख-चिन्ता से इस तरह निश्चल हो गया, जिस तरह, पवन-रहित समय में, समुद्र निष्कम्प हो जाता है। इस
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र तरह चिन्ता में डूबे हुए सार्थवाह को क्षणभर में नींद आगई । "जिसे अति दुःख या अति सुख होता है, उसे तत्काल नींद आजाती है, क्योंकि ये दोनों निद्रा के मुख्य कारण हैं।" जब रात के चौथे पहर का आरम्भ हुआ, तब अश्वशाला के एक उत्तम आशयवाले पहरेदार ने नीचे लिखी हुई बातें कहीं:-.
धनसेठकी उद्विग्नता। "हमारे स्वामी, जिनकी कीर्त्ति दशों दिशाओं में फैल रही है, स्वयं वे संकटापन्न अवस्था में होनेपर भी, अपने शरणागतों का पालन भले प्रकार करते हैं।” पहरेदार की उपरोक्त बात सुनकर सार्थवाह ने विचार किया कि, किसी शख्स ने ऐसी बात कहकर मुझे उलाहना दिया है। मेरे संघ में दुखो कौन है ? अरे ! मुझे अब ख़याल आता है, कि मेरे साथ धर्मघोष आचार्य आये हैं। वे अकृत, अकारित और प्रासुक भिक्षा से ही उदरपोषण करते हैं। कन्दमूल और फलफूल आदि को तो वे छूते भी नहीं। इस कठिन समय में, वे कैसे रहते होंगे? इस दुःख की अवस्था में उनकी गुज़र कैसे होती होगी ? ओह ! जिन आचार्य को, राहमें सद तरह की सहायता देने की बात कहकर, मैं अपने साथ इस सफर में लाया हूं, उनकी मैं आज ही याद करता हूँ। मुझ मूर्ख ने यह क्या किया ! आज तक जिनका मैंने वाणीमात्र से भी कभी सत्कार नहीं किया, उनको आज मैं किस तरह मुँह दिखलाऊँगा ? खैर ! गया समय हाथ नहीं
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
आता । फिर भी, मैं आज उनके दर्शन करके अपने पापों को तो
धो डालूँ | वे इच्छा रहित - निस्पृह पुरुष हैं। उन्हें किसी भी वस्तु की चाहना नहीं । ऐसे पुरुष का मैं कौनसा काम करूँ ? ऐसी चिन्ता में, मुनि-दर्शनोंके लिए उत्सुक, सार्थवाह को रातका शेष रहा हुआ चौथा पहर दूसरी रातके समान मालूम हुआ ।
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सेठका आचार्य के पास जाना ।
इसके बाद जब रात बीत गई और सवेरा हो गया, तब सार्थवाह उज्ज्वल वस्त्राभूषण पहन कर अपने मुख्य आदमियों को साथ लेकर, सूरि के आश्रम की तरफ चला। वहाँ जाकर उसने ढाक के पत्तोंसे छाई हुई, छेदों वाली, निर्जीव भूमि पर बनी हुई कोंपड़ी में प्रवेश किया। उसमें उसने पापरूपी समुद्र को मथने वाले, मोक्ष के मार्ग, धर्म के मण्डप और तेज के आगारजैसे धर्म घोष मुनि को देखा । वे कषाय रूपी गुल्म में हिमवत्, कल्याण-लक्ष्मी के हार समान और संघ के अद्वैत भूषण- समान तथा मोक्ष- कामी लोगों के लिए कल्पवृक्ष के समान मालूम होते थे । वे एकत्र हुए तप, और तीर्थों को प्रवर्त्तानेवाले तीर्थङ्करों की उनके आस-पास और मुनि लोग बैठे थे । उनमें से कोई आत्मध्यान में मग्न हो रहा था, कोई मौनव्रत अवलम्बन किये हुए था, कोई कार्योत्सर्ग में लगा हुआ था, कोई आगम-शास्त्र का अध्ययन कर रहा था, कोई उपदेश दे रहा था, कोई भूमि प्रमार्जन कर रहा था, कोई
मूर्त्तिमान आगम तरह शोभित थे।
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आदिनाथ चरित्र -
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200MM
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D. Bavury
सार्थवाह ने सबसे पहले आचाय्यं महाराज को और पीछे अनुक्रम से अन्यान्य मुनियों को वंदना किया। उन्होंने उसे पाप नाश करनेवाला "धर्मलाभ” दिया ।
[ पृष्ठ ३१ ]
Narsingh Press, Caleutta.
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
गुरु को वन्दना कर रहा था, कोई धर्म-कथा कह रहा था, कोई श्रुतका उद्देश अनुसन्धान कर रहा था, कोई अनुज्ञा दे रहा था और कोई तत्त्व कह रहा था । सार्थवाह ने सबसे पहले आचार्य महाराज को और पीछे अनुक्रम से अन्यान्य मुनियों को वंदना किया । उन्होंने उसे पाप नाश करनेवाला “धर्मलाभ” दिया । इसके बाद-3 - आचार्य के चरण-कमलों के पास, राजहंस की तरह, बैठकर सार्थवाह ने आनन्द के साथ, नीचे लिखी बातें कहनी आरम्भ कीं :-- क्षमा प्रार्थना |
“हे भगवन् ! जिस समय मैंने आप को मेरे साथ आने के लिये कहा था, उस समय मैंने शरद ऋतुके मेघ की गर्जना के समान मिथ्या संभ्रम दिखाया था; क्योंकि उस दिन से आजतक न तो मैं आपको वन्दना करने आया और न अन्नपान तथा वस्त्रादिक से आपका सत्कार हो किया I जाग्रतावस्था में रहते हुए भी, सुप्तावस्था में रहने वाले के समान, मैंने यह क्या किया ? मैंने आपकी अवज्ञा की और अपना वचन भङ्ग किया । इसलिए हे महाराज! आप मेरे इस प्रमादाचरण के लिए मुझे क्षमा प्रदान कीजिये । महात्मा लोग सब कुछ सहनेसे ही हमेशा "सर्वसह” * की उपमा को पाये हुए हैं
* पृथ्वी को "सब सहनी " इसीलिये कहते हैं, कि उसे संसार खूंदता है और उसपर अनेक प्रकार के अत्याचार करता है; परन्तु वह चुपचाप सब सहती है । महापुरुष भी पृथ्वी की तरह ही सब कुछ सहनेवाले होते हैं, इससे उन्हें "सर्वसह" की उपमा मिली है ।
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प्रथम पर्व धन सार्थवाहका मुनिदान । सार्थवाह की ये बातें सुनकर सूरि ने कहा-"सार्थवाह ! मार्ग में हिंसक पशुओं और चोर डाकूओं से तुमने हमारी रक्षा की है। तुमने हमारा सब तरह से सत्कार किया है। तुम्हारे संघके लोगों ने हमें योग्य अन्नपानादि दिये हैं ; इसलिए हमें किसी प्रकार का भी दुःख या क्लेश नहीं हुआ है। तुम हमारे लिए ज़रा भी चिन्ता या खेद मत करो।” सार्थवाह ने कहा"सत्पुरुष निरन्तर गुणों को ही देखते हैं; इसीसे, मेरे दोष सहित होने पर भी, आप मुझे ऐसा कहते हैं; यानी सदोष होनेपर भी मुझे निर्दोष मानते हैं। आप चाहें, जो कहें, मेरा तो अपने प्रमाद के कारण सिर नीचा हुआ जाता है। सचमुच ही, इस समय मैं अतीव लजित हूँ । अत: आप प्रसन्न हूजिये और साधुओं को मेरे पास आहार लाने को भेजिये, जिससे मैं इच्छानुसार आहार दूं।" सूरि बोले-"तुम जानते हो कि, वर्तमान योग द्वारा जो अन्नादिक अकृत, अकारित और अचित्त होते हैं, वे ही हमारे उपयोग में आते हैं।" सूरि के ऐसा कहने पर सार्थवाह ने कहा- “जो चीज़ आपके उपयोग में आयेगी, मैं उसे ही साधुओं को दूंगा।" यह कहकर धन-सार्थवाह अपने आवास स्थान को चला गया। उसके पीछे-पीछे ही दो साधु भिक्षा उपार्जनार्थ उसके डेरे पर गये; पर दैवयोगसे, उस समय, उसके घरमें साधुओंको देने योग्य कुछ भी नहीं था। वह इधर-उधर देखने लगा। एक जगह
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
उसे अपने निर्मल अन्तः करण के समान ताज़ा घी दीख गया । उसने कहा- 'क्या यह आपके ग्रहण करने योग्य है ?' साधुओं ने उत्तर दिया- 'हाँ, इसे हम ग्रहण कर सकते हैं। यह हमारे उपयोग में आ जायगा । इसके लेनेमें हमें कोई आपत्ति नहीं ।' यह कहते हुए उन्होंने अपना पात्र रख दिया। मैं धन्य हुआ, मैं कृतकृत्य हुआ, मैं पुण्यात्मा हुआ, ऐसा विचार करते-करते उसे रोमाञ्च हो आया और उसने साधुओं को घी दे दिया । आनन्द के आँसुओं द्वारा पुण्याङ्कुर को बढ़ाते हुए, सार्थवाह ने घृत दान करने के बाद मुनियों को नमस्कार किया। मुनि भी सब प्रकार के कल्याणों की सिद्धि में सिद्ध मंत्र के समान 'धर्मलाभ' देकर अपने आश्रम को चले गये। इस दान के प्रभाव से, सार्थवाह को, मोक्षवृक्ष का बीज-रूप, अतीव दुर्लभ बोधिवीज- समकित प्राप्त हुआ; अर्थात् उसे मोक्ष लाभ करने का पूर्ण ज्ञान हो गया । रातके समय सार्थवाह फिर मुनियों के आश्रम में गया आज्ञा लेकर और गुरु महाराज को वन्दना करके उनके सामने बैठ गया। इसके बाद, धर्मघोष सूरि ने उसे, मेघकी जैसी वाणी द्वारा, नीचे लिखी 'देशना' दी :
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३३
धर्मघोष सूरिका उपदेश ।
धर्मकी महिमा |
“धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है । धर्म ही स्वर्ग और मोक्ष का दाता है । धर्म ही संसार रूपी वनको पार करने की राह दिखलाने
३
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
वाला है। धर्म माता की तरह पालन-पोषण करता है, पिता की तरह रक्षा करता है, मित्र की तरह प्रसन्न करता है, बन्धु की तरह स्नेह रखता है, गुरु की तरह उज्ज्वल गुणों का समावेश कराता है और स्वामी की तरह उत्कृष्ट प्रतिष्ठा प्राप्त कराता है। वह सुखका महा हर्म्य है, शत्रु-संकट में वर्म है, शीत से पैदा हुई जड़ता के नाश करने के लिए धर्म और पाप के मर्म को जानने वाला है। धर्म से जीव राज़ी होता है, धर्म से बलदेव होता है, धर्म से अर्द्धचक्री-वासुदेव होता है, धर्म से चक्रवर्ती होता है, धर्म से देव और इन्द्र होता है, धर्म से ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान में अहमिंद्र देवत्व मिलता है ; धर्म से तीर्थंकर-पद तक मिल जाता है । जगत् में, धर्म से सब तरह की सिद्धियाँ मिलती हैं।
चार प्रकार का धर्म। दुर्गति में पड़े हुए जन्तुओं को धारण करता है, इस से उसे 'धर्म' कहते हैं । वह धर्म-दान, शील, तप और भाव के भेदसे चार प्रकार का है । धर्मके चार भेदों में जो दान धर्म' है, वह ज्ञान-दान, अभयदान और धर्मोपग्रह दान,—इन नामों से तीन प्रकार का कहा है।
ज्ञान-दान । धर्म को नहीं जानने वाले लोगों को देशना-उपदेश देने, बाचना देने अथवा ज्ञान-प्राप्ति के साधन देने को 'ज्ञान-दान' कहते हैं। इस से प्राणी को अपने हिताहित या भले-बुरे का ज्ञान हो जाता है और जीव आदि तत्त्वों को जान जानेसे विरक्ति हो जाती है । ज्ञानदान से प्राणीको उज्ज्वल केवल-ज्ञान'
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र की प्राप्ति होती है और वह सब लोगों पर अनुग्रह करता हुआ, लोकान पर आरूढ़ होता और मोक्ष-पद लाभ करता है।
अभय-दान । अभयदान-मन, वचन और काया से जीव-हिंसा न करना, न कराना और करने वाले का अनुओदन न करना 'अभय दान' है।
जीव दो प्रकार के होते हैं:-(१) स्थावर, और (२) त्रस ।
स्थावर भी दो प्रकार के होते हैं:-(१) पर्याप्त, और (२) अपर्याप्त।
पर्याप्त की कारण-रूप छः पर्याप्तियाँ होती हैं। उनके नाम ये हैं:-(१) आहार, (२) शरीर, (३) इन्द्रिय, (४) श्वासोच्छ्वास, (५) भाषा, और (६) मन । एकेन्द्रिय के चार, विकलेन्द्रिय के पांच और पञ्चेन्द्रिय के छः पर्याप्तियाँ होती हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति—ये एकेन्द्रिय स्थावर कहलाते हैं। इनमें से पहले चार के 'सूक्ष्म और बादर' दो भेद हैं। वनस्पति के 'प्रत्येक और साधारण' दो भेद हैं। उनमें से साधारण वनस्पति के भी 'सूक्ष्म और बादर' दो भेद हैं।
त्रस जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रियइस तरह चार प्रकार के होते हैं। पञ्चेन्द्रिय के 'संज्ञी और असंज्ञी' ये दो भेद हैं। जो मन और प्राण को प्रवृत्त करके शिक्षा, उपदेश और आलाप को समझते हैं, उनको “संज्ञी" कहते हैं। जो इनके विपरीत होते हैं, वे "असंज्ञी" कहलाते हैं।
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प्रथम पर्व स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षुऔर श्रोत्र,-ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द-ये अनुक्रम से इन्द्रियों के विषय हैं। ___ कृमि, शंख, जौंक, कौड़ी, सीप एवं छीपो वगेरः विविध आकृति वाले प्राणी 'द्वीन्द्रिय' कहलाते हैं। जू, मकड़ी, चींटी, और लीख वगेरः को त्रीन्द्रिय जन्तु' कहते हैं। पतंग, मक्खी, भौंरा और डाँस प्रभृति 'चार इन्द्रिय वाले' हैं। बाकी जलचर,थलचर, नभचर पशु-पक्षी, नारकी, मनुष्य और देव-इन सब को 'पञ्चेन्द्रिय जीव' कहते हैं। इतने प्रकार के जीवों के पर्याय यानी आयुष्य कोक्षय करना, उन्हें दुःख देना और क्लेश उत्पन्न करना,तीन प्रकार का वध' कहलाता है। इन तीनों प्रकार के जीववध को त्याग देना—'अभय-दान' कहलाता है। जो अभय-दान देता है, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थो को देता है ; क्योंकि वध से बचा हुआ जीव, यदि जीता है, तो, चार पुरुषार्थ प्राप्त कर सकता है, यानी जीव का जीवन रहने से उसे चार पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। प्राणी को राज्य, साम्राज्य और देवराज्य की अपेक्षा जीवित रहना अधिक प्यारा है; इसीसे अशुचि या नरक में रहने वाले कीड़े और स्वर्ग में रहने वाले इन्द्र,-दोनों को ही प्राणनाश का भय समान है। इसवास्ते, बुद्धिमान पुरुष को, निरन्तर, सब जगत् के इष्ट अभयदान में, अप्रमत्त होकर, प्रवृत्त होना चाहिए।
अभयदान देनेसे मनुष्य परभव या जन्मान्तर में मनोहर, दीर्घायु, आरोग्यवान, रूपवान, लावण्यवान और बलवान होता है।
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प्रथम पर्व
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धर्मोपग्रह दान। दायकशुद्ध, ग्राहकशुद्ध, देयशुद्ध, कालशुद्ध और भावशुद्ध, इस तरह 'धर्मोपग्रह दान' पाँच प्रकार का होता है। उसमें न्यायोपार्जित द्रव्यवाला, अच्छी बुद्धि वाला, इच्छा-रहित और दान देकर पश्चात्ताप नहीं करने वाला मनुष्य जो दान देता है,वह 'दायक शुद्ध दान' कहलाता है। ऐसा चित्त और ऐसा पात्र मुझे प्राप्त हुआ, इसलिए मैं कृतार्थ हुआ, जो ऐसा मानने वाला हो, वह 'दायक शुद्ध होता है। सावध योग से विरक्त, तीन गौरव से वज्जित, तीन गुप्ति धारक, पाँच समिति पालक, रागद्वेष से रहित, नगरबस्ती-शरीर-उपकरण आदि में निर्मम, अठारह हज़ार शीलांग के धारक, ज्ञान, दर्शन और चारित्र-रूप रत्नत्रय के धारक, धीर, सोने और लोहे को समान समझने वाले, दो शुभ ध्यान ( धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान ) को धारण करने वाले, जितेन्द्रिय, उदरपूर्ति जितना ही आहार लेने वाले, निरन्तर यथा-शक्ति अनेक प्रकार के तप करने वाले, अखण्ड रूपसे सत्रह प्रकार के संयम को पालने वाले, अठारह प्रकार के ब्रम्हचर्य का आचरण करने वाले ग्राहक को दान देना— 'ग्राहक शुद्ध दान' कहलाता है। बयालीस दोष-रहित ; असन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र और संथारा आदि का दान-'देयशुद्ध दान' कहलाता है । योग्य समय पर, पात्र को दान देना---'काल शुद्ध दान' कहलाता है और कामना-रहित श्रद्धापूर्वक जोदान दिया जाता है, वह 'भावशुद्ध दान' कहलाता है। देह के बिना धर्म नहीं होता और अन्नादिक के बिना देह नहीं
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प्रथम पर्व रहती; अतः हमेशा 'धर्मोपग्रह दान' करना चाहिए। जो मनुष्य अशन पानादि धर्मोपग्रह दान सुपात्र को देता है,वह तीर्थको अविच्छेद करता और परमपद पाता है।
शीलवत। सावद्य योगों का जो प्रत्याख्यान है, उसे "शील” कहते है। वह देश-विरति तथा सर्व विरति ऐसे दो प्रकार का है। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत- इस तरह सब मिलाकर देश-विरति के बारह प्रकार होते हैं। स्थूल, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—ये पाँच प्रकार अणुव्रत के हैं । दिगविरति, भोगोपभोग विरति, अनर्थ दण्ड विरति-ये तीन गुणव्रत हैं और सामायिक, देशावकाशिक, पौषध तथा अतिथि संविभाग—ये चार शिक्षाव्रत हैं। इस प्रकार का यह देश-विरति. गुण शुश्रूषा आदि गुणवाले,—यति-धर्म के अनुरागी,-धर्म-पथ्यभोजन के अर्थी, शम-संवेग, निर्वेद, करुणा और आस्तिक्य,इन पाँच लक्षण-युक्त, सम्यक्त्व को पाये हुए, मिथ्यात्व रहित और सानुबन्ध क्रोधके उदय से रहित गृहस्थी महात्माओं को, चारित्र मोहनी का नाश होने से, प्राप्त होता है। त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा के वर्जने को सर्वविरति कहते हैं । यह सिद्धिरूपी महल के ऊपर चढ़ने के लिए नसैनी-स्वरूप है। यह सर्वविरति गुण- प्रकृति से अल्प कषायवाले, संसार-सुख से विरक्त और विनय आदि गुण वाले महात्मा मुनियों को प्राप्त होता है।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
तप-महिमा। जो कर्म को तपाता है, उसे 'तप कहते हैं। उसके 'बाह्य और अभ्यन्तर' ये दो भेद हैं। अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति संक्षेप, रसत्याग, कायक्कैश और संलीनता-ये छः प्रकार के 'बाह्य तप' हैं
और प्रायश्चित्त, वैयावृत्य, स्वाध्याय, विनय, कायोत्सर्ग और शुभ ध्यान,—ये छ: प्रकार के 'अभ्यन्तर तप' हैं।
. देशनाकी समाप्ति । ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय को धारण करने वाले में अद्वितीय भक्ति रखना, उसका कार्य करना, शुभ की ही चिन्ता करना और संसार की निन्दा करना-इन चार को 'भावना' कहते हैं। यह चार प्रकार का धर्म निस्सीम फल-मोक्ष-फलके प्राप्त करने में साधन-रूप है ; इसवास्ते संसार-भ्रमण से डरे हुए मनुष्यों को, सावधान होकर, इसकी साधना करनी चाहिए।"
पुनः मार्ग-गमन। वसन्तपुर पहुँचना ।
देह-त्याग। इस प्रकार देशना सुनकर धन-सेठ बोला-'स्वामिन् ! यह धर्म बहुत दिनों के बाद आज मेरे सुनने में आया है, इसलिए इतने दिनों तक मैं अपने कर्मों से ठगाता रहा,' वह इस तरह कहकर,
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व गुरु के चरण-कमलों तथा अन्य मुनियों को वन्दना कर के, अपने आत्माको धन्य मानता हुआ अपने निवास स्थानको गया। इस प्रकार की धर्म-देशना से परमानन्द में मग्न सार्थवाह ने वह रात एक क्षण के समान बिता दी। सोकर उठे हुए उस सार्थवाह के समीप-भाग में, प्रातः काल के समय, कोई मंगलपाठक शंख-जैसी गंभीर और मधुर ध्वनिके साथइस प्रकार बोला:-'घोर अन्धकार से मलीन, पद्मिनीकी शोभाको चुरानेवाली और पुरुषोंके व्यवसाय को हरने वाली रात–वर्षाऋतु की तरह-चलो गई है। जिस में तेजस्वी और प्रचण्ड किरणों वाला सूर्य उदय हुआ है और जो व्यवसाय कराने में सुहृद् के समान है, ऐसा यह प्रातः काल, शरद् ऋतु के समय की माफ़िक, वृद्धि को प्राप्त हो रहा है । जिस तरह तत्त्वज्ञान से बुद्धिमानों के मन निर्मल हो जाते हैं; उसी तरह इस शरद् ऋतु में, सरोवर और नदियोंके जल निर्मल होने लग गये हैं। जिस तरह आचार्य के उपदेश से ग्रन्थ संशय-रहित हो जाते हैं; उसी तरह, सूर्य की किरणों से कीचड़ सूख जाने के कारण, राहें साफ हो गई हैं। मार्ग के चीलों और चक्रधारा के बीच में जिस तरह गाड़ियाँ चलती हैं; उसी तरह नदियाँ अपने दोनों किनारों के बीच में बहने लग गई हैं और मार्ग—पके हुए तुच्छ धान्य, सावाँ, नीवार, वालुंक और कुंवल आदि से–पथिकों का आतिथ्य-सत्कार करते हुए से मालूम हो रहे हैं। शरद् ऋतु, वायु से हिलते हुए गन्नों के शब्द से, प्रवासियों को सवारियों पर चढ़ने के समय की सूचना सी देती मालूम हो रही है । सूर्य की प्रचण्ड किरणोंसे झुलसे
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प्रथम पत्र
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आदिनाश.रित
हुए पथिकोंके लिए बादल, क्षण भर को, छातोंका काम करने लगे हैं। सङ्घके साँड अपने खुरोंसे जमीनको खोद रहे हैं ; मालूम होता है, सुख पूर्वक चलनेके लिए, वे ज़मीनको हमवार या चौरस कर रहे हैं। पहले जो मार्गके प्रवाहगर्जना करते और पृथ्वी पर उछलते हुए दिखाई देतेथे, वे इस समय–वर्षाकालकेबादलोंकी तरह-नष्ट हो गये हैं। फलों के भार से झुकी हुई डालियों और कदम-कदम पर मिलने वाले साफ पानी के झरनोंसे, पथिकगण, मार्ग में बिना किसी प्रकार के यत्नके ही, पाथेयवाले हो गये हैं। उत्साह-पूर्ण चित्तवाले उद्यमी लोग, राजहंस की तरह, देशान्तर जाने के लिए उतावल कर रहे है ।' मङ्गल-पाठक की उपरोक्त बातें सुन कर, इसने मुझे प्रयाण-समय की सूचना दी है' ऐसा विचार कर, सार्थवाहने प्रयाण-भेरी बजवा दी। गोपालोके गोङ्गनादसे जिस तरह गायों का झुण्ड चलता है, उसी तरह पृथ्वी और आकाशके मध्य भाग को पूर देने वाले भेरी-नाद से सारा सार्थ वहाँ से चल दिया । भव्य प्राणी-रूपी कमलों को बोध करने में दक्ष, मुनियों से घिरे हुए आचार्य नेभी--किरणो से घिरे हुए भास्करकी तरह-वहाँ से विहार किया। सङ्घ की रक्षा के लिए, आगे-पीछे और दोनों बाजू, रक्षा करने वाले सवारों को तैनात करके, धन सेठने वहाँसे कृच किया। सार्थवाह जब उस घोर वन को पार कर गया, तब उस से आज्ञा लेकर, धर्मघोष आचार्य अन्यत्र विहार कर गये। जिस तरह नदियों का समूह समुद्र में पहुंच जाता है, उसी तरह सार्थवाह भी, बिना किसी प्रकार की विघ्न-बाधा के, मार्ग को तय
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४२
आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व कर के, वसन्तपुर पहुँच गया। वहाँ पर उसने, थोड़े ही समय में, कितना ही माल बेच दिया और कितना ही ख़रीद लिया। इस के बाद, जिस तरह मेघ समुद्र से जल भर लाता है, उसी तरह धनसेठ, खूब धन-सम्पत्ति भरकर, फिर क्षितिप्रतिष्ठितपुरमें आया और कुछ समय के बाद, उम्र पूरी होने पर, काल-धर्म को प्राप्त हुभा; अर्थात् पञ्चत्व को प्राप्त हुआ इस संसार से चल बसा।
3 Ataram.atorate
म
दूसरा भव
सेठ का पुनर्जन्म।
युगलियों का वर्णन । मुनि-दान के प्रभाव से, वह, उत्तर कुरुक्षेत्र में, सीता नदी के उत्तर तट की ओर, जम्बूवृक्ष के पूर्व अञ्चल में, जहाँसर्वदा एकान्त सुषम नामक आरा वर्तता है, युगलियारूप में, उत्पन्न हुआ। . ___ युगलिये तीन-तीन दिन के बाद खाने की इच्छा करने वाले, दो सौ छप्पन पृष्ठ करण्डक या पसलियोंवाले, तीन कोसके शरीर वाले, तीन पल्य की आयुवाले, अल्प कषाय वाले और ममता-हीन
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
होते हैं । उनके – आयुष्य के अन्त में मरने के किनारे होने पर, एक समय प्रसव होता है; और पैदा होता है एक अपत्यका जोड़ा: यानी जोड़ली सन्तान । उस संतानका ४६ दिन तक पालन-पोषण करके, वे मरजाते हैं । उस देहको त्यागने के बाद, वे देवगति में, उत्तर कुरुक्षेत्र में, उत्पन्न होते हैं । उस उत्तर कुरुक्षेत्र में स्वभावसे ही शक्करजैसी स्वादिष्ट रेती है। शरद ऋतु की चन्द्रिका के समान स्वच्छ निर्मल जल और रमणीक भूमि है । उस क्षेत्र में मद्याङ्ग प्रभृति दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं, जो युगलियों को मनवांछित पदार्थ देते हैं । उन में से मद्याङ्ग नामक कल्पवृक्ष मद्य देते हैं, भृङ्गाङ्ग नामक कल्पवृक्ष पात्र देते हैं, तूर्याङ्ग नामक कल्पवृक्ष मधुर रव से बजने वाले अनेक प्रकार के बाजे देते हैं, दीप शिखाङ्ग और ज्योतिष्काङ्ग नामक कल्पवृक्ष अद्भुत प्रकाश या रोशनी देते हैं, चित्राङ्ग नाम के कल्पवृक्ष फूलमालाएं देते हैं, चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष भोजन देते हैं. मण्यवङ्ग नामक कल्पवृक्ष गहने और जेवर देते हैं, गेहाकार कल्पवृक्ष मेह या घर देते हैं एवं अनग्न नाम के कल्पवृक्ष दिव्य वस्त्र देते हैं। ये कल्पवृक्ष नियत और अनियत दोनों प्रकारके पदार्थ देते हैं । और कल्पवृक्ष भी सब तरह के मनचाहे पदार्थ देते यहाँ पर सब तरह के मनचाहे पदार्थ देने वाले कलवृक्षों की भरमार होने से, धन-संठ का जीव, युगुलिया-रूप में, स्वर्ग के समान विषय सुखों को भोगने लगा ।
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SUBWOOCOOOOOO * तीसरा और चौथा भव र AADIOLORCHOOKS
देवलोक में जन्म।
युगलिया जन्म की उम्र पूरी करके, धन सेठ का जीव, पूर्वजन्म के दान के फल-स्वरूप, देवलोकमें देवता हुआ । वहाँ से चव कर, वह पश्चिम महाविदेह-स्थित गन्धिलावती विजय में, वैताढ्य पर्वतके ऊपर, गांधार देशके गन्धसमृद्धि नामक नगरमें, विद्याधरशिरोमणि शतबल नाम के राजा कीचन्द्रकान्ता नाम की भार्या की कोख से. पुत्र-रूप में उत्पन्न हुआ। शक्तिमान् होने के कारण, उस का नाम महाबल रखा गया। रक्षकों द्वारा रक्षित और लालितपालित कुमार महाबल, क्रम-क्रम से, वृक्ष की तरह बढ़ने लगा । चन्द्रमा की तरह, अनुक्रम से, सब कलाओं से पूर्ण होकर, कुमार महाबल लोगों के नेत्रों को उत्सव-रूप हो गया। उचित समय आने पर, अवसर को समझने वाले माता-पिताने, मूर्त्तिमती लक्ष्मी के समान विनयवती कन्या के साथ, उस का विवाह कर दिया। वह कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्र-रूप, कामिनियों के कर्मण-रूप और रतिके लीलावनके समान यौवनको प्राप्त हुआ। उसके पैर अनुक्रम
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र से कछुए की तरह ऊँचे और समान तलुएवाले थे। उसके शरीर का मध्य भाग सिंहके मध्य भागको तिरस्कृत करने वालोंमें अगुआ था। उसकी छाती पर्वतकी शिलाके समान थी। उसके ऊँचे-ऊँचे कन्धे बैलके कन्धोंकी तरह शोभायमान होने लगे। उस की भुजाएँ शेषनागके फणोंसी शोभित होने लगीं। उसका ललाट पूर्णिमा के आधे उगे हुए चन्द्रमा की लीला को ग्रहण करने लगा और उसकी स्थिर आकृति-मणियों के समान दन्तश्रेणी, नखों और स्वर्णतुल्य कान्तियुक्त शरीर से-मेरु पर्वत की समस्त लक्ष्मी की तुलना करने लगी।
राजा शत्बलके उच्च विचार ।
___ कुमार का अभिषेक । एक दिन सुबुद्धिमान, पराक्रमी और तत्वज्ञ विद्याधर-पति राजा शतबल, एकान्त स्थलमें, विचार करने लगा:-'अहो ! यह शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है ; इसे ऊपर से नये-नये गहनों और कपड़ों से कबतक गोपन रख सकते हैं ? अनेक प्रकार से सत्कार करते रहने पर भी, यदि एक बार सत्कार नहीं किया जाता, तो, खल पुरुष की तरह, यह देह तत्काल विकार को प्राप्त हो जाती है। बाहर पड़े हुए विष्ठा, मूत्र और कफ वगैरः पदार्थों से लोग घृणा करते हैं; किन्तु शरीर के भीतर वे ही सब पदार्थ भरे पड़े हैं, पर लोग उनसे घृणा नहीं करते! जीर्ण हुए वृक्षके कोटर में, जिस तरह सर्प बिच्छू वगैरः क्रूर प्राणी उत्पन्न होते हैं ; उसी
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प्रथम पर्व
तरह इस शरीर में, पीड़ा करने वाले अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । शरद् ऋतु के मेघ की तरह यह काया, स्वभाव से ही, नाशमान् है । यौवन भी देखते-देखते, बिजली की तरह, नाश हो जाने वाला है । आयुष्य पताका की तरह चञ्चल है । सम्पत्ति तरंगों की तरह तरल है । भोग भुजङ्ग के फण की तरह विषम हैं। संगम स्वप्न की तरह मिथ्या है। शरीर के अन्दर रहने वाला आत्मा, काम क्रोधादिक तापों से तपकर, पुटपाक की तरह, रात- - दिन सीजता रहता है । अहो ! आश्चर्य की बात है कि, इन दुखदायी विषयों में सुख मानने वाले प्राणियों को, नरक के अपवित्र कीड़े की तरह, ज़रा भी विरक्ति नहीं होती । अन्धा आदमी जिस तरह अपने सामने के कुए को नहीं देखता; उसी तरह, दुरन्त विषयों के पक्ष में फँसा हुआ मनुष्य अपने सामने खड़ी हुई मृत्यु को नहीं देखता । ज़रा सी देरके लिए, विष के समान मीठे लगने वाले विषयों से, आत्मा मूर्च्छित हो जाता है, उसके होश- हवास ठिकाने नहीं रहते; इसीसे अपनी भलाई या हितका कुछ भी विचार नहीं कर सकता । चारों पुरुषार्थों के बराबर होने पर भी, आत्मा पापरूप 'अर्थ और काम' में ही प्रवृत्त होता है; यानी धर्म और मोक्ष का ख़याल भुलाकर, केवल धन और स्त्री का ही ध्यान रखता है-धर्म और मोक्ष की प्राप्ति में प्रवृत्त नहीं होता । प्राणियों को, इस अपार संसार रूपी समुद्र में, अमूल्य रत्न के समान, मनुष्यभव मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । कदाचित मनुष्य-भव प्राप्त हो भी जाय, तोभी उसमें भगवान् अरहन्तदेव और सुसाधु गुरु तो
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आदिनाथ-चरित्र दुप-योग से ही मिलते है। जो अपने मनुष्यभव का फल ग्रहण नहीं करना, वह बस्तीवाले शहर में चोरों से लुटे हुए के समान है। इसवास्ते कवचधारी महाबल कुमार को राज्य-भार सौंप कर ---उ० । गद्दी पर बिठाकर, में अपनी इच्छा पूरी करूँ ।' मन-हीमन ऐसे विचार करके, राजा शतबल ने अपने पुत्र कुमार महाबल को अपने निकट बुलवाया और उस विनीत-नम्र, सुशील गजकुमार को राज्य-भार ग्रहण करने-राजकी बागडोर अपने हाथों में लेने का आदेश किया। महात्मा पुरुष गुरुजनो को
आज्ञा भंग करने में बहुत डरते हैं, इस काम में वे पूरे कायर होते हैं: अतः राजकुमार ने, पिता की आज्ञा से, राजकाज हाथ में लेना और चलाना मंजूर कर लिया। राजा शतबलने, कुमार की सिंहासनारूढ़ करके, उसका अभिषेक और तिलक-मंगल अपने ही हाथों से किया। मुचकुन्द के पुष्पों की सी कान्तिवाले चन्दन के तिलक से, जो उसके ललाट पर लगाया गया था, नवीन राजा ऐसा सुन्दर मालूम होता था, जैसा कि चन्द्रमा के उदय होनेसे उदयाचल मालूम होता है। हंस के पंखों के समान, पिता के छत्र के सिरपर फिरने से वह ऐसा शोभने लगा, जैसा कि शरद् ऋतु के बादलों से गिरिराज शोभता है । निर्मल बगुलों की जोड़ी से मेघ जैसा शोभता है, दो सुन्दर चलायमान चैवरों से वह वैसा ही शोभने लगा। चन्द्रोदय के समय, समुद्र जिस तरह गम्भीर गरजना करने लगता है ; उसके अभिषेक के समय, दशों दिशाओं को गुंजाने वाली, मंगल ध्वनि उसी तरह गम्भीर शब्द
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प्रथम पर्व
करने लगी । 'यह शतबल राजा का ही रूपान्तर है, उसका ही दूसरा रूप है, उसी की आत्मा की छाया है, ऐसा समझ कर, सामन्त और मंत्री - अमीर उमराव और वज़ीर लोग उसकी इज़ात, उसकी प्रतिष्ठा और उसका आदर-सत्कार एवं मान करने लगे ।
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शतबलका दीक्षाग्रहण । स्वर्गारोहण ।
इस तरह पुत्र को राज्यपद पर बैठाकर शतबल राजा ने, आचार्य के चरणों के समीप जाकर, शमसाम्राज्य – चारित्र ग्रहण किया । उसने असार विषयों को त्यागकर, साररूप रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यग्वारित्र को धारण किया : तथापि उसकी समचित्तता अखण्ड रही । उस जितेन्द्रिय पुरुष ने कषायों को इस तरह जड़ से नष्ट कर दिया; जिस तरह नदी अपने किनारे के वृक्षों को समूल उखाड फेंकती है। वह महात्मा मनको आत्मस्वरूप में लीनकर, वाणी को नियम में रख, काया से चेष्टा करता हुआ, दुःसह परिषहों को सहन करने लगा । मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ, – इन चार भावनाओं से जिस की ध्यान-सन्तति वृद्धि को प्राप्त हो गई है, ऐसा वह शतबल राजर्षि, मुक्ति में ही हो इस तरह, अमन्द आनन्द में मग्न रहने लगा । ध्यान और तप द्वारा, अपने आयुष्य को लीलामात्र में ही शेष करके, वह महात्मा देवताओं के स्थान को प्राप्त हुआ; यानी देवलोक में गया ।
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आजिनाथ-चीन महाबल की राज्यस्थिति
कुमार की विषया सक्ति। महाबल कुमार भी, अपने बलवान विद्याधरों के साहाय्य 'स, इन्द्र के समान अखण्ड शासन से, पृथ्वी का राज्य करने लगा। जिस तरह हंस कमलिनी के खण्डों में क्रीड़ा करता है, उसी तरह वह, रमणियों से घिरा हुआ, सुन्दर बागीचों की पंक्तियों में सुख से क्रीडा करने लगा। उसके नगर में हमेशा होनेवाले संगीत की प्रतिध्वनि से वैताढ्य पर्वत की गुफायें, मानो संगीत का अनुवाद करती हों इस तरह, प्रतिध्वनित होने या गूंजने लगीं। अगलबग़ल में स्त्रियों से घिरा हुआ, वह मूर्त्तिमान शृङ्गार रसके जैसा दीखने लगा। स्वच्छन्दता से विषय-क्रीड़ा में आसक्त हुए महाबल राजा के लिए, विषुवत् के समान, रात और दिन समान होने लगे।
राजसभा। एक दिन, दूसरे मणिस्तम्भ हों ऐसे अनेक मंत्री और सामन्तों से अलंकृत, सभा में कुमार बैठा हुआ था; और उसको नमस्कार करके सारे सभासद भी अपने-अपने योग्य स्थानों पर बैठे हुए थे। वे राजकुमार के विषय में, एकाग्र नेत्रों से, मानो योग की लीला धारण करते हों, ऐसे दिखाई देते थे। स्वयं बुद्धि, मंभिन्नमति, शतमति और महामति—ये चार मंत्री भी आकर वहाँ बैठे हुए थे। उनमें से स्वामी की भक्ति में अमृत-सिन्धु-तुल्य, बुद्धि
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रूपी रत्नमें रोहणाचल पर्वत के समान और सम्यग्दृष्टि स्वयंबुद्धमंत्री, उस समय, इस प्रकार विचार करने लगा:
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स्वयं बुद्धमंत्री की स्वामिभक्ति ।
“अहो ! हमारे देखते देखते विषयासक्त हमारे स्वामी का, दुष्ट अश्वों की तरह, इन्द्रियों द्वारा हरण हो रहा है ; अर्थात् दुष्ट घोड़े जिस तरह अपने रथी को कुराहों में ले जाकर नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं; उसी तरह दुष्ट इन्द्रियाँ हमारे विषयों में फँसे हुए स्वामी का सत्यानाश कर रही हैं ! हम सब लोग देख रहे हैं, पर कुछ करते - धरते नहीं । क्या यह शर्म की बात नहीं है ? इसकी उपेक्षा करने वाले, हम लोगों को धिक्कार है ! विषय-विनोद में लगे हुए हमारे स्वामी का जन्म व्यर्थ जा रहा है, इस बात को जानकर, मेरा मन उसी तरह तड़फता और छटपटाता है; जिस तरह कि अल्प जल में मछली तड़फती और छटपटाती है । अगर हमारे जैसे मंत्रियों से भी कुमार उच्च पदको प्राप्त न हो, त्यागकर सुराह पर न आवे, विषयों को विषवत् न त्यागे, हम में और मसख़रों में क्या तफावत होगा ? इसलिए स्वामी से अनुनय-विनय करके उन्हें हितमार्ग पर लाना चाहिए । नम्रतापूर्व्वक विषय-भोगों की बुराइयाँ समझा-बुझाकर, उन्हें कुराह से हटाकर सुराह पर लाना चाहिये। क्योंकि राजा लोग, सारणी की तरह, जिधर प्रधान या मंत्रीगण ले जाते हैं, उधरही जाते हैं। सम्भव है, स्वामी के व्यसनों से जीवन निर्वाह करने वाले, स्वामी
कुराह को
तो
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र को विषय-भोगों में लगाकर जिन्दगी बसर करने और गुलछरे उडाने वाले विरोध करें, हमारे अच्छे काम में विघ्न-बाधा उपस्थित करें: लेकिन हमको तो स्वामी के हितकी बात कहनी ही चाहिथे। क्या हिरनों के डर से कोई खेत में अनाज बोना बन्द कर देता है ? स्वामी के सच्चे शुभचिन्तक सेवक को विरोधियों के भय और हज़ारों आपदाओं की सम्भावना होने पर भी, अपने पवित्र कर्त्तव्य या फर्ज के अदा करने में आनाकानी न करनी चाहिए। स्वयंवुद्ध मंत्री ने, जो सारे वुद्धिमानों में अग्रणी या अगुआ था, इस प्रकार विचार कर ओर अञ्जलिबद्ध होकर अर्थात् हाथ जोड़ कर राजा से कहा--
स्वयंबुद्ध मंत्री का सदुपदेश । ___ "हे राजन् ! यह संसार समुद्र के समान है। नदियों के जल से जिस तरह समुद्र की तृप्ति नहीं होती; समुद्र के जल से जिस तरह बड़वानल की तृप्ति नहीं होती: प्राणियों से जिस तरह यमराज की तृप्ति नहीं होती; काष्ठ-समूह से जिस तरह अग्नि की तृप्ति नहीं होती; उसी तरह, इस जगत् में, विषय-सुखों से, किसी दशामें भी आत्मा की तृप्ति नहीं होती। प्राणी ज्यों-ज्यों विषयों को भोगता है, त्यों त्यों उसकी उनके भोगने की इच्छा और भी बलवती होती है। नदी-किनारे की छाया, दुर्जन, विषय और सादिक विषधर प्राणी, अत्यन्त सेवन करनेसे, विपत्ति के कारण ही होते हैं। सारांश यह कि, ये जितने ही अधिक सेवन
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पवे
किये जाते हैं ; उतने हीअधिक दुःख और आपदाओं के देनेवाले होते हैं। इनका परिणाम भला नहीं। ये सदा दुःख के मूल हैं । कामदेव, सेवन करने से, तत्काल सुख के देनेवाला जान पड़ता है, परन्तु परिणाम में वह विरस है। खुजाने से जिस तरह दाद बढ़ता है; सेवन करनेसे उसी तरह कामदेव भी बढ़ता है। दाद में एक प्रकार की खुजली चला करती है, उसमें मनुष्य को अपूर्व आनन्द आता है, उस आनन्द की बात लिखकर बता नहीं सकते। ज्यों ज्यों खुजाते हैं, खुजाते रहने की इच्छा होती है ; खुजाने से तृप्ति नहीं होती, पर परिणाम उसका बुरा होता है; दाद बढ़ जाता है, जिससे नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं । दाद की सी ही हालत कामदेव की है। स्त्री-सेवन से तत्काल एक प्रकार का अपूर्व आनन्द आता है; उस आनन्द पर पुरुष मुग्ध हो जाता है। निरन्तर स्त्री सेवन करने से मनकी तृप्ति नहीं होती। वह अधिकाधिक स्त्री-सेवन चाहता है; परन्तु परिणाम इसका भी दाद की तरह खराब ही होता है। मनुष्य का बन्धन और दुःखों से पीछा नहीं छूटता ; क्योंकि कामदेव नरक का दूत, व्यसनों का समुद्र, विपत्ति-रूपी लता का अङ्कर और पाप-वृक्ष का क्यारा है। कामदेव के वश में हुआ पुरुष, मद्य के वश में हुए की तरह, सदाचार रूपी मार्ग से भ्रष्ट होकर, संसार रूपी खड्ड में गिरता है। जहाँ कामदेव की तूती बोलती है, जहाँ कामदेव का आधिपत्य रहता है, वहाँ से सदाचार शीघ्र ही नौ दो ग्यारह होता है। कामदेव पुरुष के सर्वनाश में कोई बात उठा नहीं रखता। जिस तरह गृहस्थ के घर में चूहा
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आदिनाथ-चरित्र घुलकर अनेक स्थानो को खोद डालता है : उली तरह कामदेव मनुष्य शरीर में घुस कर अर्थ, धर्म और मोक्ष को खोद वहाला है । स्त्रियाँ देखने, छूने और भोगने से, विपल्ली की तरह, अत्यन्त व्यामोह-पीड़ा उत्पन्न करती हैं। वे कामरूपी लुब्धक---पारधि या शिकारी की जाल हैं; इसलिये हिरन के समान पुरुषों के लिए अनर्थकारिणी होती हैं। जो मसखरे मित्र हैं, वे तो केवल खानेपीने और स्त्री विलास के मित्र हैं। इससे वे अपने स्वामी के, परलोक-सम्बन्धी हित का विचार नहीं करते। स्वार्थियों को स्वामी के हित से क्या मतलब ? स्वामी के हित का विचार करने से उनके अपने स्वार्थ में बाधा पड़ती है। उनकी मौज़ में फ़र्क आता है। ये स्वार्थ-तत्पर नीच, लम्पट और खुशामदी होकर, अपने स्वामी को स्त्रियों की बातों, नाच, गाने और दिल्लगी से मोहित करते हैं। बेर के झाड़ के सम्बन्ध से जिस तरह केले का वृक्ष कभी सुखी नहीं होता ;उसी तरह कुसंग से कुलीन पुरुषों का कभी भी अभ्युदय नहीं होताअधःपतन ही होता है । इसलिए हे कुलवान स्वामी । प्रसन्न हूजिये। आप स्वयं विज्ञ हैं; इसलिये मोह को त्यागिये
और व्यसनों से विरक्त होकर धर्म में मन लगाइये। छाया हीन वृक्ष, जल-रहित सरोवर, सुगन्ध-विहीन पुष्प, दन्त-विना हस्ती, लावण्य-रहित रूप, मंत्री विना राज्य, देव-मूर्ति बिना मन्दिर, चन्द्र बिना यामिनी, चारित्र बिना साधु, शस्त्र-रहित सैन्य और नेत्र रहित मुख जिस तरह अच्छा नहीं लगता ; उसो तरह धर्म
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प्रथम पव
रहित पुरुष भी अच्छा नहीं लगता-बुरा मालूम होता है। चक्रवर्ती भी यदि अधर्मी होता है, तो उसको पर भव में ऐसा जन्म मिलता है, जिस में खराब अन्न भी राज्य-लक्ष्मी के समान समझा जाता है। यदि मनुष्य बड़े कुल में पैदा होकर भी धर्मोपार्जन नहीं करता है ; तो दूसरे भव में, कुत्ते की तरह, दूसरे के जूठे भोजन को खाने वाला होता है। ब्राह्मण भी यदि धर्म-हीन होता है, तो वह नित्य पाप का बन्धन करता है और बिल्ली के समान दुष्ट चेष्ठा वाला होकर म्लेच्छ-योनि में जन्म लेता है। धर्म-हीन भव्य प्राणी भी बिल्ली, सर्प, सिंह, बाज़ और गिद्ध प्रभृति की नीच योनियों में अनेकानेक जन्मों तक उत्पन्न होता
और वहाँ से नरक में जाता है और वहाँ, मानो वैर से कुपित हो रहे हों ऐसे, परमाधार्मिक देवताओं से अनेक प्रकार की कदर्थना पाता है। सीसे का गोला जिस तरह अग्नि में पिघलता है ; उसी तरह अनेक व्यसनों की आवेग रूपी अग्नि के भीतर रहने वाले अधर्मी प्राणियों के शरीर क्षीण होते रहते हैं ; अतः ऐसे प्राणियों को धिक्कार है ! परम बन्धु की तरह, धर्म से सुख की प्राप्ति होतीहै। नाव की तरह, धर्म से आपत्ति रूपी नदियाँ पार की जा सकती हैं । जो धर्मोपार्जन में तत्पर रहते हैं, वे पुरुषों में शिरोमणि होते हैं। लताएँ जिस तरह वृक्षों का आश्रय लेती हैं: सम्पत्तियाँ उसी तरह धर्मात्माओं का आश्रय ग्रहण करती हैं ; यानी लक्ष्मी धर्मात्माओं के पास आती है। जिस तरह जल से अग्नि नष्ट हो जाती है ; उसी तरह धर्म से आधि, व्याधि और उपाधि, जोकि पीड़ा की
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र हेतु हैं, तत्काल नष्ट हो जाती हैं। परिपूर्ण पराक्रम से किया हुआ धर्म, दूसरे जन्म में, कल्याण-सम्पत्ति देने के लिए ज़ामिन रूप होता है । हे स्वामिन् ! बहुत क्या कहूँ ? नसैनी से जिस तरह मनुष्य महल के सर्वोच्च भाग पर चढ़ जाता है, उसी तरह प्राणी बलवान धर्म से लोकाग्र-मोक्ष को प्राप्त होता है। आप धर्म ही से विद्याधरों के स्वामी हुए है ; इसलिये, उत्कृष्ट लाभ के लिये. अब भी धर्म का ही आश्रय लें।
नास्तिक मत-निरूपण ।
___ वाद-विवाद। __ स्वयंबुद्ध मन्त्री के उपरोक्त बातें कहने के बाद, अमावस्या, की रात्रि के समान मिथ्यात्वरूपी अन्धकार की खान रूप और विष-समान विषम बुद्धिवाला संभिन्नमति नाम का मन्त्री बोला.... "अरे स्वयंबुद्ध तुम धन्य हो! तुम अपने स्वामी की अतीव हितकामना करते हो ! डकार से जिस तरह आहार का अनुभव होता है : उसी तरह तुम्हारी वाणी से तुम्हारे अभिप्राय का पता चलता है। सदा सरल और प्रसन्न रहने वाले स्वामी के सुख के लिये, तुम्हारे जैसे कुलीन मंत्री ही ऐसी बातें कह सकते हैं, दूसरा तो कोई कह नहीं सकता ! किस कठोर-स्वभाव के उपाध्याय ने तुम्हें पढ़ाया है। जिससे असमय में वज़ पात-जैसे बचन तुमने स्वामी से कहे। सेवक जब अपने भोग के लिएही स्वामी की सेवा करते हैं ; तब वे अपने स्वामी से-"आप भोग
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
न भोगें ऐसा किस तरह कह सकते हैं ? जो इस भव-सम्बन्धी भोगों को त्याग कर, परलोकके लिये चेष्टा करते हैं, वे, हथेली में रक्खे हुए चाटने योग्य लेह्य पदार्थ को छोड़कर, कोहनी चाटनेवाले कसा काम करते हैं। धर्म से परलोक में फल की प्राप्ति होती है, ऐसी बात जो कही जाती है, वह असङ्गत है; क्योंकि परलोकी जनों का अभाव है, इसलिये परलोक भी नहीं है । जिस तरह गुड़, पिष्ट और जल वगैरः पदार्थों से मद-शक्ति उत्पन्न होती है; उसी तरह पृथ्वी, जल, तेज और वायु से चेतना - शक्ति उत्पन्न होती है । शरीर से जुदा कोई शरीरधारी प्राणी नहीं है, जो इस शरीर को त्याग कर परलोक में जाय, इसलिये विषयसुख को बेखटके भोगना चाहिये, विषयों के भोगने में निःशङ्क रहना चाहिये और अपने आत्मा को ठगना नहीं चाहिए; क्योंकि स्वार्थ भ्रंश करना मूर्खता है । धर्म और अधर्म- - पुण्य प पाप की तो शङ्का ही नहीं करनी चाहिए; क्योंकि सुखादिक मेंवे विघ्न-बाधा उपस्थित करने वाले हैं; और फिर, गधे के सींगों की तरह वे कोई चीज़ हैं भी नहीं । ज्ञान, विलेपन, पुष्प और वस्त्राभूपण प्रभृति से जिस पत्थर को पूजते हैं, उसने क्या पुण्य किया है ? और जिस पत्थर पर बैठकर लोग मल-मूत्र त्याग करते हैं, उसने क्या पाप किया है ? अगर प्राणी कर्म से उत्पन्न होते और मरते हैं; तो पानी के बुलबुले किस कर्म से उत्पन्न और नष्ट होते हैं ? जबतक चेतन अपनी इच्छा से चेष्टा करता है, तब तक वह चेतन कहलाता है और जब वह चेतन नष्ट हो जाता है, तब उसका
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प्रथम व
आदिनाथ चरित्र पुनर्जन्म नहीं होता। जो प्राणी मरते हैं, ये भी फिर जन्मने हैं, ऐसा कहना सर्वथा युक्तिराम है. इनेमा की बात है। इन बात में कुछ भी तथ्य नहीं है। जिसे पानी पाट शय्यः पर. रूबलावण्यवती सुन्दीरमणधों की सास, विमाण करते हुए और अमृत समान भोज्य और या पदार्थों को मामारुचि आबादन करते हुए अपने मामा को को ...इन सब भोगों के भोगने का निषेध कर , उसे स्त्री का वैरी समझना चाहिए । हे स्वामिन् ! मानो अप सौरमा लुगन्ध ही में पैदा हुए हों, इस तरह आप कपूर, चन्द , अगर, कस्तूगा और चन्दनादि से रात-दिन व्याप्त रहिये-दिवारात उन्हीं का आनन्द उपभोग कीजिये। हे राजन् ! नेत्ररञ्जन करने या आँखों को सुख देने के लिए उद्यान, वाहन, किला और चित्रशाला प्रभृति जो जो पदार्थ सुन्दर और मनोमुग्धकर हों. उनको बारम्बार देखिये। हे स्वामिन् ! वीणा, वेणु, मृदंग, आदि बातों के साथ गाये जानेवाले गीतों का मधुर शब्द अपने कानों में, रसायन की तरह, ढालते रहिये। जबतक जोवन रहे, तब तक विषय-सुख भोगते हुए जीना चाहिए और धर्म-कार्य के लिए छटपटाना न चाहिये: क्योंकि धर्म-अधर्म का कुछ भी फल नहीं है . अर्थात् धर्म-अधर्म कोई चीज़ नहीं; अतः इनका फल भी नहीं। जितने दिन ज़िन्दगी रहे, उतने दिन मौज करनी चाहिये। आनन्दमग्न रहकर जीवन यापन करना चाहिये।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
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नास्तिक मत-खण्डन ।
संभिन्नमति मंत्री की ऐसी बातें सुनकर, स्वयंबुद्ध बोला"अरे ! अपने और पराये शत्रु -रूप नास्तिकों-धर्माधर्म और ईश्वर कोन मानने वालों को धिक्कार है ! क्योंकि वे जिस तरह अन्धा अन्धे को खींचकर खड्डे में गिराते हैं, उसी तरह मनुष्यों को खींचकर-अपनी लच्छेदार बातों में उलझाकर-अधोगति में गिराते हैं। जिस तरह सुख-दुःख स्वसंवेदना से जाने जा सकते हैं; उसी तरह आत्मा भी स्वसंवेदना से जानने-योग्य है । उस स्वसंवेदना में बाधा का अभाव होनेके कारण, आत्मा का निषेध कोई भी नहीं कर सकता। 'मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ-ऐसी अबाधित प्रतीति आत्मा के सिवा और किसी को भी नहीं हो सकती ; अर्थात् सुख और दुःख का अनुभव आत्मा के सिवा और किसी भी पदार्थ को हो नहीं सकता। एकमात्र आत्मा में ही दुःख-सुख के अनुभव करने की शक्ति है। इस तरह के ज्ञानसे, जिस तरह अपने शरीर में आत्मा का होना सिद्ध होता · है; उसी तरह, अनुमान से, पराये शरीर में भी आत्मा का होना सिद्ध हो सकता है। सर्वत्र, बुद्धि-पूर्वक, क्रिया की प्राप्ति देखनेसे, इस बात का निश्चय होता है कि, पराये शरीर में भी आत्मा है। जो मरता है, वही फिर जन्म लेता है, इससे इस बात के मानने में कोई संशय नहीं रह जाता, कि चेतन कापरलोक भी है। जिस तरह चेतन बालक से जवान और और जवान से बूढ़ा
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प्रथम पत्र
आदिनाथ-चरित्र होता है: उसी तरह वह एक जन्म के बाद दूसरा जन्म पाता है: अर्थात् जिस तरह चेतन की बाल, युवा और जरा अवस्थायें होती हैं: उसी तरह उसका मरने के बाद फिर जन्म भी होता है। जिस तरह वह बाल, युवा और वृद्धावस्था को प्राप्त होता है: उसी तरह वह मरण और पुनर्जन्म की अवस्था को भी प्राप्त होता है। पूर्व जन्म की, अनुवृत्ति के बिना, हाल का पैदा हुआ बच्चा, बिना सिखाये, माता के स्तनों पर मुँह कैसे लगाता है ? बालक को, पहले जन्म की, स्तनपान करने की बात याद रहती है: इसी से वह पैदा होते ही, बिना किसी के सिखाये, अपनी भूख शान्त करने के लिए, माता के स्तन ढूँढता और पाते ही सीखे सिखाये की तरह उन्हें पीने लगता है। फिर यह बात भी विचाग्ने योग्य है, कि जब इस जगत् में कारण के अनुरूप ही कार्य होता है जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है .. तब अचेतन भूतों या तत्त्वों से चेतन किस तरह पैदा हो सकता है ? अचंतन से अचेतन ही पैदा हो सकता है--चेतन नहीं : हे संभिन्नमति ! मैं तुझसे पूछता हूँ कि, चेतन प्रत्येक भूत से पैदा होता है या सब के संयोग से ? प्रत्येक भूत या तत्व से चेतन उत्पन्न होता है, अगर इस प्रथम पक्षकी बातको मान लें, तो उतनी ही चेतना होनी चाहिये। अगर दूसरे पक्षको ग्रहण करते हैं, इस बात को मान लेते हैं कि, सब भूतों के संयोग से चेतन उत्पन्न होता है, तब यह संशय खड़ा हो जाता है कि, भिन्नभिन्न स्वभाव वाले भूतों से एक स्वभाव वाला चेतन कैसे पैदा
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व हो सकता है ? ये सब बातें विचार करने लायक हैं । रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये चार गुण पृथ्विी में हैं। रूप, स्पर्श और रस-ये तीन गुण जल में हैं। रूप और स्पर्श ये दो गुण तेज या अग्नि में हैं और एक स्पर्श गुण वायु में है। इस तरह इन भूतों के भिन्न-भिन्न स्वभाव सब को मालूम ही हैं। अगर तू यह कहे कि, जिस तरह जलसे विसदृश मोती पैदा होते देखा जाता है, उसी तरह अचेतन भूतों से चेतन की भी उत्पत्ति होती है, तो तेरा यह कहना भी उचित और ठीक नहीं है ; क्योंकि मोती प्रभृति में भी जल दीखता है तथा मोती और जल दोनों पौगलिक हैं; अतः उनमें विसदृशता नहीं है। पिष्ट, गुड़ और जल आदि से होनेवाली मद-शक्ति का तू दृष्टान्त देता है। परन्तु वह मदशक्ति भी तो अचेतन है ; इसलिए चेतन में वह दृष्टान्त घट नहीं सकता। देह और आत्मा का ऐक्य कदापि कहा नहीं जा सकता; क्योंकि मरे हुए शरीर में चेतन-आत्मा उपलब्ध नहीं होता। एक पत्थर पूज्य है और दूसरे पर मल मूत्र आदिका लेपन होता है, यह दृष्टान्त भी असत् है; क्योंकि पत्थर अचेतन है। उसे सुख-दुःख का अनुभव ही कैसे हो सकता है ? इसलिए, इस देहसे भिन्न परलोक में जानेवाला आत्मा है
और धर्म-अधर्म भी हैं ; क्योंकि उनका कारण-रूप परलोक सिद्ध होता है। आग की गरमी से जिस तरह मक्खन पिघल जाता है, उसी तरह स्त्रियों के आलिंगन से मनुष्यों का विवेक सब तरह से नष्ट हो जाता है। अनर्गल और बहुत रसवाले आहार
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
पुद्गलों को खानेवाला मनुष्य, उन्मन्त पशु की तरह, उचित कर्म को जानता ही नहीं । चन्दन, अगर, कस्तूरी और कपूर प्रभृति की सुगन्ध से, सर्पादिकी तरह, कामदेव मनुष्यों पर आक्रमण करता है 1 काँटों की बाड़ में उलझे हुए कपड़े के पल्ले से जिस तरह मनुष्य की गति स्खलित हो जाती है : उसी तरह स्त्री आदि के रूपमें संलग्न हुए नेत्रों से पुरुष स्खलित हो जाता है। धूर्त मनुष्य की मित्रता जिस तरह थोड़ी देर के लिए सुखकारी होती है; उसी तरह बारम्बार मोहित करने वाला संगीत हमेशा कल्याणकारी नहीं होता। इसलिए, हे स्वामिन् ! पाप के मित्र, धर्म के विरोधी और नरक में आकर्षण करने के लिए पापरूप विषयों को दूर से ही त्याग दो; क्योंकि एक तो सेव्य होता है और दूसरा सेवक होता है: एक याचक होता है और दूसरा दाता होता है; एक वाहन होता है और दूसरा उसके ऊपर चढ़ने वाला होता है; एक अभय माँगनेवाला होता है और दूसरा अभयदान देनेवाला होता है, इत्यादिक बातों से इस लोक में ही, धर्म-अधर्म का बड़ा भारी फल देखने में आता है । यदि धर्म-अधर्म का फल प्राणी को न भोगना पड़ता, तो इस जगत् में हम सब को समान देखते। किसी को मालिक और किसी को नौकर, एक को भिखारी और दूसरे को दाता, एक को सवारी और दूसरे को सवार तथा एक को अभय मांगनेवाला और दूसरे को अभयदान देनेवाला न देखते । सारांश यह, जो जैसा भला या बुरा कर्म करता है; उसे वैसा ही फल मिलता
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भादिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व है और उस फल के भोगने के लिए, कर्म करनेवाले को, मरकर, फिर जन्म लेना पड़ता है। इस जगत् में, ये सब आँखों से देखने पर भी, जो मनुष्य परलोक और धर्म-अधर्म को नहीं मानते, उन बुद्धिमानों का भी भला हो! अब और अधिक क्या कहूँ ? हे राजन् ! आपको असत् वाणी के समान दुःख देनेवाले अधर्म का त्याग करना चाहिये और सत् वाणी के समान सुख के अद्वितीय कारण-रूप धर्म को ग्रहण करना चाहिये।"
क्षणिक मत का नैराश्य । ये बातें सुनकर शतमति नामक मंत्री बोला–प्रतिक्षण भंगुर पदार्थ विषय के ज्ञान के सिवाय दूसरी ऐसी कोई आत्मा नहीं है ; और वस्तुओं में जो स्थिरता की बुद्धि है, उसका मूल कारण वासना है; इसलिये पहले और दूसरे क्षणों का वासनारूप एकत्व वास्तविक है-क्षणों का एकत्व वास्तविक नहीं।" - स्वयंबुद्ध ने कहा-'कोई भी वस्तु अन्वय-परम्परा--- रहित नहीं है। जिस तरह जल और घास वगैरः की, गायों में दूध के लिए. कल्पना की जाती है, उसी तरह आकाश-कुसुम समान और कछुए के रोम के समान, इस लोक में, कोई भी पदार्थ अन्वय-रहित नहीं है। इसलिए क्षणभंगुरता की बुद्धि व्यर्थ है। यदि वस्तु क्षणभंगुर है, तो सन्तान परम्परा भी क्षण. भंगुर-क्षण में नाश होनेवाली-क्यों नहीं कहलाती ? अगर सन्तान की नित्यता को मानते हैं, तो समस्त पदार्थ क्षणिक
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आदिनाथ चरित्र
क्षणस्थायी किस तरह हो
यदि सब पदार्थों को
सकते हैं ? मानते हैं :
अनित्य- सदा न रहने वाले नो सौंपी हुई धरोहर का वापस माँगना, पहली बात की याद करना और अभिज्ञान करना. ये सब किस तरह हो सकते हैं ? अगर जन्म होनेके पीछे क्षणभर में ही नाश हो जाय, तो दूसरे क्षण में हुआ पुत्र पहले के माता-पिता का पुत्र नहीं कहलावेगा और पुत्र के पहले क्षण में हुए माता-पिता वे माता-पिता न कहलायेंगे 1 इसलिये वैसा कहना असंगत है । अगर विवाह के समय, पिछले क्षण में, दम्पति क्षणनाशवन्त हों, तो उस स्त्री का वह पति नहीं और उस पति की वह स्त्री नहीं ऐसा होय यह कहना अनुचित है । एक क्षण में जो अशुभ कर्म करे, वही दूसरे क्षण में उसका फल न भोगे और उसको दूसरा ही भोगे : तो इससे किये हुए का नाश और न किये हुए का आगम या प्राप्ति ये दो बड़े दोष होते हैं।"
इसके बाद महामति मंत्री बोला- यह सब माया है; वास्तव में कुछ भी नहीं । ये सब पदार्थ जो दिखाई देते हैं, स्वप्न और मृगतृष्णा के समान मिथ्या हैं । गुरु-शिष्य, पिता- -पुत्र, धर्म-अधर्म और अपना पराया ये सब व्यवहार से देखने में आते हैं: लेकिन वास्तव में कुछ भी नहीं है। जो इस लोक के सुख को छोड़ कर परलोक के लिये दौड़ते हैं, वे उस स्यार की तरह, जो अपने लाये हुए मांस को नदी-तीर पर छोड़ कर, मछली के लिए पानी में दौड़ा : मछली पानी में चली गई और
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प्रथम पर्व
उस मांस को गिद्ध पक्षी लेकर उड़ गया-उभयभ्रष्ट होकर अपने आत्मा को ठगते हैं या पाखण्डियों की खोटी शिक्षा को सुनकर और नरक से डरकर, मोहाधीन प्राणी व्रत प्रभृति से अपने शरीर को दण्ड देते हैं । और लावक पक्षी पृथ्वी पर गिरने कीशंका से जिस तरह एक पाँव से नाचता है; उसी तरह मनुष्य नरकपात की शंका से तप करता है।"
स्वयं बुद्ध बोला--'अगर वस्तु सत्य न हो, तो इससे अपने कामके करनेवाला अपने कामका कर्ता किस तरह हो सकता है? यदि माया है, तोसुपने में देखा हुआ हाथी कामक्यों नहीं करता ? अगर तुम पदार्थों के कार्यकारण-भाव को सच नहीं मानते, तो गिरने वाले वज़ से क्यों डरते हो? अगर यही बात है, तो तुम
और मैं वाच्य और वाचक कुछ भी नहीं हैं। इस दशा में, व्यवहार को करने वाली इष्ट की प्रतिपत्ति भी किस तरह हो सकती है ? हे देव ! इन वितण्डवाद में पण्डित, सुपरिणाम से पराङ्मुख, और विषयाभिलाषी लोगों से आप ठगे गये हैं; इसलिये विवेक का अवलम्बन करके विषयों को त्यागिये एवं इस लोक और परलोक के सुख के लिऐ धर्म का आश्रय लीजिये। ___इस तरह मन्त्रियों के अलग-अलग भाषण सुनकर, प्रसाद से सुन्दर मुंहवाले राजा ने कहा-“हे महाबुद्धि स्वयं बुद्ध !. तुमने बहुत अच्छी बातें कहीं। तुमने धर्म ग्रहण करने की सलाह दी है, वह युक्ति-युक्त और उचित है। हम भी धर्म
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
दोषी नहीं हैं: परन्तु युद्ध में जिस तरह अवसर आने से मन्त्रास्त्र ग्रहण किया जाता है : उसी तरह अवसर आने पर धर्मको ग्रहण करना उचित है । बहुत दिनों में आये हुए मित्र की तरह यौवन की प्रतिपत्ति किये बिना, कौन उसकी उपेक्षा कर सकता है ? तुमने जो धर्म का उपदेश दिया है, वह अयोग्य अवसर पर दिया है: अर्थात् वे मौके दिया है; क्योंकि वीणा के बजते समय वेद का उच्चार अच्छा नहीं लगता । धर्म का फल परलोक है, में सन्देह है । इसलिये तुम इस लोक के सुखास्वाद का निषेध क्यों करते हो ? अर्थात् इस दुनिया के मज़े लूटने से मुझे क्यों रोकते हो ?”
इस
राजा की उपरोक्त बातें सुनकर स्वयं बुद्ध हाथ जोड़ कर बोला - "आवश्यक धर्म के फल में कभी भी शंका करना उचित नहीं, आपको याद होगा कि, बाल्यावस्था में आप एक दिन नन्दन वन में गये थे । वहाँ एक सुन्दर कान्तिवान देव को देखा था । उस समय देव ने प्रसन्न होकर आप से कहा था- ' -'मैं अतिवल नामक तुम्हारा पितामह हूँ । क्रूर मित्र के समान विषय सुखों से उद्विग्न होकर, मैंने तिनके की तरह राज्य छोड़ दिया और रत्नत्रय को ग्रहण किया । अन्तावस्था में भी, व्रत रूपी महल के कलश रूप त्याग-भाव को मैंने ग्रहण किया था। उसके प्रभाव से काधिपति देव हुआ हूँ । इसलिये तुम भी असार संसार में प्रमादी होकर मत रहना।' इस प्रकार कहकर, बिजली की तरह आकाश को प्रकाशित करता हुआ, वह देव अन्तर्धान हो
मैं
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पवे
गया। अतः हे महाराज! आप अपने पितामह की कही उन बातों को याद करके, परलोक का अस्तित्व मानिये; कोंकि जहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण हो, वहाँ और प्रमाणों की कल्पना की क्या जरूरत?
स्वयंबुद्ध का कहा हुआ पिछला इतिहास ।
राजा ने कहा-'तुमने मुझे पितामह की कही हुई बातों की याद दिलाई, यह बहुत अच्छा काम किया। अब मैं धर्मअधर्म जिसके कारण हैं, उस परलोक को दिलसे मानता हूँ। राजा की आस्तिकता-पूर्ण बातें सुनकर, ठीक मौका देखकर, मिथ्याष्टियों की बाणी-रूप धूल में मेघ की तरह, स्वयंबुद्ध मंत्री ने इस तरह कहना आरम्भ किया:-'हे महाराज ! पहले आपके वंश में कुरुचन्द्र नामका राजा हुआ था। उस के कुरुमती नाम की एक स्त्री और हरिश्चन्द्र नामका एक पुत्र था। वह राजा क्रूरकर्मी, परिग्रहकर्ता, अनार्यकार्य में अग्रसर, यमराज के समान निर्दयी, दुराचारी और भयङ्कर था; तोभी उसने बहुत समय तक राज्य भोगा। क्योंकि पूर्वोपार्जित पुण्य का फल अप्रतिम होता है। उस राजा को, अवसान-काल में, धातुविपर्यय का रोग हो गया और वह निकट आये हुए नरक के क्लेशों का नमूना हो गया। इस रोग से, उसकी रूई की भरी हुई शय्या काँटों की सेज के समान हो गई। नरम गुदगुदा पलँग शूलों की तरह चुभने लगा। सरस भोजन नीम के रस
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प्रथम पर्य
आदिनाथ-चरित्र
की तरह नीरस लगने लगा। चन्दन, अगर, कस्तूरी प्रभृति सुगन्धित पदार्थ दुर्गन्धित मालूम होने लगे। पुत्र और स्त्री. शत्रु की तरह, दृष्टि में उद्वेगकारी हो गये। मधुर और सरस गान-गध, ऊँट और स्यारों के भयङ्कर शब्दों की तरह-कानों को क्लेशकारी लगने लगा। जिसके पुण्यों का विच्छेद होता है, जिसके सुकर्मों का छोर आजाता है, उसके लिये सभी विपरीत हो जाते हैं। कुरुमती और हरिश्चन्द्र, परिणाम में दुःखकारी, पर क्षण-भर के लिए सुखकारी विषयों का उपचार करते हुए गुप्त रीति से जागने लगे। अङ्गारों से चुम्बन किये गये की तरह, उसके प्रत्येक अङ्ग में दाह पैदा हो गया। दाह के मारे उसका शरीर जलने लगा। शेष में: वह दाह से हाय-हाय करता हुआ, गैद्रपरायण होकर, इस दुनिया से कूच कर गया। मृतक की अग्निसंस्कार आदि क्रिया करके, सदाचार रूपी मार्ग का पथिक बनकर, उसका पुत्र हरिश्चन्द्र विधिवत् राज्यशासन और प्रजापालन करने लगा। अपने पिता की पाप के फल-स्वरूप हुई मृत्यु को देखकर, वह ग्रहों में सूर्य की तरह, सब पुरुपार्थों में मुख्य धर्म की स्तुति करने लगा। एक दिन उसने अपने सुबुद्धि नामक श्रावक-बालसखा को यह आज्ञा दी कि. तुम नित्य धर्मवेत्ताओं से धर्मोपदेश सुनकर मुझे सुनाया करो। सुबुद्धि भी अत्यन्त तत्पर होकर राजाज्ञा को पालन करने लगा। नित्य धर्म-कथा सुनकर राजा को सुनाने लगा। अनुकूल अधिकारी की आज्ञा सत्पुरुषों के उत्साह-वर्द्धन में सहायक होती
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प्रथम पवं
है; अर्थात् अनुकूल अधिकारी की आज्ञा से भले आदमियों को उत्साह होता है । रोग से डरा हुआ मनुष्य जिस तरह औषधि पर श्रद्धा रखता है; पाप से डरा हुआ हरिश्चन्द्र उसी तरह सुबुद्धि के कहे हुए धर्म पर श्रद्धा रखता था ।'
एक दिन नगर के बाहर के बगीचे में रहनेवाले शीलंधर नामक महामुनि को केवलज्ञान हुआ; इससे देवता अर्चन करने के लिए वहाँ जारहे थे । यह वृत्तान्त सुबुद्धि ने हरिश्चन्द्र से कहा । यह समाचार पाते ही वह शुद्ध हृदय राजा, घोड़े पर चढ़करमुनीन्द्र के पास पहुँचा और उन्हें नमस्कार करके वहाँ बैठ गया । महामुनि ने कुमति रूपी अन्धकार में चन्द्रिका के समान धर्म - देशना उसे दी । देशना के शेष होने पर, राजा ने हाथ जोड़ कर मुनिराज से पूछा - 'महाराज ! मेरा पिता मरकर किस गति में गया है ?' त्रिकालदर्शी मुनि ने कहा- 'राजन ! आप का पिता सातमी नरक में गया है। उसके जैसे को और स्थान ही नहीं है।' इस बात के सुनते ही राजा को वैराग्य* उत्पन्न हो
* विषयों के भोगने में रोगोंका, कुल में दोषों का, धन में राज का, मौन रहने में दीनता का, बल में शत्रुओं का, सौन्दर्य्य में बुढ़ापे का, गुणों में दुष्टों का और शरीर में मौत का भय है । संसार और संसार के सभी कामों में भय है । अगर भय नहीं है, तो एक मात्र वैराग्य में नहीं है, जिस वैराग्य मैं भय का नाम भी नहीं है और जिसमें सच्ची सुख शान्ति लबालब भरी है, यदि आप को उसी वैराग्य विषय पर सर्वोत्तम ग्रन्थ देखना है, तो आप हरिदास एण्ड कम्पनी, कलकत्ता से सचित्र "वैराग्य शतक" मँगाकर
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
गया। मुनि को नमस्कार कर के और वहाँ से उठकर वह तत्काल अपने स्थान को गया। वहाँ पहुँचते ही उसने अपने पुत्र को राजगद्दी पर बिठा कर सुबुद्धि से कहा कि, मैं दीक्षा ग्रहण करूंगा। इसलिए मेरी तरह ही मेरे पुत्र को भी तुम नित्य धर्मोपदेश देते रहना। सुबुद्धि ने कहा -'महाराज ! मैं भी आप के साथ वृत ग्रहण करूँगा और मेरी तरह मेरा पुत्र आप के पुत्र को धर्मोपदेश सुनावेगा।' इसके बाद राजा और सुवुद्धि मन्त्रीने कर्मरूपी पर्वत के भेदने में वज्र के समान व्रत ग्रहण किया और दीर्घकाल तक उसका पालन करके मोक्ष लाभ किया।
हे राजन! तुम्हारे वंश में दूसरा एक दण्डक नाम का राजा हुआ है। उस राजा का शासन प्रचण्ड था और वह शत्रु ओं के लिए साक्षात् यमराज था। उसके मणिमाली नाम का एक प्रसिद्ध पुत्र था । वह अपने तेज से, सूर्य की तरह, दशों दिशाओं को प्रकाशित करताथा । दण्डक राजपुत्र, मित्र, स्त्री, रत्न सुवण और धन में अत्यन्त फंसा हुआ था। वह इन सबको अपने प्राणों से भी अधिक चाहता था। आयुष्य पूर्ण होने पर, आर्तध्यान में ही लगा रहनेवाला वह राजा, मरकर, अपने ही भण्डार में दुर्धर
दखिये। मनुष्य-मात्र के देखने योग्य ग्रंथ है। उसमें ऐसे-ऐसे भावपूण २६ चित्र हैं जिनके देखने मात्र से अभिमानियों का मद ज्वर की तरह उतर जाता है, संसार स्वप्नवत प्रतीत होता है और विषय विषवत बरे लगने लगते हैं। पृष्ट-संख्या ४८० मुनहरी अतरों की रेशमी जिन्द-बधी पुस्तक का मूल्य ५) डाक-खर्च ।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पव
अजगर हुआ। जो भण्डार में जाता, उसे ही वह अग्नि के समान सर्वभक्षी और दुरात्मा अजगर निगल जाता । एक दिन उस अजगरने मणिमाली को भण्डार में घुसते देखा। पूर्वजन्म की बात याद रहने से, उसने उसे "यह मेरा पुत्र हैं” इस तरह पहचान लिया। मूर्तिमान् स्नेह की तरह अजगर की शान्त मूर्ति को देख कर, मणिमालीने अपने मन में समझ लिया कि, यह मेरा कोई पूर्वजन्म का बन्धु है । फिर ज्ञानी मुनि से यह जान कर कि, यह मेरा अपना पिता है, उसने उसे जैनधर्म सुनाया। अजगरने भी अहंत धर्मको जानकर संवेगभाव धारण किया; शेषमें शुभध्यानपरायण होकर देह त्याग की और देवत्व लाभ किया। उस देवताने, पुत्र-प्रम के लिए, स्वर्गसे आकर, एक दिव्य मोतियों का हार मणिमाली को दिया, जो आज तक आप के हृदय पर मौजूद है। आप हरिश्चन्द्र के वंश में पैदा हुए हैं और मैं सुबुद्धि के वंश में जन्मा हूँ । इसलिये, क्रम से आये हुए इस प्रभाव से, आप धर्म में मन लगाइये-धर्माचरण कीजिये । अब मैंने आपको, बिना अवसर, जो धर्म करने की सलाह दी है, उस का कारण भी सुनिये। आज नन्दन बन में, मैंने दो चारण मुनि देखे । जगत् के प्रकाश को उत्पन्न करने वाले और महामोह रूपी अन्धकार को नाश करने वाले वे दोनों मुनि एकत्र ऐसे मालूम होते थे, गोया चन्द्र-सूर्य ही मिले हों। अपूर्व ज्ञान से शोभायमान दोनों महात्मा धर्मदेशना देते थे। उस समय मैंने उनसे आप की आयुष्यका प्रमाण पूछा । उन्होंने आप का आयुष्य एक मास का ही बाकी बताया।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र हे महामति ! यही कारण है कि, मैं आप से धर्माचरण करने की जल्दी कर रहा हूँ।
महाबल राजा ने कहाः -- हे वुद्ध ! हे बुद्धिनिधान ! तू ही एक मात्र मेरा बन्धु है,जो मेरे हित के लिये मेरी भलाई के लिए तड़फा करता है। विषयों से आकर्षित और मोह-निद्रा में निद्रित अथवा विषयों के फन्दे में फंसे हुए और मोह की नींद में सोये हुए मुझ को जगाकर तुमने बहुत अच्छा किया। अब मुझे यह बताओ कि, मैं किस तरह धर्मकी साधना करू । आयु थोड़ी रह गई है, इतने समयमें मुझे कितना धर्म साधन करना चाहिए ? आग लग जाने पर तत्काल कूआं किस किस तरह खोदा जाता है ?
स्वयंबुद्धने कहा---'महाराज! आप खेद न करें और दृढ़ रहें । आप, परलोक में मित्र के समान, यतिधर्म का आश्रय लें। एक दिनकी भी दीक्षा पालने वाला मनुष्य मोक्ष लाभ कर सकता है: तब स्वर्ग की तो बात ही क्या है ?' फिर महाबल राजा ने उस की बात मंजूर कर के, आचार्य जिस तरह मन्दिर में मूर्ति की स्थापना करते हैं; उसी तरह पुत्र को अपनी पदवी पर स्थापन किया : यानी उसे राजगद्दी सौंपी। इस के बाद उसने दीन और अनाथ लोगों को ऐसा अनुकम्पादान दिया कि, उस नगर में कोई मंगता ही न रह गया। दूसरे इन्द्र की तरह उसने चैत्यों में विचित्र प्रकार के वस्त्र, माणिक, सुवर्ण और फूल वगेर: से पूजा की। बाद में; स्वजन और परिजनोंसे क्षमा मांड, मुनीन्द्र के चरणों में जा, उसने उनसे मोहलक्ष्मी की सखी-रूपा दीक्षा अङ्गीकार की।
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आदिनाथ-चरित्र - ७२
प्रथम पर्व सब सावध योगों की विरति के साथ साथ उस राजर्षि ने चार प्रकार के आहारों का भी प्रत्याख्यान किया और समाधि रूप अमृत के झरने में निरन्तर निमग्न होकर, कमलिनी कीतरहज़रा भी ग्लानि को प्राप्त नहीं हुआ। परन्तु वह महासत्व-शिरोमणि मानों खाने के पदार्थों को खाता और पीने के पदार्थों को पीता हो, इस तरह अक्षीण कान्तिवाला दीखने लगा; अर्थात् उसके भूखे-प्यासे रहने पर भी कुछ भी न खाने पीने पर भी, उस की कान्ति क्षीण
और मलीन न हुई । बाइस दिनों तक अनशन पालन कर-भूखाप्यासा रह, अन्त में पञ्च परमेष्टि नमस्कार को स्मरण करते हुए उसने अपना शरीर त्याग दिया।
Xxx पाचवा भव
वहाँ से, सञ्चित किये पुण्य-बलसे, दिव्य घोड़े की तरह, वह तत्काल दुर्लभ ईशानकल्प यानी अन्य देवलोक में पहुंचा। वहाँ श्रीप्रभ नामके विमान में, वह उसी तरह उत्पन्न हुआ, जिस तरह मेघ के गर्भ में विद्यु तपुञ्ज उत्पन्न होता है। उसकी आकृति दिव्य थी। उसका शरीर सप्त धातुओं से रहित था । उसमें सिरसके फूल जैसी सुकुमारता थी और दिशाओं को आक्रान्त करने वाली कान्ति थी। उसकी देह वज्र के समान
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
थी 1 उसमें प्रभूत उत्साह, सब तरह के पुण्य-लक्षण, इच्छानुसार रूप धारण करने की क्षमता, अवधिज्ञान, सब तरह के विज्ञान में पारङ्गतता, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ निर्दोषता, और अचिन्त्य वैभव प्रभृति सब गुण और सुलक्षण थे । वह लळिताङ्ग जैसे नामको सार्थक करने वाला देव हुआ। दोनों पाँवों में रत्नमय कड़े, कमर में कर्द्धनी, हाथों में कंगन, भुजा. ओंमें भुजबन्द, छाती पर हार, कानों में कुण्डल, सिर पर फूलों की माला एवं किरीट वगैरः आभूषण, दिव्य वस्त्र और सारे शरीर का भूषण रूप यौवन – ये सब उसके पैदा होने के समय, उसके साथ ही प्राप्त हुए थे: अर्थात् वह उपरोक्त गहने, कपड़े और जवानी को साथ लेकर जन्मा था । उसके जन्म समय में. अपनी प्रतिध्वनि से दिशाओं को ग्रतिध्वनित करनेवाली दुदुभियाँ बजीं और 'जगत् को सुखी करो एवं जयलाभ करो ऐसे शब्द मङ्गल- पाठक कहने लगे । गीत और वाद्य के निर्घोष गाने बजाने की आवाज़ों तथा बन्दिजनों के कोलाहल से व्याकुल वह विमान अपने स्वामी के आने की खुशी में गरजता हुआ सा मालूम होने लगा । सोकर उठे हुए मनुष्य की तरह उठकर और सामने का दिखावा देखकर, ललिताङ्ग देव विचार करने लगाः- - 'यह इन्द्रजाल है ? स्वप्न है ? क्या है ? ये नाच और गान मेरे उद्देश से क्यों हो रहे हैं ? ये विनीत लोग मुझे अपना स्वामी बनाने के लिये क्यों छटपटा रहे हैं ? इस, लक्ष्मी के मन्दिर रूप, आनन्द- सदन - स्वरूप, सेव्य, प्रिय
७३
इस प्रकार
माया है ?
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
और रम्य भुवन में मैं कहाँ से आया हूँ?' उसके मनमें इस तरह के तर्क-वितर्क उठ ही रहे थे, कि इतने में प्रतिहार ने उसके पास आकर और हाथ जोड़कर इस प्रकार विज्ञप्ति की:
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ONESSENFO UE12559巻 ललितांग देवका प्रतिहारी द्वारा
कहा हुआ स्वरूप * 29 USERIES "हे नाथ ! आप जैसे स्वामी को पाकर आज हम धन्य और सनाथ हुए हैं। इसलिये विनम्र और आज्ञाकारी सेवकों पर अमृत-समान दृष्टि से कृपा कीजिये। सब तरह के मन-चाहे पदार्थ देनेवाला,अक्षय लक्ष्मी वाला और सब सुखों का स्थान-- यह ईशान नामका दूसरा देवलोक है। जिस विमान को आप इस समय अलंकृत कर रहे हैं, इस श्रीप्रभ नाम के. विमान को आपने पुण्य-बल से पाया है । आप की सभा के मण्डन-रूप ये सब सामानिक देव हैं, जिन में से आप एक हैं, तोभी आप इस विमान में अनेक की तरह दीखते हैं। हे स्वामिन् ! मंत्र के के स्थान रूप ये तेतीस पुरोहित-देव हैं। ये आप की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप इनको समयोचित आदेश कीजिये । हँसी-दिल्लगी करनेवाले परिषद नामक देव हैं, जो लीला और विलास की बातों से आपका दिल बहलायेंगे। निर
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प्रथम पर
आदिनाथ-चरित्र
न्तर बख तर को पहनने वाले, छत्तोस कार के तीक्ष्ण शत्रों को धारण करने वाले और स्वामी की रक्षा करने में अतुर---ये आपके आत्मरक्षक देवता हैं। आप के नगः की रक्षा करने वाले यं लोकपाल देवता हैं। आपकी सेना में ये रणकला-कुशल धुरन्धर सनाधिपति हैं। ये पुरवासी और देशवासी प्रकीर्णक देवता आप की प्रजा रूप हैं। थे सब भी आप की निर्माल्य रूप आज्ञा को मस्तक पर धारण करेंगे। ये आभियोग्य देवता आप की दासों की तरह सेवा करने वाले हैं और ये किल्विषक देवता सब प्रकार के मैले काम करने वाले हैं। सुन्दर रमणियों से रमणीक आँगनवाले, मन को प्रसन्न करने वाले और रत्नों से जड़े हुए ये आपके महल हैं। सुवर्ण-कमल की खान जैसी रत्नमय ये वाटिकायें हैं। रत्न और सुवर्ण की चोटी वाले ये तुम्हारे क्रीडा-पर्वत हैं । हर्ष कारी और स्वच्छ जलवाली ये क्रीड़ा-नदियाँ है। नित्य फलफूल देवेवाले ये क्रीड़ा-उद्यान हैं। अपनो कान्ति से दिशाओं के मुख को प्रकाशित करनेवाला सूर्यमण्डल के समान, रत्न और मणियों से बना हुआ यह आप का सभामण्डप है। चमर, दर्पण और पंखेवाली ये वाराङ्गनायें आप की सेवा में ही महोत्सव मानने वाली हैं। चारों प्रकार के बाजे बजाने में दक्ष ये गन्धर्व आप के सामने गाना करने को सजे हुए खड़े हैं।' प्रतिहारी के ऐसा कहने के बाद, ललि. तांग देव को, अवधिज्ञान से जिस तरह पिछले दिन की बात याद आजाती है उस तरह, पूर्व जन्म की बात याद आगई । 'अहो !
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
पहले जन्म में, मैं विद्याधरों का स्वामी था। मुझे धर्म मित्र जैसे स्वयंबुद्ध मंत्री ने जैनेन्द्र धर्म का बोध कराया था। उससे दीक्षा लेकर मैंने अनशन किया था। उसी से मुझे यह फल मिला है। अहो! धर्म का अचिन्त्य वैभव है।' इस तरह पूर्व जन्म की बातों को यादकर और वहाँ से तत्काल उठकर, उस देवने छड़ीदार के हाथ का सहारा लेकर सिंहासन को अलंकृत किया। उसके सिंहासनारूढ़ होते ही जयध्वनि हुई और देवताओं ने अभिषेक किया। चैवर डोलने लगे। गन्धर्व मधुर और मंगल गान गाने लगे। इसके बाद, भक्तिभाव-पूर्ण ललिताङ्ग देव ने वहाँ से उठकर, चैत्य में जाकर, शाश्वती अर्हत् प्रतिमा की पूजा की और देवताओं के तीन ग्रामके उद्गार से मधुर और मंगलमय गायनों के साथ, विविध स्तोत्रों से जिनेश्वर की स्तुति की। पीछे ज्ञानदीपक पुस्तकें पढ़ीं और मंडप के खंभे पर रक्खी हुई अरिहन्त की अस्थि-हड्डी की अर्चना की।
स्वयंप्रभा देवीकी रूप वर्णना
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स्वयंप्रभा का देहान्त।
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ललितांग देव का विलाप। इसके बाद, पूर्णिमा के चन्द्र-जैसे दिव्य छात्र को धारण कर
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आदिनाथ-चरित्र
ने से प्रकाशमान होकर, वह क्रीड़ा भवन में गया । वहाँ उसने अपनी प्रभा से विद्युत प्रभा को भी भग्न करने वाली स्वयंप्रभा नाम की देवी देखी। उसके नेत्र, मुख और चरण अतीव कोमल थे। उनके मिपसे, वह लावण्य - सिन्धु के बीच में रहने वाली कमल-वाटिकासी जान पड़ती थी । अनुपूर्व से स्थूल और गोल उरु से वह ऐसी मालूम होती थी, मानों कामदेव ने वहाँ अपना तर्कस स्थापन किया हो । निर्मल वस्त्र वाले. विशाल नितम्बों चतड़ों से वह ऐसी अच्छी लगती थी, जैसी कि किनारों पर राजहंसों के झुण्डों के रहने से नदी लगती है । पुष्ट और उन्नत स्तनों का भार वहन करने से कृश हुए, वज्र के मध्य भाग- जैसे, कृश उदर से वह मनोहारिणी लगती थी । उसका त्रिरेखा संयुक्त मधुर स्वर बोलने वाला कंठ, कामदेव की विजय कहानी कहने वाले शंख के जैसा मालूम होता था । विम्बफल को तिरस्कृत करने वाले होठ और नेत्ररूपी कमल की डंडी की लीला को धारण करने वाली नाक से वह बहुत ही मनोमुग्धकर जान पड़ती थी । पूर्णमासी के अर्द्धचन्द्र की सर्व लक्ष्मी को हरने वाले अपने सुन्दर और स्निग्ध ललाट से वह चित्त को हरे लेती थी । कामदेव के हिंडोले की लीला को चुराने वाले उसके कान थे और पुष्पवाण या मन्मथ के धनुष की शोभा को हरने भृकुटियाँ थीं। उसके सुन्दर चिकने और काजल बाल ऐसे मालूम होते थे, मानों मुख- कमल के सब अंगा में रत्नाभरण धारण किये हुए, वह
वाली उसकी
के
समान श्याम
पीछे भौंरे हों ।
कामलता सी
प्रथम पत्र
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व मालूम होती थी। मनोहर मुखकमल वाली अप्सराओं से घिरी हुई, वह नदियों से घिरी हुई गंगा सी दीखती थी। ललिताङ्ग देवको अपने पास आते देखकर, उसने अतिशय स्नेह के साथखड़े होकर, उसका सत्कार किया। इसके बाद, वह श्रीप्रभ विमान का स्वामी उसके साथ एक पलँग पर बैठ गया। जिस तरह एक क्यारे के लता और वृक्ष शोभते हैं, उसी तरह वे दोनों पास पास बैठे हुए शोभने लगे। बेड़ियों से जकड़े हुए के समान, निविड़ प्रेम से नियंत्रित उन दोनों के दिल आपस में लीन हो गये। अविच्छिन प्रेम रूपी सौरभ से पूर्ण ललिताङ्ग देव ने स्वयंप्रभा के साथ क्रीड़ा करते हुए बहुतसा समय एक घड़ीके समान बिता दिया। फिर वृक्ष से पत्ता गिरने की तरह, आयुष्य पूरी होने से, स्वयप्रभा देवी वहाँ से च्यु त हुई अर्थात् दूसरी गतिको प्राप्त हुई। आयुष्य पूरी होनेपर, इन्द्र में भी रहने की सामर्थ्य नहीं। प्रिया के विरह-दुःख से वह देव पर्वत से आक्रान्त
और वजाहत की तरह मूर्छित हो गया। फिर क्षण-भर में होश में आकर, अपने प्रत्येक शब्द से सारे श्रीप्रभ विमान को रुलाता हुआ वह बारम्बार विलाप करने लगा। उपवन उसे अच्छे न लगते थे। वाटिकाओं से चित्त आनन्दित न होता था। क्रीड़ा-पर्वत से उसे स्वस्थता न होती थी और नन्दन वन से भी उसका दिल खुश न होता था। हे प्रिये ! हे प्रिये ! तू कहाँ है ? इस तरह कह-कहकर विलाप करनेवाला वह देव, सारे, ससार को स्वयंप्रभा-मय देखता हुआ, इधर उधर फिरने लगा।
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प्रथम पव
आदिनाथ चरित्र निर्नामिका का वृत्तान्त। इधर स्वयंबुद्ध मन्त्री को अपने स्वामी की मृत्यु से वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने श्री सिद्धाचार्य नामक आचार्य से दीक्षा ली। बहुत समय तक अतिचार रहित व्रत पालन करके वह मर गया और ईशान देवलोकमें इन्द्रका दृढ़धर्मा नामक सामानिक देव हुआ। उस उदार बुद्धिवाले देव का हृदय, पूर्व-जन्म के सम्बन्धसे, बन्धु की तरह, प्रेम से पूर्ण हो उठा। उसने वहाँ आकर, ललिताङ्ग देव को आश्वासन देने के लिए कहा :-“हे महासत्व ! केवल स्त्रीके लिए आप ऐसा मोह क्यों करते हैं ? धीर पुरुष प्राण-त्याग का समय आ जाने पर भी इस हालत को नहीं पहुँचते।" ललिताङ्ग देव ने कहा :-“हे बन्धु ! आप ऐसी बातें क्यों करते हैं ? पुरुष प्राणों का विरह तो सह सकता है ; पर कान्ता का विरह नहीं रह सकता। इस संसार में एक मात्र मृगनयनी कामिनी ही साग्भूत है* : क्योंकि उस एक के विना सारी सम्पत्तियाँ असार
8 महाराजा भर्तृहरिकृत' शृङ्गारशतक में भी एक जगह लिखा है :
हरिणोप्रेक्षणा यत्र गृहिणी न विलोक्यते।
सेवितं स सम्पदभिरपि तद भवनं वनं ॥ जिस घर में मृगनयनी गृहिणी नहीं दीखती, वह घर सव सम्पत्तिसम्पन्न होने पर भी वन है।
अगर आप को मुनि-मनमोहनी कामिनियों के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना है, उन के हासविलास लीला और नाज नखरों का आनन्द लेना है ; तो आप कलकत्तं की सुप्रसिद्ध हरिदास एण्ड कम्पनी से सेचित्र 'शृङ्गार
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पव
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हो गई है।” उस के ऐसे दुःख से ईशान इन्द्र का वह सामानिक देव भी दुखी हो गया। फिर अवधि-ज्ञान का उपयोग कर उसने कहा-“हे महानुभाव ! आप खेद न करें। मैंने, ज्ञानबल से, आप की प्रिया कहाँ है, यह बात जान ली है। इसलिये आप स्वस्थ हों और सुने :-पृथ्वी पर, धातकी खण्ड के विदेहक्षेत्र स्थित नन्दी नामक गांव में, दरिद्र स्थितिवाला एक नागिल नामक गृहस्थ रहता है। वह पेट भरने के लिए, हमेशा, प्रेत की तरह भटकता है ; तोभी भूखा-प्यासा ही सोता और भूखाप्यासा ही उठता है। दरिद्र में भूख की तरह, मन्द-भाग्य में शिरो मणि, नागश्री नामकी स्त्री उस के है । खुजली रोगवाले के जिस तरह खुजली के ऊपर फोड़े फुन्सी और हो जाते हैं , उसी तरह नागिलके ऊपरा-ऊपरी ६ कन्यायें गाँवकी सूअरीकी तरह स्वभाव से ही बहुत खानेवाली, कुरूपा और जगत् में निन्दित होने वाली हुई। इतने पर भी, उसकीस्त्री फिरगर्मवती हो गई । प्रायः दरिद्रियों को शीघ्र ही गर्भधारण करने वाली स्त्रियाँ मिलती हैं । इस मौके पर नागिल मन में चिन्ता करने लगा-'यह मेरे किस कर्म का
शतक' मँगाकर, संसार की सारभूत मनमाहिनो नारियों के सम्बन्ध की सभी बातोंसे वाकिफ हूजिये । इसमें भर्तृहरिके श्लोंको के सिवा, संस्कृत के महाकवियों और उर्दू शाइरोंकी चटकीली कविताएँ भी दी गई है। साथ ही १५ मनामोहक चित्र भी दिये हैं। शृङ्गार रस-प्रोमियोंको यह ग्रन्थ अवश्य देखना चाहिये। ३५० पृष्ठों को मनोहर जिल्ददार पुस्तक का दाम ३॥) डाकखर्च )
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प्रथम पवे
आदिनाथ-चरित्र
फल है ; जिस से मैं, मनुष्यलोक में रह कर भी, नरक की व्यथा भोगता हूँ । मै जन्म से दरिद्री हूँ और मेरे इस दरिद्रका प्रतिकार भी नहीं हो सकता। मैं इस जन्म के प्रतिकार-रहित दरिद्र से उसी तरह क्षीण हो गया हूँ; जिस तरह दीमक से वृक्ष क्षीण हो जाता है । प्रत्यक्ष अलक्ष्मी-स्वरूपा पूर्वजन्म की वैरिणी और कुलक्षणा -कन्याओंने मुझे बड़ा कष्ट दिया है। यदि इस बार भी कन्या पैदा हुई, तो मैं कुटुम्ब को त्याग कर देशान्तर में जा रहूंगा'।
निर्नामिका और केवली का समागम ।
"वह इस तरह चिन्ता किया करता था कि, इस बीच में उस दरिद्र कीघरवाली ने कन्या जनी । कान में सूई घुसने की तरह उस ने कन्या-जन्म की बात सुनी । इस के बाद, दुष्ट बैल जिस तरह भार को छोड़कर चल देता है: उसी तरह वह नागिल कुटुम्ब को छोड़कर चल दिया। उसकी स्त्री को, प्रसव-दुःख के ऊपर, पति के परदेश चले जाने की व्यथा, ताज़ा घाव पर नमक पड़ने के समान प्रतीत हुई । अत्यन्त दुःखिता नागश्रीने उस कन्याका नाम भी न रक्खा : इसलिये लोग उस कन्या को निर्नामिका नाम से पुकारने लगे । नागश्रीने उस का पालन-पोषण भी अच्छी तरह से नहीं किया ; तोभी वह कन्या बढ़ने लगी । वज्राहत प्राणीकी भी, यदि आयु शेष न हुई हो तो, मृत्यु नहीं होती। अत्यन्त अभागी और माता को उद्वेग करानेवाली वह कन्या दूसरों के घरों में नीचे काम करके दिन काटने लगी। एक दिन, उत्सव
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
के समय, किसी धनी के बालक के हाथ में लड्ड, देखकर, वह अपनी मां से लड्डु, मांगने लगी। उस समय उसकी मां ने क्रोधित होकर कहा-“मोदक क्या तेरे बाप होते हैं, जो तू मांगती है ? अगर तेरी लड्डू खाने की ही इच्छा है, तो अम्बर तिलक पर्वत पर, काठ की भारी लाने के लिए, रस्सी लेकर जा ।” अपनी माता को, जङ्गली कण्डेकीआग के समान, दाह करनेवाली बात सुनकर, रोतीहुई वह बालारस्सी लेकर पर्वत की ओर चली । उस समय, उस पर्वत पर, एक रात्रिकी समाधि में रहे हुए युगन्धर मुनि को केवल ज्ञान हुआ था। इस से निकट रहने वाले देवताओं ने केवल-ज्ञान की महिमा का उत्सव मनाना आरम्भ किया था। पर्वत के पास के नगर और गांवों के लोग यह समाचारसुनकर, उस मुनीश्वरको नमस्कार करने के लिए जल्दी-जल्दी आ रहे थे। नाना प्रकार के अलङ्कारोंसे भूषित लोगोंको आते देखकर, वह निर्नामिका कन्या विस्मित होकर, चित्र-लिखीसी खड़ी रही। फिर बातों ही बातों में लोगों के आने का कारण जानकर, दुःख-रूपी भारी के समान काठ की भारी को वहीं पटक कर, वह भी वहाँ से चल दी और दूसरे लोगों के साथ पहाड़ पर चढ़ गई। तीर्थ सब के लिए खुले रहते हैं। उन मुनिराज के चरणों को कल्पवृक्ष के समान मानने वाली निर्नामिका कन्याने बड़े आनन्द से उन को वन्दना की। कहते हैं कि, गतिकी अनुसारिणी मति होती है; अर्थात् जैसी होनहार होती है, वैसी ही मति हो जाती है। मुनीश्वर ने, मेघवत् गम्भीर वाणी से,
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आदिनाथ चरित्रा
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'हे भगवन् ! आप राव और रंक में समदृष्टि रखनेवाले हैं,-गरीब और अमीर दोनों ही आपकी नज़र में समान हैं; इसलिए मैं विज्ञप्ति करके पूछती हूँ कि अापने संसार को दुःख-सदन रूप कहा,परन्तु क्या मुझसे भी अधिक दुःखी कोई है ?'
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र लोक-समूह को हितकारी और आह्लादकारी धर्म-देशना या धर्मोपदेश दिया। विषयों का सेवन, कच्चे सूत से बने हुए पलंग पर बैठने वाले पुरुष की तरह, संसार-रूपी भूमि पर गिरने के लिए ही है ; अर्थात् कच्चे सूत से बने हुए पलङ्ग पर बैठने वाले का जिस तरह अधःपतन होता है ; उसीतरह विषयसेवी पुरुष का भी अधः पतन होता है । कच्चे सूत के पलङ्ग पर बैठने वाले को, जिस तरह शेषमें नीचे गिरकर, दुखी होना पड़ता है ; उसी तरह विषय-भोगी को परिणाम में घोर दुःख और कष्ट उठाने पड़ते हैं। जगत् में पुत्र, मित्र और कलत्र वगैरः का समागम एक गाँव में रात्रि-निवास करके और सोकर उठ जाने वाले बटोही के समान है । चौरासी लाख योनियों में घूमने वाले जीवों को ओ अनन्त दुःख भोगने पड़ते हैं, वे उनके अपने कर्मों के फल हैं; अर्थात् उनके कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। ___ इस प्रकार की देशना या धर्मोपदेश सुनकर, निर्नामिका हाथ जोड़ कर बोली,—'हे भगवन् ! आप राव और रंक में समष्टि रखने वाले हैं,-ग़रीब और अमीर दोनों ही आपकी नज़र में समान हैं, इसलिए मैं विज्ञप्ति करके पूछती हूँ कि, आपने संसार को दुःख-सदन रूप कहा, परन्तु क्या मुझसे भी अधिक दुःखी कोई है ?
__ चारों गतियों में दुःख का वर्णन । "केवली भगवान् ने कहा-'हे दुःखिनी बाला! हे भद्रे ! तुझे
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व । तो क्या दुःख है ? तुझ से भी अधिक दुःखी जीव हैं; उनका हाल सुन । जो अपने दुष्कर्मों के फल-स्वरूप नरक-गति में पैदा होते हैं, उनमें से कितनों ही के शरीर भेदे जाते हैं और कितनों ही के अङ्ग छेदे जाते हैं और कितनों ही के सिर धड़से अलग किये जाते हैं। उनमें से कितनेही, नरक-गति में, परमाधामी असुरों द्वारा, तिलों की तरह कोल्हू में पेरे जाते हैं ; कितने ही लकड़ी की तरह काटे जाते हैं और कितने ही लोहेके बर्तनोंकी तरह कूटे जाते हैं। वे असुर कितनों ही को शूलों की शय्या पर सुलाते हैं, कितनों ही को कपड़ों की तरह पत्थर की शिलाओं पर पछाड़ते हैं और कितनों ही के साग की तरह टुकड़े-टुकड़े करते हैं। उन नारकीय जीवों के शरीर, वैक्रिय होने के कारण, तुरत मिल जाते हैं और वे परमाधार्मिक असुर उन्हें फिर पहले की तरह ही तकलीफें देते हैं। इस तरह दुःखों को भोगने वाले वे प्राणी करुण स्वर से चीखते-चिल्लाते हैं। वहाँ प्यासे जीवों को बारम्बार सीसे का रस पिलाया जाता है और छाया चाहने वाले प्राणी, तलवार के से पत्तों वाले, असिपत्र नामक वृक्ष के नीचे बिठाये जाते हैं। अपने पूर्वजन्म के कर्मों का स्मरण करते हुए, वे प्राणी एक मुहूर्त-भर भी बिना वेदना के रह नहीं सकते। हे बच्ची ! उन नपुसंक नारकियों को जो-जो दुःख और कष्ट झेलने पड़ते है, उनका वर्णन करनेसे भी मनुष्य को दुःख होता है। ____ इन नारकियों की बात तो दूर रही, प्रत्यक्ष दिखाई देने
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र वाले जलचर, थलचर नभचर और तिर्यञ्च प्राणी भी अपने पूर्वजन्म के कर्मों से अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं। जलचर जीवों में से कितने ही तो एक दूसरे को खा जाते हैं। चमड़े के चाहने वाले उनकी खाल उतारते हैं, मांस की तरह वे भूजे जाते हैं, खाने की इच्छा वाले उन्हें खाते हैं और चरबी की इच्छा वाले उन्हें गलाते हैं। थलचर जन्तुओं में, निर्बल मृग प्रभृति को सबल सिंह वगैरः प्राणी मांस की इच्छा से मार डालते हैं। शिकारी लोग मांस की इच्छा से अथवा क्रीड़ा के लिए, उन निरपराधी प्राणियों को मार डालते हैं। बैल प्रभृति प्राणी भूख प्यास, सरदी-गरमी सहन करने, अति भार वहन करने और चावुक,अंकुश एवं लकड़ी वगैर: की मार खाने से बड़ा दुःख पाते हैं । आकाशमें उड़नेवाले पक्षियों में तीतर, तोता, कबूतर और चिड़िया प्रभृति को उनका मांस खानेकी इच्छावाले बाज़, शिकरा और गिद्ध वगैरः पक्षी खा जाते हैं तथा शिकारी लोग इन सब को नाना प्रकार के उपायों से पकड़कर और घोर दुःख देकर मार डालते हैं । उन तिर्यञ्चों को अन्य शस्त्र और जल प्रभृति का भी बड़ा डर होता है। अतः अपने-अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का निबन्धन ऐसा है, जिस का प्रसार रुक नहीं सकता। इसी को दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं, कि कोई भी अपने पूर्वजन्म के कर्मोंका भोग भोगनेसे बच नहीं सकता। अपने-अपने कर्मों का फल सभीको भोगना होता है।
'जिन को मनुष्यत्व मिलता है, जो मनुष्य-योनि में जन्म लेते
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
हैं, उनमें से कितने ही प्राणी जन्मसे ही अन्धे, बहरे, लूले और कोढ़ी होते हैं; कितने ही चोरी और जारी करनेवाले प्राणी, नारकीयों की तरह, भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा से निग्रह पाते हैं; और कितने ही नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित होकर अपने पुत्रों से भी तिरस्कृत होते हैं। कितने ही मूल्य से बिके हुए - नौकर, गुलाम वगैर: – खच्चर की तरह अपने स्वामी की ताड़ना, तर्जना और भर्त्सना सहते, बहुतसे बोझ उठाते एवं भूख-प्यास का दुःख सहते हैं ।
. देशना की समाप्ति ।
'परस्पर के पराभव से क्लेश पाये हुए और अपने-अपने स्वामियों के स्वामित्व में बँधे हुए देवताओं को भी निरन्तर दुखी रहना पड़ता है; स्वभावसे ही दारुण इस संसार में, दुःखों का पार उसी तरह नहीं है। जिस तरह समुद्र में जल-जन्तुओं का पार नहीं है; जिस तरह भूत-प्र ेतादिक से संकलित स्थान में मंत्राक्षर प्रतीकार करनेवाला होता है; उसी तरह दुःख के स्थान - रूप इस संसार में जैनधर्म प्रतीकार करनेवाला है। बहुत बोझ से जिस तरह नाव समुद्र में डूब जाती है; उसी तरह हिंसा से प्राणी नरक- रूपी समुद्र में डूब जाता है, अतः हिंसा हरगिज़ न करनी चाहिये । निरन्तर असत्यका त्याग करना उचित है, क्योंकि असत्य वचनसे मनुष्य इस संसार में चिरकालतक उसी तरह भ्रमता है : जिस तरह तिनका हवा
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र के बवंडर या बगूले में भ्रमता है। किसी की भी बिना दी हुई चीज़ न लेनी चाहिये अथवा किसी भी चीज़ की चोरी न करनी चाहिये ; क्योंकि कौंच की फली के छूने के समान अदत्त-विना दिया हुआ पदार्थ लेने से किसी हालत में भी सुख नहीं मिलता । अब्रह्मचर्य को त्यागना चाहिये। क्योंकि अब्रह्मचर्य रंक की तरह गला पकड़कर मनुष्य को नरकमें ले जाता है। परिग्रह इकट्ठा न करना चाहिये, क्योंकि बहुत बोझ से बैल जिस तरहकीचड़ में फंस जाता हैं; उसी तरह मनुष्य परिग्रह के वश में पड़कर दुःख में डूब जाता है। जो लोग हिंसा प्रभृति पाँच अव्रतका देशसे भी त्याग करते हैं, वे उत्तरोत्तर कल्याण सम्पत्ति के पात्र होते हैं।'
निर्नामिका का पुनर्जन्म।
ललितांग और स्वयंप्रभा का पुनर्मिलन । 'केवली भगवान् के मुंहसे ऐसी बातें सुनकर निर्नामिका को वैराग्य उत्पन्न हो गया और लोहे के गोले की तरह उस की कर्मग्रन्थि भिद गयी। उस ने उस मुनीश्वर के पास से अच्छी तरह सम्यक्त्व ग्रहण किया और परलोक-रूपी मार्ग में पाथेयतुल्य अहिंसा आदि पाँच अणुवृत धारण किये। इस के बाद मुनि महाराज को प्रणाम कर, मैं कृतार्थ हुई,—ऐसा मानती हुई. वह निर्नापिका भारी उठाकर अपने घर गई। उस दिन से, वह सुबुद्धिमती बाला अपने नाम की तरह युगंधर मुनि की वाणी को
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व न भूलकर नाना प्रकार के तप करने लगी। वह युवती हो गई, तोभी उस दुर्भगा के साथ किसी ने विवाह नहीं किया ; क्योंकि कड़वी तूम्बी पक जाती है, तोभी उसे कोई नहीं खाता। घर्तमान में, वह निर्नामिका विशेष वैराग्य और भाव से युगंधर मुनि के पास अनशन व्रत ग्रहण करके रहती है। इसलिये हे ललि. ताङ्ग देव ! आप वहाँ जाओ और उसे अपने दर्शन दो ; जिस से आप पर आसक्त हुई वह मरकर आप की स्त्री हो।” कहा है कि, अन्तमें जैसी मति होती हैं, वैसीही गति होती है। पीछे ललि. तांग देव ने वैसा ही किया ; और उस के ऊपर आसक्त हुई वह सती मरकर स्वयंप्रभा नाम्नी उसकी पत्नी हुई। मानो प्रणयकोध से रूठ कर गई हुई स्त्री फिर मिल गयी हो; इस तरह अपनी प्यारी को पाकर, ललिताङ्ग देव खूब क्रीड़ा करने लगा ; क्योंकि अधिक घाम लगने पर छाया अच्छी लगतीही है।
ललितांगदेव के च्यवन-चिह। इस तरह क्रीड़ा करते हुए कितना ही समय बीत जामेपर ललिताङ्ग देव को अपने च्यवन–पतनके चिह्न नज़र आने लगे। मानो उस के वियोग-भय से रत्नाभरण निस्तेज होने लगे और उस के शरीर के कपड़े भी मैले होने लगे। जब दुःख नजदीक आता है, तब लक्ष्मीपति भी लक्ष्मी से अलग हो जाते हैं। ऐसे समय में, उसे धर्म से अरुचि और भोग में विशेष आसक्ति हुई। जब अन्त समय आता है, तब प्राणियों की प्रकृति में फेरफार
अरुचि और भोले अलग हो जाते नजदीक
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
होता ही है। उसके परिजनोंके मुँह से अपशकुनमय-शोककारक और विरस वचन निकलने लगे। कहा है, कि बोलनेवाले के मुख से होनहार के अनुरूप ही बात निकलती है । जन्मसे प्राप्त हुई लक्ष्मी और लजारूपी प्रिया ने, मानो उस ने कोई अपराध किया हो इस तरह, उसे छोड़ दिया। चींटी के जिस तरह मृत्यु-समय पंख आ जाते हैं, उसी तरह, उसके अदीन
और निद्रारहित होने पर भी, उसमें दीनता और निद्रा आगई । हृदय के साथ उस के सन्धि-बन्धन ढीले होने लगे। महाबलवान् पुरुषों से भी न हिलनेवाले उस के कल्पवृक्ष काँपने लगे। उसके नीरोगी अङ्ग और उपाङ्गों की सन्धियाँ मानो भविष्य में आनेवाली वेदना की शङ्का से टूटने लगीं। जिस तरह दूसरों के स्थायी भाव देखने में असमर्थ हो; उस तरह उस की दृष्टि पदार्थग्रहण करने में असमर्थ होने लगी : यानी उस की नज़र कमहो गई । मानो गर्भावास में निवास करने के दुःखोंका भय लगता हो, इस तरह उस के सारे अङ्ग काँपने लगे। ऊपर महावत वैठा हो ऐसे गजेन्द्र की तरह, उस ललिताङ्ग देव को रम्य क्रीड़ा-पर्वत, नदी, बावड़ी और बगीचे भी प्यारे नहीं लगते थे। उस की ऐसी हालत देखकर देवी स्वयंप्रभा ने कहा,---“हे नाथ ! मैंने आप का क्या अपराध किया है, कि आप का मन मुझ से फिरा हुआ सा जान पड़ता है ?"
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व ललितांग देव का च्यवन। उसने कहा,-"प्यारी ! तैंने कुछ भी अपराध नहीं किया है। हे सुन्दर भौंहोंवाली ! अपराध तो मैंने ही किया है, जो पूर्व जन्म में ओछा तप किया। पूर्व जन्म में, मैं विद्याधरों का राजा था। उस समय, मैं भोग-कार्य में जाग्रत और धर्म-कार्य में प्रमादी था। मेरे सौभाग्य से प्रेरित होकर, स्वयंबुद्ध नामक मन्त्री ने आयु का शेषांश बाकी रहने पर मुझे जैनधर्म का बोध कराया और मैंने उसे स्वीकार किया। उस ज़रा सी मुद्दत में किये हुए धर्म के प्रभाव से, मैं अबतक श्रीप्रभ विमान का स्वामी रहा ; परन्तु अब मेरा च्यवन होगा- मैं इस पदपर न रहूँगा ; क्योंकि अलभ्य वस्तु किसी को भी मिल नहीं सकती।" वह इस तरह बातें कर ही रहा था कि, इसी बीच में दृढ़धर्मा नामक देव उन के पास आकर कहने लगा :-"आज ईशान कल्पके स्वामी नन्दीश्वरादिक द्वीप में जिनेन्द्र प्रतिमा की पूजा करने को जानेवाले हैं ; इसलिये आप भी उन की आज्ञा से चलिये।" यह बात सुनते ही-'अहो! स्वामी ने हुक्म भी समयोचित ही दिया है-' कहते हुए वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपनी प्यारी सहित वहाँको चला। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर, उसने शाश्वती अर्हत्प्रतिमा की पूजा की और खुशी में अपने च्यधनकाल की बात को भी भूल गया। इस के बाद स्वस्थ चित्तवाला वह देव दूसरे तीर्थों को जा रहा था, कि इसी बीच में आयुष्य
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र क्षीण होने से, क्षीण तेलवाले दीपक की तरह, राहमें ही पञ्चत्व को प्राप्त हुआ ; यानी देह-त्याग किया।
5 छठा भव
जम्बूद्वीप में, सागर-समीप स्थित पूर्व विदेह में, सीता नाम्नी महानदी के उत्तर अञ्चल में, पुष्कलावती नम्म्नी विजय के मध्यमें, लोहार्गल नामक बड़े भारी नगर के सुवर्णजंघ राजा की लक्ष्मी नाम्नी स्त्री की कोख से ललिताङ्ग देव का जीव पुत्र-रूपमें पैदा हुआ। आनन्द से प्रफुल्लित माता-पिता ने प्रसन्न होकर, शुभ दिवस में, उसका नाम वज्रजंघ रखा। ललिताङ्ग देव के विरह से दुःखात हो, स्वयंप्रभा देवी भी, कितने ही समय तक धर्म-कार्य में लीन रहकर, वहाँ से च्यवी; यानी उस का देहावसान हुआ। मरकर वह उसी विजय में, पुण्डरीकिणी नगरीके वजुसेन राजा की गुणवती नाम की स्त्रीसे पुत्री-रूप में जन्मी। अतीव सुन्दरी होने के कारण माता-पिता ने उसका नाम श्रीमती रक्खा । जिस तरह उद्यान पालिका—मालिन द्वारा लालित होनेसे लता बढ़ती है ; उसी तरह वह सुन्दर हस्तपल्लव वाली कोमलाङ्गी बाला धायों द्वारा लालित-पालित होकर अनुक्रम से बढ़ने लगी। सुवर्ण की अंगूठी को जिस तरह रत्न प्राप्त होता है; उसी तरह अपनी स्निग्ध-कान्ति से गगन-तल को पल्लवित
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आदिनाथ-चरित्र २
प्रथम पर्व करनेवाली उस राजबाला को यौवन प्राप्त हुआ। एक दिन, सन्ध्याकी अभ्रलेखा जिस तरह पर्वत पर चढ़ती है ; उसी तरह वह अपने सर्वतोभद्र महल पर चढ़ी। उस समय, मनोरम नामक बाग़ीमें किसी मुनीश्वर को केवल-ज्ञान प्राप्त होने के कारण, वहाँ जानेवाले देवताओं पर उस की नज़र पड़ी। उन को देखते ही, मैंने पहले भी ऐसा देखा है, ऐसा विचार करने वाली उस बालाको, रात के स्वप्न की तरह, पूर्व जन्म की बात याद आगई। मानो हृदय में उत्पन्न हुए पूर्व जन्म के ज्ञान का भार वहन न कर सकती हो, इस तरह वह बेहोश होकर ज़मीनपर गिर पड़ी। सखियों के चन्दन प्रभृति-द्वारा उपचार करने से उसे होश आ गया। उठते ही वह अपने चित्तमें विचार करने लगी-“पूर्व जन्म में ललिताङ्ग देव नामक देव मेरे पति थे । उनका स्वर्गसे पतन हुआ है ; परन्तु इस समय वे कहाँ हैं, इस बात की ख़बर न लगनेसे मुझे दुःख हो रहा है। मेरे हृदय पर उन्हीं का प्रतिबिम्ब या अक्स पड़ा हुआ है और वेही मेरे हृदयेश्वर हैं ; क्योंकि कपूर के बासन में नमक कौन रखता है ? अगर मेरे प्राणपति मुझसे बातचीत न करें, तो मेरा औरों से बातचीत करना वृथा है।' ऐसा विचार करके, उसने मौन धारण कर लिया--बोलना छोड़ दिया।
श्रीमती के पाणिग्रहण के उपाय । जब वह न बोली, तब सखियाँ देवदोष की शङ्का से तन्त्रमन्त्र
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प्रथम पर
आदिनाथ-चरित्र आदिक से यथोचित उपचार करने लगीं। ऐसे सैकड़ों उपचारों से भी उसने मौन न त्यागा ; क्योंकि बीमारी और हो और दवा और हो, तो आराम नहीं होता। काम पड़ने से, वह अपने कुटुम्बियों को अक्षर लिख कर अथवा भौं और हाथों के इशारेसे अपने मन का भाव जताती थी। एक दिन श्रीमती अपने क्रीड़ा-उद्यान में गई। उस समय एकान्त जानकर उस की पण्डिता नाम्नी धाय ने उस से कहा -“राजपुत्री ! जिस हेतु से तैने मौन धारण किया है, वह हेतु मुझ से कह और दुःख में मुझे भागीदाग्न बनाकर अपना दु:ख हल्का कर। तेरे दुःख को जानकर मैं उस के दूर करने का उपाय करूँगी ; क्योंकि रोग जाने बिना रोग की चिकित्सा हो नहीं सकती।' इसके बाद जिस तरह प्रायश्चित्त करनेवाला मनुष्य सद्गुरु के सामने अपना यथार्थ वृत्तान्त निवेदन कर देता है ; उसी तरह श्रीमती ने अपने पूर्वजन्म का यथार्थ वृत्तान्त पण्डिता को कह सुनाया। तब उस सारे वृत्तान्त को एक पट्टी पर लिख कर, उपाय करने में चतुर पण्डिता उस पट्टी को लेकर बाहर चली। उसी समय वजसेन चक्रवर्ती की वर्ष-गाँठ होने के कारण, उस के उत्सव में शामिल होने के लिये, अनेक राजा और राजकुमार आने लगे। उस समय श्रीमती के बड़े भारी मनोरथ की तरह लिखे हुए उस पट को अच्छी तरह फैलाकर पण्डिता राजमार्ग में खड़ी हो गई। कितने ही आगम-शास्त्र जानने वाले शास्त्र के अर्थ प्रमाण से लिखे हुए नन्दीश्वर द्वीप प्रभृति को देखकर उसकी स्तुति करने
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आदिनाथ-चरित्र
६४
प्रथम पर्व लगे। कितने ही आदमी श्रद्धा से अपनी गर्दन हिलाते हुए, उसमें लिखे हुए श्रीमत् अरहन्त के प्रत्येक बिम्ब का वर्णन करने लगे; कितने ही कला-कौशल-कुशल राहगीर उसे तेज़ नज़र से देखकर, रेखाओं की शुद्धि की बारम्बार तारीफ करने लगे और कितने ही लोग उस पट के अन्दर के काले, सफेद, पीले, नीले और लाल रंगों से, सन्ध्या के बादलों के समान, बनाये हुए रंगों का वर्णन करने लगे। इसी मौके पर, यथार्थ नामवाले दुर्दर्शन राजा का दुर्दान्त नामका पुत्र वहाँ आ पहुँचा। वह एक क्षण तक पट को देखकर, बनावटी मूर्छा से ज़मीन पर गिर पड़ा
और फिर होश में आगया हो, इस तरह उठ बैठा। उसके उठने पर लोगों ने जब उससे उसके बेहोश होने का कारण पूछा, तब वह कपट-नाट्य करके अपना वृत्तान्त कहने लगाः- इस पटमें किसी ने मेरे पूर्व जन्म का वृत्तान्त लिखा है। इस के देखने से मुझे जाति-स्मरण-ज्ञान उत्पन्न हुआ है । यह मैं ललिताङ्ग देव हूँ और यह मेरी देवी स्वयंप्रभा है।' इस तरह उसमें जो-जो लिखा था, उसने उसी प्रमाण से कहा। इसके बाद पण्डिता ने कहा-'यदि यही बात है, तो इस पट में कौन-कौन स्थान हैं, अंगुली से बताओ।' दुर्दान्त ने कहा—'यह मेरु पर्वत है और यह पुण्डरीकिणी नदी है। 'फिर पण्डिता ने मुनिका नाम पूछा, तब उस ने कहा-'मुनिका नाम मैं भूल गया हूँ। उसने फिर पूछा-'मंत्रीवर्ग से घिरे हुए इस राजा का नाम क्या है और यह तपस्वी कौन है, यह बताओ।' उसने कहा-'मैं इन
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र के नाम नहीं जानता।' इन बातों से उसे धूर्त्त-मायावी समझ कर, पण्डिता ने दिल्लगी के साथ कहा-'तेरे कथनानुसार यह तेरा पूर्वजन्म का चरित्र है। ललिताङ्ग देव का जीव तू है
और तेरी स्त्री स्वयंप्रभा, इस समय, नन्दीग्राम में, कर्मदोष से लँगड़ी होकर जन्मी है। उसे जाति-स्मरण हुआ है। इससे उसने अपना चरित्र इस पट में लिखकर, जब मैं धातकी खण्ड में गई थी, तब मुझे दे दिया । उस लँगड़ी पर दया आने से मैंने तुझे खोज निकाला; इसलिये अब तू मेरे साथ चल, मैं तुझे उसके पास धातकी खण्ड में ले चलूं। हे पुत्र ! वह ग़रीबनी तेरे वियोग के कारण बड़े दुःख से जीती है। इसलिये वहाँ चलकर, अपनी पूर्व जन्म की प्राणवल्लभा को आश्वासन कर-उसे तसल्ली दे।' ये बातें कहकर ज्योंही पण्डिता चुप हुई कि, उसके समवयस्क या लंगोटिया यारों ने उसकी दिल्लगी करते हुए कहा-'मित्र ! आप को स्त्री-रत्न की प्राप्ति हुई है, इस से जान पड़ता है कि, आप के पुण्यका उदय हुआ है। इसलिये आप वहाँ जाकर, उस लूली स्त्री से मिलिये और सदा उसकी परवरिश कीजिये।' मित्रों की ऐसी मसखरी की बातें सुनकर दुर्दान्त लज्जित हो गया और बेची हुई वस्तु में से अवशिष्ट–बाकी रही हुई की तरह होकर, वहाँ से चला गया।
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आदिनाथ चरित्र
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श्रीमती का पाणिग्रहण ।
वज्रसेन का दीक्षा ग्रहणं ।
प्रथम पर्व
वज्रघ और श्रीमती की विदाई |
कुछ देर बाद, लोहार्गल पुर से आया हुआ, वज्रजंघ कुमार भी वहाँ आया । उसने चित्र - लिखा चरित्र देखा और बेहोश हो गया। पंखों से हवा की गई और जल के छींटे मारे गये, तब उसे होश हुआ । इसके बाद मानो स्वर्ग से ही आया हो, इस तरह उसे जाति-स्मरण हुआ । उसी समय पंण्डिता ने पूछाकुमार ! पट का लेख देखकर तुम बेहोश क्यों हो गये ? " बज्रजंघ ने कहा- “भद्र े ! इस पटमें मेरा और मेरी स्त्री का पूर्व जन्म का वृत्तान्त लिखा हुआ है, उसे देख मैं बेहोश हो गया । यह श्रीमान् ईशान कल्प है, उसमें यह श्रीप्रभ विमान है, यह मैं कलिताङ्ग देव हूँ और यह मेरी देवी स्वयंप्रभा है । धातकीखण्ड के नन्दीग्राम में, इस घर के अन्दर, महादरिद्री पुरुष की यह निर्नामिका नाम की पुत्री है। वह यहाँ अम्बर तिलक पहाड़ के ऊपर आरूढ़ हुई है और उसने इस युगन्धर मुनि से अनशन व्रत ग्रहण किया है । यहाँ मैं, मुझ पर आसक्त, उसी स्त्री को अपने दर्शन देने आया हूँ और फिर वह यहाँ पञ्चत्व को प्राप्त होकर यानी मरकर, स्वयंप्रभा नाम्नी मेरी देवी के रूप में पैदा हुई है । यहाँ, मैं, नन्दीश्वर द्वीप में, जिनेश्वर देव की अर्चना
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आदिनाथ चरित्र
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मानाचत्र
बज्रजघने कहा--"भद्रे ! इस पटमें मेरा और मेरी स्त्री का पूर्व जन्म का वृत्तान्त लिखा हुआ है, उसे देख मैं बेहोश हो गया। यह श्रीमान् ईशान कल्प है, उसमें यह श्रीप्रभ विमान है, यह मैं ललितांग देव हूँ और यह मेरी देवी स्वयंप्रभा है।
[पृष्ठ ६६ ]
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प्रथम पर्व
६७
आदिनाथ-चरित्र में लगा हुआ हूँ। वहाँ से दूसरे तीर्थों में जाता हुआ, यहाँ मैं च्यव गया हूँ; यानी मेरा दूसरे लोक के लिए पतन हो गया है,मैंने अन्य लोक में जाने के लिए अपना पहला और पुराना शरीर त्याग दिया है । अकेली, दीन-दुखी और सहाय-हीन अवस्था में यह स्वयंप्रभा यहाँ आई है, इस को मैं मानता हूँ और यही मेरी पूर्वजन्म की प्रिया है। वह स्त्री यही है और उसने ही इसे जातिस्मरण से लिखा है, यह मैं जानता हूँ; क्योंकि बिना, अनुभव के कोई भी आदमी इन सब बातों को जान नहीं सकता। चित्र-पट में सब स्थान दिखलाकर, वह ऐसा कह ही रहा था, कि इतने में पण्डिता बोली-'कुमार ! आप का कहना सच है।' यह कहकर वह सीधी श्रीमती के पास आई और हृदय को शल्य-रहित करने में औषधि-समान वह आख्यान उसने श्रीमती को कह सुनाया; अर्थात् दिल की खटक निकालने वाली वे सब बातें उसने उससे कह दीं। मेघ के शब्दों से विदूर पर्वत की ज़मीन जिस तरह रत्नों से अङ्करित होती है, उसी तरह श्रीमती अपने प्यारे पतिका वृत्तान्त सुनकर रोमाञ्चित हुई। पीछे उसने पण्डिता के द्वारा अपने पिता को इस बात की ख़बर कराई; स्वतन्त्र न रहना कुलस्त्रियों का स्वाभाविक धर्म है। मेघ की वाणी से जिस तरह मोर प्रसन्न होता है, उसी तरह पण्डिता की बातों से वज्रसेन प्रसन्न हुआ और शीघ्र ही वनजंघ कुमार को बुलवाकर उन से कहा'मेरी बेटी श्रीमती पूर्वजन्म की तरह इस जन्म में भी आपकी गृहिणी हो।' वज्रजंघ ने यह बात मंजूर कर ली, तब वज्रसेन
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आदिनाथ-चरित्र
६८
प्रथम पर्व चक्रवर्ती ने, समुद्र जिस तरह विष्णु के साथ लक्ष्मी की शादी करता है; उसी तरह अपनी कन्या श्रीमती का पाणिग्रहण उनके साथ कर दिया। इसके बाद चन्द्र और चन्दिका की तरह मिले हुए वे दोनों पति पत्नी, उज्ज्वल रेशमी कपड़े पहन और राजा की आज्ञा ले, लोहार्गलपुर गये । वहाँ सुवर्णजंघ राजा ने पुत्र को योग्य समझ, राजगद्दी पर बिठा, आप दीक्षा ग्रहण की।
वज्रजंघ और श्रीमती के पुत्र-जन्म ।
पुष्करपाल के सामन्तों की बगावत ।
वज्रजंघ और श्रीमती का सहायतार्थ आगमन । इधर राजा वज्रसेन ने अपने पुत्र पुष्करपाल को राज्यलक्ष्मी सौंपकर दीक्षा अंगीकार की और वह तीर्थङ्कर हुए। अपनी प्यारी श्रीमती के साथ भोग-विलास या ऐश-आराम करते हुए वज्रजंघ राजाने ,हाथी जिस तरह कमल को वहन करता है उसी तरह, राज्य को वहन किया। गंगा और सागर की तरह वियोग को प्राप्त न होने वाले और निरन्तर सुख-भोग भोगने वाले उस दम्पति के एक पुत्र पैदा हुआ। इस बीच में, सो की भारी के समान महाक्रोधी, सीमा के सामन्त-राजा पुष्करपाल के विरुद्ध उठ खड़े हुए। सर्प की तरह उन्हें वश में करने के लिए, उसने वज्रजंघ को बुलाया। वह बलवान राजा उसकी मदद के लिए शीघ्र ही चल दिया। इन्द्र के साथ जिस तरह इन्द्राणी चलती
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र है : उसी तरह पति में अचला भक्ति रखनेवाली श्रीमती अपने पति के साथ हो ली। आधी राह तय करने पर, अमावस्या की अँधेरी रात में चांदनी का भ्रम कराने वाला, एक घना सरकण्डोंका बन उन्हें मिला। राहगीरों के यह कहने पर, कि इस वनमें दृष्टिविष सर्प रहता है, उन्होंने उस राह को छोड़कर दूसरी राह पकड़ी; अर्थात् वे दूसरे मार्ग से चले ; क्योंकि नीतिज्ञ पुरुष प्रस्तुत अर्थ में ही तत्पर होते हैं। पुण्डरीक की उपमा वाले राजा वज्रजंघ पुण्डरीकिणी नगरी में आये। उनके बल और साहाय्य से पुष्करपाल ने सारे सामत्त अपने आधीन कर लिये। विधि के जानने वाले पुष्करपाल ने, गुरुकी तरह, राजा वज्रजंघ का खूब सत्कार किया। वज्रजंघ और श्रीमती की वापसी।
वज्रजंघ को वैराग्य ।
पुत्रद्वारा मारा जाना। दूसरे दिन श्रीमती के भाई की आज्ञा लेकर, लक्ष्मी के साथ जिस तरह लक्ष्मीपति चलते हैं; उसी तरह वज्रजंघ राजा श्रीमती के साथ वहाँ से चला। वह शत्रु नाशन राजा जब सरकंडों के वन के निकट आया, तब मार्ग के कुशल पुरुषों ने उस से कहा,'अभी इस वन में दो मुनियोंको केवल-ज्ञान हुआ है ; अतः, देवताओं के आने के उद्योत से, दृष्टिविष सर्प विषहीन हो गया
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व है। वे सगरसेन और मुनिसेन नाम के, सूर्य चन्द्रमा के समान, दोनों मुनि इस समय भी इसी वनमें मोजूद हैं। वे दोनों ही सहोदर भाई हैं-एक माँके पेटसे पैदा हुए हैं।' यह समाचार सुनते ही राजा वज्रजंघ अत्यन्त प्रसन्न हुए और जिस तरह विष्णु समुद्र में निवास करते हैं, उसी तरह उन्होंने उस वनमें निवास किया। देवमण्डली से घिर कर उपदेश या देशना देते हुए उन दोनों मुनियों के भक्तिभार से मानों नम्र हो गया हो, इस तरह उस राजा ने स्त्री-सहित वन्दना की। उपदेश या देशना के शेष होने पर, उसने अन्न, वस्त्र और उपकरणादिकों से मुनियों को प्रतिलाभ्या ; अर्थात् अन्न वस्त्र आदि भेंट देकर उन . का सत्कार किया। इस के बाद मनमें विचार किया-"ये दोनोंही सहोदर भाव में समान हैं। दोनों ही निष्कषाय, निर्मम और निष्परिग्रह हैं। ये दोनोंही धन्य हैं ; पर मैं इनके जैसा नहीं हूँ ; अत: मैं अधन्य हूँ। व्रत को ग्रहण करनेवाले और अपने पिता के सन्मार्ग को अनुसरण करनेवाले ये दोनों औरस पुत्र हैं और मैं वैसा न करने के कारण, बिक्री से ख़रीदे हुए पुत्र के जैसा हूँ। ऐसा होते हुए भी, यदि व्रत ग्रहण करू तो अनुचित नहीं है ; क्योंकि दीक्षा, दीपक की तरह, ग्रहण करने मात्रसे ही अज्ञान-अन्धकार का नाश करती है ; अतः यहाँ से नगर में पहुँच, पुत्र को राज्य सौंप, हंस जिस तरह हंस की गति का आश्रय लेता है, मैं भी अपने पिता की गति का आश्रय लूंगा ; अर्थात् मैं भी अपने
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प्रथम पर्व
१०१ आदिनाथ-चरित्र पिता का ही पदानुसरण करूँगा--पिताकी तरह दीक्षा लूंगा।' पीछे मानो एक दिल हो इस तरह, व्रत-ग्रहण में भी वाद करनेवाली श्रीमती के साथ वह अपने लोहार्गल नगर में आया। वहाँ, राज्य के लोभ से, उसके पुत्रने धन के ज़ोर से मंत्रिमण्डल को अपने हाथ में कर लिया। जलके समान धन से कौन नहीं भेदा जा सकता ? सवेरे उठकर व्रत ग्रहण करना है और पुत्रको राज्य सौंपना है, यह चिन्ता करते-करते श्रीमती और राजा सो गये। उन सुख से सूते हुए दम्पति के मार डालने के लिए, राजपुत्र ने ज़हर का धूआँ किया। घर में लगी हुई आग की तरह, उसे कौन निवारण कर सकता है ? प्राण को खींचकर बाहर निकालनेवाले मांकड़े के जैसे, उस विष-धूप के धुएँ के नाक में घुसने से राजा, और रानी तत्काल मर गये।
सातवा और आठवा भव
वे स्त्री-पुरुष वहाँ से देह छोड़कर, उत्तर कुरुक्षेत्र में युग्म रूप में पैदा हुए। 'एक चिन्ता में मरनेवालों की एकसी गति होती हैं।' इस क्षेत्र के योग्य आयुष्य को पूरी करके, वे मर गये और मरकर दोनों ही सौधर्म देवलोक में परस्पर प्रेमी देव हुए।
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प्रथम पव
आदिनाथ-चरित्र
_ नवा भव ललितांग का सुविधि वैद्य के घर जन्म।
वर्तमान नाम जीवानन्द वैद्य।
__व्याधिग्रस्त मुनि से मिलन । चिरकाल तक देवताओं के भोग भोगकर, उम्र पूरी होने पर, बर्फ जिस तरह गल जाती है, उसी तरह वज्रजंघ का जीव वहाँ से च्यव कर, जम्बू द्वीप के विदेह क्षेत्र स्थित क्षितिप्रतिष्ठित नगर में, सुविधि वैद्य के घर में, जीवानन्द नामक पुत्र-रूप से पैदा हुआ। उसी समय, शरीरधारी धर्म के चार भेद हों ऐसे चार बालक और भी उस नगर में उत्पन्न हुए। उनमें से पहले, ईशानचन्द्र राजा की कनकवती नाम की रानी से महीधर नामक पुत्र का जन्म हुआ। दूसरे, सुनासीर नामक मन्त्रीकी लक्ष्मी नाम की स्त्री से, लक्ष्मीपुत्र के समान, सुबुद्धि नामक पुत्र हुआ। तीसरे;सागरदत्त सार्थवाह की अभयमती नाम की स्त्री से पूर्णभद्र नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ; और चौथे धनसेठी की शीलमती नाम्मी स्त्री से शीलपुञ्ज के जैसा गुणाकर नामक पुत्र पैदा हुआ। बच्चों को रखनेवाली स्त्रियों की चेष्टा और रात-दिन कीरखवाली से वे बालक, अङ्ग के सब अवयव जिस तरह साथ-साथ बढ़ते हैं उसी तरह, साथ-साथ बढ़ने लगे; अर्थात् नाक,कान,जीम आँख, हाथ,पैर,पेट, पीठ प्रभृति शरीरके अवयव या अज़े जिस तरह एक
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प्रथम पर्व
१०३
आदिनाथ चरित्र
साथ बढ़ते हैं, उसी तरह वे चारों बालक एक साथ बढ़ने लगे । हमेशा साथ खेलनेवाले वे बालक - जिस तरह वृक्ष, मेघ के जल को सोख लेता है उसी तरह- - सब कला-कलाप को साथ-साथ ही ग्रहण करने लगे । श्रीमती का जीव भी, देवलोक से चव कर, उसी शहर में, ईश्वरदत्त सेठ का केशव नामक पुत्र हुआ । पाँच करण और छठे अन्तःकरण की तरह, वे छहों मित्र वियोग, रहित हुए । उन में सुविधि वैद्य का पुत्र जीवानन्द, औषधि और रसवीर्य के विपाक से, अपने पिता सम्बन्धी अष्टाङ्ग आयुर्वेदका जानकार हुआ। जिस तरह हाथियों में ऐरावत और नव ग्रहों में सूर्य अग्रगण्य या श्रेष्ठ है; उसी तरह वह बुद्धिमान और निर्दोष विद्यावाला सब वैद्यों में अग्रणी या श्रेष्ठ था । वे छहों मित्र सहोदर भाइयों की तरह एक साथ खेलते और परस्पर एक दूसरे के घर पर इकट्ठे होते थे । एक समय, वैद्य पुत्र जीवानन्द के घर पर वे सब बैठे हुए थे। उसी समय एक साधु भिक्षा उपार्जनार्थ वहाँ आया । वह साधु पृथ्वीपाल राजा का गुणाकर नामक पुत्र था । उसने मल की तरह राज्य को त्याग कर, शम साम्राज्य या चारित्र ग्रहण किया था । ग्रीष्म ऋतु की धूप से जिस तरह नदियाँ सूख जाती हैं, उसी तरह तपश्चर्या के कारण वह सूख - सूखकर काँटे से हो गये थे । अथवा मौसम गरमा की तेज़ धूप के मारे, जिस तरह नदियों में अल्प जल रह जाता है: उसी तरह तप के कारण उन के बदन में भी अल्प रक्त-मांस रह गये थे । गरमी की नदियों की तरह व कृश-काय हो गये
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पव थे। समय बे-समय अपथ्य भोजन करने से, उन्हें कृमि-कुष्ठ रोग हो गया था। यद्यपि उन के सारे शरीर में कृमिकुष्ट फैल गया था-उनके सारे अङ्गमें कोढ़ चूता था और कीड़े किलबिलाते थे; तथापि वे किसी से दवा न माँगते थे; क्योंकि मोक्ष-कामी लोग शरीर की उतनी पर्वा नहीं करते-वे शरीर की ओर से लापर्वा ही रहते हैं-वे शरीर को कोई चीज़ समझते ही नहीं।
मुनिचिकित्सा की तैयारी। गोमुत्रिका के विधानसे, घर-घर घूमते हुए उन साधु का, छठ के पारणे के दिन, उन्होंने अपने दरवाजे पर आते देखा। उस समय, जगत् के अद्वितीय वैद्य-सद्श जीवानन्द से महीधर कुमारने किसी कदर दिल्लगी के साथ कहा-'तुम रोग-परीक्षा में निपुण हो, औषधितत्वज्ञ हो और चिकित्सा-कर्म में भी दक्ष हो; परन्तु तुम में दया का अभाव है। जिस तरह वेश्या धनहीन को नज़र उठाकर भी नहीं देखती ; उसी तरह तुम भी निरन्तर स्तुति और प्रार्थना करनेवालों के सामने भी नहीं देखते। परन्तु विवेकी और विचारशील पुरुष को एक-मात्र धन का लोभी होना
साधु जब आहार ग्रहण करने के लिए गृहस्थों के घर जाय, तब उसे गोमूत्र के आकार से जाना चाहिये, शास्त्रका यही विधान है। अगर वह सीधी पंक्तिमें जायगा, तो सम्भव है, बराबर के घर वाले, मालूम न होने से, साधुके भिक्षा दान की तैयारी न कर सकें।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र उचित नहीं । किसी सभय धर्मार्थ चिकित्सा भी करनी चाहिए । निदान और चिकित्सा में जो तुम्हारी कुशलता है, उस के लिए धिकार है ; क्योंकि ऐसे रोगी मुनि की तुम उपेक्षा करते हो । महोधर कुमार की बातें सुन कर, विज्ञान-रत्न के रत्नाकरसमान जीवानन्दने कहा-'तुमने मुझे याद दिलाई, यह बहुत ही अच्छा काम किया। जगतमें प्रायः ब्राह्मण व प-रहित नज़र नहीं आते: वणिक अवञ्चक नहीं होते; देहधारी निरोग नहीं होते: मित्र ईर्ष्या-रहित नहीं होते; विद्वान् धनवान नहीं होते: गुणी गर्वरहित नहीं होते: स्त्रियाँ चपलता-विहीन नहीं होती और राजपुत्र पदाचार्ग नहीं होते। यह महामुनि अवश्य ही चिकित्सा करने लायक है । लेकिन मेरे पास दवा का सामान नहीं है, यह अन्तराय रूप है । उस बीमारी के लिए जिन दवाओं की ज़रूरत है, उन में से मेरे पास 'लक्षपाक तैल' है; परन्तु गोशीर्ष चन्दन औइ रत्न कम्बल मेरे पास नहीं हैं । इनको तुम लाकर दो।' इन दोनों चीजों को हम लायेंगे, यह कह कर वे पांचों यार बाज़ारको चले गये और मुनि अपने स्थान को चले गये। उन पाँचों मित्रोंने बाज़ार में जाकर एक बूढे व्यापारी से कहा--'हमें गोशीर्ष चन्दन और रत्नकम्वल दाम लेकर दीजिये।' उस वणिक ने कहा-'इन दोनों चीज़ों का मूल्य एक-एक लाख मुहर है। मूल्य देकर आप उन्हें ले जा सकते हैं: परन्तु पहले यह बतलाइये कि, उनकीआप को किस लिए ज़रूरत है।' उन्होंने कहा--'जो दाम हों सो लीजिये और उन्हें हमें दीजिये । एक महात्माकी चिकित्साके लिए उनकी ज़रूरत है।' यह बात सुनते
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आदिनाथ - चरित्र
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प्रथम पर्व
ही सेठ आश्चर्य चकित हो गया, उस के नेत्र फटे से हो गयेवह हक्का-बक्का होकर देखता रह गया । रोमाञ्च से उस के हृदय के आनन्द का पता लगता था । वह अपने दिल में इस भाँति विचार करने लगा - 'अहो ! कहाँ तो इन सब का उन्माद - प्रमाद और कामदेव से भी अधिक मदपूर्ण यौवन और कहाँ इन की वयोवृद्धों के योग्य विवेक पूर्णं मति ? इस उठती जवानी में, इनमें वृद्धों के योग्य विवेक- विचार - पूर्ण मति-गति देखकर विस्मय होता है; मेरे जैसे बुढ़ापे से जर्जर शरीर वाले मनुष्यों के करने योग्य शुभ कामों को ये करते हैं और दमन करने योग्य भार को उठाते हैं।' ऐसा विचार कर वृद्ध वणिक ने कहा - 'हे भद्र पुरुषो ! इस गोशीर्ष' चन्दन और कम्बलको ले जाइये । आप लोगोंका कल्याण हो ! मूल्य की दरकार नहीं । इन वस्तुओंका धर्मरूपी अक्षय मूल्य मैं लूँगा; क्योंकि आप लोगोंने मुझे सहोदरके समान धर्मकार्य में हिस्सेदार बनाया है।' यह कह कर उसने दोनों चीजें उन्हें दे दी। इस के बाद, उस भाविक आत्मा वाले श्रेष्ठ सेठने दीक्षा लेकर परम पद लाभ किया ।
जीवानन्द वैद्य द्वारा मुनिकी चिकित्सा । अपूर्व और आश्चर्य चमत्कार ।
आरोग्य लाभ |
Potter
इस तरह औषधि की सामग्री लेकर, महात्माओं में
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आदिनाथ चरित्र: + -0.0.0 - y
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1. Banerja
'हे भगवन् ! अाज चिकित्सा-कार्य से, हम आपके धर्मकार्य में विघ्न करेंगे । आप अाज्ञा दीजिये और पुण्य से हमपर अनुग्रह कीजिये । Narsingh Press. Calcutta.
[पृष्ठ १०७]
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आदिनाथ चरित्र
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TALALI
इस के बाद उन्होंने मुनि के प्रत्येक अंग में लक्षपाक तैल की मालिश की, जिस तरह क्यारी का जल बाग में फैल जाता है ; उस तरह वह तेल उनकी नस-नस मे फैल गया । उस तेल के अत्यन्त उष्णवीर्य होने के कारण मुनि बेहोश होगये ।
[पृष्ठ १०७]
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प्रथम पर्व
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मित्र, जीवानन्द के साथ, उन मुनिराजके पास गये । वह मुनि महाराज एक बड़ के वृक्ष के नीचे, वृक्ष के पाद की तरह निश्चल होकर, कायोत्सर्ग में तत्पर थे। मुनि को नमस्कार करके उन्होंने कहा, – 'हे भगवन् ! आज चिकित्सा-कार्य से, हम आपके धर्म - कार्य में विघ्न करेंगे 1 आप आज्ञा दाजिये और पुण्य से हमपर अनुग्रह कीजिये । मुनि ने ज्योंही चिकित्सा की आज्ञा दी, त्योंही वे एक मरी हुई गाय को ले आये; क्योंकि सद्वैद्य कभी भी विपरीत चिकित्सा नहीं करते। इस के बाद उन्होंने मुनि के प्रत्येक अङ्ग में लक्षपाक तैल की मालिश की जिस तरह क्यारी का जल बाग़ में फैल जाता है : उस तरह वह तेल उन की नसनस मे फैल गया । उस तेल के अत्यन्त उष्णवीर्य होने के कारण, मुनि बेहोश होगये । उग्र व्याधि की शान्ति के लिए उग्र औषधिका ही प्रयोग करना पड़ता है । तेल से व्याकुल हुए कृमि
मुनि के शरीर से इस तरह निकलने लगे; जिस तरह बिल में जल डालने से चींटियाँ बाहर निकलती हैं। कीड़ों को निकलते देख, जीवानन्द ने मुनि को रत्न - कम्बल से इस तरह आच्छा हादित कर दिया: जिस तरह चन्द्रमा अपनी चाँदनी से आकाश को आच्छादित कर देता है । उस रत्न - कम्बल में शीतलता होने की वजह से, सारे कीड़े उस में उसी तरह लीन हो गये: जिस तरह गरमी के मौसम की दोपहरी में तपी हुई मछलियाँ शैवाल में लीन हो जाती हैं । इसके पीछे रत्न- कम्बल को बिना हिलाये धीरे.
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धीरे उठाकर, सारे कीड़े गाय की लाश पर डाल दिये गये ।
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
सत्पुरुष सर्वत्र दयासे ही काम लेते हैं। इस के बाद, जीवानन्द ने, अमृतरस - समान प्राणी को जिलानेवाले, गोशीर्ष चन्दन का लेप करके मुनि की आश्वासना की । इस तरह पहले चमड़े के भीतर के कीड़े निकले । तब उन्हों ने फिर तेल की मालिश की। उस से उदानवायु से जिस तरह रस निकलता है; उस तरह मांस के भीतर के बहुत से कीड़े निकल पड़े। तब, पहले की तरह फिर रत्न- कम्बल उढ़ाया गया। इसबार जिस तरह दो तीन दिन के दही के कीड़े अलता के ऊपर तिर आते हैं; उसी तरह कीड़े उस कम्बल पर तिर आये। उन्होंने वे फिर मरी हुई गाय पर डाल दिये । अहो ! कैसा उस वैद्य का बुद्धि-कौशल था । उसने कमाल किया। पीछे, मेघ जिस तरह गरमी से पीड़ित हाथी को शान्त करता है; उन्हों ने उसी तरह गोशीर्ष चन्दन के एस की धारा से मुनि को शान्त किया। कुछ देर बाद, उन्होंने तीसरी बार तैल मर्दन किया । उस समय हड्डियों में रहनेवाले कीड़े भी बाहर निकल आये; क्योंकि बलवान पुरुष हृष्ट-पुष्ट हो तो बज्र के पींजरे में भी नहीं रहता । उन कीड़ों को भी रत्नकम्बल पर चढ़ाकर, उन्होंने उन्हें भी गाय की लाशपर डाल दिया । सच है, नीच को नीच स्थान ही घटता है । पीछे उस वैद्य शिरोमणि ने परम भक्ति से, जिस तरह देवता को विलेपन करते हैं उसी तरह; मुनि के गोशीर्ष चन्दन का लेप किया । इस तरह चिकित्सा करने से मुनि निरोग और नवीन कान्तिमान होगये और उजाली हुई सोने की मूर्त्ति की तरह शोभा पाने लगे । अन्त
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प्रथम पर्व
१०६
आदिनाथ-चरित्र
में, भक्ति में दक्ष उन मित्रों ने मुनि महाराज से क्षमा माँगी । मुनि भी वहाँ से . अन्यत्र विहार कर गये अर्थात् किसी दूसरी जगह को चले गये । क्योंकि ऐसे पुरुष एक जगह टिककर नहीं रहते । मुनिके आराम होकर चले जाने के बाद, उन. बुद्धिमानों ने बाकी बचे हुए गोशीर्ष चन्दन और रत्नकम्बल को बेचकर सोना ख़रीद लिया । उन्होंने उस सोने और दूसरे सोनेसे मेरुके शिखर जैसा, अर्हत्-चैत्य बनाया । जिन प्रतिमा की पूजा और गुरु की
उपासना में तत्पर होकर, कम की तरह, उन्होंने कुछ समय भी व्यतीत किया । एक दिन उन छहों मित्रों के हृदयों में वैराग्य उत्पन्न हुआ: अर्थात् उन्हें इस संसार से विरक्ति होगई । तब उन्हों ने मुनि महाराज के पास जाकर जन्मवृक्ष के फल-स्वरूप, दीक्षा ली। एक राशि से दूसरी राशिपर जिस तरह नक्षत्र चक्कर लगाया करते हैं, उसी तरह वे भी नगर, गाँव और वन में नियत समय तक रहकर विहार करने लगे । उपवास, छट्ट और" अट्टम प्रभृति की तप रूपी सान से उन्होंने अपने चरित्ररत्न को अत्यन्त निर्मल किया। वे आहार देनेवालों को किसी तरह की तकलीफ नहीं देते थे । केवल प्राण धारण करने के कारणसे ही, मधुकरी वृत्ति से, पारणे के दिन भिक्षा ग्रहण करते थे; अर्थात् वे मधुकर या भौंरे की सा आचरण करते थे। भौंरा जिस तरह फूलों
मधुकर भौंरा, मधुकरी वृत्ति भौंरे की सी वृत्ति । भौरों जिस फूलोंका पराग लेता है, पर उन्हें तकलीफ नहीं देता, उसी तरह मधुकिरी वृत्ति वाले साधु गृहस्थों से आहार लेते हैं, पर उन्हे कष्ट हो, ऐसा काम नहीं करते ।
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पवें
का पराग ग्रहण करता है, पर उन को कष्ट नहीं देता; उसी तरह वे भी गृहस्थों के घरसे आहार ग्रहण करते थे, पर उनको कष्ट हो ऐसा काम नहीं करते थे। सुभट या योद्धा जिस तरह प्रहार को सह सकते हैं; उसी तरह वे धैर्य को अवलम्बन कर, भूख, प्यास और धूप प्रभृति के परिषह या कष्ट को सहन करते थे। मोहराज सेनापतियों के जैसे चारों कषायों को उन्हों ने क्षमा प्रभृति अस्त्रों से जीत लिया था। पीछे उन्होंने द्रव्य और भाव से संलेखना करके, कर्मरूपी पर्वत को नाश करने में बज्रवत् अनशन व्रत ग्रहण किया। शेषमें; समाधि को भजनेवाले उन लोगोंने पञ्च परमेष्ठी का स्मरण करते हुए अपने अपने शरीर त्याग दिये । महात्मा लोग मोह-रहित ही होते हैं, अर्थात् महापुरुषों में मोह नहीं होता, संसार के उत्तम से उत्तम पदार्थ तो क्या चीज हैं उन्हें अपने दुर्लभ शरीर से भी मोह नहीं होता।
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दसवाँ भव -
वे छहों महात्मा वहाँसे देहत्याग कर, अच्युत नाम के बारहवें देवलोक में, इन्द्रके सामानिक देव हुए। इस प्रकार के तपका साधारण फल नहीं होता। बाईस सागरोपम आयुष्य पूरी करके
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प्रथम पर्व
१११ आदिनाथ-चरित्र वे वहाँ से च्यवे अर्थात् उनका उस लोक से दूसरे लोकके लिये पतन हुआ; क्योंकि मोक्ष के सिवा और किसी भी जगह में स्थिरता नहीं है, अर्थात् जबतक मोक्ष नहीं होती, तबतक प्राणी को नित्य शान्ति नहीं मिलती। वह एक स्थान में सदा नहीं रहता। एक लोक से दूसरे लोक में, दूसरे से तीसरे में,—इसी तरह घूमा करता है। एक शरीर छोड़ता है, और दूसरा शरीर धारण करता है । शरीर त्यागने और धारण करने का झगड़ा एकमात्र मोक्षसे ही मिटता है। मोक्ष हो जाने से प्राणी को फिर मरना और जन्म लेना नहीं पड़ता।
ग्यारहवाँ और बारहवाँ भव*।
वज्रसेन के पुत्र-जन्म।
वजनाभ को राजगद्दी ।
वज्रसेन को वैराग्य । जम्बू द्वीप के पूर्व, विदेह-स्थित पुष्कलावती विजय में, लवणसमुद्र के पास, पुण्डरीकिनीनाम कीनगरी है । उस नगरी के राजा वज्रसेन की धारणी नाम की रानी की कोख से, उनमें से.पाँचने, अनुक्रम से, पुत्ररूप में जन्म लिया। उसमें जीवानन्द वैद्य का जीव, चतुर्दश महास्वप्नों से सूचित वज्रनाभ नामक पहला पूत्र हुआ।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
राजपुत्र का जीव बाहु नाम का दूसरा पुत्र हुआ। मन्त्री-पुत्र का जीव सुबाहु नाम का तीसरा पुत्र हुआ। श्रेष्ठी-पुत्र और सार्थेश पुत्रके जीव पीठ और महापीठ नाम के पुत्र हुए। केशव का जीव सुयशा नाम का अन्य राजपुत्र हुआ। वहाँ सुयशा बचपनसे ही वज्रनाभ का आश्रय करने लगा। कहा है पूर्वजन्मसे सम्बद्ध हुआ स्नेह बन्धुत्वमें ही बाँधता है, अर्थात् जिन में पूर्व जन्म में प्रीति होती हैं, उनमें इस जन्म में भी प्रीति होती ही है--पूर्व जन्म की प्रीति इस जन्म में भी घनिष्टता ही कराती है। मानो छः वर्षधर* पर्वतों ने पुरुष रूपमें जन्म लिया हो, इस तरह वे राजपुत्र और सुयशा अनुक्रम से बढ़ने लगे। वे महा पराक्रमी राजपुत्र बाहर के रास्तों में घोड़े कुदाते थे, इस से अनेक रूपधारी रेवन्त के विलास कोधारण करने लगे। कलाओं का अभ्यास कराने में उनके कलाचार्य साक्षीभूत ही हुए। क्योंकि महान पुरुषों या बड़े लोगों में गुण खुद-बखुद ही पैदा होजाते हैं; सिखाने को विशेष कष्ट उठाना नहीं पड़ता। शिला की तरह बड़े-बड़े पर्वतों को वह अपने हाथों से तोलते थे। इससे उन की बल-क्रीड़ा किसी से पूरी न होती । इसी बीच में लोकान्तिक देवताओं ने आ
® वर्ष क्षेत्र धर=धारणा करनेवाला, अतः वर्ष धर-क्षेत्र को धारण करनेवाला। चुल, हिमवन्त, महा हिमवन्त, निषध, शिखरी, रूपी और नीलवन्त, ये है भरत हीमवन्तादि क्षेत्रों को जुदा करते हैं, इससे वर्षधर पर्वत कहलाते हैं। ____+ लोकान्तिक देवताओं का ऐसा सनातन प्राचार ही है। अर्थात सदा से उनकी वही रीति है।
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प्रथम पवे
११३ आदिनाथ-चरित्र कर राजा वज्रसेन से विज्ञप्ति की- 'स्वामिन् ! धर्मतीर्थ प्रवर्त्ताओ, इस के बाद वज्रसेन राजा ने वज्र-जैसे पराक्रमी वज्रनाभ को गद्दीपर बिठाया और मेघ जिस तरह जल से पृथ्वी को तृप्त करते हैं : उसी तरह उसने सांवत्सरिक दान से पृथ्वी को तृप्त कर दिया। देव, असुर और मनुष्यों के स्वामियों ने राजा वज्र सेन का निर्गमोत्सव किया और राजा ने, चन्द्रमा के आकाश को अलंकृत करने की तरह, उद्यान को अलंकृत किया; अर्थात् उस के राज्य छोड़कर जाने का उत्सव देवराज, अराराज और नृपालों ने किया और राजा वज्रसेन ने, नगर के बाहर वगीचे में डेरा डाला और वहाँ ही उन स्वयंबुद्ध भगवान् ने दीक्षा ली। उसी समय उन को मनःपर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ। पीछे वह आत्म-स्वभाव में लीन होनेवाले, समता रूप धन के धनी, ममताहीन, निष्परिग्रही और नाना प्रकार के अभिग्रहों को धारण करनेवाले प्रभु पृथ्वीपर विहार करने लगे अर्थात् भूमण्डल में परिभ्रमण करने लगे। इधर वज्रनाभ ने अपने प्रत्येक भाई को अलग-अलग देश दे दिये और लोकपालों से जिस तरह इन्द्र सोहता है; उसी तरह वह भी रोज़ सेवा में उपस्थित रहनेवाले चारों भाइयों से सोहने लगा। सूर्य के सारथी अरुण की तरह, सुयशा उस का सारथी हुआ। महारथी पुरुषों को सारथी भी अपने योग्य ही नियुक्त करना चाहिये।
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आदिनाथ- चरित्र
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वज्रनाभ चक्रवर्ती का वर्णन ।
वज्रसेन भगवान का श्रागमन ।
प्रथम पर्व
वज्रनाभ को वैराग्य 1
अब वज्रसेन भगवान् को, आत्मा के ज्ञानादि गुणों को नष्ट करने वाले घाति कर्म रूपी मल के नाश होने से, दर्पण के ऊपर का मैल नाश होने से जिसतरह दर्पण में उज्ज्वलता होती हैं, उसी
तरह उज्ज्वल ज्ञान उत्पन्न हुआ ।
उसी समय वज्रनाभ राजा की आयुधशाला अथवा अस्त्रागार में, सूर्यका भी तिरस्कार करनेवाले, प्रभाकर की प्रभा को भी नीचा दिखानेवाले, चक्रने प्रवेश किया। और तेरह रत्न भी उन को उसी समय मिल गये । जल के प्रमाण से जिस तरह पद्मिनी ऊँची होती है; उसी तरह सम्पत्ति भी पुण्य के प्रमाण से मिलती है । जल जितना ही ऊँचा होता है, कमलिनी भी उतनीही ऊँची होती है । पुण्य जितना ही अधिक होता है; सम्पत्ति भी उतनी ही अधिक मिलती है । पुण्य जितना ही कम होता है; सम्पत्ति भी उतनी ही कम मिलती है । सुगन्ध से खींचे गये भौरों की तरह ; प्रबल पुण्यों से खींची हुई निधियाँ उस के घर की टहल करने लगीं ; अर्थात् पुण्यबल से नौ निधियाँ उसके घर में रहने लगीं ।
* श्रात्मा के ज्ञानादि गुणो को घात करने या नष्ठ करने वाले, ज्ञानावरणी । दर्शनावरणी, मोहनी अन्तराय, – ये चार कर्म धाति कर्म कहलाते हैं ।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
इसके बाद उसने सारी पुष्कलावती जीतली ; तब सब राजाओंने उसके चक्रवत्तीपन का अभिषेक किया-उसे चक्रवर्ती माना और उस की वश्यता स्वीकर की-अपने तई उसके अधीन माना। उस भोगों को भोगनेवाले चक्रवर्ती की धर्मबुद्धि दिनोंदिन इस तरह अधिकाधिक बढ़ने लगी, मानो वह उसकी बढ़ती हुई उम्रसे स्पर्धा करके बढ़ती हो : अर्थात् ज्यों ज्यों उसकी उम्र बढ़ती थी, त्यों त्यों धर्मबुद्धि उनसे पीछे रह जाना नहीं चाहती थी । जिस तरह ढेर जलसे बेल बढ़ती हैं: उसी तरह भव-वैराग्य-सम्पत्ति से उसकी धर्मवद्धि पुष्ट होने लगी। इसी बीचमें, साक्षात् मोक्ष हो इस तरह परमानन्द करनेवाले भगवान् वज्रसेन घमते-घमते वहाँ आ पहुँचे और चैत्य वृक्षके नीचे बैठकर उन्होंने धर्मदेशना या धर्मोपदेश देना आरम्भ किया। चक्रवर्ती वज्रनाभने ज्योंही प्रभुके आने की ख़बर सुनी, त्योंही वह अपने बन्धुओं सहित--राजहंस की तरह-जगत्बन्धु जिनेश्वर के चरण-कमलों में, बड़ी प्रसन्नता से, जा पहुँचा। तीन प्रदक्षिणा देकर और और जगदीश को नमस्कार करके, छोटा भाई हो इस तरह इन्द्रके पीछे बैठ गया। श्रावकोंमें मुख्य श्रावक वह चक्रवर्ती-भव्य प्राणियों के मन-रूपी सीप में बोध-रूपी माती पैदा करनेवाली, स्वाति नक्षत्र की वर्षा के समान प्रभु की देशना सुनने लगा। जिस तरह गाना सुनकर हिरनका मन उत्सुक हो उठता है : उसी तरह वह भगवान् की वाणी को सुनकर उत्सुक-मन हो उठा और इस भाँति विचार करने लगा:"यह अपार संसार समुद्र की तरह दुस्तर है—इसका पार करना
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आदिनाथ-चरित्र ११६
प्रथम पर्व कठिन है ; पर इसके पार लगाने वाले लोकनाथ मेरे पिताही हैं। यह अँधेरे की तरह पुरुषों को अत्यन्त अन्धा करनेवाले मोह को सब तरफसे भेदनेवाले जिनेश्वर हैं। चिरकाल से संचित कर्मराशि असाध्य व्याधि-स्वरूपा है। उसकी चिकित्सा करनेवाले यह पिताही हैं। बहुत क्या कहूँ ? करुणारूपी अमृतके सागरजैसे यह प्रभु दुःख क्लेशों को नाश करनेवाले और सुखोंके अद्वितीय उत्पन्न करनेवाले हैं ; अर्थात् यह प्रभु करुणासागर हैं। इनके समान दुःखोंके नाश करने और सुखोंके पैदा करनेवाला और दूसरा कोई नहीं है। अहो! ऐसे स्वामीके होनेपर भी, मोहान्धों में मुख्य मैंने अपने आत्मा को कितने समय तक वंचित किया इस तरह विचार कर, चक्रवर्तीने धर्म-चक्रवर्ती प्रभुसे भक्ति पूर्वक गद्गद् होकर कहा-“हे नाथ ! घास जिस तरह खेतको खराब कर देती है; उसी तरह अर्थसाधन को प्रतिपादन करने वाले नीतिशास्त्रोंने मेरी मति बहुत समय तक भ्रष्ट कर दी। इसी तरह मुझ विषय-लोलुपने नाट्य कर्मसे इस आत्माको, नट की तरह, अनेक बार नचाया ; अर्थात् अनेक प्रकार के रूप धर धर कर, मैंने आत्मा को अनेक नाच नचवाये । यह मेरा साम्राज्य अर्थ और काम को निबन्धन करनेवाला है। इसमें जो धर्मचिन्तन होता है, वह भी पापानुबंधक होता है । आपजैसे पिता का पुत्र होकर, यदि मैं संसार-समुद्र में भ्रमण करूँ, तोमुझमें और साधारण मनुष्य में क्या भिन्नता होगी? इसलिथे जिस तरह मैंने आपके दिये हुए साम्राज्य का पालन किया; उसी तरह अब मैं
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प्रथम पव
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आदिनाथ-चरित्र
संयम-साम्राज्य का भी पालन करूँगा ; अतएव आप मुझे उसे दीजिये।" वज्रनाभ का दीक्षा ग्रहण करना ।
वजूसेन को निर्वाणप्राप्ति । इसके बाद, अपने वंशरूपी आकाशमें सूर्यके समान, चक्रवर्तीने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर, भगवान् से व्रत ग्रहण किया। पिता
और बड़े भाई द्वारा ग्रहण किये हुए व्रत को उसके बाहु प्रभृति भाइयोंने भी ग्रहण किया : क्योंकि उनका कुलक्रम ऐसाही थाउनके कुल में ऐसाही होता आया था। सुयशा सारथी ने भीधर्मके सारथी की तरह-अपने स्वामी के साथ ही भगवान् से दीक्षा ग्रहण को : क्योंकि सेवक स्वामी की चालपर चलनेवाले ही होते हैं। वह वज्रनाभ मुनि थोड़े ही समय में शास्त्र-समुद्र के पारगामी होगये। इससे मानो प्रत्यक्ष एक अङ्गपणे को प्राप्त हुई जंगम द्वादशांगी हो, ऐसे मालूम होने लगे। वाहु वगैरः मुनि भी ग्यारह अङ्गों के पारगामी हुए। 'क्षयोपशमसे विचित्रता को प्राप्त हुई गुण-सम्पत्तियाँ भी विचित्र प्रकारकी ही होती हैं ।' अर्थात् पूर्वके क्षयोपशम के प्रमाणसे ही गुण प्राप्त होते हैं। वे सब सन्तोष-रूपी धनके धनी थे; तो भी तीर्थङ्कर की चरण-सेवा और दुष्कर तपश्चर्या करने में असन्तुष्ट रहते थे। उन्हें संसारी पदार्थों की तृष्णा न थी, सबमें सन्तोष था ; मगर तीर्थङ्कर की चरण-सेवा और कठिन तप से उन्हें सन्तोष न होता था। वे
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आदिनाथ-चरित्र ११८
प्रथम-पर्व इन को जितना करते थे, उतनेसे उन की तृप्ति न होती थी वे इन्हें और भी अधिक करना चाहते थे। वे मासोपवास आदिक तप करते थे, तोभी निरन्तर तीर्थङ्कर के वाणी रूपी अमृत के पान करने से उन्हें ग्लानि न होती थी। भगवान् वज्रसेन तीर्थङ्कर, उत्तम शुक्ल ध्यान का आश्रय कर, ऐसे निर्वाण-पद को प्राप्त हुए, जिस का देवताओं ने महोत्सव किया।
वज्रनाभ मुनि की महिमा।
अनेक प्रकार की लब्धियां । अब ; धर्म के बन्धु हों जैसे वज्रनाभ मुनि, व्रत धारण करने वाले मुनियों को साथ लेकर पृथ्विीपर विहार करने लगे अर्थात् पृथ्वी-पर्यटन करने लगे। जिस तरह अन्तरात्मा से पाँचों इन्द्रियों सनाथ होती हैं ; उसी तरह वज्रनाभ स्वामी से बाहु प्रभृति चारों भाई और सारथी-ये पाँचों मुनि सनाथ होगये । चन्द्रमा की कान्ति से जिस तरह औषधियाँ प्रकट होती हैं ; उसी तरह योगके प्रभाव से उन्हें खेलादि लब्धियाँ प्रकट हुई, कोटिवेध रससे जिस तरह बहुतसा ताम्बा सोना हो जाता है ; उसी तरह उनके ज़रासे श्लोष्म की मालिश करने से कोढ़ी की काया सुवर्णवत् कान्तिमती हो जाती थी ; अर्थात् उनकी नाक से निकले हुए रहँट की मालिश से कोढ़ी की काया सोने के समान होजाती थी। उन के कान, नाक और अङ्गों का मैल सब तरह के रोगियों के रोगों को नाश करनेवाला और कस्तूरी के समान
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र सुगन्धित था। अमृत-कुण्ड में स्नान करने से रोगी जिस तरह आरोग्य लाभ करते हैं; उसी तरह उनके शरीर के छूने मात्र से रोगी लोग निरोग होते थे। जिस तरह सूर्यका तेज अन्धकार का नाश करता है ; उसी तरह बरसाती और नदियों का बहने वाला जल उनके संगसे सब रोगों को नाश करता था । गन्धहस्ती के मद की गन्धसे जिस तरह और हाथी भाग जाते है: उसी तरह उनके शरीर से लगकर आये हुए वायु से विष प्रभृति के दोष दूर भाग जाते थे। यदि, किसी तरह, कोई विष-मिला अन्नादिक पदार्थ उनके मुख या पात्र में आ जाता था, तो अमृतके समान विपहीन हो जाता था। जहर उतारने के मन्वाक्षरों की तरह, उनके वचनों को याद करने से विष-व्याधि से पीड़िन मनुष्यों की पीड़ा नाश हो जाती थी। जिस तरह सीपी का जल मोती हो जाता है ; उसी तरह उनके नाखुन, बाल, दालों और उनके शरीर से पैदा हुए मैल प्रभृति पदार्थ औषधि रूप में परिणत हो जाते थे।
फिर सूईके नाके में भी डोरे की तरह घुस जाने की सामर्थ जिससे हो जाती है, वह अणुत्व शक्ति उन को प्राप्त होगई : अर्थात् इच्छा करने मात्र से वह अपना छोटे-से-छोटा रूप बना सकते थे। उन को अपने शरीर को बड़ा करने की वह महत्वशकि प्राप्त होगई, जिससे वह अपने शरीर को इतना बड़ा कर सकते थे, कि जिस से मेरु पर्वत उन के घुटनेतक आवे। उन्हें वह लघुत्व शक्ति प्राप्त होगई, जिस से वह अपने शरीर को हवासे
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
भी हल्का कर सकते थे । उन्हें वह गुरुत्व शक्ति प्राप्त होगई, जिससे वह अपने शरीर को, इन्द्रादि देवताओं के लिए भी असहनीय, वज्र से भी भारी बना सकते थे। उन्हें ऐसी प्राप्ति शक्ति प्राप्त होगई, जिस से वह, पृथ्वीपर रहनेपर भी, वृक्षके पत्तों के समान मेरुके अग्रभाग और नक्षत्र आदिकों को छू सकते थे; अर्थात् पृथ्वीपर खड़े हुए वह आकाश के तारों को हाथों से छू सकते थे । उनको ऐसी प्राकाम्य शक्ति प्राप्त होगई थी, जिससे वह जलमें थलकी तरह चल सकते थे और जलकी तरह पृथ्वीमें उन्मज्जन- निमज्जन कर सकते थे । उन को ऐसी ईशत्व शक्ति प्राप्त होगई थी, जिससे वह चक्रवर्त्ती और इन्द्र की ऋद्धि को बढ़ा सकते थे। इनको ऐसी अपूर्व वशित्व शक्ति प्राप्त हो गई थी, जिस से वह स्वतंत्र और क्रूर जन्तुओं को भी वश में कर सकते थे। उन्हें ऐसी अप्रतिधाती शक्ति प्राप्त होगई थी, जिससे वह छेद की तरह पर्वत के बीच से निःशंक गमन कर सकते थे । उनको ऐसी अप्रतिहत अन्तर्धान होने की सामर्थ्य होगई थी कि वह हवा की तरह सब जगह अदृश्य रूप धारण कर सकते थे और ऐसी काम रूपत्व शक्ति प्राप्त होगई थी, जिससे वह एक ही समय में अनेक प्रकार के रूपों से लोक को पूर्ण कर सकते थे ।
एक अर्थ रूप बीज से अनेक अर्थ रूप बीज जान सके ऐसी ज बुद्धि, कोठी में रखे हुए धान्य की तरह, पहले सुने हुए अर्थ को याद किये बिना यथास्थित रहे ऐसी कोष्ट बुद्धि और आदि
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र अन्त या मध्य का एक पद सुननेसे तत्काल सारे ग्रन्थ का बोध होजाय, ऐसी पदानुसारिणी लब्धि उनको प्राप्त होगई थी। एक वस्तु का उद्धार करके, 'अन्तमुहूर्त में समस्त श्रुत समुद्र में अवगाहन करने की सामर्थ्य से वे मनोबली लब्धि वाले हुए थे। एक मुहूर्त में मूलाक्षर गिनने की लीला से सब शास्त्र को घोष डालते थे, इसलिये वे वाग्बली भी होगये थे। चिरकालतक समाधि या कायोत्सर्ग में स्थिर रहते थे, किन्तु उन्हें श्रम- थकान और ग्लानि नहीं होती थी : इससे वे कायबली भी हुए थे। उनके पात्र के कुत्सित अन्नमें भी अमृत, क्षीर, मधु और घीका रस आनेसे तथा दुःख से पीड़ित मनुष्यों को उन की वाणी अमृत, क्षीर, मधु और घृत के समान शान्तिदायिनी होती थी, इससे वे अमृत क्षीर मध्वाज्याश्रवि लब्धिवाले हुए थे। उन के पात्र में रखा हुआ थोड़ा सा अन्न भी दान करने से अक्षय होजाता था, इसलिए उन को अक्षीण महानसी लब्धि प्राप्त हो गयी थी। तीर्थङ्कर की सभा की तरह थोड़ी सी जगह में भी वे असंख्य प्राणियों को बिठा सकते थे। इसलिये वे अक्षीण महालय लब्धिवाले थे और एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रिय का विषय भी प्राप्त कर सकते थे, इसलिये वे संभिन्न श्रोत लब्धिवाले थे। उन को जंघाचरण लब्धि प्राप्त हो गई थी : जिससे वे एक कदम में रुचकद्वीप पहुँच सकते थे और वहाँ से वापस लौटते समय पहले कदम में नन्दीश्वर द्वीप में आते और दूसरे कदम में जहाँ से चले थे वहाँ आ
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
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सकते थे यानी वे अपने तीन डगों में इतना लम्बा सफर तय कर सकते थे । यदि वे ऊँचे जाना चाहते, तो एक डग में मेरु पर्वत स्थित पांडुक उद्यान में जा सकते थे और वहाँ से वापस लौटते समय एक डग में नन्दन वन में और दूसरे डग में उत्पात भूमि की तरफ आ सकते थे । विद्याचारण लब्धि से वे एक फलाँग में मानुषोत्तर पर्वत पर और दूसरी फलाँग में नन्दीश्वर द्वीप में जा सकते थे और वापस लौटते समय एक फलाँग में पूर्व उत्पात भूमि में आ सकते थे । उर्ध्वगति में, जंघाचरण से विपरीत गमनागमन करने में शक्तिमान थे । उनको आसीविष लब्धि भी प्राप्त हो गई थी, इसके सिवा निग्रह अनुग्रह कर सकने वाली और भी बहुत सी लब्धियाँ उन्हें मिल गई थीं; परन्तु इन लब्धियों से काम न लेते थे, उन्हें उपयोग में न लाते थे; क्योंकि 'मुमुक्षु पुरुषों को मिली हुई चीज़ में भी आकांक्षा नहीं होती ।
बीस स्थानकों का स्वरूप ।
अब वज्रनाभ स्वामी ने, वीस स्थानकों की आराधना से, तीर्थङ्कर नाम गोत्रकर्म दृढ़ता से उपार्जन किया । उन बीस स्थानकों में पहला स्थानक- अर्हन्त और अरहन्तों की प्रतिमा पूजा से, उनके अवर्णवाद का निषेध करने से और अद्भुत अर्थ घाली उनकी स्तुति करने से आराधना होती है (अरिहन्त पद ) । सिद्धिस्थान में रहने वाले सिद्धों की भक्ति के लिए जागरण उत्सव करने से तथा यथार्थ रूप से सिद्धत्व का कीर्त्तन करने से दूसरे
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र स्थान की आराधना होती है ( सिद्ध पद ) । बाल, ग्लान और नव दीक्षित शिष्य प्रभृति यतियों पर अनुग्रह करने से और प्रवचन या चतुर्विध संघ का वात्सल्य करने से तीसरे स्थानक की आराधना होती है (प्रवचन पद )। और बहुमान-पूर्वक आहार, औषध
और कपड़े वगैरः के दान से गुरु का वात्सल्य करना चौथा स्थानक ( आचार्य पद ) है। वीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले पर्यय विर, साठ वर्ष की उम्र वाले ( वय स्थविर ), और समवायांग के धारण करने वाले (श्रुत स्थविर ) की भक्ति करना,---पांचवाँ स्थानक ( स्थविर पद ) है। अर्थ की अपेक्षा में, अपने से बहुश्रुत धारण करने वालों को अन्न-वस्त्रादि के दान वगैरः से वात्सल्य करना—छठा स्थानक ( उपाध्याय पद ) है। उत्कृष्ट तप करने वाले मुनियों की भक्ति और विश्रामणा से वात्सल्य करना,—सातवाँ स्थानक (साधु पद ) है। प्रश्न और वाचना वगैर: से निरन्तर द्वादशांगी रूप श्रुत का सूत्र, अर्थ और उन दोनों से ज्ञानोपयोग करना, --आठवाँ स्थानक ( ज्ञानपद) है। शंका प्रभृति दोष से रहित, स्थैर्य प्रभृति गुणों से भूषित
और शमादि लक्षण वाला सम्यग्दर्शन–नवाँ स्थानक ( दर्शनपद ) है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार-इन चार प्रकार के कर्मों को दूर करने वाला विनय,-दसवाँ स्थानक (विनय पद ) है । इच्छा मिथ्या करणादिक दशविध समाचारी का योग में और आवश्यक में अतिचार रहित यत्न करना,--ग्यारहवाँ स्थानक
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आदिनाथ-चरित्र १२४
प्रथम पर्व ( चारित्र पद ) है। अहिंसा आदि मूल गुणों में और समित्यादिक उत्तर गुणों में अतिचार-रहित प्रवृत्ति करना,-धारहवाँ स्थानक (ब्रह्मचर्य पद ) है। क्षण-क्षण और लव-लव में प्रमाद का परिहार करके, शुभ ध्यान में प्रवर्तना,-तेरहवाँ स्थानक ( समाधिपद ) है। मन और शरीर को पीड़ा न हो, इस तरह यथाशक्ति तप करना,-चौदहवां स्थानक (तप पद) है । मन, वचन और काया की शुद्धि-पूर्वक तपखियों को अन्नादिक का यथाशक्ति दान देना,-पन्द्रहवाँ स्थानक ( दानपद.) है । आचार्य आदिक यानी जिनेश्वर, सूरि, वाचक, मुनि, बाल मुनि, स्थविरमुनि, ग्लान-मुनि, तपस्वी-मुनि, चैत्य और श्रमणसंघ–इन दशों का अन्न, जल और आसन प्रभृति से वैयावृत्य करना,-सोलहवाँ स्थानक (वैयावच्च पद ) है। चतुर्विध संघ के सष विघ्न दूर करने से मन में समाधि उत्पन्न करना,-सत्रहवाँ स्थानक ( संयम पद) है। अपूर्व सूत्र, अर्थ और उन दोनों को प्रयत्न से ग्रहण करना,—अठारहवाँ स्थानक (अभिनव ज्ञानपद ) है। श्रद्धा से, उद्भासन से और अवर्णवाद का नाश करने से श्रुत ज्ञान की भक्ति करना,-उन्नीसवाँ स्थानक (श्रुत पद) है। विद्या, निर्मित्त, कविता, वाद और धर्म कथा प्रभृति से शासन की प्रभावना करना,-बीसवाँ स्थानक (तीर्थ पद ) है।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्धन ।
बारहवें भव की समाप्ति
इन बीस स्थानकों में से एक-एक पद का आराधन करना भी तीर्थङ्कर नाम-कर्म के बन्ध का कारण है। परन्तु वज्रनाभ भगवान् ने तो इन सब पदों का आराधन करके तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया। बाहुमुनि ने साधुओं को वैयावच्च करने से चक्रवती के भोग-फल को देनेवाला कर्म उपार्जन किया। तपस्वी महर्षियों की विश्रामणा करने वाले सुबाहु मुनि ने लोकोत्तर बाहुबल उपार्जन किया। तब वज्रनाभ मुनि ने कहा'अहो ! साधुओं की वैयावच्च और विश्रामणा करने वाले ये बाहु
और सुबाहु मुनि धन्य हैं।' उनकी ऐसी प्रशंसा से पीठ और महापीठ मुनि विचार करने लगे-'जो उपकार करने वाले हैं, उन्हीं की यहाँ प्रशंसा होती है, अपन दोनों आगम शास्त्र के अध्ययन और ध्यान में लगे रहने से कुछ भी उपकार न कर सके, इसलिये अपनी प्रशंसा कौन करे ? अथवा सब लोग अपने काम करने वाले को ही ग्रहण करते हैं। इस तरह माया मिथ्यात्व से युक्त ईर्षा करने से बाँधे हुए दुष्कृत्य को आलोचन न करने से, उन्होंने स्त्री नाम कर्म-स्त्रीपने की प्राप्ति रूप कर्म उपार्जन किया। उन छहों महर्षियों ने अतिचार रहित और खड्ग की धारा के
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व समान प्रव्रज्या को चौदह लाख पूर्व तक पालन किया। पीछे वे छहों धीरमुनि दोनों प्रकार की संलेखना-पूर्वक पादोपगमन अनशन अंगीकार करके, सर्वार्थ सिद्धि नाम के पांचवें अनुत्तर विमान में, तेतीस सागरोपम आयुवाले देवता हुए।
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प्रथम सर्ग समाप्त
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AMMAD 11111 - दूसरा सर्ग
सागरचन्द्र का वृत्तान्त |
सागरका राजभुवन में सत्कार ।
स जम्बूद्वीप में, पश्चिम महा विदेह के अन्दर, शत्रुओं से अपराजित, अपराजिता नामकी नगरी थी। उस नगरी में, अपने बल पराक्रम से जगत् को जीतनेवाला और लक्ष्मी में ईशानेन्द्र के समान ईशानचन्द्र नामक राजा था। वहाँ एक बहुत बड़ा धनी चन्दनदास नामक सेठ रहता था । वह सेठ धर्मात्माओं में अग्रणी और संसार को आनन्दित करने में चन्दन के समान था । उसके जगत् के नेत्रों को सुखी करने वाला सागरचन्द्र नामका पुत्र था । जिस तरह चन्द्रमा समुद्र को आह्लादित और आनन्दित करता है; उसी तरह वह अपने पिता को आनन्दित और आह्लादित करता था । स्वभाव से ही सरल, धार्मिक और विवेकी सागरचन्द्र सारे शहर का
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व एक मुखमंडन हो रहा था। एक समय जबकि, सामन्त राजा . लोग ईशानचन्द्र राजा के दर्शन और चाकरी के लिये आकर उस
के इर्द-गिर्द बैठे हुए थे, तब वह राजभवन में गया। राजा ने भी उस के पिता की तरह उसका आसन और पान इलायची प्रभृति से खूब आदर-सम्मान किया और उसे स्नेह-दृष्टि से देखा ।
वसन्तागमन । उस समय एक मङ्गल-पाठक राजद्वार में आकर, शंखध्वनिका पराजित करनेवाली वाणी से इस तरह कहने लगा- हे राजन् ! आज आप के बाग़ में उद्यान-पालिका या मालिन की तरह अनेक प्रकार के फूलों को सजानेवाली वसन्त-लक्ष्मी शोभित हो रही है। इन्द्र जिस तरह नन्दन वन को सुशोभित करता है, उसी तरह आप भी खिले हुए फूलों की सुगन्ध से दिशाओं के मुख को सुगन्धित करनेवाले उस बगीचे को सुशोभित कीजिये।' मङ्गल-पाठक की उपरोक्त बात सुनकर, राजा ने द्वारापाल को हुक्म दिया-"अपने शहर में ऐसी घोषणा करा दो कि, कल सवेरे सब लोग राज-बाग़ में एकत्र हों।" इसके बाद राजाने स्वयं सागरचन्द्र को आज्ञा दी—'आप भी आइयेगा।' स्वामी को प्रसन्नत के यही लक्षण हैं। पीछे राजा से छुट्टी पाकर साहुकार का लड़का बड़ी खुशी के साथ अपने घर आया। वहाँ अकर उसने अशोकदत्त नाम के अपने मित्र से राजाज्ञा-सम्बन्धी सारी बात कही।
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आदिनाथ चरित्र।
4-30-30-9-
4
सागरचन्द्र "यह क्या है !" कहता हुआ संभ्रमके साथ वहाँ दौड़ गया। वहाँ जाकर उसने देखा कि, जिस तरह व्याघ्र हिरणीको पकड़ लेता है ; उसी तरह बन्दीवानोंने पूर्णभद्र सेठकी प्रियदर्शना नामकी कन्या पकड़ रखी है। जिस तरह साँपकी गर्दन तोड़कर मणिको लेले ते हैं, उसी तरह उसने बन्दीवानके हाथसे छूरि छीन ली। (पृष्ठ १२६)
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
सागर और अशोक बाग़ में।
सागरचन्द्र की बहादुरी ।
प्रियदर्शना की रक्षा। दूसरे दिन सवेरे ही राजा अपने परिवार-समेत बाग़ में गया। वहाँ नगर के लोग भी आये थे, क्योंकि 'प्रजा राजा का अनुसरण करनेवाली होती है।' मलय पवन के साथ जिस तरह वसन्त ऋतु आती है ; उसी तरह सागरचन्द्र भी अपने मित्र अशोकदत्त के साथ बाग़ में पहुँचा। कामदेव के शसन में रहने वाले. कामी पुरुष-फूल तोड़-तोड़कर, नाच-गान वगैरः में लग गये। स्थान-स्थान पर इकट्ठे होकर, क्रीड़ा करते हुए नगर-निवासी, निवास किये हुए कामदेव रूपी राजा के पड़ाव की तुलना करने लगे। कदम-कदम पर गाने-बजाने की ध्वनि इस तरह उठने लगी; गोया दूसरी इन्द्रियों के विषयों को जीतने के लिये उठी हों। इतने में, पास के किसी वृक्ष की गुफा में से “रक्षा करो, रक्षा करो" की आवाज़ किसी स्त्री के कंठ से अकस्मात् निकली। उस आवाज़ के कान में पड़ते ही, उस से आकर्षित हुए के समान सागर चन्द्र “यह क्या है !" कहता हुआ संभ्रम के साथ वहाँ दौड़ा गया। वहाँ जाकर उसने देखा कि, जिस तरह व्याघ्र हिरनी को पकड़ लेता है ; उसी तरह बन्दीवानों ने पूर्णभद्र सेठ की प्रियदर्शना नामकी कन्या पकड़ रखी है। जिस तरह साँप
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
की गर्दन तोड़कर मणि को ले लेते हैं; उसी तरह उसने एक बन्दीवान के हाथ से छुरी छीन ली । उसका ऐसा पराक्रम देखकर, सब बन्दीवान वहाँ से नौ दो ग्यारह हुए; क्योंकि 'जलती हुई आग को देखकर व्याघ्र भी भाग जाते हैं।' इस तरह कठियारे लोगों से आम्रलता छुड़ाने की तरह, सागरचन्द्र ने दुष्टों से प्रियदर्शना छुड़ाई। उस समय प्रियदर्शना विचार करने लगी“परोपकार करने के व्यसनी पुरुषों में मुख्य यह कौन है ? अहो ! मेरे सौभाग्य की सम्पत्ति से खिँचा हुआ यह पुरुष यहाँ आगया, यह बहुत अच्छा हुआ ! कामदेवके रूप को तिरस्कार करनेवाला यह पुरुष मेरा पति हो ।" इस तरह के विचार करती हुई प्रियदर्शना अपने घर को चली गई । सागरचन्द भी प्रियदर्शना को अपने हृदय में बिठाकर अपने मित्र अशोकदत्त के साथ अपने
घर गया ।
सागर के पिताका पुत्रको उपदेश देना ।
यह
होते-होते यह बात उसके पिता चन्दनदासके कानों तक भी पहुँच गई। ऐसी बात किस तरह छिप सकती है ? चन्दनदासने यह हाल जानकर मन ही मन विचार किया- 'लड़के का दिल प्रियदर्शना से लग गया है, उसे उससे मुहब्बत हो गई है । उचित ही है, क्योंकि राजहंस के साथ कमलिनी ही शोभा देती है । परन्तु सागरचन्द्र ने जो उद्भटपना किया वह ठीक नहीं । क्योंकि पराक्रमी होनेपर भी, वणिक लोगों को अपना पराक्रम प्रकाशित न करना चाहिये । फिर; सागर का स्वभाव सरल है ।
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प्रथम प
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आदिनाथ-चरित्र
उसकी मायावी और धूर्त्त अशोकदत्त से मित्रता हुई है । केले के वृक्ष को जिस तरह वेरके झाड़ की संगत हितकारी नहीं होती: उसी तरह सागर के साथ उसकी मैत्री हितकर नहीं।' इस तरह बहुत देरतक विचार करके, उसने सागरचन्द्र को अपने पास बुलाया और जिस तरह उत्तम हाथी को उसका महावत शिक्षा देना आरंभ करता है: उसी तरह मीठे वचनों से उसे शिक्षा देनी आरंभ की :
“हे बच्चे सागरचन्द्र ! सारे शास्त्रों का अभ्यास करने से तू व्यवहारकी सारी बातें जानता है; तोभी मैं तुझसे कुछ कहता हूँ । अपन वैश्य लोग कला-कौशल से जीविका करनेवाले हैं। अपनके अनुद्भट और मनोहर भेषमें रहनेसे अपनी निन्दा नहीं हो सकती : इसलिये तुझे यौवनावस्था - जवानी में भी अपने बल पराक्रमको गुप्त रखना चाहिये । इस संसार में, बणिक लोग, सामान्य अर्थ में भी, शङ्कायुक्त वृत्तिवाले कहलाते हैं । जिस तरह स्त्रियोंका शरीर ढका रहनेसे ही अच्छा लगता है; उसी तरह अपन लोगोंकी सम्पत्ति, विषय-क्रीड़ा और दान सदा गुप्त रहनेसे ही अच्छे मालूम होते हैं; अर्थात् स्त्रियोंके शरीर, वैश्योंकी धनसम्पत्ति, विषय-क्रीड़ा और दानकी शोभा गुप्त रहनेमें ही है t जिस तरह ऊँटके पाँवमें बँधा हुआ सुवर्णका लगता; उसी तरह अपनी वैश्य जातिको अनुचित कर्म शोभा नहीं देते । अतः प्रियपुत्र ! अपनी कुल परम्पराके अनुसार उचित व्यवहार-परायण हो कर वही करो, जो अपने कुलमें होता आया है
तोड़ा अच्छा नहीं
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
कुल परम्पराके विपरीत मत चलो । सम्पत्तिकी तरह अपने गुणों को भी गुप्त और पोशीदा रखो । जो स्वभावसे कपटी और दुर्जन हैं, उनका संसर्ग त्याग दो । कपटहृदय वाले दुष्टोंकी संगति मत करो ; क्योंकि दुष्टोंका संसर्ग हड़किये कुत्तेके विषकी तरह काल योगले विकारको प्राप्त होता है। बच्चे ! कोढ़ जिस तरह फैलने से शरीरको दूषित कर देता है; उसी तरह तेरा मित्र अशोकदत्त ज़ियादा हेलमेल और परिचयसे तुझे दूषित कर देगा तेरे चरित्रको कलुषित कर देगा । यह मायावी गणिका - वेश्या की तरह, मनमें और, वचनमें और एवं क्रियामें और ही है । यह कहता कुछ है, करता कुछ है और इसके मनमें कुछ है । यह मन वचन और कर्ममें asai नहीं है ।
सागरचन्द्रका जवाब |
सेठ चन्दनदास इस प्रकार आदर पूर्वक उपदेश देकर चुप हो गया, तब सागरचन्द्र मनमें इस तरह विचार करने लगा :- 'पिताजी जो मुझे इस तरहका उपदेश दे रहे हैं, इससे मालूम होता है कि, उनको प्रियदर्शना-सम्बन्धी वृत्तान्त ज्ञात हो गया है । मेरा मित्र अशोकदन्त पिताजीको सङ्गति करने योग्य नहीं जँचता । यह उसे मेरे सङ्ग रहनेके लायक़ नहीं समझते। इन्हें उसकी मुहबत से मेरे बिगड़ जानेका भय है । मनुष्यका भाग्य मन्द होनेसे ही, ऐसे सीख देने वाले गुरुजन नहीं होते । सौभाग्य वालोंको हीं ऐसी सत्शिक्षा देने वाले गुरुजन मिलते हैं। भलेही उनकी मरज़ी
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ- चरित्र माफ़िक कोई क्यों न हो ?' मन-ही-मन क्षण भर ऐसे विचार करके, सागरचन्द्र विनययुक्त अतीव नम्र वाणीसे बोला :- “पिताजी ! आप जो आदेश करें, जो हुक्म दें, मुझे वही करना चाहिये क्योंकि मैं आपका पुत्र हूँ । जिसे काम के करनेमें गुरुजनोंकी आज्ञा का उल्लङ्घन हो, उस कामके करनेसे अलग रहना भला; लेकिन अनेक बार, दैवयोग से, अकस्मात् ऐसे काम आ पड़ते हैं, जिनमें विचार करनेके लिये, थोड़े से समय की भी गुञ्जाइश नहीं होती; अर्थात् विचार करने के लिऐ समय मिलना कठिन हो जाता है। जिस तरह किसी-किसी मूर्खके पाँव पवित्र करने में पर्व- वेला निकल जाती है, उसी तरह कितने ही कामोंका समय विचार में पड़ने से निकल जाता है । मनुष्य विचारोंमें लगता है और समय निकल जाने से काम बिगड़ जाता है - भयङ्कर हानि हो जाती है। ऐसे प्राण- सङ्कट- काल में भी, प्राणोंके संशयका समय आनेपर भी, जान जोखिमका मौका आ जानेपर भी, पिताजी ! अबसे मैं ऐसा काम करूँगा, जिससे आपको शर्मिन्दा होनान पड़े- आपको लज्जासे सिर नीचा न करना पड़े। आपने अशोकदत्तके सम्बन्ध में जो बातें कही हैं, उनके सम्बन्ध में मेरी यह प्रार्थना है कि, न तो मैं उसके दोषोंसे दूषित ही हूँ और न उसके गुणोंसे भूषित ही हूँ। मैं उसके गुण-दोषोंसे सर्वथा अलग हूँ। रात-दिन साथ रहने, बचपन से एक संग खेलने, बारम्बार मिलने, सजातीय या समान जातीय हो एक विद्या पढ़ने, समान शील और उम्र में बराबर होने एवं परोक्षमें या नामौजूदगी में उपकार करने एवं सुख-दुःखमें भाग लेने प्रभृति कारणोंसे उसके साथ मेरी मैत्री
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आदिनाथ. चरित्र
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प्रथम पर्व होगई है । उसमें मुझे ज़राभी कपट नहीं दीखता - उसके व्यवहार में मुझे छल-कपटकी गन्धभी नहीं आती। मालूम होता है, मेरे मित्रके सम्बन्धमें आपको किसीने झूठी ख़बर दी है - ग़लत और मिथ्या बात कही है। क्योंकि दुष्टलोग सबको दुःख देनेवाले ही होते हैं। दूर्जनों का काम शिष्टों को दुःख और क्लेश पहुँचाना ही है । उन्हें पराई हानि में ही लाभ जान पड़ता है। उन्हें दूसरों को दुखी देखने से प्रसन्नता होती है । वे दूसरों के सुख से सुखी नहीं होते । कदाचित् वह ऐसा ही हो – मायावी और धूर्त ही हो; तोभी वह मेरा क्या कर सकता है ? मेरी कौनसी हानि कर सकता है ? क्योंकि एक जगह रहने पर भी काँच काँच ही रहेगा और मणि मणि ही रहेगी- काँच मणि न हो जायगा और मणि काँच न हो जायगी ।"
सागरचन्द्र का विवाह |
पति-पत्नी का पारस्परिक व्यवहार |
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इस तरह कह कर सागर चन्द्र चुप हो गया, तब सेठ ने कहा“पुत्र ! यद्यपि तू बुद्धिमान है, तथापि मुझे कहना ही चाहिये क्योंकि पराये अन्त:करण को जानना कठिन है—पराये दिलमें क्या है, यह जानना आसान नहीं ।" इसके बाद पुत्रके भाव को समझने वाले सेठ ने शीलादिक गुणों से पूर्ण प्रियदर्शना के लिये पूर्णभद्र सेठ से मँगनी की अर्थात् अपने पुत्र के लिए कन्या देने की प्रार्थना की। तब 'आपके पुत्र ने उपकार द्वारा मेरी पुत्री पहले
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र ही ख़रीद ली है' ऐसा कह कर पूर्णभद्र सेठ ने सागरचन्द्र के पिता की बात स्वीकार करली : अर्थात् अपनी कन्या देना मंजूर कर लिया। फिर, शुभ दिन और शुभ लग्न में उनके माँ बापों ने सागरचन्द्र के साथ प्रियदर्शना का विवाह कर दिया। मनचाहा बाजा बजने से जिस तरह खुशी होती है, उसी तरह मनवांछित विवाह होने से वर वधू-दुलह दुलहिन को बड़ी खुशी हुई। प्रसन्नता क्यों न हो, वर को मन-चाही बहू मिली और बहू को मन-चाहा वर मिला। दोनों के समान अन्तःकरण होने से एक से दिल होने से गोया एक आत्मा हो, इस तरह उन दोनों की मुहब्बत सारस पक्षी की तरह बढ़ने लगी। चन्द्र से जिस तरह चन्द्रिका शोभती है : उसी तरह निर्मल हृदय और सौम्य दर्शन वाली प्रियदर्शना सागरचन्द्रस शोभने लगी। चिरकालसे घटना घटाने वाले देव के योगसे, उन शीलवान्, रूपवान् और सरलहृदय स्त्री-पुरुषोंका उचित योग हुआ-अच्छा मेल मिला । आपसमें एक दूसरेका विश्वास हानेले. उन दोनों में कभी अविश्वास तो हुआही नहीं: क्योंकि, सग्लाशय व्यक्ति कदापि विपरीत शंका नहीं करते अर्थात असरल हृदय और छली-कपटीस्त्री-पुरुषों के दिलोंमें ही एक दूसरे के खिलाफ ख़याल पैदा होते हैं। सीधे-सादे सरल चित्त वालोंके दिलोंमें न अविश्वास उत्पन्न होता है और न विपरीत शंका ही उठती है।
___ अशोकदत्तकी दुष्टता।
अशोक और प्रियदर्शनाका कथोपकथन । एक दिन सागरचन्द्र किसी कामसे बाहर गया हुआ था।
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
ऐसे ही समय में अशोकदत्त उसके घर आया, और उसकी पत्नी प्रियदर्शनासे कहने लगा- 'सागरचन्द्र हमेशा धनदत्त सेठकी स्त्रीके साथ एकान्तमें मिलता- -जुलता है, उसका क्या मतलब है ? स्वभावसे ही सरलहृदया प्रियदर्शना ने कहा- “उसका मतलब आपके मित्र जाने अथवा सर्वदा उनके दूसरे हृदय आप जानें । व्यवसायी और बड़े लोगोंके एकान्त सूचित कामोंको कौन जान सकता है ? और जो जाने वह घरमें क्यों कहे ?" अशोकदत्त ने कहा – “तुम्हारे पतिका उसके साथ एकान्तमें मिलने-जुलने का जो मतलब है, उसे मैं जानता हूँ, पर कह कैसे सकता हूँ ?”
प्रियदर्शना ने कहा- -' उसका क्या मतलब हैं ? वे उससे एकान्तमें क्यों मिलते हैं ?"
अशोकदत्तने कहा – 'हे सुन्दर भौहों वाली सुन्दरी ! जो प्रयोजन मेरा तुम्हारे साथ है, वही उनका उसके साथ है ।'
अशोकके ऐसा कहने पर भी उसके भावको न समझकर सरलाशया प्रियदर्शना ने कहा- 'तुम्हारा मेरे साथ क्या प्रयोजन है ?' अशोकने कहा – 'हे सुभ्रु ! तेरे पति के सिवा, तेरे साथ क्या किसी दूसरे रसीले सचेतन पुरुषका प्रयोजन नहीं ?"
प्रियदर्शनाकी फट्कार ।
कान में सूई जैसा, उसकी दुष्ट इच्छाको सूचित करने वाला अशोकदत्तका वचन सुनकर प्रियदर्शना सकोपा हो गई—को काँप उठी और नीचा मुँह करके आक्षेप के साथ बोली- अम
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आदिनाथ चरित्र 24-00-0-04
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अरे दुष्ट ! मेरे महात्मा पतिकी तू और ही तरह अपने जैसी सम्भावना करता है,तो मित्रके मिषसे तुझ शत्रु जैसे को धिक्कार है ! रे पापी! चाण्डाल ! तू यहाँ से चला जा, खड़ा न रह, तेरे देखनेसे भी पाप लगता है।
(पृष्ठ १३७ )
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र ाद ! रे पुरुषाधम! रे कुलाङ्गार नीच! तैने ऐसा विचार कैसे . किया और किया तो मुझसे कहा कैसे ? मूर्खके ऐसे साहस को धिक्कार है ! अरे दुष्ट ! मेरे महात्मा पतिकी तू औरही तरह अपनेजैसी सम्भावना करता है , तो मित्रके मिषसे तुझ शत्रु-जैसे को धिकार है ! रे पापी ! चाण्डाल ! तू यहाँसे चला जा, खड़ा न रह, तेरे देखने से भी पाप लगता है।' अशोक और सागर का मिलन ।
अशोक की घोर नीचता।
कपटपूर्ण बातें। प्रियदर्शनासे इस तरह अपमानित होकर, अशोकदत्त चोर की तरह वहाँसे लम्बा हुआ । गो-हत्या करने वालेकी तरह, पाप रूपी अन्धकारसे मलीन मुखी और विमनस्क अशोकदत्त चला जाता था कि, इतने में उसे सामने से आता हुआ सागरचन्द्र दीख गया। स्वच्छ अन्तःकरणवाले सागरचन्द्रने उससे चार नज़र होतेही पूछा- मित्र ! तुम उद्विग्न से कैसे दीखते हो ?' सागरकी बात सुनते ही , दीर्घ निःश्वास त्याग कर, कष्टसे दुखित हुएके समान, होठोंको चबाते हुए, मायाके पहाड़ अशोकने कहा• हे भाई ! हिमालय पर्वतके नज़दीक रहने वालोंके सरदी से ठिठरनेका कारण जिस तरह प्रकट है, उसी तरह इस संसार में बसने वालोंके उद्वेग का कारणभी प्रगटही है। कुठौरके फोड़ेकी
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पव
तरह, यह वृत्तान न तो छिपाया ही जा सकता है और न प्रकट ही किया जा सकता है।'
इस तरह कहकर और कपटके आँसू दिखाकर अशोकदत्त चुप होगया। निष्कपट सागरचन्द्र मनमें बिचार करने लगा'अहो ! यह संसार असार है, जिसमें ऐसे पुरुषों कोभी अकस्मात् ऐसे सन्देहके स्थान प्राप्त हो जाते हैं। धूआँ जिस तरह अग्नि की सूचना देता है, उसी तरह, धीरज से न सहे जाने योग्य, इसके भीतरी उद्व गकी इसके आँसू, ज़बर्दस्ती, सूचना देते हैं।' इस तरह चिरकाल तक विचार करके, उसके दुःखसे दुखी सागरचन्द्र गद्गद स्वरसे इस प्रकार कहने लगा-'हे बन्धु ! यदि अप्रकाश्य न हो, कहने में हर्ज न हो, तो अपने इस उद्वेगके कारणको मुझसे इसी समय कहो और अपने दुःखका एक भाग मुझे देकर अपने दुःखकी मात्रा कम करो।' __अशोकदत्तने कहा-'प्राण-समान आपसे जब मैं कोईभी बात छिपाकर नहीं रख सकता, तब इस वृत्तान्तको ही किस तरह छिपा सकता हूँ? आप जानते हैं कि, अमावस्याकी रात जिस तरह अन्धकारको उत्पन्न करती है, उसी तरह स्त्रियाँ अनर्थको उत्पन्न करती हैं।'
सागरचन्द्रने कहा-'भाई ! इस समय तुम नागिनके जैसी किसी स्त्रीके संकट में पड़ेहो?” _ अशोकदत्त बनावटी लजाका भाव दिखाकर बोला:-'प्रियदर्शना मुझसे बहुत दिनोंसे अनुचित बात कहा करती थी; परन्तु
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
मैंने यह समझकर कि, कभी तो इसे लाज आयेगी और यह म्वयं समझ-बूझकर ऐसी बातोंसे अलग हो जायगी, मैंने लजाके मारे कितने ही दिनों तक उसकी अवज्ञा-पूर्वक उपेक्षाकी; तोभी वह अपनी कुलटा नारीके योग्य बातें कहनेसे बन्द न हुई । अहो ! स्त्रियोंका कैसा असद् आग्रह होता है ! हे मित्र ! आज मैं आपको खोजनके लिए आपके घर पर गया था। उस समय छल-कपट से भरी हुई उस स्त्रीने राक्षसीकी तरह मुझे रोक लिया : लेकिन हाथी जिस तरह बन्धनको तुड़ाकर अलग हो जाता है; उसी तरह मैं भी उसके पलेसे बड़ी कठिनाईसे छूटकर जल्दी-जल्दी यहाँ आरहा था। राहमें मैंने विचार किया कि, यह स्त्री मुझे जीता न छोड़ेगी। इसलिये मैं खुदही आत्मघात करलूँ तो कैसा ? परन्तु मरना भी मुनासिब नहीं, क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में-मेरे न रहने पर, वह स्त्री मेरे मित्रसे इन सब बातों को कहेगी यानी इसके विपरीत कहेगी; इसलिये मैं स्वयं ही अपने मित्रसे ये सब बातें कह दूं, जिससे स्त्रीका विश्वास करके वह नष्ट न हो जाय । अथवा यह कहना भी उचित नहीं, क्योंकि मैंने उस स्त्रीका मनोरथ पूर्ण नहीं किया, तव उसकीबुरी बातको कहकर घाव पर नमक क्यों छिड़कें ? मैं ऐसे बिचारों में गलता-पेचा हो रहा था, कि आपने मुझे देख लिया । हे भाई, यही मेरे उद्वेग का कारण है ।' अशोकदत्त की बातें सुनते ही मानो हालाहल विष पान किया हो, इस तरह पवन-रहित समुद्र की तरह सागरचन्द्र स्थिर हो गया।
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम- पर्व
सागरचन्द्रकी सरलता
सागरचन्द्र ने कहा – 'स्त्रियोंसे ऐसी ही आशा है, उनसे ऐसे ही काम हो सकते हैं; क्योंकि खारी ज़मीन के निवाण के जलमें खारापन ही होता है। मित्र ! अब दुखी मत होओ, अच्छे काममें लगे रहो और उसकी बातों को याद मत करो। भाई ! वास्तव में वह जैसी हो, भलेही वैसीही रहे; परन्तु उसके कारण से अपन दोनों मित्रोंके मनोंमें मलीनता न हो-अपने दिलोमें फ़र्क न आवे ।' सरल-प्रकृति सागरचन्द्र की ऐसी अनुनयविनय से वह अधम अशोकदत्त प्रसन्न हुआ, क्योंकि मायावी लोग अपराध करके भी अपनी आत्मा की प्रशंसा कराते हैं।
सागरचन्द्रको संसारसे विरक्ति । देहत्याग और युगलिया जन्म |
उस दिनसे सागरचन्द्र प्रियदर्शनाको प्यार करना छोड़कर, निःस्नेह होकर, रोग वाली अँगुलीकी तरह, उसको उद्वेगके साथ धारण करने लगा; फिरभी उसके साथ पहलेकी तरह ही बर्ताव करता रहा। क्योंकि, अपने हाथोंसे लगाई और पाली - पोषी हुई लता, अगर बाँझ भी हो जाय, तोभी उसे जड़से नहीं उखाड़ते । प्रियदर्शनाने यह सोचकर कि मेरी वजहसे इन दोनों मित्रोंका वियोग न हो जाय, अशोकदत्त-सम्बन्धी वृत्तान्त अपने पति से न कहा । सागरचन्द्र संसारको जेलखाना समझकर, अपनी सारी - दौलतको दीन और अनाथोंको दान करके कृतार्थ करने लगा ।
धन
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र समय आने पर, प्रियदर्शना, सागरचन्द्र और अशोकदत्त- इन तीनोंने अपनी-अपनी उम्र पूरी करके देह त्याग दी; अर्थात् पञ्चत्वको प्राप्त हुए । उनमें सागरचन्द्र और प्रियदर्शना इस जम्बूद्वीप में, भरतक्षेत्रके दक्षिण खण्डमें, गंगा और सिन्धु नदीके बीचके प्रदेशमें, इस अवसर्पिणी के तीसरे आरेमें, पल्योपमका आठवाँ भाग शेष रहने पर, युगलिया रूपमें उत्पन्न हुए।
छःआरोंका स्वरूप । पाँच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्रमें, काल की व्यवस्था करनेके कारण-रूप बारह आरोंका कालचक्र गिना जाता है। वह कालचक्र—(१) अवसर्पिणी, और (२) उत्सर्पिणी,—इन भेदोंसे दो प्रकारका होता है। उसमें अवसर्पिणी कालके एकान्त सुषमा आदि छ: आरे हैं। एकान्त सुषमा नामक पहला आरा चार कोटा-कोटी सागरोपमका, दूसरा सुषमा नामक आरा तीन कोटा-कोटी सागरोपमका, तीसरा सुषम-दुःखमा नामक आरा दो कोटा-कोटी सागरोपमका, चौथा दुःखम-सुषमा नामक आरा बयालीस हज़ार वर्ष कम एक कोटा-कोटी सागरोपमका, पाँचवाँ दुःखमा नामक आरा इक्कीस हज़ार वर्षका और पिछला या छठा एकान्त दुःखमा नाम आराभी इतना ही यानी इक्कीस हज़ार वर्षका होता है। इस अवसर्पिणीके जिस तरह छःआरे कहे हैं; उसी तरह क्रमसे विपरीत आरे उत्सर्पिणी कालकेभी जानने चाहिएँ। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालकी सम्पूर्ण संख्या बीस कोटा-कोटी सागरोपमकी होती है । इसीको “काल-चक्र" कहते हैं।
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
पहले आरेमें मनुष्य तीन पल्योपम तक जीने वाले, छः कोस ऊँचे शरीर वाले और चौथे दिन भोजन करने वाले होते हैं । वे समचतुरस्त्र संस्थान वाले, सब लक्षणोंसे लक्षित, वज्रऋषभ नाराच संहनन - संघयण वाले और सदा सुखी रहने वाले होते हैं । फिर वे क्रोधरहित, मानरहित, निष्कपटी, लोभ-हीन और स्वभावसे ही अधर्मको त्याग करने वाले होते हैं । उत्तर कुरुकी तरह उस समय में रात-1 - दिन उनके इच्छित मनोरथको पूर्ण करने वाले, मद्याङ्गादिक दस तरह के “कल्पवृक्ष" होते हैं । उनमें मद्यांग नामक कल्पवृक्ष माँगनेपर तत्काल स्वादिष्ट मदिरा देते हैं । भृतांग नामक कल्पवृक्ष भण्डारीकी तरह पात्र देते हैं । तूर्याङ्ग नामक कल्पवृक्ष तीन तरहके बाजे देते है । दीप शिखा और ज्योतिष्क नामके कल्पवृक्ष अत्यन्त प्रकाश या रोशनी देते हैं । चित्रांग नामक कल्पवृक्ष चित्रविचित्र फूलोंकी माला देते हैं । चित्ररस नामक कल्पवृक्ष रसोइयोंकी तरह विविध प्रकारके भोजन देते हैं। मरायङ्ग नाम के कल्पवृक्ष मन चाहे गहने या ज़ेवर देते हैं। गेहाकार नामके कल्पवृक्ष गन्धर्वनगर की तरह क्षणमात्रमें सुन्दर मकान देते हैं और अनग्न नामक कल्पवृक्ष इच्छानुसार वस्त्र या कपड़े देते हैं। ये प्रत्येक वृक्ष और भी अनेक तरहके मन चाहे पदार्थ देते हैं ।
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उस समय पृथ्वी शक्कर से भी अधिक स्वादिष्ट होती है और नदी वगैर: का जल अमृतके समान मधुर या मीठा होता है । उस आरेमें अनुक्रमसे धीरे-धीरे आयुष्य, संहननादिक और कल्प वृक्षों का प्रभाव घटता जाता है ।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
दूसरे आरे में मनुष्य दो पल्योरमकी आयुष्य वाले, चार कोस ऊँचे शरीर वाले और तीसरे दिन भोजन करने वाले होते हैं उस समय कल्पवृक्ष किसी क़दर कम प्रभाव वाले, पृथ्वी न्यून स्वादवाली और पानी भी मिठास में पहले से कुछ उतरते हुए
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होते हैं । पहले आरेकी तरह, इस आरे में भी, हाथीकी सूँडमें जिस तरह मुटाई कम होती जाती है; उसी तरह सारी बातों में अनुक्रमसे कमी होती जाती है
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तीसरे आरेमें, मनुष्य एक पल्योपम जीनेवाले, दो कोस ऊँचें शरीर वाले और दूसरे दिन भोजन करने वाले होते हैं। इस आरे मेंभी, पहले की तरह ; शरीर, आयुष्य, पृथ्वीकी मधुरता और कल्पवृक्षोंकी महिमा कम होती जाती है ।
चौथा आरा पहले के प्रभाव - ( कल्पवृक्ष, स्वादिष्ट पृथ्वी और मधुर जल वगैरः) से रहित होता है। उसमें मनुष्य कोटी पूर्वकी आयुष्य वाले और पाँच सौ धनुष ऊँचे शरीर वाले होते हैं ।
पाँचवे आरे में मनुष्य सौ बरसकी उम्रवाले और सात हाथ ऊँचे शरीर वाले होते हैं ।
छठे आरेमें सोलह सालकी आयुवाले और एक हाथ उँचे शरीर वाले होते हैं ।
एकान्त दुःखमा नामक पहले आरेसे शुरू होने वाले उत्सपिणी कालमें, इसी प्रमाणसे अवसर्पिणी से विपरीत, छहों आरोंमें मनुष्य समझने चाहिएँ ।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पव
सागर और अशोक का पुनजन्म । अशोक का हाथी के रूप में जन्म लेना ।
अशोक और सागर की पर जन्म में मुलाकात । सागरचन्द्र और प्रियदर्शना तीसरे आरेके अन्तमें फिर पैदा हुए, इसलिए वे नौसौ धनुष ऊँचे शरीरवाले एवं पल्योपमके दशमांश आयुष्यवाले युगलिथे हुए । उनके शरीर वज्रऋषम नाराच संहनन वाले और समचतुरस्त्र संस्थान वाले थे। मेघ-मालासे जिस तरह मेरु पर्वत शोभित होता है, उसी तरह जात्यवन्त सुवर्णकी कान्ति वाला उस सागरचन्द्रका जीव अपनी प्रियङ्ग रङ्गवाली स्त्री से शोभित होता था।
अशोकदत्त भी, अपने पूर्वजन्मके किये हुए कपटसे, उसी जगह, सफेद रंग और चार दाँतोंवाला देवहस्तीके समान हाथी हुआ । एक दिन वह हाथी अपनी मौजमें घूम रहा था। घूमतेघूमते उसने युग्मधर्मि अपने पूर्वजन्मके मित्र-सागरचन्द्र को देखा।
विमलवाहन पहला कुलकर-राजा ।
विमलवाहन और चन्द्रयशा का देहान्त । मित्र को देखतेही, उस हाथीका शरीर दर्शनरूपी अमृतधारासे व्याप्त सा हो उठा। बीजसे जिस तरह अंकुर की उत्पत्ति होती है ; उसी तरह उसमें स्नेहकी उत्पत्ति हुई। इसलिये उसने उसे, सुख मालूम हो इस तरह, अपनी सूंड से आलिङ्गन
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आदिनाथ चरित्र
| D.Bawali
उस समय, चार दांतोंवाले हाथीपर बैठे हुए सागरचन्द्रको, विस्मयसे उत्तान नेत्रोंवाले दूसरे युगलिये, इन्द्रके समान देखने लगे।
[पृष्ठ १४५]
Narsingh Press, Calcutta.
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र किया और उसकी इच्छा न होनेपर भी उसे अपने कन्धेपर बिठा लिया। परस्पर-दर्शनके अभ्याससे; उन दोनों मित्रोंको, जरा देर पहले किये हुए काम की तरह, पूर्वजन्मका स्मरण हुआपहले जन्म की याद आगई। उस समय, चार दाँतोंवाले हाथीपर बैठे हुए सागरचन्द्रको, विस्मयसे उत्तान नेत्रोंवाले दूसरे युगलिये, इन्द्रके समान देखने लगे। चूंकि वह शङ्ख कुन्दपुष्प और चन्द्रजैले निर्मल हाथीपर बैठा हुआ था : इसलिये युलिये उसे विमलवाहन नामसे पुकारने या बुलाने लगे। जाति-स्मरणसे सब तरहकी नीतिको जाननेवाला, विमल हाथीके वाहनवाला और स्वभावसे ही स्वरूपवान वह सबसे अधिक या ऊँचा हुआ। कुछ समय बीतनेके बाद, चारित्रभ्रष्ट यतियों की तरह, कल्पवृक्षोंका प्रभाव मन्दा पड़ने लगा। मानो दुर्दैवने फिरसे दूसरे लगाये हों, इस तरह मद्यांग कल्पवृक्ष अल्प और विरस मद्य विलम्बसे देने लगे। भृतांग कल्पवृक्ष, मानो दें कि नहीं, ऐसा विचार करते हों और परवश हों इस तरह, माँगनेपर भी विलम्बसे पात्र देने लगे। तूर्या ग कल्पवृक्ष, बेगारमें पकड़े हुए गन्धों की तरह, जैसा चाहिये वैसा, गाना नहीं करते थे। बारम्बार प्रार्थना करनेपर भी, दीपशिखा और ज्योतिष्क कल्पवृक्ष, जिस तरह दिनमें दीपक की शिखा प्रकाश नहीं करती ; उसी तरह वैसा प्रकाश नहीं करते थे। चित्रांग कल्पवृक्ष भी, दुर्विनीत सेवककी तरह, इच्छा करतेही तत्काल, फूलोंकी मालाएँ नहीं देते थे। चित्ररस कल्पवृक्ष, दानकी इच्छा क्षीण सदा
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
व्रत बाँटनेवालेकी तरह, चार प्रकारका विचित्र रसवाला भोजन, पहले जितना नहीं देते थे। मण्यंग कल्पवृक्ष, मानो फिर किस तरह वापस मिलेगा, ऐसी चिन्तासे आकुल होगये हों इस तरह, पहले के प्रमाण से, गहने या ज़ेवर नहीं देते थे। मन्दव्युत्पत्ति शक्तिवाले कवि जिस तरह अच्छी कविता देरमें कर सकते हैं ; उसी तरह गेहाकार कल्पवृक्ष घर देने में देर करने लगे। क्रूर ग्रहोंसे अवग्रहको प्राप्त हुआ मेघ जिस तरह थोड़ा थोड़ा जल देता है ; उसी तरह अनग्न वृक्ष हाथ रोक-रोककर वस्त्र देने लगे। कालके ऐसे प्रभावसे, युगलियोंको भी, देहके अवयवोंकी तरह, कल्पवृक्षोंपर ममता होने लगी। एक युगलियेके स्वी. कार किये हुए कल्पवृक्षका दूसरे युगलियेके आश्रय करनेसे, पहले स्वीकार करनेवाले का बहुत भारी पराभव होने लगा। इसलिए आपसके ऐसे पराभव को सहन करने में असमर्थ युगलियोंने अपनेसे अधिक विमलवाहन को अपने स्वामी मान लिया। जाति-स्मरणसे नीतिज्ञ विमलवाहनने, जिस तरह बूढ़ा आदमी अपने नातेदारोंको धन बाँट देता है उसी तरह युगलियोंको कल्पवृक्ष बाँट दिये। दूसरे के कल्पवृक्ष की इच्छासे मर्यादा भंग करनेवालों के शिक्षा देनेके लिए उसने “हाकार नीति" प्रकट की। जिस तरह समुद्र की भरतीका जल मर्यादा उल्लङ्घन नहीं करता ; उसी तरह 'हा! तूने बुरा काम किया' ऐसे शब्दसे सिखाये हुए युगलिये उसकी मर्यादा का उल्लङ्घन नहीं करते थे। 'डण्डे या लकड़ी की चोट सहना भला, पर हाकार शब्दसे
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
किया गया तिरस्कार भला नहीं।' इस तरह वे युगलिये मानने लगे । उस विमलवाहन की उम्र के जब छः महीने बाक़ी रह गये, तब उसकी चन्द्रयशा नाम की स्त्रीसे एक जोड़ली सन्तान पैदा हुई । वे दोनों जोड़ले असंख्य पूर्वके आयुष्यवाले, प्रथम संस्थान और प्रथम संहननवाले, श्यामवर्ण और आठ सौ धनुष प्रमाण ऊँचे शरीरवाले थे। माता-पिताने उनके चक्षुष्मान और चन्द्रकान्ता नाम रक्खे । साथ-साथ पैदा हुए लता और वृक्षकी तरह वे साथ-साथ बढ़ने लगे । छः मास तक अपने दोनों बच्चों का पालन-पोषण करके, जरा और रोग बिना मरकर, विमलवाहन सुवर्णकुमार देवलोक में और उस की स्त्री चन्द्रयशा नागकुमार देवलोक में उत्पन्न हुई; क्योंकि चन्द्रमाके अस्त होनेपर चन्द्रिका नहीं रहती । वह हाथी भी अपनी उम्र पूरी कर के, नागकुमार निकायमें, देवरूपमें पैदा हुआ; क्योंकि कालका माहात्म्यही ऐसा है ।
दूसरा
तीसरा कुलकर - राजा ।
इसके बाद चक्षुष्मान भी, अपने पिता विमलवाहन की नरह, हाकार नीतिसे ही युगलियों को मर्य्यादा के अन्दर रखने लगा । अन्त समय निकट होनेपर, चक्षुष्मान और चन्द्रकान्ना के यशस्वी और सुरूपा नामकी युगधर्मि जोड़ली सन्तान उत्पन्न हुई। वे भी वैसेही संहनन और वैसेही संस्थानवाले तथा किसी क़दर कम उम्र वाले हुए वय और बुद्धि की तरह, वे दोनों
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आदिनाथ-चरित्र १४८
प्रथम पर्व अनुक्रम से बढ़ने लगे। साढ़े सात सौ धनुष प्रमाण उचे शरीर वाले और सदा साथ-साथ घूमनेवाले वे दोनों तोरण-स्तम्भ के विलास को धारण करते थे। मृत्यु हो जानेपर, चक्षुष्मान सुवर्णकुमारमें और चन्द्रकान्ता नागकुमारमें उत्पन्न हुई। मातापिता का देहान्त होनेपर, यशस्वी अपने पिता की तरह, जिस तरह गोपाल गायों का पालन करता है उसी तरह, सब युगलियाँ का लीला से पालन करने लगा। परन्तु उसके ज़माने में,मदमाता हाथी जिस तरह अङ्कश को नहीं मानता है; उसका उल्लङ्घन करता है, उसी तरह युगलिये भी अनुक्रमसे 'हाकार दण्ड' का उल्लङ्घन करने लगे। तब यशस्वीने उन लोगोंको 'माकार दण्ड' से शिक्षा देना शुरू किया। क्योंकि जब एक दवा से रोग आराम न हो, तब दूसरी दवाकी व्यवस्था करनी ही चाहिये। वह महामति यशस्वी हलका या थोड़ा अपराध करनोवाले को दण्ड देने में हाकार नीतिसे काम लेने लगा। मध्यम अपराध करनेवाले को दण्डित करने में दूसरी 'माकार नीति' का प्रयोग करने लगा और भारी अपराध करनेवालोंपर दोनों ही नीतियोंका इस्तेमाल करने लगा। यशस्वी और सुरूपा की जब थोड़ी सी उम्र बाकी रह गई ; तब जिस तरह बुद्धि और विनय साथसाथ उत्पन्न होते हैं ; उसी तरह उनसे एक जोड़ली सन्तान पैदा हुई। पुत्र चन्द्रमा के समान उज्ज्वल था, इसलिये मांबापने उसका नाम अभिचन्द्र रक्खा और पुत्री प्रियङ्गलता का प्रतिरूप थी, इसलिये उस का नाम प्रतिरूपा रखा। वे अपने
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र माता-पिता से कुछ कम उम्रवाले और साढ़े छै सौ धनुष ऊंचे शरीरवाले थे। एकत्र मिले हुए शमी और अश्वत्थ-पीपल-- वृक्षके समान वे साथ-साथ बढ़ने लगे। गंगा और यमुना के पवित्र प्रवाह के मिले हुए जलकी तरह वे दोनों निरन्तर शोभने लगे। आयु पूरी होनेपर यशस्वी उदद्धिकुमार में उत्पन्न हुआ और सुरूपा उसके साथ ही काल करके नागकुमार में पैदा हुई ।
चौथा कुलकर-राजा। __ अभिचन्द्र भी अपने बाप की तरह, उसी स्थिति और उन दोनों नीतियों से युगलियों का शासन करने लगा। इसके बाद, जिस तरह अनेक प्राणियों के इच्छित चन्द्रमा को रात्रि जनती हैं; उसी तरह प्रान्त अवस्था में प्रतिरूपाने एक जोड़ली सन्तान जनो। माता-पिताने पुत्र का नाम प्रसेनजित रखा और पुत्री सबके नेत्रोंकी प्यारी लगती थी, इससे उसका नाम चक्षु :कान्ता रखा । वे अपने मां-बापसे कम उम्रवाले, तमाल वृक्षके समान श्याम कान्तिवाले, बुद्धि और उत्साह की तरह, साथ-साथ बढ़ने लगे। वे छै सौ धनुष प्रमाण शरीर को धारण करनेवाले और *विषुवत कालमें जिस तरह दिन और रात एक समान होते हैं; उसी तरह एकसी कान्तिवाले हुए। उनके पिता अभिचन्द्र, पञ्चत्व को प्राप्त होकर-देहत्याग कर, उदधिकुमार में पैदा हुए
और प्रतिरूपा नागकुमार में उत्पन्न हुई। ___तुल और मेश राशि पर जब सूर्य आता है, तब उसे "विषुवत"काल कहते हैं।
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आदिनाथ चरित्र
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पाँचवाँ कुलकर - राजा ।
प्रसेनजित भी, अपने पिता की तरह, सब युगलियों का राजा हुआ। क्योंकि, महात्माओंके पुत्र बहुधा महात्मा ही होते हैं । जिस तरह कामार्त्त या कामी लोग लज्जा और मर्य्यादाका उल्लङ्घन करते हैं; उसी तरह उस समयके युगलिये भी 'हाकार और माकार' नीतिका उल्लङ्घन करने लगे । उस समय प्रसेनजित, अनाचार रूपी महाभूत को त्रस्त करने में मंत्राक्षरजैसी, तीसरी, धिक्कार नीति' को काममें लाने लगा प्रयोगकुशल प्रसेनजित, जिस तरह त्रय अंकुश से हाथी का शासन करते हैं उसी तरह; तीन नीतियोंसे सब युगलियों का शासन करने लगा । इसी बीचमें चक्षुः कान्ताने स्त्री-पुरुष रूपी युग्म सन्तान को जन्म दिया । साढ़े पाँच सौ धनुष प्रमाण शरीरवाले, वे भी अनुक्रम से वृक्ष और उस की छाया की तरह साथसाथ बढ़ने लगे। वे दोनों युग्मधर्मि मरुदेव और श्रीकान्ताके नामसे लोक में प्रसिद्ध हुए । सुवर्ण की सी कान्तिबाला वह मरुदेव, अपनी प्रियंगुलता के समान रंगवाली प्रियासे उसी तरह शोभने लगा, जिस तरह नन्दन-वन की वृक्ष-श्रेणीसे कनकाचलमेरु शोभता है। देहावसान होनेपर, प्रसेनजित द्वीपकुमार में उत्पन्न हुआ और चक्षु : कान्ता देह त्यागकर नागकुमार में गई । छठा और सातवा कुलकर ।
माता-पिता के लोकान्तारेत होनेपर, मरुदेव सब युगलियोंका
प्रथम पर्व
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र उसी नीति-क्रमसे उसी तरह शासन करने लगा, जिस तरह देवाधिपति इन्द्र देवताओं का शासन करते हैं । मरुदेव और श्रीकान्ता के प्रान्तकालके समय, उनसे नाभि और मरुदेवा इस नाम के युग्म या जोड़ ले पैदा हुए। सवा पाँच सौ धनुष प्रमाण शरीर वाले वे दोनों, क्षमा और संयम की तरह, साथ-साथही बढ़ने लगे। मरुदेवा प्रियङ्गलताके जैसी कान्तिवाली थी और नाभि सुवर्णकी सी कान्तिवाला था : इसलिये वे दोनों, मानों अपने मातापिताके ही प्रतिविम्ब हों इस तरह, शोभा पाने लगे। उन महात्माओं की आयु उनके माता-पिता मरुदेव और श्रीकान्तासे कुछ कम-संख्याता पूर्वकी थी। मरुदेव देह त्यागकर द्वीपकुमार में पैदा हुआ और श्रीकान्ता भी उसी समय मरकर नागकुमार में उत्पन्न हुई। उनके मरने के बाद, नाभिराजा युगलियोंका सातवाँ * कुलकर-राजा हुआ। वह भी पहले कही हुई तीन प्रकार की नीतियोंसेही युग्मधर्मि मनुष्योंका शासन-शिक्षण करने लगा। __ मरुदेवा माताके देखे हुए चौदह स्वन्न ।
तीसरे आरेके चौरासी लक्ष, पूर्व और नवासी पक्ष यानी तीन वर्ष साढ़े आठ महीने बाकी रहे थे, तब आषाढ़ महीने की कृष्ण चतुर्दशी या आषाढ़ बदी चौदस के दिन, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र
® पहला विमल-वाहन, दूसरा चक्ष ष्मान, तीसरा यशस्वी, चौथा अभिचन्द्र, पाँचवाँ प्रसेनजित, छठा मरुदेव, और सातवाँ नाभि कुलकर हुआ। युलियोंके राजाको “ कुलकर "कहते हैं ।
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आदिनाथ-चरित्र
१५२
प्रथम पर्व में, चन्द्रका योग होते ही, वज्रनाभ का जीव, तेतीस सागरोपम आयु भोगकर, सर्वार्थ सिद्ध विमानसे च्यवकर, जिस तरह मानसरोवरसे गङ्गातटमें हंस उतरता हैं उसी तरह, नाभि कुलकर की स्त्री-मरुदेवा–के पेटमें अवतीर्ण हुआ। जिस समय प्रभु गर्भमें आये उस समय, प्राणिमात्रके दुःखका विच्छेद होनेसे, त्रिलोकी में सुख हुआ और सर्वत्र बड़ा प्रकाश फैला। जिस रातको देवलोकसे च्यवकर प्रभु माता के गर्भ में आये, उस रातको निवास-भवनमें सोई हुई मरुदेवाने चौदह महास्वप्न देखे। उन्होंने उन स्वप्नोंमें से पहले स्वप्नमें एक उज्ज्वल वृषभ या बल देखा,जिसके कन्धे पुष्ठ थे, पूँछ लम्बी और सरल थी और जो सोनेके घुघुरुओं की माला पहने हुए बिजली समेत शरदऋतु के मेघके समान था। दूसरे स्वप्नमें उन्होंनेसफेद रङ्गका, क्रमोन्नत, निरन्तर झरते हुए मदकी नदीसे रमणीय, चलते हुए कैलाश-जैसा-चार दाँत वाला हाथी देखा। तीसरे स्वप्नमें उन्होंने-पीले नेत्र, दीर्घ जिला और चपल अयालों वाला, शूरवीरोंकी जयपाताकाकी तरह दुम हिलाता हुआ—केशरीसिंह देखा । चौथेस्वप्नमें उन्होंने-कमलनयनी पम-निवासिनी अगल-बग़ल अपनीटू डोंमें पूर्ण कुम्भ उठाये हुए दिग्गजोंसे शोभायमान-लक्ष्मी देखी। पांचवें स्वप्नमें उन्होंने देववृक्षोंके फूलोंसे गुथी हुई, सीधी और धनुर्धारियोंके चढ़ाये हुए धनुषके समान लम्बी-फूलोंकी माला देखी। छठेस्वप्नमें उन्होंनेअपने मुखके प्रतिबिम्बके समान, आनन्दका कारण रूप, अपने
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आदिनाथ चरित्र:
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जिस रातको देवलोकसे च्यवकर प्रभु माताके गर्भमें आये, उस रातको निवास-भवनमें सोई हर्ड मेरुदेवाने चौदह महास्नान ग्वे।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
कान्ति-समूहसे दिशाओंको प्रकाशित किये हुए-चन्द्रमण्डलदेखा। सातवें स्वप्नमें उन्होंने-रातमेंभी तत्काल दिनका भ्रम करने वाला, सम्पूर्ण अन्धकारको नाश करने वाला और फैलती हुई किरणों वाला-सूर्य्य देखा। आठवें स्वप्न में उन्होंने-चपल कानोंसे शोभायमान, हाथीके जैसी घूघु रियोंकी लड़ीके भारवाली चञ्चल पताका से सुशोभित --महाध्वजा देखी । नवे स्वप्न में उन्होंने-खिले हुए कमलोंसे अचित समुद्रमथनसे निकले हुए सुधा-कुम्भ याअमृत-घटके समान—जलसे भरा हुआ सोनेका घड़ा देखा । दसवें स्वप्नमें उन्होंने आदि अर्हन्तकी स्तुतिके लिए अनेक मुख वाला हुआ हो ऐसा, भौंरोंके गुञ्जार वाला और अनेक कमलोंसे शोभितपद्माकर या पद्मसरोवर देखा । ग्यारहवे स्वप्नमें उन्होंने—पृथ्वी पर फैला हुआ, शरद ऋतुके मेधकी लीलाको चुराने वाला और और उत्ताल तरङ्ग-समूहसे चित्तको आनन्दित करने वालाक्षीरनिधि या क्षीरसागर देखा । बारहवें स्वप्नमें उन्होंने एक प्रभूत कान्तिमान् विमान देखा। ऐसा जान पड़ता था, मानो भगवान्के देवत्वपनेमें उसमें रहने के कारण वह पूर्वस्नेहके कारण वहाँ आया हो । तेरहवें स्वप्नमें उन्होंने किसी कारणसे एकत्र हुए तारों के समूह और एकत्र हुई निर्मल कान्तिके समूह-जैसा रत्नपुञ्ज आकाशमें देखा । चौदहवें स्वप्नमें उन्होंने, त्रिलोकीके तेजस्वी पदाथोंके पिण्डीभूत हुए तेजके समान प्रकाशमान, निर्धूम अग्निको मुखमें धुसते देखा । रात्रिके विराम-समय,.स्वप्नके अन्तमें, प्रफुल्लमुखी स्वामिनी मरूदेवा कमलिनीकी तरह जाग उठीं। मानो
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पव
हृदयके भीतर खुशी समाती न हो, इसलिये वह स्वप्न - सम्बन्धी सारे वृत्तान्तको उद्गार करता हो, इस तरह यथार्थ हाल उन्होंने नाभि- राजको कह सुनाया । नाभिराज ने अपने सरल स्वभावके अनुसार स्वप्नका विचार करके — 'तुम्हारे उत्तम कुलकर - पुत्र होगा' ऐसा कहा ।
मरुदेवा माताके पास इन्द्रका आगमन
स्वप्नफल कथन ।
उस समय, स्वामीकी मात्र कुलकरपनसे ही सम्भावना की, यह अयुक्त है, अनुचिन. है, – ऐसे विचारकरके मानो कोपायमान हुए हों, इस तरह इन्द्रोंके आसन कम्पायमान हुए । हमारे आसन क्यों कम्पायमान हुए, इसका ख़याल करते ही — इस बातकी खोज दिमाग में करतेही, भगवानके च्यवनकी बात इन्द्रोंको ध्यानमें आगई – वे समझ गये कि, भगवान्का च्यवन हुआ है। इसी समय तत्काल इशारा किये हुए मित्रोंकी तरह, सब इन्द्र इकट्ठे होकर, भगवान् की माताको स्वप्नका अर्थ बताने के लिए वहाँ आये । वहाँ आतेही हाथ जोड़कर, जिस तरह वृत्तिकार सूत्रके अर्थको स्पष्ट करता है— सूत्रका खुलासा मतलब समझाता है, उसी तरह वे विनय-पूर्वक स्वप्नके अर्थको स्पष्ट करने लगे- अर्थात् स्वप्नका फल या ख़्वाब की ताबीर कहने लगे:
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हे स्वामिनी ! आपने स्वप्नमें पहले वृषभ - बैल देखा; इस कारण आपका पुत्र मोहरूपी पंक—कीच में फँसे हुए धर्म रूपी रथका उद्धार करनेमें समर्थ होगा। हाथी देखनेसे आपका पुत्र
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
पुरूषोंमें सिंहरूप, धीर, निर्भय, शूरवीर और अस्खलित पराक्रमवाला होगा । हे देवि ! आपने स्वप्नमें लक्ष्मी देखी, इससे आपका पुरुषश्रेस्ठ पुत्र त्रिलोकी की साम्राज्य-लक्ष्मीका पति होगा। आपने फूलमाला देखी है: इससे आपका पुत्र पुण्यदर्शन स्वरूप होगा और समस्त जगत् उसकी आज्ञाको मालाकी तरह मस्तक पर वहन करेगा। हे जगत्-माता!आपने स्वप्नमें पूर्णचन्द्र देखा है, इससे आपका पुत्र मनोहर और नयन-सुखकर यानी नेत्रोंको आनन्द देने वाला होगा जो उसके दर्शन करेगा उसेही सूख होगा - दर्शन करने वालेके नेत्रोंकी दर्शनसे तृप्ति न होगी। आपने सूर्य देखा, इस लिये आपका पुत्र मोह-रूपी अन्धकारको नाश करके, जगतमें प्रकाशको फैलाने वाला होगा ।वह संसार के अज्ञान-अन्धकारको नाश करके ज्ञानका प्रकाश फैलायेगा। आपने महाध्वजा देखी, इसलिये अपका पुत्र आपके वंशमें महान प्रतिष्ठावाला और धर्मध्वज होगा । हे माता ! आपने स्वप्नमें पूर्ण कुम्भ देखा.. इससे आपका पुत्र अतिशयोंका पूर्ण पात्र होगा: अर्थात् सर्व अतिशययुक्त होगा। आपने पद्माकर या पद्म-सरोवर देखा, इससे आपका पुत्र संसार रूपी अटवीमें पड़े हुए मनुष्योंके पाप-तापको नाश करनेवाला होगा। आपने क्षीरसागर देखा इस से आपके पुत्रके अधृष्य होनेपर भी, उसके पास सब कोई जा सकेगें। हे देवि ! आपने स्वप्नमें अलौकिक विमान देखा, इससे आपका पुत्र वैमानिक देवोंके लिये भी सेव्य होगा; अर्थात् वैमानिक देव भी उसकी सेवकाई करेंगे। आपने प्रकाशमान रत्न-पुञ्ज देखा,
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आदिनाथ-चरित्र १५६
प्रथम पर्व इसलिये आपका पुत्र सर्व गुण रूप रत्नोंकी खानके समान होगा,
और आपने अपने मुहमें जाज्वल्यमान अग्निको प्रवेश करते देखा, इससे आपका पुत्र अन्य तेजस्वियोंके तेजको दूर करने वाला होगा । हे स्वामिनी ! आपनेजो चौदह स्वप्न देखे हैं, वे इस बात की सूचना देते हैं, कि आपका आत्मज-पुत्र–चौदह भुवनका स्वामी होगा। इस तरह स्वप्नार्थ कह कर, और मरूदेवा माताको प्रणाम करके, सब इन्द्र अपने-अपने स्थानोंको चले गये । स्वामिनी मरुदेवा भी स्वप्नार्थ-सुधासे सिञ्चित होनेसे उसी तरह उल्लसित
और प्रसन्न हुई, जिस तरह वर्षा कालके जलसे सींची हुई पृथ्वी उल्लसित और हर्पित होती है;अर्थात् बरसातके पानीसे जमीन जिस तरह तरो-ताज़ा और हरीभरी होती है ; उसी तरह मरुदेवा भी स्वप्नफल या रुबाबकी ताबीर सुननेसे खूब खुश हुई, ।
- मरुदेवाकी गर्भयुक्त शरीर-स्थिति ।
अब, जिस तरह मेघमाला सूर्यसे, सीप मोती से और गिरिकन्दरासिंह से शोभा देती है ; उसी तरह महादेवी मरुदेवा उस गर्भ से शोभित होने लगीं। यद्यपि वे स्वभावसे ही प्रियंगुलता के समान श्यामवर्ण थीं; तथापि शरद ऋतु से मेघमाला जिस तरह पाण्डुवर्ण हो जाती है, उसी तरह वे गर्भके प्रभाव से पाण्डुवर्ण होने लगीं। जगत् के स्वामी हमारा दूध पीवेंगे, इस हर्ष से ही मानो उन के स्तन पुष्ट और उन्नत होने लगे। मानो भगवान् का मुंह देखने के लिये पहलेसे ही उत्कंठित हों, इस तरह
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प्रथम पर्व
१५७
आदिनाथ-चरित्र उनके नेत्र विशेष विकार को प्राप्त होगये; अर्थात् भगवान् का मुंह देखने की उत्कंठा और लालसा से उनकी आँखों में खास किस्म की तब्दीली होगई। उनका नितम्ब-भाग यानी कमर के पीछे का हिस्सा यद्यपि पहलेसे ही विशाल था : तथापि जिस तरह वर्षाकाल बीतने के बाद नदी के किनारे की ज़मीन विशाल हो जाती है, उसी तरह और भी विशाल होगया । उनकी चाल यद्यपि स्वभावसे ही मन्दी थी, लेकिन अब मतवाले हाथी की तरह औरभी मन्दी होगई। सवेरे के समय जिस तरह विद्वान् आदमी की बुद्धि बढ़ जाती है, और गरमी की ऋतु में जिस तरह समुद्र की वेला बढ़ जाती है: उसी तरह गर्भावस्था में उन की लावण्य-लक्ष्मी बढ़ने लगी। यद्यपि उन्होंने त्रिलोकी के असाधारण गर्भको धारण कर रखा था: तथापि उन्हें जरा भी कष्ट या खेद न होता था : क्योंकि गर्भ में रहनेवाले अर्हन्तों का ऐसा ही प्रभाव होता है। जिस तरह पृथ्वी के भीतरी भाग में अंकुर बढ़ते हैं : उसी तरह मरुदेवा माता के पेट में वह गर्भ भी, गुप्तरीति से, धीरे-धीरे बढ़ने लगा। जिस तरह शीतल जलमें हिम-मृत्तिका या बर्फ डालने से वह
औरभी शीतल हो जाता है : उसी तरह गर्भके प्रभाव से, स्वामिनी मरुदेवा औरभी अधिक विश्ववत्सला या जगत् की प्यारी हो गई। गर्भमें आये हुए भगवान् के प्रभाव से, युग्मधर्मी लोगों में, नाभिराजा अपने पिता से भी अधिक माननीय हो गये। शरद् ऋतु के योग या मेल से जिस तरह चन्द्रमा की
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व किरणों का तेज और भी अधिक हो जाता है ; उसी तरह सारे कल्पवृक्ष और भी अधिक प्रभावशाली हो गये। जगत् में तिर्यंच और मनुष्यों के आपस के वैर शान्त होगये ; क्योंकि वर्षा ऋतुके आने से सर्वत्र सन्ताप की शान्ति हो जाती है ।
भगवान् आदि नाथका जन्म ।
इस तरह नौ महीने ओर साढे आठ दिन बीतनेपर, चैत मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन, जब सब ग्रह उच्च स्थानमें आये हुए थे और चन्द्रमा का योग उत्तराषाढ़ा नक्षत्रसे हो गया था, तब महादेवा मरुदेवाने युगल-धर्मी पुत्रको सुखसे जना । उस समय मानो हर्ष को प्राप्त हुई हों, इस तरह दिशायें प्रसन्न हुई और स्वर्गवासी देवताओं की तरह लोग बड़ी खुशी से तरहतरह की क्रीड़ाओं अथवा खेल-तमाशों में लग गये। उपपाद शय्या (देवताओं के पैदा होने की शय्या )में पैदा हुए देवता की तरह, जरायु और रुधिर प्रभृति कलङ्कसे वर्जित, भगवान् बहुत ही सुन्दर और शोभायमान दीखने लगे। उस समय जगत् के नेत्रों को चमत्कृत करनेवाला और अन्धकार को नाश करनेवाला बिजलीके प्रकाश-जैसा प्रकाश तीनों लोक में हुआ। नौकरोंके न बजानेपर भी, मेघवत् गम्भीर शरदवाली, दुंदुभी आकाशमें बजने लगी। उस समय ऐसा जान पड़ने लगा, मानो स्वर्ग
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
खुशी के मारे गरज रहा है । उस समय, क्षणमात्र के लिए,नरकवासियों को भी ऐसा अपूर्व सुख हुआ, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। फिर तिर्यञ्च, मनुष्य और देवताओं को सुख हुआ हो, इसमें तो कहना ही क्या ? ज़मीनपर मन्द-मन्द चलता हुआ पवन, नौकरों की तरह, ज़मीन की धूल को साफ करने लगा। बादल चेल क्षेप और सुगन्धित जल की वृष्टि करने लगे; इससे अन्दर वीज बोये हुए की तरह पृथ्वी उच्छ्वास को प्राप्त होने लगी।
दिक कुमारियोंका जन्मोत्सव मनाना।
इस समय अपने आसन चलायमान-कम्पित होने से, भोङ्गकरा, भोगवती, सुभोगा,भोगमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, पुष्प माला और अनिन्दिता नाम की आठ दिक्-कुमारियाँ, तत्काल, अधःलोक से, भगवान् के सूतिका-गृह या सोहर में आई। आदि तीर्थङ्कर और तीर्थङ्कर की माता की तीन बार प्रदक्षिणाकर, वे इस प्रकार से कहने लगी:-'हे जगत्माता! हे जगत्-दीपक को जननेवाली देवि !हम आप को नमस्कार करती हैं। हम अधःलोक में रहनेवाली आठ दिक्कुमारियाँ हैं। हम, अवधिज्ञान से, पवित्र तीर्थङ्कर के जन्म की बात जानकर, उनके प्रभाव से, उनकी महिमा करने के लिए यहाँ आई हैं; इसलिये आप हम से डरियेगा नहीं।' यह कहकर, ईशान भाग में रहनेवालियोंने, प्रसन्न होकर, पूरब दिशा की तरफ मुंह और
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आदिनाथ चरित्र
१६०
प्रथम पर्व
हज़ार खम्भोंवाला सूतिका गृह - जच्चाघर बनाया। इसके बाद संवर्त नामक वायु से सूतिकागार या जच्चा घर के चारों तरफ कोस भर तक के कंकर पत्थर और काँटे दूर कर दिये । संवर्त वायु का संहरण करके और भगवान् को प्रणाम करके, वे गीत गाती हुई उनके पास बैठ गई ।
इस तरह आसन के काँपने से प्रभु का जन्म जानकर, मेघकरा, मेघवती, सुमेधा, मेघमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, वारिपेणा और वलादिका नाम की, मेरु पर्वतपर रहनेवाली, उर्ध्व - लोक-वासिनी आठ दिक्कुमारियाँ वहाँ आई । उन्होंने जिनेश्वर और जिनेश्वर की माता को नमस्कार - पूर्वक स्तुतिकर, भादों के महीने की तरह, तत्काल, आकाश में मेघ उत्पन्न किये । उन मेघों से सुगन्धित जल बरसाकर सूतिकागार के चारों तरफ चार कोस तक, चन्द्रिका जिस तरह अँधेरे का नाश कर देती है उसी तरह, धूल का नाश कर दिया। घुटनोंतक, पाँच रङ्ग के फूलों की वृष्टि से, मानो तरह-तरह के चित्रोंवाली ही हो इस तरह, पृथ्वी को शाभामन्ती बना दी। पीछे तीर्थङ्कर के निर्मल गुण गान करती हुई एवं हर्षोत्कर्ष से शोभा पाती हुई वे अपने योग्य स्थानपर बैठ गई ।
पूर्व रुचकाद्रि पर्वत पर रहनेवाली नन्दा, नन्दोत्तरा, आनन्दा, नन्दिवर्द्धना, विजया, वैजयन्ती, और अपराजिता नाम की आठ दिशा - कुमारियाँ भी मानों मन के साथ स्पर्द्धा करनेवाले हों ऐसे
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र वेगवान विमानों में बैठकर वहाँ आई। स्वामी और मरुदेवा माता को नमस्कार कर, पहले की तरह कह, अपने हाथों में दर्पण ले, मांगलिक गीत गाती हुई पूर्व दिशा की तरफ खड़ी रहीं। ___ दक्षिण रूचकाद्रि पर्वतपर रहनेवाली समाहारा, सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीवती, शेषवती, चित्रगुप्ता और वसुन्धरा नाम की आठ दिशा-कुमारियाँ प्रमोद-प्रेरित की तरह प्रमोद करती हुई वहाँ आई और पहले की दिक्कुमारियों की तरह, जिनेश्वर और उन की माता को नमस्कार करके, अपना कार्य निवेदन कर, हाथ में कलश लेकर, दक्षिण दिशा में गीत गाती हुई खड़ी रहीं।
पश्चिम रुचकाद्रि पर्वतपर रहनेवाली इलादेवी, सुरादेवी, पृथ्वी पद्मावती, एकनासा, अनवमिका, भद्रा और अशोका नाम की आठ दिक्-कुमारियाँ, भक्ति से एक दूसरे को जीत लेना चाहती हों इस तरह, खूब जल्दी-जल्दी आई और पहलेवालियों की तरह भगवान् और माता को नमस्कार करके विज्ञप्ति की और पंखा हाथ में लेकर गीत गाती हुई पश्चिम दिशा में खड़ी रहीं। ___ उत्तर रुचकाद्रि पर्वत से अलम्बुसा, मिश्रकेशी, पुण्डरीक, वारुणी, हासा, सर्वप्रभा, श्री और ह्री नाम की आठ दिक्कुमारियाँ वायु-केसे रथ पर चढ़कर, अभियोगिक देवताओं के साथ, जल्दी से वहाँ आई और भगवान् तथा उन की माता को
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आदिनाथ चरित्र
१६२
प्रथम पर्व
नमस्कार कर, अपना कार्य जना, हाथ में चँवर ले गीत गाती हुई पश्चिम दिशामें खड़ी हो गई ।
विदिशाओं के रुचक पर्वत से चित्रा, चित्रकनका; सतेरा सुत्रामणि नाम्नी चार दिक्कुमारियाँ भो आई और पहलेवालियों की तरह जिनेश्वर और माता को नमस्कार कर, अपना काम जना; हाथ में दीपक ले ईशान प्रभृति विदिशाओं में खड़ी रहीं ।
1
I
रुचक द्वीप से रूपा, रूपासिका, सुरूपा, और रूपकावती नाम की चार दिक्कुमारिकायें भी वहाँ तत्काल आई । उन्होंने भगवान् का नाभि-नाल चार अङ्गुल छोड़कर छेदन किया इसके बाद वहाँ खड्डा खोद, उसमें उसे डाल, गड्ढे को रत्न और वज्र से पूर दिया और उसके ऊपर दूब से पीठिका बाँधी । इसके बाद भगवान् के जन्म घर के लगता लगत, पूरब- दक्खन और उत्तर दिशाओं में, उन्होंने लक्ष्मी के घररूप तीन कदलीगृह या केलेके घर बनाये | उनमें से प्रत्येक घर में उन्होंने विमान में हों ऐसे विशाल और सिंहासन से भूषित चतुःशाल या चौक बनाये । फिर जिनेश्वर को अपनी हस्ताञ्जलि में ले, जिन माता को चतुर दासी या होशियार टहलनी की तरह, हाथ का सहारा देकर, चतुःशाल या चौक में ले गई। वहाँ दोनों को सिंहासनपर बिठाकर, बूढ़ी मालिश करनेवाली की तरह, वे खुशबूदार लक्षपाक तेल की मालिश करने लगीं । तैलके अमन्द आमोद की सुगन्ध से दिशाओं को प्रमुदित करके, उन्होंने उन दोनोंके दिव्य उबटन लगाया। फिर पूर्व दिशा की चतुःशाल में ले जाकर,
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चदित्र
सिंहासनपर बिठाकर, अपने मन के जैसे साफ निर्मल पानी से, उन्होंने दोनों को स्नान कराया। सुगन्धित कषाय वस्त्रों से उनका शरीर पोंछकर, गोशीष चन्दन के रस से उन को चर्चित किया और दोनों को दिव्य वस्त्र और बिजली के प्रकाश के समान विचित्र आभूषण पहनाये। इसके बाद भगवान् और उन की जननी को उत्तर चतुःशाल में ले जाकर सिंहासनपर बिठाया। वहाँ उन्होंने अभियोगिक देवताओं से, क्षुद्र हिमन पर्वत से, शीघ्र ही गोशोर्ष चन्दन की लकड़ियाँ मँगवाई। अर - जीके दो काठों से अग्नि उत्पन्न करके, होम-योग्य बनाये हुए गोशीर्ष चन्दन के काठ से, उन्होंने हवन किया। हवन की आग से जो भस्म तैयार हुई, उस की उन्होंने रक्षा-पोटलियाँ बनाकर दोनों के हाथों में बाँध दीं। प्रभु और उन की जननी दोनों ही महामहिमान्वित थे, तोभी दिक्कुमारियाँ भक्ति के आवेश में ये सब कर रही थीं। पीछे 'आप पर्वत की जैसी आयु. वाले होओ-प्रभु के कान में ऐसा कहकर, पत्थर के दो गोलो. फा उन्होंने आस्फालन किया। इसके बाद प्रभु और उन की जननी को सूतिका-भुवनमें पलँगपर सुलाकर, वे मांगलिक गीर गाने लगीं। सौधर्मेन्द्रका भगवान्के पास आना और
उनकी स्तुति करना। अब उस सभय, लग्न-काल में जिस तरह सव बाजे एक
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आदिनाथ चरित्र
१६४
प्रथम पर्व
साथ बज उठते हैं; उसी तरह स्वर्ग की शाश्वत घण्टियाँ बड़े ज़ोरों से बज उठीं । पर्वतों की चोटियाँ के समान अचल और अडिग इन्द्रों के आसन, संभ्रम से हृदय काँपता है इस तरह, काँप उठे । उस वक्त सौधर्म-देवलोकाधिपति सौधर्मेन्द्र के नेत्र काँपने के आटोप से लाल होगये । ललाट पट्टपर भृकुटी बढ़ानेसे उनका चेहरा विक्राल होगया । भीतरी क्रोधरूपी अग्नि की शिखा की तरह उनके होठ फड़कने लगे । मानो आसन को स्थिर करने के लिए - उस की कँपकँपी बन्द करनेके लिए - वे एक पाँव को ऊँचा करने लगे और 'आज यमराज ने किसको चिट्टी दी है ? आज मौत का वारण्ट किसपर जारी हुआ है ? आज किसका काल पुकार रहा है ?' ऐसा कहकर, उन्होंने अपनाशूरातन रूप अग्नि को वायु-समान- -वज्र ग्रहण करने की इच्छा की । इन्द्र को कुपित केशरीसिंह की तरह देखकर, मानो मूर्त्तिमान होऐसे सेनापतिने आकर कहा, हे स्वामि ! मुझ जैसे सिपाही के होते हुए, आप स्वयं आवेश में क्यों आते हैं ? हे जगत्पति ! आज्ञा कीजिये, मैं आप के किस शत्रु का मान मर्दन करूँ ?" उसी क्षण, अपने मन का समाधान कर, इन्द्रने अवधिज्ञान से देखा, तो उसे मालूम हो गया कि, आदि प्रभुका जन्म हुआ है । उसके क्रोधका वेग तत्काल हष से गल गया, खुशीके मारे उसका गुस्सा फौरनही काफूर होगया । वृष्टिसे शान्त हुए दावानल वाले पवतकी तरह, इन्द्र शान्त हो गया । 'मुझे धिक्कार है जो मैंने ऐसा विचार किया, मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' यह कहकर उसने इन्द्रास
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
न त्याग दिया। सात आठ कदम भगवान्के सामने चलकर, मानो दूसरे रत्न-मुकुटकी लक्ष्मीको देने वाली हो ऐसी कराञ्जलिको मस्तकपर स्थापन करके, जानु और मस्तक-कमलसे पृथ्वीको स्पर्श करते हुए प्रभुको नमस्कार किया और रोमाञ्चित होकर उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा:- " हे तीर्थनाथ ! हे जगत् को सनाथ करने वाले ! हे कृपारसके समुद्र ! हे श्री नाभिनन्दन ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे नाथ ! नन्दन प्रभृति तीन बगीचोंसे जिस तरह मेरु पर्वत शोभित होता है : उसी तरह मति प्रभृति तीन ज्ञानों सहित पैदा होने से आप शोभते है । हे देव ! आज यह भरत क्षेत्र स्वर्गसे भी अधिक शोभायमान है: क्योकि त्रैलोक्यके मुकुट-रत्न-सदृश आपने उसे अलंकृत किया है । हे जगन्नाथ ! जन्म कल्याणसे पवित्र हुआ आजका दिन, संसारमें रहूँ तब तक, आपको तरह, वन्दना करने योग्य है। आपके इस जन्मके पर्वसे नरकवासियोंको सुख हुआ है। क्योंकि अर्हन्तोंका हृदय किसके सन्तापको हरने वाला नहीं होता ? इस जम्बूद्वीपस्थित भरत-क्षेत्र या भारतवर्ष में निधानकी तरह धर्म नष्ट हो गया है, उसे अपने आज्ञा रुपी बीजसे फिर प्रकाशित कीजिये । हे भगवान् ! आपके चरणोंको प्राप्त करके अब कौन संसार-सागरसे नहीं तरेगा ? आपके पदपङ्कजोंकी कृपा होनेसे अब किसका भवसागरसे उद्धार न होगा ? क्योंकि नावके योग से लोहा भी समुद्रके पार हो जाता है। हे भगवान् ! वृक्ष-विहीन देशमें जिस तरह कल्पवृक्ष हो और मरुदेशमें
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व जिस तरह नदी का प्रवाह हो, उसी तरह इस भरतक्षेत्रमें लोगोंके पुण्यसे आपने अवतार लिया है। सौधर्मेन्द्र का देवताओंको आदिनाथ भगवान्
के जन्मकी खबर देना।
भगवान के चरण मलोंमें जाने की तैयारी । ___ इस तरह देवलोकके इन्द्रने पहले भगवानकी स्तुति की और पीछे अपने सेनाधिपति नैगमिषी नामक देवको आज्ञा दी . “हे सेनापति ! जम्बूद्वीपके दक्षिणाद्ध-स्थित भरतक्षेत्रके मध्य-भूमि भागमें, लक्ष्मीके निधि रूप, नाभिकुलकरकी पत्नी मरुदेवाके पेटसे, प्रथम तीर्थङ्गरने पुत्र रूपसे जन्म लिया है। अतः उनके जन्मस्नात्रके लिए सब देवताओंको बुलाओ।” इन्द्रकी ऐसी आज्ञा सुनकर, उसने चौदह कोसके विस्तार और अद्भुत आवाज़वाली सुघोषा नामकी घण्टी तीन बार बजाई। मुख्य गाने वालेके पीछे जिस तरह और गवैये गाते हैं ; उसी तरह सुधोषा घण्टी की आवाज़ होने पर दूसरे सब विभानोंकी घण्टियाँभी उसके साथ-साथ बजने लगी। कुलपुत्रोंसे जिस तरह उत्तम कुलकी वृद्धि होती है, उसी तरह उन सब घण्टियोंकी आवाज़ दिशाओं-रिदिशाओंमें गूंज-गूंज कर बढ़ गई। देवता लोगप्रमादमें आसक्त थे बत्तीस लाख विमानो में वह शब्द तालवाकी भाँति अनुरणन रुप से बढ़ गया । देवता लोग प्रमादमें आसक्त थे, ग़फलतमें पड़े हुए थे, घण्टियांकी घोर ध्वनि सुनकर मूर्छित और बेहोश
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प्रथम पर्व
१६७
आदिनाथ- चरित्र
होगये और 'यह क्या होता है' ऐसे सभ्रममें पड़कर सावधान
इस तरह सावधान
शासन
होने और चैतन्य लाभ करने लगे । हुए देवोंको उद्देश करके, इन्द्रके सेनापतिने, मेघवत वाणीसे इस प्रकार कहा- 'हे देवताओ ! जिस इन्द्रका अनुलंध्य है, जिस सुरपतिकी आज्ञाके विरुद्ध कोई भी चलनेका साहस कर नहीं सकता; जिन देवराजके हुक्म के खिलाफ कोई भी चूँ नहीं कर सकता, जिस स्वर्गाधिपति के आदेशके विपरीत चलनेकी किसीमें भी क्षमता और सामर्थ्य नहीं, वही वृत्तारि देवाधिपति इन्द्र आपलोगोको देवी प्रभृति परि वार सहित आज्ञा देते हैं, कि जम्बू द्वीपके दक्षिणार्द्ध भरतखण्डके मध्य भाग में, कुलकर नाभिराजके कुलमें, आदि तीर्थङ्कर भगवान ने जन्म लिया है। उन्हीं भगवान्के जन्म-कल्याणका महोत्सव मनानेके लिए हम लोग वहाँ जाना चाहते हैं । आप लोग भी सपरिवार वहाँ चलनेके लिए शीघ्र शीघ्र तैयार होकर हमारे पास आजाय: इस शुभकाममें विलम्ब न करें; क्योंकि इससे उत्तम शुभ कार्य और नहीं है।' इस आज्ञाके सुनतेही अनेक देवता तो भगवान् की भक्ति और प्रीति से खिंचकर, वायुके सन्मुख वेगसे जाने वाले हिरनकी तरह, चल खड़े हुए। कितनेही,
Q
चक
कसे आकर्षित होने वाले लोहेकी तरह, इन्द्रकी आज्ञासे आकर्षित होकर या खिंचकर रवाना होगये। कितने ही, नदियों के वेगसे दौड़नेवाले जल जीवोंकी तरह, अपनी अपनी घरवालियों के उत्साहित और उल्लसित करने एवं ज़ोर देनेसे चल पड़े और
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आदिनाथ चरित्र
१६८
प्रथम पर्व
कितने ही वायुके आकर्षणसे गन्धके चलने की तरह, अपने मित्रोंके आकर्षणसे अपने अपने घरों से चल दिये । इस तरह अपने अपने सुन्दर विमानों और अन्य वाहनोंसे, मानो दूसरा स्वर्ग हो इस तरह, आकाशको सुशोभित करते हुए देवराज इन्द्र के पास आकर इकट्ठे होगये ।
पालक विमानकी रचना |
1
उस समय पालक नामक अभियोगिक देवको सुरपतिने असम्भाव्य और अप्रतिम यानी लाजवाब और बेजोड़ विमान रचने की आज्ञा दी | स्वामीकी आज्ञा पालन करने वाले - मालिकके हुक्म मुताबिक काम करने वाले देवने तत्काल इच्छनुगामीमरज़ीके माफिक चलने वाला - बिमान रचकर तैयार कर दिया । वह विमान हज़ारों रत्न - निर्मित स्तम्भों - खम्भों - के किरणसमूह से आकाश को पवित्र करता था । उसमें बनी हुई खिड़कियाँ उसके नेत्रों- जैसी, दीर्घ ध्वजायें उसकी भुजाओं जैसी और वेदिकायें उसके दाँतों जैसा मालूम होतो थीं एव सोनेके कलशोंसे वह पुलकित हुआ सा जान पड़ता था । उसकी उँचाई ४००० मीलकी और विस्तार या लम्बाई चौड़ाई ८ लाख मीलकी थी । उस विमानमें कान्तिकी तरङ्ग वाली तीन सोपान- पंक्तियों या सीढ़ियों की कतारें थीं जो हिमालय पहाड़ पर गंगा सिन्धु और रोहिताशा नदियोंके जैसी मालूम होती थीं। उन सोपान-पंक्तियों या सीढ़ियोंकी क़तारके आगे, इन्द्र धनुषकी शोभाको धारण करने
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र वाले, नाना प्रकारके रत्नोंसे बने हुए तोरण थे। उस विमानके अन्दर चन्द्रबिम्ब, दर्पण-आईना, मृदङ्ग और उत्तम दीपिका के समान चौरस और हमवार ज़मीन शोभा देती थी। उस जमीन पर बिछाई हुई रत्नमय शिलायें, अविरल और घनी किरणों से, दीवारों पर बने हुए चित्रों पर, पर्दो के जैसी शोभायमान लगती थीं ; यानी हीरे पन्ने और माणिक प्रभृति जवाहिरों से जो लगातार गहरी किरणें निकलती थीं : वे दीवारों पर बने हुए चित्रों पर पर्दो के समान सुन्दर मालूम होती थीं। उसके मध्यभाग या बीचमें अप्सराओं जैसी पुतलियों से विभूषित-रत्नखचित एक प्रक्षामण्डप था और उस के अन्दर खिले हुए कमल की कर्णिका के समान सुन्दर माणिक्य की एक पीठिका थी। उस पीठिका की लम्बाई-चौड़ाई बत्तीस माइल थी और उस की मुटाई सोलह योजन थी! वह इन्द्र की लक्ष्मी की शय्या सी मालूम होती थी। उसके ऊपर एक सिंहासन था, जो सारे तेज के सार के पिण्ड से बना हुआ मालूम पड़ता था। उस सिंहासन के ऊपर अपूर्व शोभावाला, विचित्र-विचित्र रत्नों से जड़ा हुआ और अपनी किरणों से आकाश को व्याप्त करनेवाला एक विजय-वस्त्र था। उसके बीच में, हाथी के कान में हो ऐसा एक वज्राश और लक्ष्मी के क्रीड़ा करने के हिंडोले-जैसी कुम्भिक जात के मोतियों की माला शोभा दे रही थी और उस मुक्त दाम के आसपास-गंगा नदी के अन्तर जैसी-उस माला से विस्तार में आधी, अर्द्ध कुम्भिक मोतियों की माला शोभ रही
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दिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व थी। उनके स्पर्श-सुख के लोभ से मानो स्खलित होता हो. इस तरह, पूर्व-दिशाके मन्द गतिवाले वायुसे वे मालायें जरा-जरा हिलती थीं। उनके अन्दर सञ्चार करनेवाला पवन-श्रवण-सुखद शब्द करता था, यानी हवा के कारण जो आवाज़ निकलती थी, वह कानों को सुखदायी और प्यारी लगती थी। उस शब्द से ऐसा मालूम होता था, गोया वह प्रियभाषी की तरह, इन्द्र के निर्मल यश का गान करता हो। उस सिंहासन के आश्रय से, वायव्य और उत्तर दिशा तथा पूर्व और उत्तर दिशा के बीच में स्वर्गलक्ष्मी के मुकुट-जैसे, चौरासी हज़ार सामानिक देवताओं के चौरासी हज़ार-भद्रासन बने हुए थे। पूर्व में आठ अग्र महिषी यानी इन्द्राणियों के आठ आसन थे। वे सहोदरों के समान एकसे आकार से शोभित थे । दक्खन-पूरब के बीच में अभ्यन्तर सभा. के सभासदों के बारह हज़ार भद्रासन थे। दक्खन में मध्य सभा के सभासद -चौदह हज़ार देवताओं के अनुक्रम से चौदह हज़ार भद्रासन थे। दक्खन-पश्चिम के बीच में, बाहरी सभा के सोलह हज़ार देवताओं के सोलह हज़ार सिंहासनों की पंक्तियाँ थीं । पश्चिम दिशा में, एक दूसरे के प्रतिबिम्ब के समान सात प्रकार की सेना के सेनापति देवताओं के सात आसन थे और मेरु पर्वत के चारों तरफ जिस तरह नक्षत्र शोभते हों, उसीतरह शक्र-सिंहासन के चौतरफा चौरासी हज़ार आत्मरक्षक देवताओं के चौरासी हज़ार आसन सुशोभित थे। इस तरह सारे विमान की रचना करके आभियोगिक देवताओंने इन्द्र
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प्रथम पर्व
१७१
आदिनाथ-चरित्र
को खबर दी, तब इन्द्र ने तत्काल उत्तर वैक्रिय रूप धारण किया: इच्छानुसार रूप बनाना, देवताओंका स्वभाव है ।
सौधर्मेन्द्र का विमान पर चढ़ना ।
इसके बाद मानों दिशाओं की लक्ष्मीही हों ऐसी आठ पटरानियों सहित, गन्धर्व्व और नटों का तमाशा देखते हुए, इन्द्रने सिंहासन की प्रदक्षिणा की और पूर्व ओर की सीढ़ियों की राइसे, अपनी मान-प्रतिष्ठा या अपने उच्चपद के योग्य उन्नत सिंहासन पर चढ़ गया। उसके अंग के प्रतिविम्ब या अक्स के माणिक की दीवारों पर पड़ने से, उसके सहस्रों अंग दीखने लगे। वह पूरव तरफ मुँह करके अपने आसनपर जा बैठा। इसके पीछे, उसके दूसरे रूप के समान सामानिक देव, उत्तर ओर की सीढ़ियों से चढ़कर, अपने-अपने आसनों पर जा बैठे; तव और देवता भी दक्खन तरफ की सीढ़ियों से बढ़-चढ़ कर अपने-अपने आसनोंपर जा बैठे : क्योंकि स्वामी के पास आसन का उल्लङ्घन नहीं होता । सिंहासन पर बैठे हुए इन्द्र के सामने दर्पण प्रभृति आठों मांगलिक पदार्थ शोभा देरहे थे । सचीपति के सिरपर चन्द्रमाके समान छत्र सुशोभित था । चलते-फिरते हंसों की तरह दोनों तरफ चँवर दुल रहे थे । झरनों से पर्वत शोभा देता है, उसी तरह पताकाओं से सुशोभित आठ हज़ार मील ऊँचा एक 'इन्द्रध्वज' विमान के आगे फरक रहा था । उस समय, नदियों से घिरनेपर जिस तरह समुद्र शोभता है उसी तरह, सामानिक आदि देव
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र १७२ ताओं से घिरकर इन्द्र शोभने लगा । अन्य देवताओं के विमानोंसे वह विमान घिरा हुआ था, इसलिये मण्डलाकार चैत्यों से घिरा हुआ जिस तरह मूल चैत्य शोभता है, उसी तरह वह शोभता था। विमान की सुन्दर माणिक्यमय दीवारों के अन्दर एक दूसरे विमान का जो प्रतिविम्ब पड़ता था, उससे ऐसा मालूम होता था, मानो विमानों से. विमानों को गर्भ रहा है ; भर्थात् विमान के अन्दर विमान का धोखा होता था। सौधर्मेन्द्र के विमान का रवाना होना और भगवान्
के सूतिकागार के पास पहुँचना। दिशाओं के मुखमें प्रतिध्वनि-रूप हुई बन्दीजनों की जयध्वनि से, दुंदुभि के शब्द से, गन्धर्व और नटोंके बाजोंकी आवाज़ से मानो आकाश को चीरता हो इस तरह, वह विमान, इन्द्र की इच्छा से, सौधर्म देवलोक के बीचमें होकर चला। सौधर्म देवलोक के उत्तर तरफ से ज़रा तिरछा होकर उतरता हुआ वह विमान, ८ लाख मील लम्बा-चौड़ा होने से जम्बू द्वीप को ढकने वाला ढक्कन सा मालूम होने लगा। उस समय राह चलनेवाले देव एक दूसरे से इस तरह कहने लगे–'हे हस्तिवाहन ! दूर हट जाओ; आप के हाथी को मेरा सिंह देख न सकेगा। हे अश्वाः रोही महाशय ! ज़रा दूर रहो। मेरे उँट का मिज़ाज बिगड़ा हुआ है, उसे क्रोध आरहा है, आपके घोड़े को वह सहन न करेगा। हे मृगवाहन ! आप नज़दीक मत आओ, क्योंकि मेरा
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र हाथी आपके हिरन को नुकसान पहुँचायेगा। हे सर्पवाहन ! यहाँ से दूर रहो, देखो यह मेरा वाहन गरुड़ है, यह आपके सर्पको तकलीफ देगा। अरे भाई ! तू मेरी राह रोकने को आड़े क्यों आता है और अपने विमान से मेरे विमान को क्यों लड़ाता है ? दूसरा कहता-अरे मैं पीछे रह गया हूँ, और इन्द्र महाराज जल्दी-जल्दी चले जाते हैं, इसलिये परस्पर संघर्षण होने या टक्कर होने से नाराज़ मत होओ: क्योंकि पर्वदिनों में भिचाभिची या अड़ाअड़ी होती ही है : यानी पर्वके दिन अकसर भीड़भाड़ होती ही है। इस तरह उत्सुकता से इन्द्र के पीछे-पीछे जानेवाले सौधर्म देवलोक के देवों का भारी कोलाहल या गुलशोर होने लगा। उस समय दीर्घ ध्वजपट वाला वह पालक विमान, समुद्र के मध्य शिखर से उतरती हुई नाव जिस तरह शोभती है उसी तरह, आकाश से उतरता हुआ शोभने लगा। जिस तरह हाथी वृक्षों के बीच से चलता हुआ वृक्षों को नवाता है, उसी तरह मेघ-मण्डल से पंकिल हुए-नम्र हुए स्वर्ग को झुकाता हो इस तरह, नक्षत्रचक्र के बीच में, वह विमान आकाश में चलता-चलता, वायु के वेग से, अनेक द्वीप-समूह को लाँघता हुआ, नन्दीश्वर द्वीप में आ उपस्थित हुआ। जिस तरह विद्वान् पुरुष ग्रन्थ को संक्षिप्त करते हैं; उसी तरह उस द्वीप के दक्खन पूर्व के मध्यभाग में, रतिकर पर्वत के ऊपर, इन्द्रने उस विमान को संक्षिप्त किया। वहाँ से आगे चलकर, कितनेही द्वीप और समुद्रों को लांघकर, उस विमान
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व
को पहले की अपेक्षा भी संक्षिप्त करता हुआ, इन्द्र जम्बूद्वीप के दक्खन भरतार्द्ध में, आदि तीर्थङ्करकी जन्मभूमिमें आ पहुँचा । सूर्य जिस तरह मेरु की प्रदक्षिणा करता है; उसी तरह वहाँ उस ने उस विमान से प्रभु के सूतिकागार की प्रदक्षिण की और घर के कोने में जिस तरह धन रखते हैं; उसी तरह ईशान कोण में उस विमान को स्थापन किया ।
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सौधर्मेन्द्रका भगवान के चरणों में प्रणाम करना ।
मरुदेवा माता को परिचय देना ।
भगवान् को ग्रहण करना ।
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पीछे महामुनि जिस तरह मान से उतरता है-मान का त्याग करता है - उसी तरह प्रसन्नचित्त शक ेन्द्र विमान से उतर कर प्रभु के पास आया । प्रभु को देखते ही उस देवाधिपति ने पहले प्रणाम किया क्योंकि 'स्वामी के दर्शन होते ही प्रणाम करना स्वामी की पहली भेट है।' इस के बाद माता सहित प्रभु की प्रदक्षिणा करके, उसने फिर प्रणाम किया। क्योंकि भक्ति में पुनरुक्ति दोष नहीं होता; यानी भक्ति में किये हुए काम को बारम्बार करने से दोष नहीं लगता। देवताओं द्वारा मस्तकपर अभिषेक किये हुए उस भक्तिमान् इन्द्र ने, मस्तक पर अञ्जलि जोड़कर, स्वामिनी मरुदेवा से इस प्रकार कहना आरम्भ किया :-- -" अपने पेट में रत्नरूप पुत्र को धारण करनेवाली
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आदिनाथ चरित्र :
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पीछे महामुनि जिस तरह मान से उतरता है—मान का त्याग करता है-उसी तरह प्रसन्नचित्त शक्रेन्द्र विमान से उतर कर प्रभु के पास प्राया। प्रभु को देखते ही उस देवाधिपति ने पहले प्रणाम किया; क्योंकि 'स्वामी के दर्शन होतेही प्रणाम करना स्वामी की पहली भेट है।
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प्रथम पर्व
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और जगदीपक को जननेवाली हे जगत्माता ! मैं आप को नमस्कार करता हूँ । आप धन्य हैं, आप पुण्यवती हैं, और आप सफल जन्मवाली तथा उत्तम लक्षणोंवाली हैं । त्रिलोकीमें frant gadi स्त्रियाँ हैं, उन में आप पवित्र हैं, क्योंकि आपने धर्म का उद्धार करने में अग्रसर और आच्छादित हुए मोक्ष-मार्गको प्रकट करनेवाले भगवान् आदि तीर्थङ्कर को जन्म दिया है; अर्थात् आप से धर्म को उद्धार करनेवाले और छिपे हुए मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाले भगवान् का जन्म हुआ है । है देवि ! मैं सौधर्म देवलोक का इन्द्र हूँ । आप के पुत्र अर्हन्त भगवान् का जन्मोत्सव मनाने के लिए यहाँ आया हूँ । इस लिये आप मुझ से भय, न करना- मुझ से ख़ौफ़ न खाना । ये बातें कहकर, सुरपति ने मरुदेवा माता के ऊपर अवस्थापनिका नाम की निद्रा निर्माण की और प्रभु का एक प्रतिविम्व बनाकर उनकी बग़ल में रख दिया । पीछे इन्द्रने अपने पाँच रूप बनाये, क्योंकि ऐसी शक्तिवाला अनेक रूपों से स्वामी की योग्य भक्ति करना चाहता है । उनमें से एक रूप से भगवान् के पास आकर, प्रणाम किया और विनय से नम्र हो - 'हे भगवन् आज्ञा कीजिये ' वह कहकर कल्याणकारी भक्तिवाले उस इन्द्रने गोशीर्ष चन्दन से चर्चित अपने दोनों हाथों से मानो मूर्त्तिमान कल्याण हो इस तरह, भुवनेश्वर भगवान को ग्रहण किया । एक रूप से जगत् का ताप नाश करने में छत्र रूप जगत्पति के मस्तकपर, पीछे खड़े होकर छत्र धारण किया; स्वामी की दोनों ओर,
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
बाहुदण्ड के समान दो रूपों से, दो सुन्दर चँवर धारण किये और एक रूप से मानो मुख्य द्वारपाल हो इस तरह वज्र धारण करके भगवान् के सामने खड़ा होगया। जय-जय शब्दों से आकाश को एक शब्दमय करनेवाले देवताओं से घिरा हुआ और आकाश जैसे निर्मल चित्तवाला इन्द्र पांच रूपोंसे आकाश-मार्ग से चला। प्यासे पथिकों की नज़र जिस तरह अमृत सरोवर पर पड़ती है ; उसी तरह उत्कंठित देवताओं की द्रष्टि भगवान के उस अद्भुत रूप पर पड़ी। भगवान के उस अद्धत रूप को देखने के लिए, आगे चलनेवाले देवता अपने पिछले भाग में नेत्रों के होने की इच्छा करते थे ; यानी वे चाहते थे, कि अगर हमारे सिर के पीछे आँखें होती तो हम भगवान् के अद्भुत मनमोहन रूप का दर्शन कर सकते। अगल बगल चलनेवाले देवताओं की स्वामी के दर्शनों से तृप्ति नहीं हुई, इसलिये मानो उनके नेत्र स्तम्भित हो गये हों, इस तरह अपने नेत्रों को दूसरी ओर नहीं फेर सके। पीछे वाले देवता भगवान के दर्शनों की इच्छा से आगे आना चाहते थे ; इसलिए वे उल्लंघन करनेमें अपने मित्र और स्वामियों की पर्वा नहीं करते थे। इस के बाद देवपति इन्द्र, हृदय में रक्खे हों इस तरह भगवान् को अपने हृदय से लगाकर मेरु पर्वत पर गया। यहाँ पाण्डक वनमें, दक्खन चूलिका पर, अतिपाण्डुक बला शिलापर, अर्हन्त स्नात्र के योग्य सिंहासनपर, पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र, हर्ष के साथ, प्रभु को अपनी गोद में लेकर बैठा।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
जिस समय सौधर्मेन्द्र मेरु पर्वत के ऊपर आया, उस समय महाघोषा घण्टी से ख़बर पाकर, अट्ठाईस लाख देवों से घिरा हुआ त्रिशूलधारी वृषभवाहन ईशान कल्पाधिपतिईशानेन्द्र अपने पुष्पक नामक आभियोगिक देवों द्वारा बनाये हुए पुष्पक विमान में बैठ कर दक्खन दिशा की राहसे, ईशान कल्प से नीचे उतरकर और ज़रा तिरछा चलकर, नन्दीश्वर द्वीप में आ, उस द्वीप के ईशान कोण में स्थित रतिकर पर्वतपर, सौधर्मेन्द्र की तरह अपने विमान का छोटा रूप बनाकर, मेरु पर्वत पर भगवान् के निकट भक्ति सहित आया। सनतकुमार इन्द्र भी १२ लाख विमानवासी देवताओं से घिरकर और सुमन नामक विमान में बैठकर आया। महेन्द्र नामक इन्द्र, आठ लाख विमान-वासी देवताओं सहित, श्रीवत्स नामक विमान में बैठकर, मनके जैसी तेज़ चालसे आया। ब्रह्मन्द्र नामक इन्द्र, विमान-वासी चार लाख देवताओंके साथ, नंद्यावर्त नामक विमानमें बैठकर, स्वामी के पास आया । लान्तक नामक इन्द्र, पचास हज़ार विमान-वासी देवताओं के साथ, कामयव नामक विमानमें बैठकर जिनेश्वर के पास आया। शुक्र नामक इन्द्र, चालीस हज़ार विमान-वासी देवताओं के साथ, पीतिगम नामक विमानमें बैठकर, मेरू पर्वत पर आया। सहस्रार नामक इन्द्र छः हज़ार विमान-वासी देवताओंके साथ मनोरम नामक विमानमें बैठकर, जिनेश्वरके पास आया । आनँतप्राणत देवलोकका इन्द्र, चार सौ विमान
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
वासी देवताओंके साथ अपने विमल नामक विमान में बैठकर आया और आरणाच्युत देवलोकका इन्द्र भी तीन सौ विमानवासी देवताओके साथ, अपने अति वेगवान सर्वतोभद्र नामक विमानमें बैठकर आया ।
उस समय रत्नप्रभा पृथ्वीकी मोटी तहमें निवास करने वाले भुवनपति और व्यन्तरके इन्द्रोंके आसन काँप उठे । चमरच्चानाम की नगरी में सुधर्मा सभाके अन्दर चमर नामक सिंहासनपर, चमरासुर-चमरेन्द्र बैठा हुआ था । उसने अवधिज्ञानसे भगवानके जन्मका समाचार जानकर सम्पूर्ण देवताओंको सूचित करनेके लिए, अपने द्रुम नामके सेनापति से औधघोषा नामकी घण्टी बजवाई । इसके बाद अपने ६४ हजार सामानिक देवों, ३३ त्रात्रि'शक गुरुस्थानीय देवों, चार लोक पाल, पाँच अग्र महिषी या पटरानी, अभ्यन्तर-मध्य - बाह्य तीन परिषदोंके देव, सात प्रकारकी सेना, सात सेनाधिपति और चारों दिशाओंके ६४ हज़ार आत्मरक्षक देव तथा अन्य उत्तम ऋद्धिवाले असुर कुमार देवोंसे घिरा हुआ, आभियोगिक देवके तत्काल रचे हुए, ४००० मील ऊँचे, दीर्घ ध्वजासे सुशोभित और चार लाख मील के विस्तार वाले विमानमें बैठकर भगवान्का जन्मोत्सव मनानेकी इच्छासे चला । वह चमरेन्द्रभी शक ेन्द्रकी तरह अपने विमानको राहमें छोटा करके, भगवान् के आगमनसे पवित्र हुई मेरु पर्वत की चोटी पर आया । बलि चंचा नामकी नगरीका बलि नामका इन्द्रभी, महौघस्वराघ नामका घण्टा बजवाकर महाद्रुम नामके
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प्रथम पर्व
१७६
आदिनाथ-चरित्र सेनापतिके बुलानेसे आये हुए, साठ हजार सामानिक देव और इनसे चौगुने आत्मरक्षक देव एवं अन्य त्राय त्रिशक प्रभृति देवों सहित, चमरेन्द्र की तरह अमन्द आनन्दके मन्दिर रूप मेरू पर्वत पर आया । नाग कुमारका धरण नामक इन्द्र मेधस्वरा नामकी घण्टी बजवाकर, भद्रसेन नामके अपनी पैदल सेनाके सेनापति द्वारा बुलाये हुए छः हज़ार सामानिक देवताओं और उनसे चार गुने आत्मरक्षक देव, छः पटरानी एव' अन्यभी नागकुमारके देवोंको साथ लेकर दो लाख मील लम्बे चौड़े और दो हज़ार मील ऊँचे और इन्द्र ध्वजसे सुशोभित विमानमें बैठकर भगवान्के दर्शनके लिए उत्सुक होकर मन्दराचल या मेरु पर्वत के ऊपर क्षणभरमें आया। भूतानन्द नामक नागेन्द्र, अपनी मेधस्वरा नामकी घण्टी बजवाकर दक्ष नामक सेनापति द्वारा बुलाये हुए सामानिक प्रभृति देवताओं सहित अभियोगिक देवताके बनाये हुए विमानमें बैठकर, तीन लोकके नाथसे सनाथ हुए मेरु पर्वत पर आया। उसी तरह विद्यु तकुमारके इन्द्र हरि और हरिसह, सुवर्णकुमारके इन्द्र वेणुदेव और वेणुदारी, अग्निकुमार के इन्द्र अग्निशिख़ और अग्निमाणव वायुकुमारके इन्द्र बेलम्ब
और प्रभञ्जन स्तनित कुमारके इन्द्र सुषोध और महा धोष, उदधी कुमारके इन्द्र जलकान्तक और जलप्रभ, द्वीप कुमारके इन्द्र पूर्ण और अविष्ट एवौं दिक्कुमारके इन्द्र अमित और अमितवाहन भी वहाँ आये।
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
व्यन्तरोंमें पिशाचोंके इन्द्र काल और महाकाल, भूतोंके इन्द्र सुरूप और प्रतिरूप, यक्षोंके इन्द्र पूर्णभद्र और मणिभद्र, राक्षसों के इन्द्र भीम और महाभीम, किन्नरोंके इन्द्र किन्नर और किंपुरुष, किंपुरुषोंके इन्द्र सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगके इन्द्र अतिकाय और महाकाय, गन्धर्वोके इन्द्र गीतरति और गीतयशा अप्रज्ञप्ति और पंच प्रज्ञप्ति वगेरः व्यन्तरोंके दूसरे आठ निकाय, उनके सोलह इन्द्र, उसमेंसे अप्रज्ञप्तिके इन्द्र संनिहित और समानक पॅच प्रज्ञप्तिके इन्द्र धाता और विधाता, ऋषिवादिके इन्द्र ऋषि और ऋषिपालक, भूतवादिके इन्द्र ईश्वर और महेश्वर, क्रन्दितके इन्द्र सुवत्सक और विशालक, महाकृन्दित के इन्द्र हास और हासरति, कुष्मांडके इन्द्र श्वेत और महाश्वेत, पावकके इन्द्र, पवक और पवकपति, ज्योतिष्कों के असंख्यात सूर्य और चन्द्र इन दो नामोंके ही इन्द्र, इस प्रकार कुल चौसठ इन्द्र मेरु पर्वत पर एक साथ आये
देव कृत जन्मोत्सव
इसके बाद अच्युत इन्द्रने जिनेश्वर के जन्मोत्सव के लिये उपकरण या सामग्री लानेकी अभियोगिक देवताओंको आज्ञा दी और उसी समय ईशान दिशाकी तरफ जाकर, वैक्रिय समुघातसे क्षणभर में उत्तम पुद्गलोंको आकर्षणकर, सुवर्णके, चाँदीके, रत्नके, सुवर्ण और चाँदीके, सुवर्ण और रत्नके, सोने
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प्रथम पर्व
१८१
आदिनाथ-चरित्र चाँदी और रत्नोके एवं मिट्टीके आठ माइल ऊँचे आठ तरहके प्रत्येक देवने एक हजार आठ सुन्दर कलश बनाये। कलशों की संख्याके प्रमाणसे उसी तरह सुवर्णादिकी आठ प्रकार की झारियाँ, दर्पण, रत्न, कण्डक, डिब्बियाँ, थाल, पात्रिका, कूलों की भंगेरी,—ये सब मानो पहलेसे ही बनाकर रखी हों, इस तरह तत्काल बनाकर वहाँ से लाये। पीछे वर्षा के जलकी तरह क्षीर समुद्र से उन्होंने कलश भर लिये और मानो इन्द्र को क्षीर समुद्र के जल का अभिज्ञान कराने के लिये ही हो, इस तरह पुण्डरीक, उत्पल और कोकनर जाति के कमल भी वहीं से संग ले लिये। जल भरनेवाले पुरुष घड़े से जलाशय में जल ग्रहण करें, उस तरह हाथ में घड़े लिये हुए देवोंने पुष्करवर समुद्र से पुष्कर जात के कमल ले लिये। मानो अधिक घड़े बनाने के लिये ही हों, इस तरह मागध आदि तीर्थों से उन्होंने जल और मिट्टी ली। जिस तरह ख़रीद करनेवाले पुरुष बानगी लेते हैं. उसी तरह गंगा आदि महा नदियों से उन्होंने जल ग्रहण किया। मानो पहलेसे ही धरोहर रखी हो, इस तरह क्षुद्र हिमवन्त पर्वत से सिद्धार्थ पुष्प, श्रेष्ठ गन्ध द्रव्य और सौषधियाँ लीं। उसी पहाड़ के ऊपर के पद्म नाम के सरोवर से निर्मल, सुगन्धित और पवित्र जल और कमल लिये। एक ही काम में लगे रहने से मानो स्पर्धा करते हों, इस तरह उन्होंने दूसरे परत के तालाबोंमें से पद्म प्रभृति लिये। सब क्षेत्रोंमें से, वैताढ्य के ऊपरसे और विजयोंमें से, अतृप्त के सदृश देवताओं ने, स्वामी के
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व प्रसाद के समान जल और कमल प्रभृति लिये। मानो उनके लिये ही इकट्ठी करके रक्खी हों, इस तरह वक्षस्कार पर्वत के ऊपर से दूसरी पवित्र और सुगन्धित वस्तुएँ उन्होंने लीं । मानो कल्याण से अपने आत्मा को ही भरते हों, इस तरह आलस्य रहित उन देवताओं ने देवकुरु और उत्तर कुरुक्षेत्र के सरोवरोंसे कलश जलसे भर लिये । भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनमें से उन्होंने गोशीर्ष चन्दन आदि वस्तुयें लीं। गन्धी जिस तरह सब तरह के गन्ध द्रव्यों को एकत्रित करता है, उसी तरह वे गन्ध द्रव्य और जलको एकत्रित करके तत्काल मेरु पर्वतपर आये। ___अब दस हज़ार सामानिक देव, चालीस हज़ार आत्मरक्षक देव, तैंतीस त्रायस्त्रिंशत् देव, तीनों सभाओं के सब देव, चार लोकपाल, सात बड़ी सेना, और सात सेनापतियों से घिरे हुए आरणाच्युत देवलोकका इन्द्र, पवित्र होकर, भगवान् को स्नान कराने के लिए तैयार हुआ। पहले उस अच्युत इन्द्रने उसरासंग करके नि:संग भक्ति से, खिले हुए पारिजात प्रभृति पुष्पों की अञ्जलि ग्रहण कर, और सुगन्धित धूप से धूपित कर, त्रिलोकीनाथ के पास वह कुसुमाञ्जलि रक्खी । इसी समय देवताओं ने भगवान् की सानिध्यता प्राप्त होने के अद्भुत आनन्दसे मानो हँसते हों ऐसे और पुष्पमालाओं से चर्चित किये हुए सुगन्धित जल के घड़े वहाँ लाकर रक्खे। उन जल कलशों के मुंहपर भौंरों के शब्दों से शब्दायमान हुए कमल रक्खे थे। इससे ऐसा मालूम
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
होता था, मानो वे भगवान् के प्रथम स्नात्र मंगल का पाठ कर रहे हों और स्वामी के स्नान कराने के लिये पातालमें से आये हुए पाताल कलश हों, वे ऐसे कलश मालूम होते थे । अच्युत इन्द्र ने अपने सामानिक देवताओं के साथ, मानो अपनी सम्पत्तिके फल रूप हों ऐसे १००८ कलश ग्रहण किये । ऊँचे किये हुए भुजदण्ड के अग्रवर्त्ती ऐसे वे कलश, जिनके दण्डे ऊंचे किये हों ऐसे कमल कोश की शोभा की विडम्बना करते थे अर्थात् उनसे भी जियादा सुन्दर लगते थे। पीछे अच्युतेन्द्र ने अपने मस्तक की तरह कलश को ज़रा नवाँकर जगत्पति को स्नान कराना आरम्भ किया । उस समय कितने ही देवता गुफा में होनेवाले प्रति शब्दों से मानो मेरु पर्वत को वाचाल करते हों इस तरह आनक नामके मृदंग को बजाने लगे । भक्ति में तत्पर ऐसे कितने ही देवता, मथन करते हुए महासागर की ध्वनि की शोभा को चुरानेवाली आवाज़ की दुंदुभिको बजाने लगे ।
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जिस तरह पवन आकुल ध्वनिवाले प्रवाह की तरंगों को भिड़ाता है; उसी तरह कितने ही देवता, ऊँची ताल से झाँझोंको परस्पर भिड़ा - भिड़ा कर बजाने लगे । कितने ही देवता, मानो उर्ध्व लोक में जिनेन्द्र की आज्ञा का विस्तार करती हो, ऐसी ऊँचे मुँहवाली भेरी को ज़ोर-ज़ोर से बजाने लगे । जिस तरह ग्वालिये किसी ऊँचे स्थानपर खड़े होकर सींगिया बजाते हैं; उसी तरह देवता मेरु-शिखरपर खड़े होकर 'काहल' नाम का बाजा बजाने लगे। कितने ही देवता, जिस तरह दुष्ट शिष्योंको
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आदिनाथ-चरित्र १८४
प्रथम पर्व हाथ से पीटते हैं; उसी तरह उद्घोष करने के लिए अपने मृदङ्ग नामक बाजे को पीटने लगे; यानी मृदङ्ग बजाने लगे। कितने ही वहाँ आये हुए देवता, असंख्य सूरज और चन्द्रमा की कान्ति को हरनेवाली सोने और चांदी की झाँझों को बजाने लगे। कितने ही देवता मानो मुँह में अमृतभरा हो, इस तरह गाल फुलाकर शंख बजाने लगे। इस तरह देवताओं के बजाये हुए विचित्र प्रकार के बाजों की प्रतिध्वनि से मानो आकाश भी, बिना बाजा बजानेवाले के, एक बाजे-जैसा होगया। चारण मुनि-'हे जगन्नाथ ! हे सिद्धिगामि ! हे कृपासागर! हे धर्मप्रवर्तक ! आपकी जय हो, आपका कल्याण हो'—इस तरहके 5 पद, उत्साह, स्कन्धक, गलित और वस्तुवदन-प्रभृति पद्य और मनोहर गद्य से स्तुति करने के बाद अपने परिवार के देवताओं के साथ अव्युतेन्द्र भूवनभर्ती के ऊपर धीरे-धीरे कलशों का जल डालने लगे। भगवान् के सिरपर जलधाराकी वृष्टि करनेवाले वे कलश मेरु पर्वत की चोटीपर बरसनेवाले मेघों की तरह शोभा देने लगे। भगवान् के मस्तक के दोनों तरफ देवताओं द्वारा झुकाये हुए वे कलश माणिक्य-निर्मित मुकुट की शोभा को धारण करने लगे। आठ-आठ मील के मुंह वाले घडोंमें से गिरनेवाली जल-धाराय, पर्वत की गुहाओं में से निकलनेवाले झरनों के समान शोभा देने लगीं। प्रभु के मुकुटभाग से उछल-उछलकर चारों तरफ गिरनेवाले जल के छींटें-धर्मरूपी वृक्ष के अङ्कुर के समान शोभने लगे। प्रभु
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प्रथम एवं
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आदिनाथ चरित्र
शरीरपर पड़ते ही मण्डलाकार हुआ कुम्भजल मस्तक के ऊपर सफेद छत्र के समान, ललाट-भागपर फैला हुआ कान्तिमान ललाट के आभूषण जैसा, कर्ण भाग में वहाँ आकर विश्रान्ति को प्राप्त हुए नेत्रों की कान्ति जैसा, कपोल भाग में कपूर की पत्र रचना के समूह जैसा, मनोहर होठोंपर विशद हास्य की कान्ति के समान, कंठ देश में मनोहर मुक्कामाल जैसा, कन्धोंपर गोशीर्ष चन्दन के तिलक जैसा, भुजा, हृदय और पीठपर विशाल वस्त्र के सदृश एवं कमर और घुटनों के बीच में विस्तृत उत्तरीय वस्त्रके समान – इस तरह क्षीरोदधि - क्षीर सागर का सुन्दर जल भगवान् के प्रत्येक अङ्ग में जुदी-जुदी शोभा को धारण करता था । जिस तरह चातक- पपैहिया - मेहके जलको ग्रहण करता है; उसी तरह कितने ही देवता भगवान् के स्नान के जल को ज़मीनपर पड़ते ही श्रद्धासे ग्रहण करने लगे । ऐसा जल फिर कहाँ मिलेगा, यह विचार करके कितने ही देवता उसे, मरुदेश या मारवाड़ के लोगों की तरह, अपने-अपने सिरों पर छिड़कने लगे । कितने ही देवता, गरमी से घबराये हुए हाथियोंकी तरह, अभिलाष पूर्वक, उस जल से अपने-अपने शरीर सींचने लगे । मेरु पर्वत की चोटियोंपर, ज़ोर से फैलनेवाला वह जल चारों तरफ हज़ार नदियों की कल्पना कराने लगा और पांडुक, सौमनस, नन्दन तथा भद्रशाल बागीचों में फैलनेवाला वह जल धारों की लीलाको धारण करने लगा ।' स्नान करते-करते भीतर का जल कम होने से नीचे मुखवाले इन्द्र के घड़े मान
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
स्नात्र-जल रूपी सम्पत्ति कम होने से लजित हुए से जान पड़ने लगे। उस समय इन्द्र की आज्ञा के अनुसार चलनेवाले आभियोगिक देवता उन घड़ों को दूसरे घड़ों के जल से भर देते थे। एक देवता के हाथ से दूसरे देवता के हाथमें इस तरह अनेकों के हाथों में जानेवाले वे घड़े श्रीमानों के बालकों की तरह शोभते थे। नाभिराज के पुत्र के समीप रक्खी हुई कलशों की पंक्तियाँ आरोपण किये हुए सोने के कमलों की माला की लीला को धारण करतीं थीं। पीछे मुखभाग में जल का शब्द होनेसे मानो वे अर्हन्त की स्तुति करते हों ऐसे कलशों को देवता फिर से स्वामी के सिरपर ढोलने लगे। यक्ष जिस तरह चक्रवर्त्ति के धन-कलश को पूर्ण करते हैं ; उसी तरह देवता प्रभु के स्नान करने से खाली हुए, इन्द्रके घड़ों को जलसे पूर्ण कर देते थे। बारम्बार खाली होने और भरे जानेवाले वे घड़े सञ्चार करनेवाले घटीयंत्र के घण्टों की तरह सुन्दर मालूम होते थे। अच्युतेन्द्र ने करोड़ों घड़ों से प्रभु को स्नान कराया, और' अपनी आत्मा को पवित्र किया, यह आश्चर्य की बात है ! इसके बाद चारण और अच्युत देवलोक के स्वामी अच्युत इन्द्र ने दिध्यगंध काषायी वस्त्र से प्रभु के अंग को पोंछा। उसके साथ ही अपनी आत्मा को भी मार्जन किया। प्रातःकाल की अभ्रलेखा जिस तरह सूर्यमण्डल को छूनेसे शोभा पाती है ; उसी तरह गंध काषायी वस्त्र भगवान् के शरीर का स्पर्श करने से शोभायमान लगता था। साफ किया हुआ भगवान् का शरीर सुवर्णसागरके
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र सर्वस्व जैसा था और वह सुवर्णगिरि–मेरु के एक भाग से बनाया हुआ हो ऐसा देदीप्यमान था।
इसके बाद अभियोगिक देवताओंने गोशीर्ष चन्दन के रसका कर्दभ सुन्दर और विचित्र रकाबियों में भरकर अच्युतेन्द्र के पास रक्खा, तब चन्द्रमा जिस तरह अपनी चांदनी से मेरु पर्वत. के शिखर को विलेपित करता है ; उसी तरह इन्द्र ने प्रभु के अंग पर उसका विलेपन करना आरम्भ किया। कितने ही देवताओं ने उत्तरासङ्ग धारण करके यानी कन्धेपर दुपट्टा डालकर, प्रभुके चारों तरफ अतीव सुगन्धिपूर्ण धूपदानी हाथों में लेकर खड़े हो गये। कितने ही उसमें धूप डालते थे। वे चिकनी-चिकनी धूए की रेखासे मानो मेरु पर्वत की दूसरी श्याम रंग की चूलिका बनाते हों, ऐसे मालूम देते थे। कितने ही देवता प्रभुके ऊपर ऊँचा सफेद छत्र धारण करने लगे। इससे वे गगनरूपी महा सरोवर को कमलवाला करते हुएसे जान पड़ते थे। कितने ही चँवर ढोलने लगे। इससे वे स्वामी के दर्शनों के लिए अपने नातेदारों को बुलाते हों ऐसे मालूम होते थे। कितने ही देवता कमर बाँधे हुए आत्मरक्षककी तरह अपने हथियार लगाकर स्वामी के चारों तरफ खड़े थे। मानो आकाश स्थित विद्यु लुता या चंचला बिजली की लीला को बताते हों, इस तरह कितने ही देवता मणिमय और सुवर्णमय पंखोंसे भगवान्को हवा करने लगे। कितनेही देवता मानो दूसरे रङ्गाचार्य हों इसतरह विचित्रविचित्र प्रकारके दिव्य पुष्पोंकी वृष्टि हर्षोत्कर्ष पूर्जाक करने लगे।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
कितने ही देवता मानो अपने पापका उच्चाटन करते हों, इस तरह अत्यन्त सुगन्धिपूर्ण द्रव्यों का चूर्ण कर चारों दिशाओं में बरसाने लगे। कितने ही देवता मानो स्वामी द्वारा अधिष्टि मेरु पर्वतकीऋद्धि बढ़ाने की इच्छा रखते हों इस तरह सुवर्णकी वर्षा करने लगे । कितनेही देवता स्वामीके चरणोंमें प्रणाम करने के लिये उतरनेवाले तारोंकी पक्तियाँ हों ऐसी रत्नोंकी वृष्टि करने लगे ; अर्थात् देवतागण जो रत्नोंकी वर्षा करते थे, उससे ऐसा मालूम होता था; गोया प्रभुकी वन्दना करने के लिए आस्मानसे सितारों की कतारें उतर रही हों । कितनेही देवता अपने 'मधुर और मीठे स्वर से गन्धर्वीकी, सेनाका भी तिरस्कार करनेवाले नये-नये ग्राम और रागोंसे भगवान् के गुण-गान करने लगे। कितनेही देवता मढ़े हुए; धन और छेदों वाले बाजे बजाने लगे; क्योंकि भक्ति अनेक प्रकारसे होती है। कितने ही देवता मानो मेरु पर्वत शिखरों को भी नचाना चाहते हों, इस तरह अपने चरण- प्रहारसे उसको कँपाते हुए नचाने लगे । कितने ही देवता दूसरी वारांगना हों इस तरह अपनी स्त्रियोंके साथ विचित्र प्रकारके अभिनयसे उज्ज्वल नाटक करने लगे। कितने ही देवता पँखों वाले गरुड़की तरह आकाशमें उड़ने लगे। कितनेही मुर्गे की तरह ज़मीनपर फड़कने लगे । कितने ही हंसकी सी सुन्दर चालसे चलने लगे । कितने ही सिंहकी तरह सिंहनाद करने लगे । कितने ही हाथियोंकी तरह चिङ्गाड़ते थे। कितने ही घोड़ोंकी तरह खुशीसे हिनहिनाते थे । कितने ही रथकी तरह घनघनाहट
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पबे की आवाज़ करते थे। कितने ही विदूषक या मसखरेकी तरह चार प्रकारके शब्द बोलते थे। कितने ही बन्दर जिस तरह वृक्षों की शाखाओंको हिलाते हैं, उस तरह अपने पाँवोंसे पर्वत-शिखर को कपाते हुए कूदते थे। कितने ही मानो रणसंग्राममें प्रतिज्ञा करनेको तैयार हुए योद्धा हों, इस तरह अपने हाथोंकी चपेटसे पृथ्वीके ऊपर ताड़ना करते थे। कितने ही मानो दाव जीते हों, इस तरह हल्ला मचाते थे। कितने ही बाजोंकी तरह अपने फूले हुए गालोंको बजाते थे। कितने ही नटकी तरह विकृत रूप बनाकर लोगोंको हँसाते थे। कितनेही आगे पीछे और अगल-बग़ल में गेदकी तरह उछलते थे। स्त्रियाँ जिस तरह गोलाकार होकर रास करती हैं, उसी तरह कितने ही गोलाकार फिरते हुए रासकी तरह गाते और मनोहर नाच करते थे। कितनेही आगकी तरह प्रकाश करते थे। कितने ही सूर्यकी तरह तपते थे। कितने ही मेघकी तरह गरजना करते थे। कितने ही चपलाकी तरह चमकते थे। कितनेही नाक तक खूब खाये हुए विद्यार्थीकी तरह दिखाव करते थे। स्वामीकी प्राप्तिसे हुए उस आनन्दको कौन छिपा सकता था ? इस तरह देवता अनेक तरहके आनन्दके विचार कर रहे थे, उस समय अच्युतेन्द्रने प्रभुके विलेपन किया । उसने पारिजात प्रभृति के खिले हुए फूलोंसे प्रभुकी भक्ति-पूर्वक पूजाकी और ज़रा पीछे हटकर भक्तिसे नम्र होकर शिष्यकी तरह भगवान् की वन्दना की।
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
सौधर्मेन्द्रकी प्रभु-भक्ति । बड़े भाईके पीछे दूसरे सहोदरोंकी तरह, अन्य बासठ इन्द्रों ने भी उसी तरह स्नात्र और विलेपनसे भगवान की पूजाकी । __पीछे सुधर्म इन्द्रकी तरह ईशान इन्द्रने अपने पांचों रूप घनाये। उनमेंसे एक रूपसे भगवान को गोद में लिया, एक रूपसे मोतियोंकी झालरें लटकानेसे मानो दिशाओंकों नाच करनेका आदेश करता हो, इस तरह कपूर जैसा सफेद छत्र प्रभुके ऊपर धारण किया। मानो खुशीसे नाचते हों इस तरह हाथोंको विक्षेप करके दोनों रूपसे प्रभुके दोनों तरफ चँवर ढोरने लगा और एक रूपसे मानो अपने तई प्रभुके दृष्टिपात से पवित्र करनेकी इच्छा रखता हो, इस तरह हाथमें त्रिशूल लेकर प्रभुके आगे खड़ा हो गया। ____ इसके बाद सौधर्मकल्पके इन्द्रने जगत्पतिके चारों ओर स्फटिक मणिके चार बैल बनाये । ऊँचे ऊँचे सीगों वाले वे चारो बैल दिशाओंमें रहने वाले चन्द्रकान्त मणिके चार कीड़ा-पर्वत हों, इस तरह शोभने लगे। मानों पाताल फोड़ा हो, इस तरह उन बैलों के आठों सींगोंसे आकाशमें जल-धारा चलने लगी ।मूलमेंसे अलग-अलग निकली हुई, पर अन्तमें जा मिली हुई वे जलधारायें, नदी के संगमका विभ्रम करानेलगीं। देवता और असुरोंकी स्त्रियाँ द्वारा कौतुकसे देखी हुई वे जलधाराये नदियोंके समुद्र में गिरने की तरह प्रभु पर गिरने लगी। जलयंत्रके जैसे उन सींगोंमें से निकलते हुए जलसे इन्दने तीर्थङ्करको स्नान कराया । जिस तरह भक्तिसे
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प्रथम पर्व
१६१ आदिनाथ-चरित्र हृदय आर्द्र होता है, उसी तरह दूर उछलने वाले भगवान के स्नानके जलसे देवताओंके कपड़े आर्द्र होगये यानी तर होगये। जिस तरह ऐन्द्रजालिक अपने इन्द्रजालका उपसंहार करता है, उस तरह इन्द्रने उन चारों बैलोंका उपसंहार किया । स्नान करानेके बाद, घनी प्रीतिवाले उस देवराज ने देवदूष्य वस्त्रसे प्रभुके शरीरको रत्नके आईनेकी तरह पोंछा। रत्न-निर्मित पट्टे के ऊपर निर्मल और चाँदीके अखण्ड अक्षतोंसे प्रभुके पास अष्ट मङ्गल बनाये। पीछे, मानो बड़ा अनुराग हो इस तरह उत्तम अङ्गरागसे त्रिजगत् गुरुके अङ्गमें विलेपनकर प्रभुके हंसते हुए मुख रूपी चन्द्रकी चाँदनीके भ्रमको उत्पन्न करने वाले उज्ज्वल दिव्य वस्त्रोंसे इन्द्रने पूजाकी और प्रभुके मस्तक पर विश्वके मुखियत्वका चिह्न रूप वज्र यानी हीरे और माणिकों का सुन्दर मुकुट पहनाया । पीछे इन्द्रने सन्ध्या-समय आकाशमें पूरब पश्चिम तरफ जिस तरह सूरज और चन्द्रमा शोभा देते हैं, उसी तरहकी शाभा देने वाले दो सोनेके कुण्डल स्वामीके कानोंमें पहनाये। मानो लक्ष्मीके झलनेका झलाही हो वैसी विस्तार वाली मोतियोंकी माला स्वामीके गलेमें पहनायी । सुन्दर हाथीके बच्चे के दाँतोंमें जिस तरह सोनेके कंकण पहनाये जाते हैं, उसी तरह प्रभुके बाहु दण्डोंपर दो बाजूबन्ध पहनाये।
सौधर्मेंद्र का प्रभु को स्तुति करना। वृक्ष की शाखाके अन्तिम भाग के गुच्छे जैसे गोलाकार बडे
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व बड़े फ़ार मोतियोंके मणिमय कंकण प्रभुके पहुँचे पर पहनाये। भगवान्की कमरमें वर्षधर पर्वतके नितम्ब भाग पर रहने वाले सुर्वण कुलके विलासको धारण करने वाले सोनेका कटिसूत्र यानी सोनेकी क्रर्द्धनी पहनायी। और मानो देवताओं और दैत्योंका तेज उनमें लगाहो, ऐसे माणिक्यमय तोड़े प्रभुके दोनों चरणोंमें पहनाये। इद्रने जो जो आभूषण या गहने भगवान्के अंगको अलंकृत करनेके लिए पहनाये, वे आभूषण या ज़ेवर भगवान्के अंगोंसे उल्टे अलंकृत होगये; यानी इन्द्रने गहने तो पहनाये थे, प्रभुके अंगोंके सजानेको, लेकिन उल्टे वे प्रभुके अंगोंसे सज उठे । गहनोंसे भगवानके अङ्गोंकी शोभावृद्धि होनेके बजाय उल्टी गहनोंकी शोभा बढ़ गई। पीछे भक्तियुक्त चित वाले इन्द्रने प्रफुल्लित पारिजातके फूलोंको मालासे प्रभुकी पूजाकी और पीछे मानो कृतार्थ हुआ हो इस तरह ज़रा पीछे हट कर प्रभुके सामने खड़ा हो, जगत्पतिकी आरती करने के लिए आरती ग्रहणकी। जाज्वल्यमान् कान्तिवाली उस आरती से,प्रकाशित औषधि वाले शिखरसे, जिस तरह महागिरि शोभित होता है; उसी तरह इन्द्र शोभित होने लगा।श्रद्धालु देवताओंने जिसमें फूल बखेरे थे, वह आरती इन्द्र ने प्रभु पर से तीन बार उतारी। पीछे भक्ति से रोमाञ्चित हो, शक्रस्तवसे वन्दना कर; इन्द्रने इस प्रकार प्रभुकी स्तुति करनी आरम्भ कीः___“हे जगन्नाथ ! त्रैलोक्य कमल मार्तण्ड ! हे संसार-मरुस्थल में कल्पवृक्ष ! हे विश्वोद्धारण बान्धव ! मैं आपको नमस्कार
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प्रथम पर्व
१६३ आदिनाथ-चरित्र करताहूं । हे प्रभु! यह मुहर्त भी बन्दना करने योग्य है । क्योंकि इस मुहूर्त में धर्मको जन्म देने वाले--अपुनर्जन्मा-फिर जन्म ग्रहण न करने वाले-विश्व-जन्तुओंको जन्म के दुःखसे छुड़ाने वाले– आपका जन्म हुआ है। हे नाथ ! इस समय आपके जन्माभिषेक के जलके पूट से प्लावित हुई है और बिना यत्न किये जिसका मल दूर हुआ है, ऐसी यह रत्न :भा पृथ्वी सत्य नाम वाली हुई है। हे प्रभु!जो आपकारात-दिन दर्शन करेंगे, उनका जन्म धन्य है! हम तो अवसर आने पर ही आपके दर्शन करने वाले हैं। हे स्वामि ! भरतक्षेत्र के प्राणियों का मोक्षमार्ग ढक गया है। उसे आप नवीन पान्थ या पथिक होकर पुनः प्रकट कीजिये । हे प्रभु! आप की अमृत-तुल्य धर्मदेशना की तो क्या बात है, आपका दर्शनमात्र हो प्राणियों का कल्याण करनेवाला है। हे भवतारक ! आपकी उपमा के पात्र कोई नहीं, जिससे आपकी उपमा दी जाय ऐसा कोई भी नहीं; इसलिये मैं तो आपके तुल्य आप ही हो ऐसा कहता हूँ: तो अब अधिक स्तुति किस तरह की जाय ? हे नाथ ! आपके सत्य अर्थको बतानेवाले गुणों को भी मैं कहने में असमर्थ हूँ, क्योंकि स्वयंभूरमण समुद्र के जल को कौन माप सकता है ?" इन्द्र द्वारा आदिनाथ भगवान्के लालन
पालन और मन बहलावके उपाय । प्रभुका जन्मोत्सव करके उनको उनके स्थान में छोड़ना इस प्रकार जगदीश की स्तुति करके, प्रमोद से सुगन्धित
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
मनवाले इन्द्रने, पहले की तरह ही, अपने पाँच रूप बनाये। उनमें से एक अप्रमादी रूप से, उसने ईशान इन्द्र की गोदी से जगत्पति को, रहस्यकी तरह, अपने हृदयपर ले लिया। खामी की सेवा को जाननेवाले इन्द्र के दूसरे रूप, इसी कामपर मुकर्रर किये गये हों, इस तरह स्वामी-सम्बन्धी अपने-अपने काम पहलेकी तरह ही करने लगे। इसके बाद, अपने देवताओंसे घिरा हुआ सुरपति, आकाश-मार्ग से, मरुदेवा से अलंकृत किये हुए मन्दिर में आया। वहाँपर रखे हुए तीर्थङ्कर के प्रतिबिम्ब का उपसंहार करके उसने उसी जगहपर माता की बग़ल में प्रभु को रख दिया। फिर सूर्य जिस तरह पद्मिनी की नींद को दूर करता है , उसी तरह शक्रने माता मरुदेवाकी अवसर्पिणी निद्रा भंगकी और नदी-कूलपर रहनेवाली सुन्दर हंस-माला के विलासको धारण करनेवाले साफ-सफेद रेशमी वस्त्रप्रभुके सिरहाने रक्खे । बालावस्था में भी पैदा हुए भामण्डल के विकल्प को करनेवाले रत्नमय दो कुण्डल भी प्रभु के सिरहाने रक्खे । इसी तरह सोनेसे बने हुए विचित्र रत्नहार और अर्द्वहारों से व्याप्त एवं सोने के सूर्य के समान प्रकाशमान श्रीदामदण्ड ( गिल्लीदण्डा )खिलौना प्रभुके दृष्टिविनोद के लिये, गगन में दिवाकर अथवा आकाश में सूर्य की तरह, घरके अन्दर की छत की चाँदनी में लटका दिया। दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं—प्रभु का दिल खुश होने के लिए, एक सोने और जवाहिरात से बना हुआ चित्ताकर्षक मनोहर खिलौना, प्रभु की नज़र पड़ती रहे, इस तरह घरके अन्दर की
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१६५
आदिनाथ-चरित्र
छतमें उसी तरह लटका दिया, जिस तरह कि आस्मान में सूय लटका हुआ है। पीछे इन्द्रने अलकापुरी के स्वामी कुबेर को आज्ञा दी कि, तुम बत्तीस कोटि हिरण्य, उतनाही सोना, बत्तीसबत्तीस नन्दासन, भद्रासन एवं दूसरे भी अतीव मनोहर वस्त्र नेपथ्य प्रभृति संसारी सुख देनेवाली चीज़ें, जिस तरह बादल मेह बरसाते हैं; उसी तरह, प्रभुके मन्दिर में बरसाओ । कुवेरने अपने आज्ञापालक ज्रम्भकज्र नामके देवताओं द्वारा, तत्काल, उसी प्रमाण में वर्षा करायी; क्योंकि प्रचण्ड प्रताप पुरुषों की आज्ञा मुँह से निकलते ही पूरी होती है। । फिर ; इन्द्रने अभियोगिक देवताओं को आज्ञा दी कि, तुम चारों निकायों के देवताओं में इस बाकी डोंडी पिटवा दो कि, जो कोई अर्हन्त भगवान् और उनकी मा की अशुभ चिन्तना करेगा – उनका अनभल चीतेगा उसके सिरके, अर्जक मंजरीकी तरह, सात टुकड़े हो जायँगे; यानी अर्जक वृक्ष की मंजरी के पककर फूटनेपर जिस तरह सान भाग हो जाते हैं; उसी तरह जगदीश और उनकी जननी का बुरा चाहनेवाले के मस्तक के सात भाग हो जायँगे । जिस तरह गुरु की वाणी को शिष्य उच्च स्वरसे उद्घोषित करता है, उसी तरह उन्होंने भुवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवताओंमें उसी तरह डोंडी पीट दी- - सुरपति की आज्ञा सबको ज़ोरज़ोर से सुना दी। इसके बाद सूर्य जिस तरह बादल में जलका संक्रम करता है; उसी तरह इन्द्रने भगवान् के अँगूठे में अनेक प्रकार के रसों से भरी हुई नाड़ी संक्रमा दी यानी जिस तरह
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प्रथम पव
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पव सूरज बादलों में जलका सञ्चार करता है; उसी तरह इन्द्रने जगदीश के अंगूठे में अमृत का सञ्चार कर दिया । अर्हन्त माता के स्तनों का दूध नहीं पीते, इसलिये जब उनको भूख लगती है, तब वे अपने सुधारस की वृष्टि करनेवाले अंगूठे को मुंहमें लेकर चूसते हैं। शेषमें प्रभु का सब प्रकारका धातृ कर्म करने के लिए, इन्द्रने पाँच अप्सराओं को धाय होकर वहाँ रहने का हुक्म दिया; अर्थात् उनको धाय की तरह प्रभु के लालन-पालन करनेकी आज्ञा दी। नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर देवताओंका
महोत्सव करना। जिन-मात्र हो जानेपर, इन्द्र जब भगवान् को उनकी माँ के पास छोड़ने आया, तब बहुत से देवता, मेरु-शिखर से, नन्दीश्वर द्वीप को चले गये । सौधर्मेन्द्र भी नाभिपुत्रको उनके घर में रखकर, स्वर्गवासियों के आवास-स्थान- नन्दीश्वर द्वीप-में गया और वहाँ पूर्वदिशास्थित क्षुद्र मेरु जितने ऊँचे-देवरमण नाम के अञ्जनगिरि पर उतरा। वहाँ उसने विचित्र विचित्र प्रकारकी मणियों की पीठिकावाले चैत्यवृक्ष और इन्द्रध्वज से अङ्कित चार दरवाज़ेवाले चैत्य में प्रवेश किया और अष्टान्हिका उत्सव-पूर्वक ऋषभादिक अर्हन्तों की शाश्वती प्रतिमाओं की उसने पूजा की। उस अञ्जनगिरि की चार दिशाओं में चार बड़ी बड़ी वापिकाय हैं और उनमें से प्रत्येक में स्फटिक मणिका एकेक दधिमुख पर्वत है। दधिमुख नाम के उन चारों पहाड़ों के ऊपर के चैत्यों में
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
ऋषभ, चन्द्रानन, वारिषेण और वर्द्धमान इन चारों शाश्वत अर्हन्तों की प्रतिमायें हैं। शक ेन्द्र के चारों दिक्पालोंने, अष्टान्हिका उत्सव पूर्व क. उन प्रतिमाओं की यथाविधि पूजा की । ईशान- इन्द्र उत्तर दिशा के नित्य रमणीक - रमणीय नाम के अञ्जनगिरि पर उतरा और उसने पर्वतपर वने हुए चैत्य में जो पहले की तरह शाश्वती प्रतिमा है, उसकी अष्टान्हिक-उत्सवपूर्वक पूजा की । उसके दिक्पालों ने उस पहाड़ के चारों ओर की चार बावड़ियों के दधिमुख पर्वतों के ऊपर बने चैत्योंकी शाश्वती प्रतिमाओं का उसी तरह अट्ठाई महोत्सव किया । अमरेन्द्र दक्षिण दिशास्थित नित्योध्योत नाम के अञ्जनगिरि पर उतरा और रत्नों से नित्य प्रकाशमान् उस पर्वत के चैत्य की शाश्वती प्रतिमा की बड़ी भक्ति से अष्टान्हिक महोत्सव मूक पूजा की और उसकी चार वापिकाओं के अन्दर के चार दधिमुख पर्वतों के ऊपर के चैत्यों में उसके चार लोकपालों ने, अचल चित्त से महोत्सव पूर्व क वहाँ की प्रतिमाओं की पूजा की। बलिनामक इन्द्र पश्चिम दिशास्थित स्वयंप्रभ नाम के अञ्जन- गिरिपर मेघके से प्रभाव से उतरा । उसने उस पर्वत के चैत्यमें देवताओं की दृष्टिसे पवित्र करनेवाली ऋषभा चन्द्रानन प्रभृति अर्हन्तों की प्रतिमाओं का उत्सव किया। उसके चार लोकपालोंने भी अञ्जनगिरि की चारों दिशाओं की चार वापिकाओं के दधिमुख पर्वतों की शाश्वती प्रतिमाओं का उत्सव किया । इस तरह सारे देवता नन्दीश्वर द्वीपमें खूब उत्सव कर करके, जिस तरह आये थे; उसी तरह अपने-अपने स्थानों को चले गये ।
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
प्रभुका बाल्यकाल।
इधर स्वामिनी मरुदेवा सवेरे के समय ज्योंही उठी; उन्होंने रात के स्वप्न की तरह अपने पति नाभिराज से देवताओं के आने-जाने का सारा हाल कहा। जगदीश के उरु या जाँघ पर ऋषभ का चिह्न था, उसी तरह माता ने भी सारे सुपने में पहले ऋषभ ही देखा था, इससे आनन्दमग्न माता-पिताने शुभ दिवस में, उत्साह-पूर्वक प्रभु का नाम ऋषभ रक्खा। उन्हीं के साथ युग्म-धर्मसे पैदा हुई कन्या का नाम भी सुमंगला ऐसा यथार्थ और पवित्र नाम रक्खा। वृक्ष जिस तरह नीक का जल पीता है ; उसी तरह ऋषभ स्वामी इन्द्र के संक्रमण किये हुए अगूठे का अमृत उचित समयपर पीने लगे। पर्वत की गुफामें बैठा हुआ किशोर सिंह जिस तरह शोभायमान लगता है ; उसी तरह पिता की गोद में बैठे हुए भगवान् शोभायमान थे। जिस तरह पाँच समिति महामुनि को नहीं छोड़ती ; उसी तरह इन्द्र की आज्ञा से रही हुई पाँचों धायें प्रभु को किसी समय भी अकेला नहीं छोड़ती थीं।
इक्ष्वाकु नामक वंशस्थापन प्रभु का जन्म हुए ज्योंही एक वर्ष होने को आया, त्योंही सौधर्मेन्द्र वंश-स्थापन करने के लिये वहाँ आया। सेवक को
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
खाली हाथ स्वामी के दर्शन करने उचित नहीं, इस विचारसे ही मानो इन्द्रने एक बड़ा ईख का साँठा या गन्ना अपने साथ ले लिया। मानो 'शरीरधारी शरद् ऋतु हो, इस तरह शोभता हुआ इन्द्र इक्षु दण्ड या गन्ना हाथ में लिये हुए नाभिराज की गोद में बैठे हुए प्रभु के पास आया। तब प्रभुने अवधि-ज्ञान से इन्द्र का संकल्प समझकर, उस ईख को लेने के लिये, हाथी की तरह, अपना हाथ लम्बा किया। स्वामी के भाव को समझनेवाले इन्द्रने, मस्तक से प्रणाम करके, भेंटकी तरह, वह इक्षु लता प्रभुको अर्पण की। प्रभु ने ईख ले लिया, इसलिये “इक्ष्वाकु” नाम का वश स्थापन करके इन्द्र स्वर्ग को चला गया।
भगवान् के शरीर का वर्णन । युगादिनाथ का शरीर स्वेद-पसीना, रोग-मल से रहित, सुगन्धिपूर्ण, सुन्दर आकारवाला और सोने के कमल-जैसा शोभायमान् था। उनके शरीर में मांस और खून गाय के दूधको धारा जैसी उज्ज्वल और दुर्गन्ध-रहित था। उनके आहारविहार की विधि चर्मचक्षु के अगोचर थी और उनके श्वास की खुशबू खिले हुए कमल के जैसी थी,—ये चारों अतिशय प्रभु क जन्म से प्राप्त हुए थे। वज्रऋषभनाराच संघयण को धारण करनेवाले प्रभु मानो भूमिदंश के भयसे यानी पृथ्वी के टुकड़े टुकड़े होजाने के डरसे धीरे-धीरे चलते थे। यद्यपि उनक अवस्था छोटी थी–वे वालक थे, तोभी वे गंभीर और मधुर
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व ध्वनि से बोलते थे - बाल्यावस्था होने पर भी उनकी वाणी में गाम्भीर्य और माधुर्य्य था। क्योंकि लोकोत्तर पुरुषों के शरीर की अपेक्षा से ही बालपन होता है । समचतुरस्र संस्थानवाले प्रभु का शरीर, मानो क्रीड़ा करने की इच्छावाली लक्ष्मी की काञ्चनमय क्रीड़ावेदिका हो, इस तरह शोभा देता था । समान उम्रवाले होकर आये हुए देवकुमारों के साथ, उनके चित्त की अनुवृत्ति के लिये, प्रभु खेलते थे । खेलते समय, धूलिधूसरित और घू घुरमाल धारण किये हुए प्रभु मतवाले हाथी के बच्चे के जैसे शोभायमान् लगते: यानी मदावस्था को प्राप्त हुआ हाथी का बच्चा जैसा अच्छा लगता है, प्रभु भी वैसे ही अच्छे लगते थे । प्रभु लीला मात्र से जो कुछ ले लेते थे, उसे बड़ी ऋद्धिवाला कोई देव भी न ले सकता था । यदि कोई देव बलपरीक्षा के लिये उनकी अँगुली पकड़ता, तो प्रभु के श्वास की हवा हो धूल की तरह वह दूर जा पड़ता था । कितने ही देवकुमार गेंद को तरह ज़मीन पर लेटकर, प्रभु को अजीब गेंदों से खिलाते थे । कितने ही देवकुमार राजशुक होकर, चाटुकार या खुशामदी की तरह, 'जीओ जीओ, सुखी हो' ऐसे शब्द अनेक तरह से कहते थे। कितने ही देवकुमार स्वामी को खिलाने के लिये, मोर का रूप बनाकर, केकावाणी से षड्ज स्वर में गा गाकर नाचते थे । प्रभु के मनोहर हस्तकमल को पकड़ने और छूने की इच्छा से, कितने ही देवकुमार, हंस का रूप धारण करके, गांधार स्वर में
हुए प्रभु के आस-पास फिरते थे । कितने ही प्रभु के प्रीति
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
पूर्ण दृष्टिपात रूपी अमृत के पीने की इच्छा से, उनके अगल-बग़ल, क्रौंच पक्षी का रूप धरकर, मध्यम स्वर से बोलते थे। कितने ही प्रभु के मन की प्रीति के लिये, कोयलका रूप धरकर, नजदीक के वृक्षपर बैठकर, पञ्चम स्वर से गाते थे। कितने ही प्रभु के वाहन या चढ़ने की सवारी होकर, अपने आत्मा को पवित्र करने की इच्छा से, घोड़े का रूप धरकर, धैवतध्वनि से हिनहिनाते हुए प्रभु के पास आते थे। कितने ही हाथी का रूप धरकर, निषाद स्वर से बोलते और नीचा मुंह करके अपनी सूड़ों से प्रभु के चरण स्पर्श करते यानी पैर छूते थे। कोई बैल का रूप बनाकर, अपने सींगों से तट प्रदेश को ताड़न करते और बैलकी सी आवाज़से बोलते हुए प्रभुकी दृष्टिको विनोद कराते थे। कोई अञ्जनाचल सुरमेके पहाड़-जैसे बड़े-बड़े भैंसे बन कर आपस में लड़ते हुए, प्रभुको लड़ाई का खेल दिखाते थे। कोई प्रभु के दिल. बहलावके लिये, मल्ल-रूप धारण करके, खम्भ ठोक-ठोक कर, अखाड़ेमें एक दूसरे को बुलाते थे। इस प्रकार योगी जिस तरह परमात्माकी उपासना करते हैं,उसी तरह देवकुमार अनेक प्रकार के खेल तमाशोंसे प्रभु की उपासना करते थे । एक ओर ये सब काम होते थे और दूसरी ओर उद्यानपालिकाओं अथवा मालिनों द्वारा वृक्षों का लालन-पालन होने से जिस तरह वृक्ष बढ़ते हैं ; उसी तरह पाँचों धायों के सावधानी से लालन-पालन किये हुए प्रभु क्रम से बढ़ने लगे,
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आदिनाथ चरित्र
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3) प्रभुकी यौवनावस्था
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प्रथम पर्व
अंगुष्ट पान करने या अँगूठा चूसने की अवस्था बीतने पर, दूसरी अवस्था में क़दम रखतेही, घर में रहने वाले अर्हन्त सिद्ध पाक किया हुआ यानी पकाया हुआ अन्न खाते हैं; लेकिन भगवान् नाभिनन्दन तो, उत्तर कुरुक्षेत्र से देवताओं द्वारा लाये हुए, कल्पतरु के फलों को खाते और क्षीर समुद्र का जल पीते थे । बीते हुए कलके दिनकी तरह ; बाल्यावस्था को उलङ्घन करके, सूर्य जिस तरह दिनके मध्य भागमें आता है; उसी तरह प्रभुने उस यौवन का आश्रय लिया, जिसमें अवयव विभक्त होते हैं; अर्थात् बचपन से जवानीमें क़दम रखा । भगवान् बालकसे युवक हो गये । यौवनावस्था आजाने पर भी प्रभुके दोनों चरण-कमलके बीचके भागकी तरह मुलायम, सुर्ख, गरम, कम्प-रहित, स्वेदवर्जित और समतल यानी यकसाँ तलवे वाले थे । मानों नम्र पुरुषकी पीड़ा छेदन करने के लिये ही हो, इस तरह उसके अन्दर चक्रका चिह्न था और लक्ष्मी रूपिणी हथिनीको स्थिर करनेके लिएचंचलाको अचल करनेके लिये, माला, अङ्कुश और ध्वजा के भी चिह्न थे; अर्थात् भगवान् के पैरोंके तलवोंमें चक्र, माला, अङ्कुश और ध्वजा पताकाके चिह्न थे । लक्ष्मीके लीला-भुवन-जंसे प्रभु के चरणों के तलवोंमें शङ्खऔर घड़े की एवं एड़ीमें स्वस्तिक का चिह्न था। प्रभुका पुष्ट, गोलाकार और सर्पके फण जैसा उन्नत अँगूठा
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
वत्स-सदृश श्रीवत्ससे लांछित था। पवनरहित स्थानमें रखी हुई कम्प-रहित दीपशिखाके समान छिद्ररहित और सरल प्रभुके पैरोंकी उङ्गलियाँ चरण रूपी कमलके पत्तों-जैसी जान पड़ती थीं और वे अर्थात् प्रभुके पैरोंकी अँगुलियाँ निर्वास स्थानमें रक्खे हुए दीपककी स्थिर लो के समन बिना छेदों वाली और सीधी थीं और चरण रूपी कमलके पत्तों-जैसी मालूम होती थीं। उन उगलियोंके नीचे नन्दावर्त्तके चिह्न शोभते थे। उनके प्रतिविम्ब ज़मीन पर पड़नेसे धर्म प्रतिष्ठाके हेतु रूप होते थे, अर्थात् चैत्य-प्रतिष्ठामें जिस तरह नन्दावर्त्त का पूजन होता है, उसी तरह प्रभुकी आँगुलियोंके नीचेके नन्दावर्त्तके चिह्नोंके प्रतिविम्ब या निशान ज़मीन पर पड़ नेसे धर्म-प्रतिष्ठाके हेतुरूप होते थे। जगत्पति के हरेक अंगुलीके पोरुवोंमें अधोसाधियों सहित जौके चिह्न थे। ऐसा मालूम होता था, मानो वे प्रभुके साथ जगत्की लक्ष्मीका विवाह करनेको वहाँ आथे हों। पृथु और गोलाकार एड़ी चरण-कमलके कन्द जैसी सुशोभित थी। नाखून मानों अंगूठे और अंगुली रूपी सर्पके फण पर मणि हों इस तरह शोभते थे और चरणोंके दोनों गुल्फ या टखने सोनेके कमल की कली की कणिकाके गोलककी शोभाको विस्तारते थे। प्रभुके दोनों पाँवोंके तलवोंके ऊपरके भाग कछुएकी पीठकी तरह अनुक्रम से ऊँचेथे , जिनमें नसें नहीं दीखती थीं और जो रोमरहित तथा चिकनी कान्ति वाले थे। गोरी-गोरी पिंडलियाँ रुधिरमें अस्थिमान होने से पुष्ट गोल और मृगकी पिंडलियोंकी शोभाका भी
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व तिरष्कार करने वाली थीं। मांस से भरे हुऐ गोल घुटने रूईसे भरे हुए गोल तकियेके भीतर डाले हुए दर्पणके रूपको धारण करते थे। मृदु क्रमसे उत्तरोत्तर स्थूल और चिकनी जांघे केलेके खंभके विलासको धारण करती थीं और मस्त-हाथीकी तरह गूढ़ और सम स्थितिवाली थी। क्योंकि घोड़े की तरह कुलीन पुरुष का शरीर चिह्न अतीव गुप्त होता है। उनकी गुह्य इन्द्रिय पर शिरायें नहीं दीखती थीं ; वह न उँचा न नीचा, न ढीला न छोटा और लम्बाही था। उस पर रोम नहीं थे और आकारमें गोल था। उनके कोप या तेपोके भीतर रहने वाला पंजर शीत प्रदक्षिणावर्त्त शल्क धारण करने वाला, अवीभत्स और आवर्साकार था। प्रमुकी कमर विशाल, पुष्ट, स्थूल और अतीव कठोर थी। उनका मध्य भाग सूक्ष्मतामें वज्रके मध्य भाग-जैसा मालूम होता था। उनकी नाभि नदीके भँवर के विलासको धारण करती थी। उसका मध्य भाग सूक्ष्मतामें वज्रके मध्य भागके जैसा था। उनकी नाभिमें नदीके भंवर-जैसे भंवर पड़ते थे और कोखके दोनों भाग निकने, मांसल, कोमल, सरल और समान थे। उनका वक्षस्थल सोनेकी शिलाके समान विशाल, उन्नत, श्रीवत्सरत्र पीठके चिह्नसे युक्त और लक्ष्मीकी क्रीड़ा करनेकी वेदिकाकी शोभाको धारण करता था; अर्थात् उनकी छाती लम्बी-चौड़ी और ऊँची थी । उस पर श्रीवत्सपीठका निशान था और वह लक्ष्मीकी क्रीड़ा करनेकी वेदिका जैसी सुन्दर और रमणीय थी। उनके दोनों कन्धे बैलके कन्धोंकी तरह मजबूत
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र पुष्ट और ऊँचे थे। उनकी दोनों बग़लोंमें रोएँ अत्यन्त न थे और उनमें बदबू, पसीना और मैल नहीं था। उनकी दोनों भुजाएं पुष्ट, कर रूपी फणके छत्र वाली और घुटनों तक लम्बी थीं और चञ्चल लक्ष्मीको नियममें रखनेके लिये नाग-पाश-जैसी जान पड़ती थीं। उनके दोनों हाथोंके तलवे नवीन आमके पत्तों-जैसे लाल, निष्कर्म होने पर भी कठोर, पसीना रहित, बिना छेदवाले और ज़रा-ज़रा गर्म थे। पाँवोंकी तरह उनके हाथों में भी दण्ड, चक, धनुष-कमान, मछली, श्रीवत्स, वज्र, अङ्कश, ध्वजा-पताका, कमल, चैवर, छाता, शंख, घड़ा, समुद्र, मन्दिर, मगर, बैल सिंह, घोड़ा, रथ,स्वस्तिक, दिग्गज-दिशाओंके हाथी, महल,तोरण,और द्वीप या टापू प्रभृतिके चिह्न थे। उनके अंगूठे और उँगलियाँ लाल हाथोमें से पैदा होनेके कारण लाल और सरल थे तथा प्रान्त भागमें, माणिकके फूल वाले कल्पवृक्षके अंकुर-जैसे मालूम होते थे । अंगूठेके पोरवोंमें, यश रूपी उत्तम घोड़ेको पुष्ट करने वाले,जौ के चिह्न स्पष्टरूपसे शोभा दे रहे थे। उँगलियोंके ऊपरके भागमें दक्षिणावर्त्तके चिह्न थे। वे सब सम्पत्ति के कहने वाले दक्षिणावत्ते शंखपने करकी धारण करते थे। उनके करकमल के मूल भागमें तीन रेखायें सुशोभिती थीं। वे मानो कष्टसे तीनों लोकोंका उद्धार करनेके लिये ही बनी है, ऐसी मालूम होती थीं। उनका कंठ गोल किसी कदर लम्बा, तीन रेखाओं से पवित्र गम्भीर ध्वनिवाला और शंखकी बराबरी करने वाला था; यानी उनकी गर्दन गोल और कुछ लम्बी थी। उसपर तीन रेखाओंके निशान
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
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थे । उससे मेघ जैसी गम्भीर आवाज़ निकलती थी और वह शंख के जैसी थी । निर्मल, वर्त्तुलाकार कान्तियोंकी तरङ्ग वाला उनका चेहरा कलङ्क-रहित दूसरे चन्द्रमा-जैसा सुन्दर मालूम होना था; अर्थात् चन्द्रमा में कलङ्क-कालिमा है, पर उनका निर्मल और सुगोल चन्द्रमुख निष्कलङ्क था उसमें कलङ्क - :- कालिमाका लेशभी न था; अतएव वह चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर था । उनके दोनों गाल नरम चिकने और मांस से भरे हुए थे । वे साथ निवास करने वाली वाणी और लक्ष्मी के सुवर्णके दो आईनोंकी तरह दिखाई देते थे - सोनेके दो दर्पणोंकी तरह शोभा देते थे । उनके दोनों कान कन्धों तक लम्बे और अन्दर से सुन्दर आवर्त्तया आँटेवाले थे और उनके मुखकी कान्ति रूपी सिन्धुके तीर पर रहने वाली, दो सीपों की तरह मालूम होते थे । बिम्बाफलके समान लाल उनके होठ थे । कुन्द-कली जैसे बत्तीस दाँत थे और अनुक्रमसे विस्तार वाली और उन्नत बाँस जैसी उनकी नाक थी । उनकी दाढ़ी पुष्ट, गोल, नरम और सत्मश्रु तथा उसमें स्मश्रुका भाग श्यामवर्ण, चिकना और मुलायम था । प्रभुकी जीभ नवीन कल्पवृक्षके मूंगे जैसी लाल, कोमल, नाति स्थूल, और द्वादशाङ्ग आगम - शास्त्र के अर्थ को प्रसव करने वाली थीं : उनकी आँखें भीतरसे काली और धौली तथा प्रान्तभागमें लाल थीं इससे ऐसा जान पड़ता था, मानों वे नीलम, स्फटिक और माणिक से बनायी गयी हों। वे कानों तक पहुँची हुई थीं और उनमें श्याम बरौनियां या बॉफनिया थीं; इस लिये, लीन हुए भौरेबाले खिले हुए
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प्रथम पर्व
२०७ आदिनाथ-चरित्र कमलों-जैसी जान पड़ती थीं। उनकी काली और बाँकी भौहें दृष्टि रूपी पुष्करणी कतीर पर पैदा हुई लतासी सुन्दर मालूम होती थीं विशाल, मांसल, गोल, कठोर, कोमल और एक समान ललाट अष्टमीके चन्द्रमा जैसा सुन्दर और मनोहर मालूम होता था और मौलिमाग अनुकमसे ऊँचा था, इसलिये नीचे मुख किये हुए छाताकी समता करता था। जगदीश्वरता की सूचना देनेवाला प्रभुके मौलि छत्रपर धारण किया हुआ गोल और उन्नत मुकुट कलशकी शोभाका आश्रय था और घुघरवाले, कोमल, चिकने
और भौंरे जैसे काले मस्तकके ऊपरके बाल यमुना नदीकी तरङ्ग के जैसे सुन्दर मालूम होते थे। प्रभुके शरीर का चमड़ा देखनेसे ऐसा जान पड़ता था, मानो उसपर सुवर्णके रसका लेप किया गया हो । वह गोचन्दन-जैसा गोरा, चिकना और साफ था। कोमल, भौंरे जैसी श्याम, अपूर्व उद्गमवाली और कमलके तन्तु. ओंके जैसी पतली या सूक्ष्म रोमावलि शोभायमान थी। इस तरह रत्नोंसे रत्नाकर-सागर जैसे नाना प्रकारके असाधारण-गैर मामूली लक्षणोंसे युक्त प्रभु किसके सेवा करने योग्य नहीं थे ? अर्थात् सुर, असुर और मनुष्य सबके सेवा करने योग्य थे। इन्द्र उनको हाथका सहारा देता था, यक्ष चँवर ढोरता था, धरणेन्द्र उनके द्वारपालका काम करता था, वरुण छत्र रखता था, 'आयुष्मन भव, चिरजीवो हो' ऐसा कहनेवाले असंख्य देवता उनको चारों तरफसे घेरे रहते थे; तोभी उन्हें ज़रा भी घमण्ड या गर्व न होता था। जगत्पति निरभिमान होकर अपनी मौजमें
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व विहार करते थे। बलि इन्द्रकी गोदमें पांव रखकर और अमरेन्द्रके गोद रूपी पलंगपर अपने शरीरका उत्तर भाग रख, देवताओं द्वारा लाये गये आसनपर बैठ, दोनों हाथोंमें रूमाल रखनेवाली अप्सराओंसे घिरे हुए प्रभु, अनासक्तता-पूर्वक, कितनीही दफा दिव्य संगीतको देखते थे।
___ एक युगलिये की अकाल मृत्यु । एकदिन बालकों की तरह, साथ खेलता हुआ युगलिये का एक जोड़ा,एक ताड़के वृक्षके नीचे चला गया। उस समय दैवदुर्विपाकसे ताड़का एक बड़ा फल उनमेंसे एक लड़केके सिरपर गिर पड़ा। काकतालीय-न्यायसे सिरपर चोट लगते ही वह बालक अकाल मौतसे मर गया। ऐसी घटना पहलेही घटी। अल्प कषाय की वजहसे वह बालक स्वर्गमें गया ; क्योंकि थोड़े बोझके कारण रूई भी आकाशमें चढ़ जाती है। पहले बड़े-बड़े पक्षी, अपने घोंसलेकी लकड़ी की तरह, युगलियों की लाशों को उठाकर समुद्रमें फेंक देते थे ; परन्तु इस समय उस अनुभवका नाश होगया था, इसलिये वह लाश वहीं पड़ी रही ; क्योंकि अवसर्पिणी काल का प्रभाव आगे बढ़ता जाता था। उस जोड़े में जो बालिका थी. वह स्वभावसे ही मुग्धापन से सुशोभित थी। अपने साथी बालकका नाश हो जानेसे बिकते-बिकते बची हुई चीज़की तरह होकर वह चञ्चल-लोचनी वहीं बैठी रही। इसके बाद, उसके माँ-बाप उसे वहाँसे उठा ले गये और उसका लालनप्रालन करने लगे एवं उसका नाम सुनन्दा रख दिया।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
सुनन्दा के शरीर की शोभा। नाभिराज का सुनन्दा को पुत्रवधूरूप में स्वीकार करना ।
कुछ समय बाद उसके माता-पिता भी परलोकगामी हुए, क्योंकि सन्तान होनेके बाद युगलिये कुछ दिन ही जीते हैं। माँबापकी मृत्यु होनेके बाद, वह चपलनयनी बालिका– “अब क्या करना चाहिये" इस विचारमें जड़ीभूत होगई और अपने झुण्डसे बिछुड़ी हुई हिरनी की तरह जंगलमें अकेली घूमने लगी। सरल अंगुली रूपी पत्तोंवाले चरणोंसे पृथ्वी पर कदम रखती हुई वह ऐसी मालूम होती थी, गोया खिले हुए कमलों को जमीन पर आरोपण करती हो। उसकी दोनों पिंडलियाँ सुवर्ण-रचित तरकस-जैसी शोभा देती थीं। अनुक्रमसे विशाल और गोलाकार उसकी जाँघे हाथी की सूड जैसी दीखती थीं। चलते समय उसके पुष्ट नितम्ब-चूतड़ कामदेवरूपी जुआरी द्वारा बिछाई हुई सोनेकी चौपड़के विलास कोधारण करते थे। मुट्ठीमें आनेवाले और कामके खींचने के आँकड़े जैसे मध्यभागसे एवं कुसुमायुधके खेलनेकी वापिका जैसी सुन्दर नाभिसे वह बहुत अच्छी लगती थी। उसके पेटपर त्रिवली रूपी तरंगें लहर मारतीथीं। उसकी त्रिवली को देखने से ऐसा जान पड़ता था, मानो उसने अपने सौन्दर्य से त्रिलोकी को जीतकर तीन रेखाएँ धारण की हैं। उसके स्तनद्वय रतिपीतिके दो क्रीड़ा-पर्वतसे जान पड़ते थे और रतिपीतिके हि'डोले की दो सुवर्ण की डंडियोंके जैसी उसकी भुजल
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
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तायें शोभती थीं । उसका तीन रेखाओंवाला कंठ शंखके विलासको हरण करता था। वह अपने ओठोंसे पके हुए बिम्बाफलकी कान्ति का पराभव करती थी। वह अधर रूपी सीपीके अन्दर रहनेवाले दाँत रूपी मोतियों तथा नेत्ररूपी कमल की नाल जैसी नाकसे अतीव मनोहर लगती थी। उसके दोनों गाल ललाटकी स्पर्धा करनेवाले, अर्द्धचन्द्र की शोभा कोचुरानेवाले थे और मुखकमलमें लीन हुए भौंरोंके जैसे उसके सुन्दर बाल थे। सर्वाङ्गसुन्दरी और पुण्य-लावण्य रूपी अमृतकी नदी सी वह बाला वनदेवी की तरह जंगल में घूमती हुई वनको जगमगा रही थी। उस अकेली मुग्धाको देख, कितनेही युगलिये किंकर्त्तव्य विमूढ़, हो नाभिराजाके पास ले आथे। श्री नाभिराजाने " यह ऋषभ की धर्मपत्नी हो,” ऐसा कहकर,नेत्ररूपी कुमुद को चाँदनीके समान उस बाला को स्वीकार किया।
सौधर्मेन्द्रका पुनरागमन ।
भगवान् से विवाह की प्रार्थना करना । इसके बाद, एकदिन सौधर्मेन्द्र प्रभुके विवाह समय को अवधिज्ञानसे जानकर वहाँ आया और जगत्पतिके चरणोंमें प्रणाम कर, प्यादे की तरह सामने खड़ा हो, हाथ जोड़ कहने लगा-“हे नाथ ! जो अज्ञानी आदमी ज्ञानके ख़ज़ाने-स्वरूप प्रभुको अपने विचार या बुद्धिसे किसी काम में लगाता है, वह उपहास का पात्र होता है। लेकिन स्वामी जिनको सदा मिहरबानी की
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र नज़रसे देखते हैं, वे किसी-किसी समय दिल खोलकर बात कह बैठते हैं। उनमें भी जो स्वामीके अभिप्राय-मालिक की मन्शा--को जानकर बात कहते हैं, वे सच्चे सेवक कहलाते हैं। हे नाथ ! मैं आपका अभिप्राय जाने बाद कहता हूँ, इसलिये आप मुझसे नाराज़ न हूजियेगा। मैं जानता हूँ, कि आप गर्भवाससे ही वीतराग हैं-आप को किसी भी सांसारिक पदार्थ से मोह नहीं है—किसी भी वस्तुमें आसक्ति नहीं है। दूसरे पुरुषार्थों की अपेक्षा न होनेसे चौथे पुरुषार्थ-मोक्ष के लियेही आप सज हुए हैं ; तथापि हे भगवन् ! मोक्ष-मार्ग भी आपही से प्रकट होगा-- लोक-व्यवहार की मर्यादा भी आपही बाँधेगे। अतः उस लोकव्यवहार के लिये, मैं आपका पाणिग्रहण-महोत्सव करना चाहता है। आप प्रसन्न हों ! हे स्वामिन् ! त्रैलोक्य-सुन्दरी, परम रूपवती और आपके योग्य सुनन्दा और सुमङ्गलाके साथ विवाह करने योग्य आप हैं।
भगवान् कर्मभोग को अटल समझ कर विवाह
करने की स्वीकृति देते हैं।
विवाह की तैयारियाँ ।
विवाह-मण्डप की अपूर्व शोभा। उस समय स्वामीने अवधिज्ञान से यह जानकर कि, ८३ लाख पूर्वतक भोगने को दृढ़ भोग-कर्म हैं और वे अवश्यही भोगने पड़ेंगे,
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आदिनाथ-चरित्र २१२
प्रथम पर उनके भोगे बिना पीछा नहीं छूटेमा-सिर हिलाकर अपनीसम्मति प्रकट की और सन्ध्याकालके कमलकी तरह नीचा मुंह करके रह गये। इन्द्रने प्रभुका आन्तरिक अभिप्राय समझकर, विवाह के लिये उन्हें प्रस्तुत समझकर, विवाह-कर्म आरम्भ करनेके लिए तत्काल वहाँ देवताओं को बुलाया। इन्द्रकी आज्ञासे, उसके अभियोगिक देवताओंने सुधर्मा सभाके छोटे भाईके जैसा एक सुन्दर मण्डप तैयार किया। उसमें लगाये हुए सोने, चाँदी और पद्मरागमणिके खम्भे-मेरु, रोहणाचल और वैताढ्य पर्वत की चूलिका की तरह शोभा देते थे। उस मण्डपके अन्दर रखे हुए सोनेके प्रकाशमान् कलश चक्रवत्तींके कांकणी रत्नके मण्डल की तरह शोभा देते थे और वहाँ सोने की वेदियाँ अपनी फैलती हुई किरणोंसे, मानो दूसरे तेजको सहन न करनेसे, सूर्यके तेजका आक्षेप करती सी जान पड़ती थीं। उस मण्डपमें घुसनेवालों का जो प्रतिबिम्ब या अक्स मणिमय दीवारोंपर पड़ता था, उससे वे बहुपरिवारवाले मालूम होते थे। रत्नोंके बने हुए खम्भोंपर बनी हुई पुतलियाँ नाचनेसे थकी हुई नाचनेवालियोंकी तरह मनोहर जान पडती थीं। उस मण्डप की प्रत्येक दिशामें जो कल्पवृक्षके तोरण बनाये थे, वे कामदेवके बनाये हुए धनुषों की तरह शोभा देते थे और स्फटिक के द्वार की शाखाओं पर जो नीलम के तोरण बनाये थे, वे शरद् ऋतुकी मेघमालामें रहनेवाली सूओं की पंक्तिके समान सुन्दर और मनोमोहक लगते थे। किसी किसी जगह स्फटिक या बिल्लौरी शीशे से बने हुए फर्शपर निरन्तर
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प्रथम पवे
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आदिनाथ-चरित्र किरणें पड़नेसे वह मण्डप अमृत-सरके विलास का विस्तार करता था। कहीं-कहीं पद्मराग मणि की शिलाओं की किरणे फैलती थीं ; इस कारण वह मण्डप कसूमी और बड़े बड़े दिव्य वस्त्रोंका सञ्चय करनेवाला जैसा मालूम होता था। कहीं-कहीं नीलम की पट्टियों की बहुत सी सुन्दर सुन्दर किरणे पड़नेसे वह मानो फिरसे बोये हुए मांगलिक यवांकुर या जवारों-जैसा मनोहर मालूम होता था। किसी-किसी स्थानमें मरकतमणि से बने हुए फर्शसे अखण्डित किरणें निकलती थीं, उनसे वह वहाँ लाये हुए हरे और मङ्गलमय बाँसों का भ्रम उत्पन्न करता था; अर्थात् हरे हरे बाँसोंका धोखा होता था। उस मण्डप में ऊपर की
ओर सफेद दिव्य वस्त्रका चंदोवा था। उसके देखनेसे ऐसा मालूम होता था, गोया उसके मिषसे आकाश-गङ्गा तमाशा देखनेको आई हो और छतके चारों ओर खम्भोंपर जो मोतियों की मालायें लटकाई गई थी, वे आठों दिशाओंके हर्षके शस्य जैसी मालूम होती थीं। मण्डपके बीच में देवियोंने रतिके निधान रूप रत्न-कलश की आकाशतक ऊँची चार श्रेणियाँ स्थापन की थीं। उन चार श्रेणियोंके कलशोंको सहारा देनेवाले हरे बाँस जगत्को सहारा देनेवाले स्वामी के वंश की वृद्धि की सूचना देते हुए शोभायमान थे।
अप्सराओं की विवाह सम्बन्धी बात चीत । उस समय—“हे रम्भा ! तू माला गूंथना आरम्भ कर। हे उशी! तू दूब तैयार कर । हे धृत्मनि ! वरको अर्घ्य देनेके लिए
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आदिनाथ-चरित्र २१४
प्रथम पर्व घी और दही ला। हे मंजुघोषा ! सखियोंसे धवल अच्छी तरह गवा। हे सुगन्धे! सुगन्धित चीजें तैयार कर। हे तिलोत्तमा दरवाजेपर उत्तमोत्तम साथिये बना। हे मैना! तू आये हुए लोगोंका उचित बातचीतसे सम्मान कर। हे सुकेशि! तू बधू और वरके लिये केशाभरण तैयार कर । हे सहजत्या ! तू बरात में आये हुए लोगोंको ठहरने को जगह बता। हे चित्रलेखा ! तू मातृभवन में विचित्र चित्र बना। हे पूर्णिमे ! तू पूर्णपात्रों को शीघ्र तैयार कर। हे पुण्डरीके ! तू पुण्डरीकों से पूर्ण कलशों को सजा । हे अम्लोचा! तू वरमांची को उचित स्थानपर स्थापित कर। हे हंसपादि ! तू वधूवर की पादुका स्थापन कर। हे पुंजिकास्थला! तू जल्दी-जल्दी गोबर से वेदी को लीप। हे रामा ! तू इधर-उधर क्यों फिरती है ? है हेमा ! तू सुवर्ण को क्यों देखती है ? ये द्रुतस्थला! तू ढीली सी क्यों होगई है ? हे मारिचि ! तू क्या सोच रही है ? हे सुमुखि ! तू उन्मुखी सी क्यों होरही है ? हे गान्धर्वि! तू आगे क्यों नहीं रहती ? हे दिव्या ! तू व्यर्थ क्यों खेल रही है ? अब लग्न-समय पास आगया है, इसलिये अपने अपने विवाहोचित कामों में सब को हर तरहसे जल्दी करनी चाहिये।” इस तरह अप्सराओं का परस्पर एक दूसरीका नाम ले लेकर सरस कोलाहल होने लगा।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र अप्सराओं द्वारा दोनों कन्याओं का
शृङ्गार किया जाना। इसके बाद कितनी ही अप्सराओं ने, मङ्गल-स्नान कराने के लिये, सुनन्दा और सुमङ्गला को आसन पर बिठाई । मधुर-धबलमङ्गल गीत गाते हुए उनके सारे शरीर में तेल की मालिश की गई । इसके बाद, जिनके रत्नपुञ्ज से पृथ्वी पवित्र हुई है, ऐसी उन दोनों कन्याओं के सूक्ष्म पीठी से उबटन किया गया। उनके दोनों चरणों, दोनों, घुटनों, दोनों हाथों, दोनों कन्धों पर दो दो और सिर पर एक-इस तरह उनके अङ्गमें लीन हुए अमृत-कुण्ड. सदृश नौ श्याम तिलक किये गये और तकुए में रहने वाले कसूमी सूतोंसे बायें और दाहिने अङ्गों में मानो सम चतुरस्त्र संस्थान को जाँचती हो , इस तरह उन्होंने स्पर्श किया। इस प्रकार अप्सराओंने सुन्दर वर्णवाली उन बालाओंके, धायोंकी तरह उनकी चपलताको निवारण करते हुए पीठी लगाई; अर्थात् धाय जिस तरह अपने बालकको दौड़ने-भागनेसे रोकती है, उसी तरह उन्होंने उन बालाओंको पीठी लगा कर बाहर भागनेसे रोकते हुए पीठी लगाई। हर्षोन्मादसे मतवाली अप्सराओंने वर्णक का सहोदर भाई हो, इस तरह उद्वर्णक भी उसी तरह किया। इसके बाद मानो अपनी कुल-देवियाँ हों, इस तरह उनको दूसरे आसनपर बिठाकर सोनेके घड़ेके जलसे स्नान कराया। गन्धकषायी कपड़ेसे उनका शरीर पोंछा और नर्म वस्त्र उनके बालोंपर लपेटे
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आदिनाथ-चरित्र २१६
प्रथम पर्व रेशमी कपड़े पहनाकर, और उन्हें बिठा कर उनके बालोंसे मोतियों की वर्षाका भ्रम करने वाला जल नीचे टपकाया । धूप रूपीलतासे सुशोभित उनके ज़रा-ज़रा गीले बाल दिव्य धूपसे धूपित किये। सोने पर जिस तरह गेरूका लेप करते हैं; उसी तरह उन स्त्रीरत्नोंके अङ्गोंको सुन्दर अङ्गरागसे रञ्जित किया। उनकी गर्दनों, भुजाओंके अगले भागों, स्तनों और गालों पर मानों कामदेवकी प्रशस्ति हो, इस तरह पत्र-वल्लरी की रचना की। मानो रतिदेवके उतरनेका नवीन मंडल हो ऐसा चन्दनका सुन्दर तिलक उनके ललाटों पर किया। उनकी आँखोंमें नील कमलके बनमें आने वाले भौंरेके जैसा काजल आँजा। मानो कामदेवने अपने शस्त्र रखनेके लिये शस्त्रागार बनाया हो, इस तरह खिले हुए फूलों की मालाओं से उन्होंने उनके सिर किये। माथा-चोटी और माँग पट्टी करनेके बाद, चन्द्रमाकी किरणोंका तिरस्कार करने वाले लम्बे-लम्बे पल्लेवाले कपड़े उन्हें पहनाये । पूरब और पश्चिम दिशाओंके मस्तकों पर जिस तरह सूरज और चाँद रहते हैं, उसी तरह उनके मस्तकों पर विचित्र रत्नोंसे देदीप्यमान दो मुकुट धारण कराये । उनके दोनों कानोंमें, अपनी शोभा से रत्नोंसे अङ्करित हुई पृथ्वीके सारे गर्वको खर्च करने वाले, मणिमय कर्णफूल और झूमके पहनाये। कर्णलताके ऊपर, नवीन फूलोंकी शोभाकी विडम्बना करने वाले मोतियोंके दिव्य कुण्डल पहनाये। कर्णमें विचित्र माणिककी कान्तिसे आकाशको प्रकाशमान करने वाले और संक्षेप किये हुए इन्द्र धनुषकी शोभाका निरादर
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र करने वाले पदक पहनाये । भुजाओंके ऊपर, कामदेवके धनुषमें बँधे हुए वीरपट के जैसे शोभायमान, रत्नजडित बाजबन्द बाँधे और उनके स्तन रुपी किनारों पर, उस जगह चढ़ती-उतरती नदीका भ्रम करने वाले हार पहनाये। उनके हाथों में मोतियोंके कङ्गन पहनाये, जो जल.लताके नीचे जलसे शोभित क्यारियोंकी तरह सुन्दर मालूम देते थे। उनकी कमरोंमें मणिमय कर्धनियाँ पहनाई', जिनमें लगी हुई चूंघरोंकी पंक्तियाँ झंकार करती थीं और वह कटि-मेखला या कर्धनी रतिपतिकी मङ्गल-पाठिका की तरह शोभा देती थीं। उनके पाँवोंमें जो पायजेबें पहनाई गई थीं; उनके धैं घरू छमाछम करते हुए ऐसे जान पड़ते थे, मानो उनके गुण कीर्तन कर रहे हों।
पाणिग्रहण उत्सव । इस तरह सजाई हुई दोनों बालिकायें देवियोंने बुलाकर मातृभुवनमें सोनेके आसन पर बैठाई । उस समय इन्द्रने आकर वृषभ लाञ्छन वाले प्रभुको विवाहकेलिये तैयार होनेकी प्रार्थनाकी । “ लोगों को ब्यवहार-स्थिति बतानी उचित है और मुझे योग्य कर्म भोगने ही पडेंगे,” ऐसा विचार करके उन्होंने इन्द्रकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । तब विधिको जानने वाले इन्द्रने प्रभुको स्नान कराया और चन्दन, केशर, कस्तूरी प्रभृति सुगन्धित पदार्थोंको लगाकर यथोचित आभूषण पहनाये । इसके बाद प्रभु दिव्य वाहन पर बैठकर, विवाह-मण्डपकी ओर चले। इन्द्र छड़ीबर्दारकी
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आदिनाथ चरित्र
२१८
प्रथम पर्व
तरह उनके आगे-आगे चलने लगा । अप्सरायें दोनों ओर लवण उतारने लगीं । इन्द्राणियाँ मंगल गान करने लगीं । सामानिक देवियाँ बलैयाँ लेने लगीं । गन्धर्व खुशीके मारे बाजे बजाने लगे । इस तरह दिव्य वाहन पर बैठकर प्रभु मण्डप द्वाराके पास आये, तो आपही विधिको जानने वाले प्रभु वाहनसे उतरकर मण्डप द्वारके पास उसी तरह खड़े होगये, जिस तरह समुद्रकी वेला अपना मर्यादा भूमिके पास आकर रुक जाती है । इन्द्रने प्रभुको हाथका सहारा दिया, इस कारण वे उस तरह शोभा पाने लगे जिस तरह वृक्षके सहारेसे खड़ा हाथी शोभा पाता है । उसी समय मंडप की स्त्रियोंमें से एक ने अन्दर नमक और आग होने के कारण तड़तड़ आवाज़ करनेवाला एक शराव- सम्पुट दरवाज़ेके बिच में रक्खा । किसी स्त्रीने, पूर्णिमा जिस तरह चन्द्रमा को धारण करती है; उसी तरह दूब प्रभृति मंगल पदार्थों से लांछित चाँदी का एक थाल प्रभुके सामने रक्खा । एक स्त्री कसूमी रंग के वस्त्र पहने हुए मानो प्रत्यक्ष मंगल हो इस तरह पञ्च शाखावाले मथन दंड को ऊँचा करके अर्घ्य देने के लिये खड़ी हुई । उस समय देवांगनायें इस तरह धवल मंगल गा रही थीं:― हे अर्घ्य देनेवाली ! इस अर्घ्य देने योग्य वरको अर्घ्य दे क्षण-भर, मांखण डण्डा जिस तरह समुद्र में से अमृत फैंकता है; उसी तरह थाल में से दही फैंक; हे सुन्दरी ! नन्दन वनसे लाये हुए चन्दन रस को तैयार कर, भद्रशाल वन से लाई हुई दूब को खुशी से लाकर दे, क्योंकि इकट्ठे हुए लोगों की नेत्रपंक्तिसे
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
जंगम तोरण बना है और त्रिलोकी में उत्तम ऐसे वर रोज तोरण-द्वार में खड़े हुए हैं। उनका शरीर उत्तरीय वस्त्रके अन्तर पटसे ढका हुआ है, इसलिये गड़गा नदीकी तरंग में अन्तरीत युव राज हंसके समान शोभ रहे हैं। हे सुन्दरि ! हवासे फूल झड़े पड़ते हैं और चन्दन सूखा जाता है, अतः इन वरराज को अब द्वार पर बहुत देर तक न रोक। देवांगनायें इस तरह मंगल-गीत गारही थीं; ऐसे समय में उस कसूमी रङ्ग के कपड़े पहने हुए और मथन-दण्ड लिये हुए खड़ी स्त्रीने त्रिजगत् को अघ्य देने योग्य वर राज को अर्घ्य दिया और सुन्दर लाल लाल होठों वाली उस देवीने धवल मङ्गल के जैसा शब्द करते हुए अपने कंगन पड़े हुए हाथ से त्रिजगत्पति के भाल का तीन वार मथन दण्डसे चुम्बन किया। इसके बाद प्रभुने अपनी वाम पादुका से, हीम कर्पर की लीला से, आग समेत शराव सम्पुट का चूर्ण कर डाला और वहाँ से अर्घ्य देनेवाली ललना द्वारा गले में कसूमी कपड़ा डाल कर खींचे हुए प्रभु मातृभवन में गये। वहाँ कामदेवका कन्द हो ऐसे मिंढोल से शोभायमान हस्त-सूत्र वधू और वर के हाथों में बाँधे गये। जिस तरह केसरी सिंह मेरु पर्वत की शिला पर बैठता है, उसी तरह वरराज 'मातृ-देवियोंके आगे, ऊँचे सोने के सिंहासन पर बिठाये गये। सुन्दरियोंने शमी वृक्ष
और पीपल वृक्षकी छालों के चूर्ण का लेप दोनों कन्याओंके हाथों में किया। वह कामदेव रूपी वृक्षका दोहद पूरा हो ऐसा मालूम होता था।
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
जब शुभ लग्नका उदय हुआ; यानी ठीक लग्नकाल आया, तब सावधान हुए प्रभुने दोनों बालाओंके लेपपूर्ण हाथ अपने हाथ से पकड़ लिये 1 उस समय इन्द्रने जिस तरह जलके क्यारे में साल का बीज बोते हैं, उसी तरह लेपवाले दोनों बालाओंके हस्त सम्पुट मैं एक मुद्रिका डालदी। प्रभुके दोनों हाथ उन दोनोंके हाथोंके साथ मिलते ही दो शाखाओंमें इलझी हुई लताओंसे वृक्ष जिस तरह शोभता है; उस तरह शोभने लगे । जिस तरह नदियों का जल समुद्र में मिलता है; उसी तरह उस समय तारामेलक पर्व में वधू और वरकी दृष्टि परस्पर मिलने लगी । विना हवा के जलकी तरह निश्चल दृष्टि दृष्टिसे और मन मनके साथ आपस में मिल गये और एक दूसरेकी पुतलियों में उनका अक्स पड़ने यानी एक दूसरे की कीकियों में वे परस्पर प्रतिबिम्बित हुए । उस समय ऐसा मालूम होने लगा, मानो वे एक दूसरे के हृदय में प्रवेश कर गये हों। जिस तरह विद्यूत प्रभादक मेरु के पास रहते हैं, उसी तरह उस समय सामानिक देव भगवान् के निकट अनुवरों की तरह खड़े हुए थे । कन्यापक्षकी स्त्रियाँ, जो हसी दिल्लगी में निपुण थीं। अनुवरोंको इस भाँति कौतुक धवल गीत गाली गाने लगीं: - ज्वर वाला मनुष्य जिस तरह समुद्र सोखने की इच्छा रखता है: उसी तरह यह अनुवर लड्ड ू खानेको कैसा मन चला रहा है ! कुत्ता जिस तरह मिठाई पर मन चलाता है, उसी तरह माँडा पर अखण्ड दृष्टि रखने वाला अनुबर कंसे दिलसे उसे चाह रहा है ! मानो जन्मसे कभी देखेही न हों इस
लगा ;
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आदिनाथ-चरित्र
तरह दीनके वालक की भाँति यह अनुवर बड़ों पर कैसा मन चला रहा है ! जिस तरह मेघ का चातक और पैसेको याचक चाहता है, उसी तरह यह अनुवर सुपारी पर कैसा मन चला रहा है ! जिस तरह गाय का बच्चा घास खानेको मन चलाता है; उसी तरह यह अनुवर पान खानेको कैसा नादीदा सा हो रहा है ! जिस तरह मक्खन की गोली खानेको बिल्ली जीभ लपलपाती है; उसी तरह यह अनुवर चूर्ण पर कैसी जीभ लपलपा रहा है ? पोखरी की कीचड़ को भैंसा जिस तरह चाहता है, उसी तरह इत्र प्रभृति सुगन्धित पदार्थों पर इस अनुवर का मन चल रहा है । जिस तरह पागल आदमी निर्माल्यको चाहता है, उसी तरह यह अनुवर फूलमाला को कैसे चंचल नेत्रोंसे देख रहा है ? इस तरह के कौतुक - धवल - गीत - गालियों को ऊँचे कान और मुँह करके सुनने वाले देवता चित्र-लिखे से हो गये 1 'लोक में यह व्यवहार बतलाना उचित है, ऐसा निश्चय करके, विवाह में नियत किये हुए मध्यस्थ मनुष्य की तरह, प्रभु उन की उपेक्षा करते थे जिस तरह बड़ी नावके पोछे दो छोटी नावें बाँध देते हैं, उसी तरह जगत्पति के पल्ले के साथ दोनों बधुओं के पल्ले इन्द्रने बाँध दिये । आभियोगिक देवता की तरह इन्द्र स्वयं भक्ति से प्रभुको अपनी कमर पर रख कर वेदी - गृहमें ले जाने लगा । तब उसी समय दोनों इन्द्राणियाँ आकर, तत्काल, दोनों कन्याओं को हथलेवा न छूटे इस तरह कमर पर रख कर ले चलीं । तीन लोक के शिरोरत्न रुप उन वधू वरने पूरब के द्वार से वेदी वाले स्थान में
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प्रथम पच
(
२२१
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आदिनाथ- चरित्र
प्रथम पर्व
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स्त्रियों के कानों
छा गई। इस
और
प्रवेश किया किसी त्रयस्त्रिंश देवाताने, मानों तत्काल ज़मीन से निकला हो इस तरह, वेदी में अग्नि प्रकट की । उसमें समिध डालने से, आकाशचारी मनुष्यों - विद्याधरों की के अवतंस रूप होने वाली धूंएँ की रेखा आकाश में के वाद स्त्रियाँ मंगल गीत गाने लगीं और प्रभुने सुनन्दा सुमंगला के साथ, अष्ट मंगल पूर्ण होने तक, अग्नि की प्रदक्षिणा की । इसके बाद ज्योंही आशीर्वादात्मक गीत गाये जाने लगे, त्योंही इन्द्रने उनके हथलेवा और पल्ले की गाँठें छुड़ा दीं । पीछे प्रभुके लग्न उत्सव से उत्पन्न हुई खुशीसे, रंगाचार्य या सूत्रधारकी तरह आचरण करता हुआ, हस्ताभिनयकी लीला बताता हुआ इन्द्र इन्द्राणियों के साथ नाचने लगा। हवा से नचाये हुए वृक्षोंके पीछे जिस तरह उससे लिपटी हुई लतायें नाचा करती हैं; उसी तरह इन्द्रके पीछे और देवता भी नाचने लगे। कितने ही देवता चारणोंकी तरह जय जय शब्द करने लगे। कितने ही भरतकी तरह अजब तरह के नाच करने लगे। कितने ही जन्मके गन्धर्व्व हों इस तरह नाच करने लगे। कितने ही अपने मुखों से बाजों का काम लेने लगे । कितने ही बन्दरों की तरह संभ्रम से कूदने फाँदने लगे। कितनेही हँसाने वाले विदूषकों की तरह लोगों को हँसाने लगे और कितनेही प्रतिहारी की तरह लोगों को दूर दूराने लगे । इस तरह भक्ति दिखाने वाले हर्ष से उन्मत्त देवताओं से घिरे हुए और दोनों वगलों में सुनन्दा और सुमंगला से सुशोभित प्रभु दिव्य वाहन में बैठ कर अपने स्थान को पधारे। जिस
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
तरह संगीत या तमाशे को ख़तम करके रंगाचार्य अपने स्थानको चला जाता. है, उसी तरह विवाह उत्सव समाप्त करके इन्द्र अपने स्थानको : चला गया । प्रभुकी दिखलाई हुई विवाह की रीति रस्म उस समय से दुनिया में चल गई । क्योंकि बड़े आदमियों की स्थिति दूसरों के लिये ही होती है। जिस चाल पर चलते हैं, दुनिया उसी चाल पर चलती है । महापुरुष जो मर्यादा बाँध देते हैं, संसार उसी मर्यादा के भीतर रहता है ।
बड़े लोग
अब अनासक्त प्रभु दोनों पत्नियों के साथ भोग भोगने लगे ; यानी प्रभु आसक्ति रहित होकर अपनी दोनों पत्नियों के साथ भोग-विलास करने लगे । क्योंकि बिना भोग भोगे पहलेके सतावेदनीय कर्मों का क्षय न होता था । विवाह के वाद प्रभुने उन पक्षियोंके साथ कुछ कम छै लाख पूर्व तक भोग-विलास किया । उस समय बाहु और पीठ के जीव सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर, सुमंगला की कोख में युग्म रूप से उत्पन्न हुए और सुषाहु तथा महा पीठ के जीव भी उसी सर्वार्थसिद्धि विमान से च्यव कर, उसी तरह सुनन्दा की कोख से उत्पन्न हुए । सुमंगलाने गर्भ के माहात्म्यको सूचित करने वाले चौदह महास्वप्न देखे । देवीने उन सुपनोंका सारा हाल प्रभु से कहा; तब प्रभुने कहा - " तुम्हारे चक्रवर्ती पुत्र होगा ।" समय आने पर पूरब दिशा जिस तरह सूरज और सन्ध्या को जन्म देती हैं; उसी तरह सुमंगला ने अपनी कान्ति से दिशाओं को
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पव
प्रकाशमान करने वाले भरत और ब्राह्मी नामक दो बच्चों को जन्म दिया और वर्षा ऋतु जिस तरह मेघ और विजली को जन्म देती है ; उसी तरह सुनन्दाने सुन्दर आकृति वाले बाहुबलि और सुन्दरी नामक दो बच्चों को जन्म दिया। इसके बाद, विदूर पर्वत की ज़मीन जिस तरह रत्नों को पैदा करती है; उस तरह अनुक्रम से उनचास जोडले बच्चों को जन्म दिया। विन्ध्याचल के हाथियों के बच्चों की तरह वे महा पराक्रमी और उत्साही बालक इधर उधर खेलते हुए अनुक्रम से बढ़ने लगे। जिस तरह अनेक शाखाओं से विशाल वृक्ष सुशोभित होता है, उसी तरह उन बालकों से चारों ओर से घिर कर ऋषभ स्वामी सुशोभित होने लगे।
उस समय जिस तरह प्रातः काल के समय दीपक सेजहीन हो जाता है; उस तरह काल-दोष के कारण कल्पवृक्षों का प्रभाव होन होने लगा। पीपल के पेड़ में जिस तरह लाख के कण उत्पन्न होते हैं ; उस तरह युगलियों में क्रोधाधिक कषाय धीरे धीरे उत्पन्न होने लगे। सर्प जिस तरह तीन प्रयत्न विशेष की परवा नहीं करता, उसी तरह युगलिये आकर, माकार और धिक्कार-इन तीन नीतियों को उलङ्घन करने लगे। इस कारण युगलिये इकट्ठे होकर प्रभुके पास आये और अनुचित बातों के सम्बन्ध में प्रभु से निवेदन करने लगे। युगलियों की बातें सुनकर, तीन बान के धारक और जाति स्मरणवान् प्रभु ने कहा"लोक में जो मर्यादा का उल्लङ्घन करते हैं, उन्हें शिक्षा देनेवाला
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२२५
प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र राजा होता है ; अर्थात् जो नियम विरुद्ध काम करते हैं, उन्हें राजा नियमों पर चलाता है। जिसे राजा बनाते हैं, उसे ऊँचे आसन पर बिठाते हैं और फिर उसका अभिषेक करते हैं। उसके पास चतुरंगिणी सेना होती है और उसका शासन अखण्डित होता है ।” प्रभुको ये बातें सुनकर युगलियोंने कहा- “स्वामिन् ! आपही हमारे राजा हैं। आपको हमारी उपेक्षा न करनी चाहिए; क्योंकि हम लोगों में आपके जैसा और दूसरा कोई नज़र नहीं आता।" यह बात सुनकर प्रभुने कहा--"तुम पुरुषोत्तम नाभिकुलकर के पास जाकर प्रार्थना करो। वही तुम्हें राजा देंगे।” युगलियोंने प्रभुकी आज्ञानुसार नाभिकुलकर के पास. जाकर सारा हाल निवेदन किया, तब कुलकरोंमें :अग्रगण्य नाभिकुलकर ने कहा"ऋषभ तुम्हारा राजा हो।" यह बात सुनते ही युगलिये खुश होते हुए प्रभुके सामने आकर कहने लगे-“नाभिकुलकरने आपको ही हमारा राजा नियत किया है।" यह कह कर युगलिये स्वामी का अभिषेक करने के लिये जल लाने चले। उस समय स्वर्गपति इन्द्रका आसन हिला । अवधि ज्ञानसे यह जानकर, कि यह स्वामीके अभिषेक का समय है, वह क्षणभरमें वहाँ इस तरह आ पहुँचा, जिस तरह एक घरसे दूसरेमें जाते हैं। इसके बाद सौधर्म कल्पके उस इन्द्रने सोनेकी वेदी रचकर, उसपर अति पाण्डुकबला शिला ( मेरु पर्वतके ऊपर की तीर्थङ्कर भगवान्के जन्मामिषेककी शिला ) के समान एक सिंहासन बनाया और पूर्व दिशा के स्वामीने उसी समय स्वस्तिवाचक की तरह देवोंके लाये हुए
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व तीर्थोके जलसे प्रभुका राज्याभिषेक किया। फिर इन्द्रने निर्मलता में चन्द्रमाके जैसे तेजोमय दिव्य वस्त्र स्वामीको पहनाये और त्रैलोक्य मुकुट रूप प्रभुके अङ्गों पर उचित स्थानों में मुकुट आदि अलङ्कार पहनाये । इसी बीचमें युगलिये कमलके पत्तोंमें जल लेकर आये । वे प्रभुको गहने कपड़ों से सजे हुए देखकर एक ओर इस तरह खड़े हो रहे, मानों अर्घ्य देनेको खड़े हों। दिव्य वस्त्र और दिव्य अलंकारों से अलंकृत प्रभु के मस्तक पर यह पानी डालना उचित नहीं है, ऐसा विचार करके उन्होंने वह लाया हुआ जल उनके चरणों पर डाल दिया।ये युगलिये सब तरह से विनीत हो गये हैं-ऐसा समझ
कर, उनके रहने के लिए, अलकापतिको विनीता नामक नगरी निर्माण करनेकी आज्ञा देकर इन्द्र अपने स्थान को चले गये।
राजधानी निर्माण । कुबेरने अड़तालीस कोस लम्बी, छत्तीस कोस चौड़ी विनीता नामक नगरी तैयार की और उसका दूसरा नाम अयोध्या रक्खा। यक्षपति कुबेरने उस नगरी को अक्षय वस्त्र, नेपथ्य, और धनधान्यसे पूर्ण किया। उस नगरीमें हीरे, इन्द्र नीलमणि और वडूर्य्य मणिकी बड़ी-बड़ी हवेलियाँ, अपनी विचित्र किरणों से, आकाशमें भीतके विना ही, विचित्र चित्र-क्रियाएं रचती थीं अर्थात् उस नगरी की रत्नमय हवेलियों का अक्स आकाशमें पड़ने से, बिना दीवारोंके, अनेक प्रकार के चित्र बने हुए दिखाई देते हैं थौर मेरू पर्वत की चोटीके समान सोनेकी ऊँची हवेलियाँ ध्वजा
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र ओंके मिषसे चारों तरफ से पत्रालम्बन की लीला का विस्तार करती थीं। उस नगरी के किले पर माणिक के कंगूरों की पंक्तियाँ थीं. जो विद्याधरों की सुन्दरियोंको बिना यत्नके दर्पण या आईने का काम देती थीं। उस नगरीमें, घरोंके सामने, मोतियों के साथिये पुराये हुए थे, इसलिये उनके मोतियों से बालिकायें इच्छानुसार पाँचीका खेल खेलती थीं। उस नगरी के बा. गोचों से रात-दिन भिड़ने वाले खेचरियों के विमान क्षणमात्र पक्षियों के घोसलों की शोभा देते थे। वहाँ की अटारियों और हवेलियों में पड़े हुए रत्नोंके ढेरों को देखकर, रत्न-शिखर वाले रोहणाचल का ख़याल होता था। वहाँ की गृह-वापिकायें, जलक्रीड़ामें आसक्त सुन्दरियों के मोतियोंके हार टूट जानेसे, ताम्रपर्णी नदी की शोभाको धारण करती थीं। वहाँके अमीर और धनियों में से किसी एक भी व्यापारी के पुत्र को देखने से ऐसा मालूम होता था, गोया यक्षाधिपति-कुबेर स्वयं व्यवसाय या तिजारत करने आये हों। वहाँ रातमें चन्द्रकान्त मणिकी दीवारों से झरनेवाले पानीसे राहकी धूल साफ होती थी। वह नगरी अमृत-समान जल वाले लाखों कूए, बावड़ी और तालाबों से नवीन अमृत कुण्ड वाले नाग लोकके समान शोभा देती थी।
राज्य प्रवन्ध जन्मसे बीसलक्ष पूर्व व्यतीत हुए, तबच प्रजा पालनार्थ साना हुए। मन्त्रोंमें ओंकारके समान, सबसे पहले राजा"ऋषभ जिन
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आदिनाथ-चरित्र २२८
प्रथम पव श्वर अपनी प्रजाका अपने पुत्रके समान पालन करने लगे। उन्होंने दुष्ठोंको शिक्षा देने और सजनोंका पालन करने की चेष्टा करने वाले, अपने अङ्ग के जैसे मन्त्रीमन्त्रणाकार्य के लिये चुने । महाराजा ऋषभ देवने चोरी आदि से प्रजाकी रक्षा करने में प्रवीण, इन्द्रके लोकपालों-जैसे आरक्षक देव चारों ओर नियत किये। राजहस्ति जैसे प्रभुने राज्यकी स्थिति के लिए, शरीर में उत्तमाङ्ग शिरकी तरह, सेनाके उत्कृष्ट अङ्ग रूप हाथी ग्रहण किये। उन्होंने सूर्य्य के घोड़ों की स्पर्धा सी करने वाले और ऊँची-ऊँची गर्दनों वाले घोड़े रखे। उन्होंने सुन्दर लकड़ियों से ऐसे रथ बनवाये, जो पृथ्वी के विमान जैसे मालूम होते थे। जिनके सत्व बल की परीक्षा कर ली गई थी, ऐसे सैनिकों की पैदल सेना प्रभुने उसी तरह रक्खी, जिस तरह कि चक्रवर्ती राजा रक्खा करते है । नवीन साम्राज्य रूपी महलके स्तम्भ या खम्भ-जैसे महा बलवान सेनापति प्रभु ने एकत्र किये और गाय, बैल, ऊँट, भैंस-भैंसे एवं खच्चर प्रभृति पशु, उनके उपयोगको जानने वाले प्रभुने ग्रहण किये।
प्रभु द्वारा शिल्पोत्पत्ति। अब, उस समय पुत्र-विहीन वंश की तरह कल्प-वृक्षों के नष्ट हो जाने से लोग कन्द मूल और फल प्रभृति पर गुजारा करते थे। उस समय शाल, गेहूँ, चने और मूंग प्रभृति औषधियाँ घास की तरह, बिना बोये अपने-आप ही पैदा होने लगीं। लेकिन वे लोग उन्हें कच्ची की कच्ची ही-बिना पकाये खाते थे; उनको वेन पची तब
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र उन्होंने प्रभु से जाकर प्रार्थना की। प्रभुने उनकी बात सुनकर कहा--"उन अनाजोंको मसलकर छिलके रहित करो, तब खाओ।" वे लोग ठीक प्रभुके उपदेशानुसार काम करने लगे, किन्तु सख्ती
और कड़ाईके कारण उन्हें वह अनाज इस तरह भी न पचे ; इस. लिये उन्होंने फिर प्रभुसे प्रार्थना की। इस बार प्रभुने कहा—“उन अनाजों को हाथोंसे रगड़ कर, जलमें भिगोकर और फिर दोनों में रखकर खाओ।" उन्होंने ठीक इसी तरह किया, तोभी उन्हें अजीर्ण की वेदना या बदहज़मी की शिकायत रहने लगी, तब उन्हों ने फिर प्रार्थना की। जगत्पति ने कहा—“पहले कही हुई विधि करके, उस अनाज को मुट्ठी या बग़लमें कुछ देर तक रख कर खाओ । इस तरह तुमको सुख होगा।" लोगों को इस तरह अन्न खाने से भी अजीर्ण होने लगा, तब लोग शिथिल होगये। इसी बीचमें वृक्षोंकी शाखायें आपसमें रगड़ने लगी। उस रगड़न से आग उत्पन्न हुई और घास फूस एवं लकड़ी या काठ प्रभृति को जलाने लगी। प्रकाशमान रत्न के भ्रमसे-चमकते हुए रत्नके धोखेसे, उन्होंने उसे पकड़ने के लिये दौड़ कर हाथ बढ़ाथे; परन्तु चे उल्टे जलने लगे। तब आगसे जलकर वे लोग फिर प्रभुके पास जाकर कहने लगे:-"प्रभो ! जङ्गलमें कोई अद्भुत भूत पैदाहुआ है।” स्वामीने कहा-“चिकने और रूखे कालके दोषसे आगउत्पन्न हुई है, क्योंकि एकान्त रूखे समय में आग उत्पन्न नहीं होती। तुम उसके पास जाकर, उसके नजदीक की घास फस आदिको हटादो और फिर उसे ग्रहण करो। इसके बाद पहली कही हुई विधिसे
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व तैयारकी हुई औषधियों या धान्यको उसमें डालकर पकाओ और खाओ।" उन मूोंने वैसा ही किया, तब आगने सारी औषधियां जला डालीं। उन लोगोंने शीघ्र ही स्वामी के पास जाकर सारा हाल कह सुनाया और कहा कि स्वामिन् ! वह आग तो भुखमरे की तरह, उसमें डाली हुई सब औषधियोंको अकेली ही खा जाती है-हमें कुछ भी वापस नहीं देती।" उस समय प्रभु हाथी पर बैठे हुए थे, इस लिये वहीं उन लोगोंसे एक गीली मिट्टीका गोला मँगवाया और उसे हाथीके गण्डस्थल पर रखकर, हाथ से फेला कर, उसी आकार का एक पात्र या बर्तन प्रभुने बनाया। इस तरह शिल्पकलाओं में पहली शिल्पकला प्रभुने कुम्हारकी प्रकट की। इसके बाद प्रभुने कहा- "इसी तरह तुम और पात्र भी बनालो। पात्रको आगपर रख कर, उसमें अनाज को रखो और पकाकर खाओ।" उन्होंने ठीक प्रभुकी आज्ञानुसार काम किया। उस दिन से पहले शिल्पी या कारीगर कुम्हार हुए। लोगोंके घर बनाने के लिए प्रभुने सुनार या बढ़ई तैयार किया। महा पुरुषों की बनावट विश्वके सुख के लिये ही होती है। घर प्रभृति चीतने या चित्र बनाने के लिये और लोगोंकी विचित्र क्रीड़ा के लिये प्रभुने चित्रकार तैयार किये। मनुष्यों के वास्ते कपड़े बुनने के लिये प्रभुने जुलाहों की सृष्टि की ; क्योंकि उस समय कल्पवृक्षों की जगह प्रभुही एक कल्पवृक्ष थे। लोग बाल और नाखून बढ़ने के कारण दुखी रहते थे, इसलिये जगदीशने नाई बनाये। कुम्हार, बढ़ई, चित्रकार, जुलाहे और नाई-इन पाँच शिल्पियों में से एक
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
एकके बीस-बीस भेद होनेसे, वे लोगोंमें नदी के प्रवाह की तरह सौ तरह से फैले ; यानी सौ शिल्प प्रकट हुए । लोगोंकी जीविक के लिये घास काटना, लकड़ी काटना, खेती और व्यापार प्रभृि कर्म प्रभुने उत्पन्न किये और जगतकी व्यवस्था रूपी नगरी मानो चतुष्यथ या चार राहें हों, इस तरह साम, दाम, दण्ड औ भेद इन चार उपायों की कल्पना की। सबसे बड़े पुत्रको ब्रह्मोपदेश करना चाहिये, इसे न्याय से ही मानो भगवान्ने अपने बड़े पुत्र भरतको ७२ कलायें सिखाई । भरतने भी अपने अन्य भाइयों तथा पुत्रोंको वे कलायें अच्छी तरहसे सिखाई । क्योंकि पात्रको सिखायी हुई विद्या सौ शाखा वाली होती है, बाहुबलिको प्रभुने हाथी, घोड़े, और स्त्री-पुरुषोंके अनेक प्रकार के भेदवाले लक्षण बताये । ब्राह्मीको दाहिने हाथसे १८ लिपियाँ सिखाई और सुन्दरीको
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बायें हाथसे गणित सिखाई । वस्तुओंके मान, उन्मान, अवमान और प्रतिमान प्रभुने सिखाये और रत प्रभृति पिरोनेकी कला भी चलाई। उनकी आज्ञासे बादी और प्रतिवादी अथवा मुद्दई और मुद्दायलयः का व्यवहार राजा, अध्यक्ष और कुलगुरुकी साक्षीसे चलने लगा | हस्ती आदिकी पूजा, धनुर्वेद और और वैद्यककी उपासना, संग्राम, अर्थशास्त्र, बंध, घात, बध और गोस्टी आदि तबसे प्रवृत्त हुए । यह माँ है, यह बाप है, यह भाई है, यह बेट है, यह स्त्री है, यह धन मेरा है - ऐसी ममता लोगों में तबसे ही आरम्भ हुई। उसी समय से लोग मेरा तेरा अपना या पराया समझ लगे । विवाहमें लोगोंने प्रभुको गहने कपड़ोंसे सजा हुआ देखा.
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तभीसे वे लोग अपने तई जेवर और कपड़ोंसे अलंकृत करने लगे। लोगोंने पहले जिस तरह प्रभुका पाणिग्रहण होते देखा था, उसी तरह आजतक पाणिग्रहण करते हैं, क्योंकि बड़े लोगोंका चलाया हुआ मार्ग निश्चल होता है। जिनेश्वरने विवाह किया उसी दिनसे दूसरेकी दी हुई कन्याके साथ विवाह होने लगे और चूड़ा कर्म, उपनयन आदिकी पूछ भी उसी समयसे हुई। यद्यपि ये सब क्रियाएँ सावध हैं, तथापि अपने कर्त्तव्य या फ़र्जको समझने वाले प्रभुने, लोगों पर दया करके ये चलाई। उनकी हो करतूतसे पृथ्वीपर आजतक कला-कौशल आदि प्रचलित हैं। उनको इस समयके बुद्धिमान विद्वानोंने शास्त्र-रूपसे ग्रथित किया है। स्वामीकी शिक्षासे ही सब लोग दक्ष-चतुर हुए, क्योंकि उपदेश बिना मनुष्य पशु तुल्य होते हैं।
प्रभु द्वारा प्रजापालन । विश्व-संसारकी स्थिति रूपी नाटकके सूत्रधार-प्रभुने उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय-इन चार भेदोंसे लोगोंके कुलोंकी रचना की। उग्र दण्डके अधिकारी आरक्षक पुरुष उग्र कुलवाले हुए ; इन्द्रके त्रायस्त्रि'श देवताओंको तरह प्रभुके मन्त्री आदि भोग कुल वाले हुए ; प्रभुकी उम्रवाले यानी प्रभुके समवयस्क लोग राजन्य कुल बाले हुए ; और जो बाकी बचे वे क्षत्रिय हुप । इस तरह प्रभु व्यवहार नीतिकी नवीन स्थिति की रचना करके, नवोढ़ा स्त्रीकी तरह, नवीन राज्यलक्ष्मीको भोगने लगे। जिस तरह
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आदिनाथ - चरित्र
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वैद्य या चिकित्सक रोगीकी चिकित्सा करके उचित औषधि देता है; उसी तरह दण्डित करने लायक़ लोगोंके उनको अपराधप्रमाण दण्ड देनेका कायदा प्रभुने चलाया । दण्ड या सज़ाके डरसे लोग चोरी जोरी प्रभृति अपराध नहीं करते थे क्योंकि दण्डनीति सब तरहके अन्यायरूप सर्पको वश करनेमें मन्त्रके समान है 1 जिस तरह सुशिक्षित लोग प्रभुकी आज्ञाको उलङ्घन नहीं करते; उसी तरह कोई किसीके खेत, बाग और घर प्रभृतिकी मर्यादाको उल्लङ्घन नहीं करते थे । वर्षा भी, अपनी गरजनाके बहाने से, प्रभुके न्याय- धर्मकी प्रशंसा करती हो, इस तरह धान्यकी उत्पत्ति के लिये समय पर बरसती थी । धान्यके खेतों, ईख के बगीचों और गायोंके समूहसे व्याप्त देश अपनी समृद्धिसे शोभते थे और प्रभुकी ॠद्धिकी सूचना देते थे । प्रभुने लोगोंको त्याज्य और ग्राह्यके विवेकसे जानकार किया; अर्थात् प्रभुने लोगों को क्या त्यागने योग्य है और क्या ग्रहण करने योग्य है, इसका ज्ञान दियाइस कारण यह भरत क्षेत्र बहुत करके विदेह क्षेत्रके जैसा हो गया । इस तरह नाभिनन्दन ऋषभदेव स्वामीने, राज्याभिषेक के बाद, पृथ्वीके पालन करने में तिरेसठ लक्ष पूर्व व्यतीत किये ।
वसन्त वर्णन |
एक दफा कामदेवका प्यारा वसन्त मास आया। उस समय परिवार के अनुरोध से प्रभु बाग़में आये । वहाँ मानो देहधारी बसन्त हो, इस तरह प्रभु फूलोंके गहनोंसे सजे हुए फूलोंके बँगले में विरा
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जमान हुए ।
उस समय फूल और माकन्दके मकरन्दसे उन्मत्त होकर भौंरे गूजते थे ; इस लिये ऐसा मालूम होता था, मानो वसन्त लक्ष्मी प्रभुका स्वागत कर रही हो । पंचम स्वरको उच्चारनेवाली कोकिलाओंने मानो पूर्व रंगका आरम्भ किया होऐसा समझकर, मलयाचलका पवन नट होकर लताओंका नाच दिखाता था । मृगनयनी कामिनियाँ अपने कामुक पुरुषोंकी तरह अशोक और बबूल आदि वृक्षोंको आलिङ्गन, चरणपात और मुखका आसव प्रदान करती थीं। तिलक वृक्ष अपनी प्रबल सुगन्ध से मधुकरोंको प्रमुदित करके, युवा पुरुषके भालस्थलकी तरह वनस्थलको सुशोभित करता था। जिस तरह पतली कमर वाली ललना अपने उन्नत और पुष्ट पयोधरोंके भारसे झुक जाती है; उसी तरह लवली वृक्षकी लता अपने फूलोंके गुच्छोंके भारसे झुक गई थी । चतुर कामी जिस तरह मन्द मन्द आलिङ्गन करता है ; उसी तरह मलय पवन आमकी लताको मन्द मन्द आलिङ्गन करने लगा था । लकड़ीवाले पुरुषकी तरह, कामदेव जामुन, कदम, आम चम्पा और अशोक रूपी लकड़ियों से प्रवासी लोगों को धम काने में समर्थ होने लगा था । नये पाडल पुष्पके सम्पर्क से सुगन्धित हुआ मलयाचलका पवन, उसी तरह सुगन्धित जलसे सबको हर्षि, त करता था। मकरन्द रससे भरा हुआ महुएका पेड़ मधुपात्र के समान फैलते हुए भौरोंके कोलाहल से आकुल हो रहा था । गौली और कमान चलानेके अभ्यासके लिये कामदेवने कदमके बहाने से मानो गोलियाँ तैयार की हों, ऐसा जान पड़ता था, जिसे
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आदिनाथ-चरित्र इष्टापूर्ति प्रिय है, ऐसी वसन्त ऋतुने वासन्ती लताको भ्रमर रूपी पथिकके लिये मकरन्द-रसकी प्याऊ लगाई थी। सिन्धुवारके वृक्ष, जिनके फूलोंकी आमोद की समृद्धि अत्यन्त दुर्वार है, विषकी तरह नाक-द्वारा प्रवासियों में महामोह की उत्पत्ति करते हैं। वसन्त रूपी उद्यानपाल-माली चम्पेके वृक्षों में लगे हुए भौरे-रक्षकों की तरह, नि:शङ्क होकर बेखटके घूमता था यौवन जिस तरह स्त्री-पुरुषों को शोभा प्रदान करता है, उनका रूप लावण्य-खिलाता है, उनकी खूबसूरती पर पालिश करता है, इसी तरह वसन्त ऋतु बुरे-भले वृक्ष और लताओं को शोभा प्र. दान करती थी, उनको हरा भरा, तरो ताज़ा और सोहना बनाती थी। मतलब यह है, जिस तरह जवानी का दौर दौरा होनेपर बुरे भले सभी स्त्री-पुरुष सुन्दर दीखने लगते हैं, कुरूपसे कुरूप पर एक प्रकार का नूर टपकने लगता हैं; उसी तरह बसन्त का राजत्व होनेसे बुरे भले वृक्ष और लताएँ सुन्दर, मनोमोहक और नेत्र रञ्जक दीखते थे। मृगनयनियोंको फूल तोड़ना आरंभ करते देख कर ऐसाख़याल होता था, मानों वे भारी पर्वमें वसन्त को अर्घ्य देनेको तैयार हुई हों। जान पड़ता था, फूल तोड़ते समय उन्हें ऐसा खयाल हुआ, कि हमारे मौजूद रहते, कामदेव को दूसरे अस्त्र-फूलकी क्या ज़रूरत हैं ? ज्योंही फूल तोड़े गये, वसन्ती लता उनकी वियोग रूपी पीड़ा से पीडित होकर, भौरोंके गूंजनेकी आवाज से रोती हुई सी मालूम होती थी। दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि, ज्योंही बसन्ती लताके फूल तोड़े गये , वह अपने
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व फूलोंके वियोग या जुदाई से दुखी हो उठी। भौंरोंके गूंजनेके शब्द से ऐसा जान पड़ता था, मानो वह अपने साथी फूलों की जुदाई से दुखी होकर रो रही हो। एक स्त्री मल्लिका के फूल तोड़कर जाना चाहती थी, इतनेमें उसका कपड़ा उसमें उलझ गया, उससे ऐसा मालूम होता था, यानीगोया मल्लिका उससे यह कहती हो कि तू दूसरी जगह न जा; उसे अपने पाससे जाने की मनाही करती थी। उसे अपने पाससे अलग करना न चाहती थी, उसका कपड़ा पकड़ कर उसे रोकती थी। कोई स्त्री चम्पे के फूल को तोड़ना चाहती थी, कि इतने में उसमें पड़ने वाले भौंरे ने उसके होटपर काट लिया ।मालूम होता था, अपना आश्रय भङ्ग होने के कारण, भौंरेको क्रोध चढ़ आया और इसीसे उसने आश्रय भङ्ग करने वालीके होठ को डस लिया। कोई स्त्री अपनी भुजा रूपी लता को ऊँची करके, अपनी भुजाके मूल भाग को देखनेवाले पुरुषोंके मनोंके साथ रहने वाले फूलोंको हरण करती थी। नये नये फूलोंके गुच्छे हाथोंमें होनेसे, फूल तोड़नेवाली रमणियाँ जङ्गमवल्ली जैसी सुन्दर मालूम होती थीं। वृक्षोंकी शाखा-शाखामें से स्त्रियाँ फूल तोड़ रही थीं; इससे ऐसा मालूम होता था, गोया वृक्षोंमें स्त्री रूपी फल लगे हों। किसीने स्वयं अपने हाथों से मल्लिका की कलियाँ तोड़ कर, मोतियों के हार के समान, अपनी प्रिया के लिये पुष्पाभरण या फूलोंके ज़ेवर बनाये थे। कोई कामदेव के तरकस की तरह, इन्द्रधनुष के से पचरङ्ग फूलोंकी माला अपने हाथोंसे गूंथकर अपनी प्राणप्यारी को देता
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और उसे सन्तुष्ट और राज़ी करता था । कोई पुरुष अपनी प्राणवल्लभाकी लीला या खेल में फैंकी हुई गेंदको, नौकर की तरह उठा लाकर उसे देता था । गमनागमन के अपराधी पतियों पर जिस तरह स्त्रियाँ पादप्रहार करती हैं, उसी तरह कितनी ही कुरंगलोचनी सुन्दरियाँ वृक्षके अग्रभाग पर अपने पाँवों से प्रहार करती थीं । कोई झूले पर बैठी हुई हालकी व्याही हुई बहू या नवौढ़ा कामिनी उसके स्वामीका नाम पूछने वाली सखियोंके लता - प्रहार को शर्म के मारे मुख मुद्रित करके चुपचाप सहती थी। कोई पुरूप अपने सामने बैठी हुई भीरु कामिनीके साथ झूले पर बैठ कर, गाढ़ आलिङ्गन की इच्छासे, उसे ज़ोर से छाती से लगाने की ख्वाहिशसे झूले को खूब ज़ोर से चढ़ाता था । कितने ही नौजवान रसिये बाग़के दरख्तों में बँधे हुए झूलों को जब लीलासे ऊँचे चढ़ाते थे, तब बन्दरों की तरह अच्छे मालूम होते थे ।
वसन्त क्रीड़ासे वैराग्योत्पत्ति |
लोकान्तिक देवका आगमन ।
उस शहर के लोग इस तरह क्रीड़ा और आमोद-प्रमोद में मग्न
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थे । उनको इस दशामें देखकर प्रभु मन-ही-मन विचार करने लगेक्या ऐसी क्रीड़ा, ऐसा आमोद-प्रमोद, ऐसा खेल क्या किसी और जगह भी होता होगा ? ऐसा विचार आते ही, अवधि ज्ञानसे, प्रभुको स्वयं पहले के भोगे हुए अनुत्तर विमान तक के स्वर्ग-सुख याद आगये । उन्हें पहले जन्मों के भोगे हुए स्वर्ग-सुखों का स्म
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रण हो आया। इन पर विचार करने से उनके मोह का बाँध टूट गया और वे मन-ही-मन कहने लगे-“अरे इन विषय-भोगोंके फन्देमें फंसे हुए, विषयों की चपेट में आये हुए, विषयों से आक्लान्त हुए; अथवा उनके वशमें हुए लोगों को धिक्कार है, कि जो जो अपने हितको बातको भी नहीं जानतेजो इतना भी नहीं जानते कि, हमारा हित-हमारी भलाई किस बात में है। अहो! इस संसार रुपी कुएँ में, अरघट्ट घटियन्त्र की तरह, प्राणी अपने अपने कर्मोंसे गमनागमन की क्रिया करते हैं। कूएमें जिस तरह रहँटके घड़े आते और जाते हैं, उसी तरह अपने पहले जन्म के कर्मों के फल भोगने के लिए प्राणी जनमते और मरते हैं, अपने कर्मानुसार ही कभी ऊँचे आते और कभी नीचे जाते हैं, कभी उन्नत अवस्था को और कभी अवनत अवस्थाको प्राप्त होते हैं , कभी सुखी होते और कभी दुखी होते हैं; पर मोहके कारण प्राणी इस बात को न समझ कर थोथे विषयों में लीन रहते हैं। मोहान्ध प्राणियोंके जन्म को धिक्कार हैं !! जिनका जन्म, सोने वाले की रातकी तरह, व्यर्थ बीता चला जाता है, यानी नींदमें सोनेवाले की रातका समय जिस तरह वृथा नष्ट होता है; उसी तरह मोहान्ध प्राणियों का जीवन वृथा नष्ट होता है ।चूहा जिस तरह वृक्षका छेदन कर डालता है, उसी तरह राग द्वेष और मोह उद्यमशील प्राणियोंके धर्मको भी जड़से छेदन कर डालते हैं। अहो! मूढ़ लोग बड़के वृक्ष की तरह क्रोधको बढ़ाते हैं, कि जो अपने बढ़ाने वाले को समूल ही खा जाता है
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हाथी पर बैठा हुआ महावत जिस तरह सबको तुच्छ या भुनगा के समान समझता है; उसी तरह मान या अभिमान पर बैठे हुए पु. रूष मर्यादा का उल्लङ्घन करके किसी को भी माल नहीं समझते, जगत् को तुच्छ या हकीर समझते हैं । जो मानकी सवारी करते हैं, जो भभिमानी या अहंकारी होते हैं, वे मर्यादा भङ्ग करके, लोक, निन्दा और ईश्वर से न डर कर, दुनिया को हिकारत की नज़र से देखते हैं, सबको अपने मुकावलेमें तुच्छ या नाचीज़ समझते हैं। दुराशय प्राणी या दुर्जन लोग कौंचकी कलीके समान जलन या भयङ्कर वेदना करने वाली माया को नहीं त्यागते। तुषोदक से जिस तरह दूध बिगड़ जाता या फट जाता है, काजलसे जिस तरह साफ सफेद कपड़ा काला या मैला हो जाता है; उसी तरह लोभ से प्राणी का निर्मल गुणग्राम दूषित हो जाता या बह स्वयं उसे दूषित कर लेता है। जब तक इस संसार रुपी कारागार या जेलखाने में जब तक ये चार कषाय पहरेदार या सन्त्री की तरह जागते रहते हैं, तब तक पुरुषों की मोक्ष-मुक्ति या छुटकारा हो नहीं सकता। दूसरे शब्दों में इस तरह समझिये, जिस तरह जेलमें जब तक चौकीदार जागते रहते हैं, कैदी को जेलसे मुक्ति या रिहाई नहीं मिल सकती, वह कैदसे छूट नहीं सकता; जेलसे मुक्ति पा नहीं सकता ; उसी तरह इस संसार रूपी जेलमें जो प्राणी कैद हैं, जिन्होंने इस संसारमें जन्म लिया है, जो इस जगत् के बन्धनमें फंसे हुए हैं, संसारी रूपीजेलसे मुक्ति पा नहीं सकते, जब तक कि लोभ मोह आदिक कषाय जाग रहे हैं; मत
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. आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व लब यह है, लोभ मोह प्रभृति के त्यागने पर ही प्राणीको संसार से छूटकारा या मुक्ति मिल सकती है। इनके सोते रहने या इनके न होने पर ही प्राणी संसारबन्धन से छूटकर मोक्षपद लाभ कर सकता है। अहो ! मानों भूत लगे हों, इस तरह स्त्रियोंके आलिगनमें मस्त हुए प्राणी अपनी क्षीण होती हुई आत्मा को भी नहीं जानते। सिंहको आरोग्य करनेसे जिस तरहसिंह अपने आरोग्य करने वाले का ही प्राण लेता है ; उसी तरह आहार प्रभृतिसे उपजा हुआ उन्माद अपने ही भव भ्रमण या संसार वन्धन का कारण होता है । जिस तरह सिह में किया हुआ आरोग्य आरोग्य करने बालेका काल होता है; उसी तरह अनेक प्रकारके आहार प्रभृति से पैदा हुआ उन्माद हमारी आत्मा में ही उन्माद पैदा करता; यानी आत्मा को भव-बन्धन में फंसाता है। यह सुगन्धी है कि यह सुगन्धी! मैं किसे ग्रहण करूँ, ऐसा विचार करने वाला प्राणी उसमें लम्पट होकर, मुढ़ बनकर, भौंरे की तरह भ्रमता फिरता है। उसे किसी दशामें भी सुख-शान्ति नहीं मिलती। जिस तरह खिलौने से बालक को ठगते हैं; उसी तरह केवल उस समय अच्छी लगने वाली रमणीय चीजोंसे लोग अपनी आत्मा को ही ठगते हैं। जिस तरह नींदमें सोने वाला पुरुष शास्त्र-चिन्तनसे भ्रष्ट हो जाता है, उसी तरह सदा बाँसुरी और बीणाके नाद को कान लगाकर सुननेवाला प्राणी अपने स्वार्थसे भ्रष्ट हो जाता है। एक साथ ही प्रबल या कुपित हुए वात, पित्त और कफकी तरह प्रबल हुए विषयों से प्राणीअपने चैतन्य या
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र आत्मा को लुप्त कर डालते हैं ; अर्थात् वात, पित्त और कफ-इन तीनों दोषों के एक साथ कोप करने या प्रबल होनेसे जिस तरह प्राणी नष्ट हो जाता है, उसी तरह विषयों के बलवान होनेसे प्राणी का आत्मा नष्ट या तुष्ट हो जाता है; इसलिये विषयी लोगों को धिक्कार है ! जिस समय प्रभुका हृदय इस प्रकार संसारी वैराग्य की चिन्ता सन्ततिके तन्तुओं से व्याप्त हो गया, जिस समय प्रभुके हृदयमें वैराग्य-सन्बन्धी विचारोंका तांता लगा, उस समय ब्रह्म नामक पाँचवें देवलोकके रहने वाले सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्गतोय, तुषिताश्व, अत्याबाध, मरुत, और रिष्ट नामके लोकान्तिक देवताओंने प्रभुके चरणोंके पास आ, मस्तक पर मुकुट जैसी पद्मकोषके समान अञ्जलि जोड़, इस तरह कहने लगे"हे प्रभो! आपके चरण इन्द्रकी चूड़ामणिके कान्ति रूप जलमें मग्न हुए हैं, आप भरतक्षेत्रमें नष्ट हुए मोक्ष मार्गको दिखानेमें दीपकके समान हैं। आपने जिस तरह इस लोककी सारी व्यवस्था चलाई, उसी तरह अब धर्म-तीर्थको चलाइये और अपने कृत्यको याद कीजिये" देवता लोग प्रभुसे इस तरह प्रार्थना करके ब्रह्मलोकमें अपने अपने स्थानोंको चले गये। और दीक्षाकी इच्छा वाले प्रभु भी तत्काल नन्दन उद्यानसे अपने राजमहलोंकी ओर चले गये।
= = = = == । दूसरा सर्ग समाप्त। ॥
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AN
तीसरा सर्ग।
:- भरतसे राज्य सिंहासनासीन होनेको कहना
भरतका उत्तर । LoLON ब प्रभुने अपने सामन्त और भरत तथा बाहुबलि आदि
पुत्र अपने पास बुलवाये। उन्होंने भरतसे कहा-"हे पुत्र! तू इस राज्यको ग्रहण कर ; हमतो अब
संयम-साम्राज्यको ग्रहण करेंगे।” प्रभुकी ये बातें सुन. कर क्षण भर तो भरत नीचा मुंह किये बैठा रहा, इसके बाद हाथ जोड़ नमस्कार कर गद्गद् स्वरसे कहने लगा:-“हे प्रभो! आपके चरण-कमलोंकी पीठके आगे लोटनेमें मुझे जो आनन्द आता है, वह मुझे रत्नजड़ित सिंहासनपर बैठनेसे नहीं आ सकता ; अर्थात आपकी चरणसेवामें जो सुख है, वह रत्न. मय सिंहासन पर बैठनेमें नहीं है। हे प्रभो! आपके सामने पैदल दौड़नेमें मुझे जो सुख मिलता है, वह लीलासे गजेन्द्रकी पीठपर बैठनेसे नहीं मिलेगा। आपके चरण कमलों की
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र छायामें जो सुख और आनन्द है; वह उज्ज्वल छत्रकी छाया में भी नहीं है। यदि मैं आपका विरही हूँ, यदि आप मुझसे अलहिदा हों, अगर आपकी और मेरी जुदाई हो, तो फिर साम्राज्यलक्ष्मीका क्या प्रयोजन है ? आपके न रहनेसे यह साम्राज्यलक्ष्मी निष्प्रयोजन हैं। इसमें कुछ भी सार और सुख नहीं है । क्योंकि आपकी सेवाके सुख रूपी क्षीर सागरमें राज्यका सुख एक बूंदके समान है ; अर्थात आपकी सेवाका सुख क्षीरसागरवत् है और उसके मुकाबले में राज्यका सुख एक बूंदके समान है।
स्वामी का प्रत्युत्तर
भरत को राजगद्दी । भरतकी बातें सुनकर स्वामीने कहा-"हमने तो राज्यको त्याग दिया है। अगर पृथ्वी पर राजा न हो, तो फिरले मत्स्यन्याय होने लगे। सबसे बड़ी मछली जिस तरह छोटी मछलियों को निगल जाती है, उसी तरह बलवान लोग निर्बलोंकी चटनी कर जायें, उन्हें हर तरहसे हैरान करें। जिसकी लाठी उसकी भैंसवाली कहावत चरितार्थ होने लगे। संसारमें निर्बलोंके खड़े होनेको भी तिल भर ज़मीन न मिले । इसलिये हे वत्स ! तुम इस पृथ्वीका यथोचित रूपसे पालन करो। तुम हमारी आज्ञापर चलने वाले हो और हमारी आज्ञा भी यही है।" प्रभुका ऐसा सिद्धादेश होने पर भरत उसे उल्लङ्घन कर न सकते थे, अतः उन्होंने प्रभुकी बात मंजूर कर ली ; क्योंकि गुरुमें ऐसी ही विनय स्थित
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आदिनाथ चरित्र २४४
प्रथम पर्व होती है। इसके बाद भरतने नम्रतापूर्वक खामीको सिर झुका कर प्रणाम किया और अपने उन्नत वंश की तरह पिताके सिंहासनको अलंकृत किया। जिस तरह देवताओंने प्रभुका राज्याभिषेक किया था, उसी तरह प्रभुके हुक्मसे सामन्त और सेनापति आदिने भरतका राज्याभिषेक किया। उस समय प्रभुके शासनकी तरह, भरतके सिर पर पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान अखण्ड छत्र शोभने लगा। उनके दोनों तरफ ढोरे जाने वाले चैवर चमकने लगे। उनके देखनेसे ऐसा जान पड़ता था, मानो वे उत्तरार्द्ध और पूर्वार्द्ध दो भागोंसे भरतके यहाँ आने वाली लक्ष्मीके दूत हों। अपने अत्यन्त उज्वलके गुण हों, इस तरह कपड़ों और मोतियोंके जेवरोंसे भरत शोभने लगे। बड़ी भारी महिमाके पात्र, उस नवीन राजाको, नये चांद की तरह, अपने कल्याणकी इच्छासे राज-मण्डलीने प्रणाम किया।
संवत्सरी दान। . प्रभुने बाहुबलि प्रभृति अन्य पुत्रोंको भी उनकी योग्यतानुसार देश बांट दिये। इसके बाद प्रभुने कल्पवृक्षकी तरह उनकी अपनी इच्छासे की हुई प्रार्थनाके अनुरूप, मनुष्योंको सांवत्सरिक दान देना आरम्भ किया ; अर्थात कल्प-वृक्ष जिस तरह मांगने वालेको उसकी प्रार्थनानुसार फल देता है ; उसी तरह प्रभुसे जिसने जो माँगा उन्होंने उसे वही दिया। इसके सिवा उन्होंने शहरके चौराहों और दरवाज़ोंपर ज़ोरसे डौंडी पिटवा दी.
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आदिनाथ चरित्र
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D. Banarj
इसके बाद प्रभुने कल्पवृज्ञकी तरह उनकी अपनी इच्छासे की हुई प्रार्थनाके अनुरूप, मनुष्योंको सांवत्सरिक दान देना आरम्भ किया ; अर्थात् कल्प वृक्ष जिस तरह माँगने वालेको उसकी प्रार्थनानुसार फल देता है; उसी तरह प्रभुसे जिसने जो माँगा उन्होंने उसे वही दिया । [ पृष्ठ २४४ ]
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
कि जिसे जिस चीज़की ज़रूरत हो, वह आकर लेजाय। जिस समय प्रभुदान करने लगे, उस समय इन्द्रकी आज्ञासे, अलकापति कुबेर के भेजे हुए जृम्भकदेव बहुकालसे भ्रष्ट हुए, नष्ट हुए, विना मालिक के मर्यादाको उल्लङ्घन कर जाने वाले; पहाड़, कुज, श्मसान और घरमें छिपे हुए और गुप्त रूपसे रखे हुए सोने, चाँदी और रत्नोंको जगह-जगहसे लाकर वर्षाकी तरह बरसाने लगे। नित्य सूर्योदयसे भोजन-कालतक प्रभु एक करोड़ आठ लाख सुवर्ण मुद्रायें दान करते थे। इस तरह एक सालमें प्रभुने तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख सुवर्ण या सुवर्ण मुद्राओंका दान किया। प्रभु दीक्षा ग्रहण करने वाले हैं, संसार से विरक्त होने वाले हैं, यह जानकर लोगोंका मन भी विरक्त हो गया था, उनके मनोंमें भी वैराग्यका उदय हो आया था, इससे वे लोग सिर्फ जरूरतके माफ़िक दान लेते थे, यद्यपि प्रभु इच्छानुसार दान देते थे, तथापि लोग अधिक न लेते थे।
प्रभुका दीक्षा महोत्सव । वार्षिक दानके अन्तमें, अपना आसन चलायमान होनेसे इन्द्र, दूसरे भरतकी तरह, भगवान्के पास आया। जल-कुम्भ हाथमें रखने वाले दूसरे इन्द्रोंके साथ, उसने राज्याभिषेककी तरह जग. त्पतिका दीक्षा-सम्बन्धी अभिषेक किया । उस कार्यका अधिकारी ही हो, इस तरह उस समय इन्द्र द्वारा लाये हुए दिव्य गहने और कपड़े प्रभुने धारण किये। मानो अनुत्तर विमानके अन्दरका एक
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आदिनाथ चरित्र २४६
प्रथम पर्व विमान हो ऐसी सुदर्शना नामकी पालकी इन्द्रने प्रभुके लिए तैयार की। इन्द्रके हाथका सहारा देनेपर, लोकाग्र रूपी मन्दिरकी पहली सीढ़ीपर चढ़ते हों, इस तरह प्रभु पालकी पर चढ़े। पहले रोमाञ्चित हुए मनुष्योंने, फिर देवताओंने अपना मूर्तिमान पुण्यभार समझकर पालकी उठाई। उस समय सुर और असुरों द्वारा बजाये हुए मंगल बाजों ने अपने नादसे, पुस्करावर्त मेघकी तरह, दिशायें पूर्ण कर दी ; यानी उन बाजोंकी आवाज़ दशों दिशाओं में फैल गई।मानों इस लोक और परलोककी मूर्तिमान निर्मलता हों-इस तरह दो चँवर प्रभुके दोनों ओर चमकते थे। बन्दी. गण या भाटोंकी तरह देवता लोग मनुष्योंके कानोंकी तृप्ति करने वाला भगवान्का जयजयकार उच्च स्वरसे करने लगे। पालकीमें वठकर जाते हुए प्रभु उत्तम देवोंके विमानमें रहने वाली शाश्वत प्रतिमा जैसे शोभते थे। इस प्रकार भगवानको जाते हुए देखकर, शहरके लोग उनके पीछे इस तरह दौड़े, जिस तरह बालक पिताके पीछे दौड़ते हैं। कितने ही तो मेहको देखने वाले मोरकी तरह प्रभुको देखनेके लिये ऊँचे ऊँचे वृक्षोंकी डालियों पर चढ़ गये। स्वामीके दर्शनार्थ राह-किनारेके मकानोंके छज्जों, और छतोपर बैठे हुए लोगोंपर सूरजका प्रबल आतप पड़रहा था-तेज़ धूप उनके शरीरोंको जलाये डालती थी-पर वे उस कड़ी घामको चन्द्रमाकी शीतल चाँदनीके समान समझते थे। कितनोंही को घोड़ों पर चढ़कर जाने तककी देर बर्दाश्त न होती थी, इसलिये वे घोड़ों पर न पढ़कर स्वयं घोड़े हों इस तरह राहमें दौड़ते थे। कितनेही
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आदिनाथ चरित्र
पानीमें मछलीकी तरह भीड़में घुसकर स्वामीके दर्शनकी आकांक्षा से आगे निकल जाने लगे। जगदीशके पीछे-पीछे दौड़ने वाली कितनी ही रमणियोंके हार भागा-दौड़में टूट जाते थे, इससे ऐसा जान पड़ता था, गोया वे प्रभुको लाजाञ्जलि वधाती हों। यह सुनकर कि, प्रभु आते हैं, उनकी दर्शनाभिलाषिणी कितनी ही स्त्रियाँ गोदमें बालक लिये बन्दरों-सहित लताओं सी सुन्दर दीखती थीं। पीन पयोधरों या कुच-कुम्भोंके भारके कारण मन्द गतिसे चलने वाली कितनीही स्त्रियाँ दोनों बाजुओंमें दो पंख हों-इस तरह दोनों तरफ रहनेवाली दोनों सखियोंकी भुजाओं का सहारा लेकर आती थीं। कितनीही स्त्रियाँ प्रभु के दर्शनों के आनन्दकी इच्छासे, गतिभंग करने वाले-चलनेमें रुकावट डालने वाले भारी नितम्बोंकी निन्दा करती थीं, राहमें पड़नेवाले घरोंकी अनेक कुल-कामिनियाँ सुन्दर कसूमी रंगके कपड़े पहने हुए और पूर्णपात्रको धरण किये हुए खड़ी थीं। वे चन्द्र-सहित सन्ध्याके समान सुहावनी लगती थीं। कितनीही चञ्चलनयनी प्रभुको देखने की इच्छासे अपने हस्त-कमलोंसे चँवर-सदृश वस्त्रके पल्लेको फिराती थीं। कितनीही ललनायें नाभिनन्दनके ऊपर धानी फेंकती थीं। उन्हें देखनेसे ऐसा जान पड़ता था, मानो वे अपने पुण्यके वीज पूर्ण रूपसे बो रही हों। कितनी ही स्त्रियाँ मानों भगवान्के घरकी सुवासिनी हों इस तरह, चिरंजीव चिरंनन्द, आयुस्मन् आशीर्वाद देती थीं। कितनीही कमलनयनी नगर नारियाँ अपने नेत्रों को निश्चल और गति को तेज़ करके प्रभु के पीछे-पीछे चलती और उन्हें देखती थीं।
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
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___ अब अपने बड़े बड़े विमानोंसे पृथ्वीतलको एक छायावाला करते हुए चारों प्रकार के देवता आकाशमें आने लगे। उनमेंसे कितने ही उत्तम देवता मद चूने वाले हाथियों को लेकर आये थे। इससे वे आकाश को मेघाच्छन्न करते हुए से मालूम होते थे। कितने ही देवता आकाश रूपी महासागरमें नौका रूपी घोड़ों पर चढ़ कर, चाबुक रूपी नौका के दण्डे सहित, जगदीश को देखने के लिये आये थे। कितनेही देवता मूर्त्तिमान पवन ही हो इस तरह अतीव वेगवान रथोंमें बेठकर नाभि-कुमार के दर्शनों को आ रहे थे। ऐसा मालूम होता था, मानों वाहनों की क्रीड़ा में उन्होंने परस्पर बाज़ी मारनेकी प्रतिज्ञा की हो । क्योंकि वे आगे निकलने में अपने मित्रों की राह को भी न देखते थे। अपने-अपने गाँवोंमें पहुँचने पर पथिक जिस तरह कहते हैं कि “यह गाँव ! यह गाँव !" और अपनी सवारी को रोक लेते हैं ; उस तरह देवता भी प्रभु को देखतेही यह स्वामी ! यह स्वामी!" कहते हुए अपने-अपने वाहनों को ठहरा लेते थे। विमान रूपी हवेलियों और हाथी, घोड़े एवं रयों से आकाशमें दूसरी विनिता नगरी बसी हुई सी मालूम होती थी। सूर्य और चन्द्रमासे घिरे हुए मानुषोत्तर पर्वत की तरह जिनेश्वर भगवान् अनेक देवताओं और मनुष्योंसे घिरे हुए थे। जिस तरह दोनों ओरसे समुद्र सुशोभित होता है ; उसी तरह वे दोनों सुशोभित थे। जिस तरह हाथियों का झुण्ड अपने यूथपति का अनुसरण करता है, उसी तरह शेष अट्ठावन विनीत पुत्र प्रभु के पीछे-पीछे चल रहे थे। माता मरुदेवा, पत्नी सुनन्दा और सुमगंला
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आदिनाथ चरित्र
इस तरह प्रभुने अपनी चार मुट्ठियोंसे अपने बाल नोच लिये । सौधर्मपति ने प्रभुके केश अपने वस्त्रके आँचल में ले लिये, उससे ऐसा मालूम होने लगा मानो इस कपड़े को दूसरे रंगके तन्तुओंसे मण्डित करता हो।
[पृष्ठ २४६]
Narsingh Press, Calcutta.
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र एवं पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी तथा अन्य स्त्रियाँ-हिमकण सहित पद्मिनी या बर्फ के कणों सहित कमलिनी की तरह-मुखों पर
आँसुओं की बूंदों सहित प्रभुके पीछे-पीछे चल रही थीं। पूर्वजन्मके सिद्धि विमानके जैसे सिद्धार्थ नामके पाग़में प्रभु पधारे ; अर्थात् जिस बाग़में प्रभु पधारे, उसका नाम सिद्धार्थ उद्यान था और वह प्रभुके पूर्व जन्म के सर्वार्थ सिद्ध विमान जैसा मालूम होता था। ममता रहित मनुष्य जिस तरह संसारसे निवृत्त होता है : उसी तरह नाभिनन्दन पालकी रूपी रत्न से वहाँ अशोक वृक्षके नीचे उतरे और कषायों की तरह वस्त्र, माला और गहने उन्होंने तत्काल त्याग दिये। उस समय इन्द्रने प्रभुके पास आकर, मानो चन्द्रमा की किरणोंसे बना हो ऐसा उज्ज्वल और महीन देवदुश्य वस्त्र प्रभुके कन्धे पर डाल दिया।
प्रभुका चारित्र ग्रहण । इसके बाद चैतके महीनेमें कृष्ण पक्षकी अष्टमी को चन्द्रमा उत्तराषाढा नक्षत्रमें आया था। उस समय दिन के पिछले पहरमें, जय जय शब्दके कोलाहल के मिषसे हर्षोद्गार करते हुए देव और मनुष्योंके सामने, गोया चारों दिशाओं को प्रसाद देनेकी इच्छा हो, इस तरह प्रभुने अपनी चार मुट्ठियों से अपने बाल नोच लिये। सोधर्मपति ने प्रभुके केश अपने वस्त्रके आँचल में हो लिये, उससे ऐसा मालूम होने लगा मानो इस कपड़े को दूसरे रंगके तन्तुओंसे मण्डित करता हो । प्रभुने ज्योंही पांचवीं मुट्ठीसे
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र २५० बाकी के बालों को उखाड़ने की इच्छा की, त्योंही इन्द्रने प्रार्थना की-”हे स्वामिन् ! अब इतनी केशवल्ली को रहने दीजिये, क्योंकि हवा से जब वह आपके सोनेकी सी कान्तिवाले कन्धे पर आती है, तब मरकत मणि की शोभा को धारण करती है। प्रभुने इन्द्रकी बात मान, वह केशवल्ली वैसेही रहने दी, क्योंकि स्वामी लोग अपने अनन्य या एकान्त मतोंकी याचना का खण्डन. नहीं करते इसक वाद सोधर्मपतिने उन वालों को क्षीरसागरमें फैंक आकर सूत्रधार की तरह मुट्ठी संज्ञासे बाजों को रोंका इस समय छ? तप करने वाले नाभि कुमारने देव, असुर और मनुष्यों के सामने सिद्ध को नमस्कार करके 'समस्त सावद्य योगका प्रत्याख्यान करता हूँ, यह कह कर मोक्ष मार्ग के रथतुल्य चारित्र को गहण किया, शरद ऋतुको धूपसे तपेहुए मनुष्योंको जिस तरह बादलोंकी छाय सेसुख होता है; उसी तरह प्रभुके दीक्षा उत्सवसे नारकी जीवोंको भी क्षण मात्र सुख हुआ। मानो दीक्षाके साथ संकेत करके रहा हो, इस तरह मनुष्यक्षेत्र में रहने वाले सर्व संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके मनोद्रव्यको प्रकाश करने वाला मनः पर्यवज्ञान शीग्रही प्रभुमें उत्पन्न हुआ। मित्रोंके निवारण करने बन्धुओंके रोकने और भरतेश्वरके बारम्बार निषेध करने पर भी कर और महाकच्छ प्रभृति चार हज़ार राजाओंने स्वामीकी पहलेकी हुई बड़ी बड़ी क्ष्याओंको याद करके, भौंरेकी तरह उनके चरण कमलोंका विरह या जुदाई न सह सकनेसे अपने पुत्र कलत्र और राज्य प्रभृतिको तिनकेके समान त्यागकर “जो स्वामीको गति वही हमारी गति"
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प्रथम पव
२५१
आदिनाथ चरित्र कहते हुए बड़ी प्रसन्नतासे प्रभुके साथ दीक्षा ली। नौकर चाकरों का क्रम ऐसाही होता है।
___ इन्द्रकी की हुई स्तुति। इसके बाद इन्द्र प्रभृति देवता आदि नाथको हाथ जोड़ प्रणाम कर स्तुति करने लगे-“हे प्रभो ! हम आपके यथार्थ गुण कहने में असमर्थ हैं; तथापि हम स्तुति करते हैं ; आपके प्रभावसे हमारी वुद्धिका विकाश होता है। अस और स्थावर जन्तुओंकी हिंसाका परिहार करनेसे अभय दान देनेवाली दानशाला रूप आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त मृषावादका परिहार करने से हितकारी सत्य और प्रिय बचन रुपी सुधारसके समुद्र आपको हम नमस्कार करते हैं। अदत्तादान का न्याय करने से रूके हुए पहले पथिक है, अत: हे भगवान् हम आपको नमस्कार करते हैं। हे प्रभो! कामदेव रूपी अन्धकार के नाश करने वाले और अखण्डित ब्रह्मचर्य रूपी महातेजस्वी सूर्यके समान आपको हम नमस्कार करते हैं ! तिनके की तरह पृथ्वी प्रभृति सब तरह के परिग्रहों को एक दम त्याग देने वाले और निर्लोभिता रूपी आत्मा वाले आप को हम नमस्कार करते हैं आप पञ्च महाव्रतों का भार उठानेमें वृषभके समान हैं और संसार-सागर को पार करनेमें कछुए के समान हैं, आप महा पुरूष हैं, आपको हम नमस्कार करते हैं । हे आदिनाथ ! पांच महाव्रतों की पाँच सहोदराओं जैसी पांच समितियों को धारण करने बाले आपको हम
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आदिनाथ चरित्र
२५२
प्रथम पवे
नमस्कार करते हैं। आत्माराम में मन लगाये रखने वाले, बचन की सवृत्तिसे शोभने बाले और शरीर की सारी चेष्टाओं से निवृत्त रहने वाले; अर्थात् इन तीन गुप्तियों को धारण करने वाले आपको हम नमस्कार करते हैं।" प्रभु और उनके साथियों का भूख प्यास आग
सहन करना। इस तरह प्रभु की स्तुति करके जन्माभिषेक काल की भांति देवता नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर अपने अपने स्थानों को गये । देवता ओं की तरह भरत और बाहुवलि प्रभृति भी प्रभुको प्रणाम करके, बड़े कष्टके साथ अपने अपने स्थानों को गये और दीक्षा लिये हुए कच्छ और महाकच्छ प्रभृति राजाओंसे घिरे हुए एवं मौन धारण किये हुए भगवान् ने पृथ्वी पर विहार करना आरम्भ किया। पारणेके दिन भगवान् को कहींसे भी भीख न मिली। क्योंकि उस समय लोग भिक्षादान को नहीं समझते थे; एक दम सरल स्वभाव थे। भिक्षार्थ आये हुए प्रभुको पहले की तरह राजा समझकर कर, कितने ही लोग उन्हें सूर्यके घोड़े उच्चैश्रवा को भी चालमें परास्त करने वाले घोड़े देते थे। कोई कोई उन्हें शौर्यसे दिग्गजों दिशाओंके हाथियों को जीतने वाले हाथी भेंट करते थे। कोई कोई रूप और लावण्यसे अप्सराओंको जीतने वाली कन्यायें अर्पण करते थे। कोई कोई चपला की तरह चमकने वाले गहने और ज़ेवर प्रभुके आगे रखते थे। कोई कोई सन्ध्या कालके अभ्र
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प्रथम पर्व
२५३ मादिनाथ चरित्र के समान चित्र-विचित्र वस्तु या कपड़े देते थे। कोइ मन्दार पुष्पोंकी मालासे स्पर्धा करनेवाले फुलोंकी मालायें देता था ।कोई मेरु पर्वत के शिखर जेसी काञ्चन-राशि भेंट करता था और कोई रोहणा चलके शिखर सदृश रत्न समूह देता था। परप्रभु उनकी दी हुई किसी चीज़ को न लेते थे। भिक्षा न मिलने पर भी अदीनमना प्रभु जङ्गम तीर्थकी तरह विहार करते हुए पृथ्वीतल को पवित्र करते थे। मानो उनका शरीर रस रक्त और मांस प्रभृति सात धातुओं से बना हुआ नहीं था, इस तरह प्रभु भूख प्यास प्रभृति परिषहों को सहन करते थे। नाव जिस तरह हवा का अनुसरण करती है-हवाके पीछे पीछे चलती है, उसी तरह अपनी इच्छासे दीक्षित हुए राजा भी स्वामी का अनुसरण कर विहार करते थे।
सहदीक्षितों की चिन्ता । अब क्षुधा आदि से ग्लानि को प्राप्त हुए और तत्वज्ञान हीन वे तपस्वी राजा अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करने लगे:-ये स्वामी मानो किंपाकके फल हों, इस तरह मधुर फलोंको भी नहीं खाते और खारी जल हो इस तरह स्वादिष्ट जलको भी नहीं पीते। शरीर शुश्रुषा में अपेक्षा रहित हो जानेसे ये स्नान और विलेपन भी नहीं करते; यानी शरीर की ओर से लापरवा हो जानेसे न स्नान करते हैं और न चन्दन केशर और कस्तूरो आदिका शरीर पर लेप करते हैं। कपड़े, गहने और फूलोंको भी भार समझ कर ग्रहण.
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आदिनाथ चरित्र
२५४
प्रथम पर्व
नहीं करते । पर्वत की तरह, हवासे उड़ाई हुई मस्तक को तपा देने वाली
राह की धूलसे धूपको मस्तक
आलिङ्गन होता है । पर सहन करते हैं। कभी सोते नहीं तो भी थकते नहीं और श्रेष्ठ हाथी की तरह उन्हें सरदी और गरमीसे तकलीफ नहीं होती । ये भूखको कोई चीज़ समझते ही नहीं; प्यास क्या होती है, इसे जानते भी नहीं, और वैरवाले क्षत्रिय की तरह नींद लेते नहीं; यद्यपि अपन लोग उनके अनुचर हुए हैं, तथापि अपन लोग अपराधी हों, इस तरह वे अपनी ओर देखकर भी अपनको सन्तुष्ट नहीं करते - फिर वोलने का तो कहना ही क्या ? इन प्रभुने अपने स्त्री पुत्र आदि परिग्रह त्याग दिये हैं, तो भी थे अपने दिल में क्या सोचा करते हैं, इस बातको अपन नहीं जानते। इस तरह विचार करके वे सब तपस्वी अपनी मण्डली के अगुआ - स्वामी के पास सेवक की तरह रहने वाले - कच्छ और महा कख्छ से कहने लगे“कहाँ ये भूखको जीतने वाले प्रभु और कहाँ धूपको सहनेवाले प्रभु और कहाँ छायके मकड़े जेसे अपन ? अपन अन्नके कीड़े ? कहाँ ये प्यास को जीतनेवाले प्रभु और कहाँ जलके मेंढक समान अपन ? कहाँ शीतसे पराभव न पाने वाले प्रभु और कहाँ अपन बन्दर के समान काँपने वाले ? कहाँ निद्रा को जीतने वाले प्रभु और कहाँ अपन नींदके अजगर ? कहाँ रोज ही न बैठने बाले प्रभु और कहाँ आसनमें पंगुके समान अपन ? समुद्र लाँघने में कव्वे जिस तरह गरुड़का लनुसरण करते है; उसी स्वामीने, व्रत धारण किया है उसके पीखे पोछे चलना या उनकी नकल करना अपन लोगोंने
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र आरम्भ किया है। क्या अपनी जीविकाके लिये अपनको अपना राज्य फिर ग्रहण करना चाहिये ? अपने राज्य तो भरत ने ग्रहण कर लिये है, इसलिये अब अपन को कहाँ जाना चाहिये ? क्या अपने जीवनके लिये अपने को भरत की शरण में जाना चाहिये ? परन्तु स्वामी को छोड़कर जानेमें अपन को उसका ही भय हैं। हे आर्यो ! हे श्रेष्ठ पुरुषो! अपन लोग प्रभु के विचारों को जा. नने वाले और सदा उनके पास रहने वाले हो, कृपया बताइये कि हम किंकर्त्तव्यमूढ़ लोग क्या करें ? ___ उन्होंने कहा-“स्वयंभूरमण समुद्रका अन्त जो ला सकता है वहीप्रभुके विचारों को जान सकता है। पहले तो प्रभु हमें जो आबा प्रदान करते थे, हम वही करते थे, लेकिन आजकल तोप्रभुने मौन धारण कर रखा है, इसलिये अब वह कुछ भी आज्ञा नही करते। इस लिये जिस तरह तुम कुछ नहीं जानते : उसी तरह हम भी कुछ नहीं जानते । अपन सबकी समान गति है। इसलिये आप लोग कहें वैसा करें। इसके बाद वे सब गङ्गानदीके निकटके वागमें गये और वहाँ स्वच्छन्दता पूर्वक कन्दमूल फलादि खाने लगे तभी से वनवासी कन्द मूल फल फूल खानेवाले तपस्वी पृथ्वी पर फैले।
नमि और विनमिका आगमन । उन कच्छ महाकच्छके नमि और बिनमि नामके दो विनीत और सुशील पुत्र थे। वे प्रभुके दीक्षा लेनेसे पहले उसकी आज्ञा
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आदिनाथ चरित्र २५६
प्रथम पर्व से दूर देशको गये थे। वहाँसे लौटते हुए उन्होंने अपने पिताको वनमें देखा। उनको देखकर वे विचार करने लगे- वृषभनाथ जैसे नाथके होने पर भी, हमारे पिता अनाथकी तरह इस दशाको क्यों प्राप्त हुए। कहाँ उनके पहनने योग्य महीन वस्त्र और कहाँ भीलोंके पहनने योग्य बल्कल-वस्त्र ? कहाँ शरीरपर लगाने योग्य उब्टन और कहाँ पशुओंके लोट मारने योग्य जमीनकी धूल मिट्टी ? कहाँ फूलोंसे गुथा हुआ केशपाश और कहाँ बटवृक्ष सदश लम्बी जटायें, ? कहाँ हाथीकी सवारी और कहाँ प्यादेकी तरह पैदल चलना ? इस प्रकार विचार करके उन्होंने अपने पिताको प्रणाम किया और सब हाल पूछा। तब कच्छ और महाकच्छने कहा-"भगवान् ऋषभवज ने राजपाट त्याग, भरत प्रभृति को पृथ्वी बाँट, वृत ग्रहण किया है। जिसतरह हाथी ईख को खाता है, उसी तरह हमने साहससे उन के साथ व्रत ग्रहण किया था; परन्तु भूख, प्यास, शीत और घाम प्रभृतिके क्लेशोंसे दुखी होकर, जिस तरह गधे और खच्चर अपने ऊपर लदे हुए भार को पटक देते हैं उसी तरह हमने व्रतको भंग कर दिया है। हम लोग प्रभुका सा बर्ताव कर नहीं सके और उधर ग्रहस्थाश्रम भी अंगीकार नहीं किया, इससे तपोवन में रहते हैं। ये बातें सुनकर उन्होंने कहा--"हम प्रभुके पास जाकर पृथ्वी का भाग मांगे।" यह बात कहकर नमि और विनमि प्रभु के चरण-कमलोंके पास आये। प्रभु निःसंग हैं। इस बात को वे न जानते थे, अतः उन्होंने कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित प्रभु को
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
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प्रणाम करके प्रार्थनाकी- "हम दोनोंको दूर देशान्तरमें भेज कर, आपने भरत प्रभृति पुत्रों को पृथ्वी बाँट दी और हमें गायके खुर बराबर भी पृथ्वी नहीं दी ! अतः हे विश्वनाथ ! अब प्रसन्न होकर उसे हमें दीजिये आप देवोंके देव हैं। हमारा क्या अपराध देखा, जिससे देत्र तो पर किनारा, आप हमारी बात का जवाब भी नहीं देते?” उनके यह कहने सुनने पर भी प्रभु ने उस समय कुछ भी जवाब न दिया । क्योंकि ममता-रहित पुरुष दुनियाँके झगडोंमें लिप्त नहीं रहते। प्रभु कुछ नहीं बोलते थे, पर प्रभुही अपने आश्रय स्थल है। ऐसा निश्चय कर के वे प्रभु की सेवा करने लगे स्वामीके पासके मार्ग की धूल शान्त करने के लिये वे सदा ही कमलपत्र में जलाशय-तालाबसे जल ला लाकर। छिड़कने लगे। सुगन्ध से मतवाले भौंरों से घिरे हुए फूलों के गुच्छे ला लाकर वे धर्म चक्रवर्ती भगवानके सामने बिछाने लगे। सूरज और चन्द्रमा जिस तरह रात-दिन मेरु पर्वत की सेवा करते हैं; उसी तरह वे सदा प्रभु के पास खड़े हुए तलवार खींच कर उनकी सेवाकरने लगे। और नित्य तीनों समय हाथ जोड कर याचना करने लगे-” हे स्वामी! हमें राज्य दो। आपके सिवा हमारा दूसरा कोई स्वामी नहीं है।
नमि विनमि और धरणेन्द्र । एक दिन प्रभुकी चरण-वन्दना करने के लिए, नागकुमारका श्रद्धावान् अधिपति धरणेन्द्र वहाँ आया। उसने सविस्मय देखा
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आदिनाथ-चरित्र
२५८
प्रथम पर्व
कि दो सरल स्वभाव बालक राज्य-लक्ष्मी मांगते ओर भगवान् की सेवा करते हैं। नागराजने अमृत समान मीठी बाणीसे उनसे कहा-“तुम कौन हो और साग्रह दृढ़ताके साथ क्या मांगते हो ? जिस समय जगदीशने एक वर्षतक मन चाहा महा दान हर किसीको बिना ज़रा भी रोकटोकके दिया था, उस समय तुम कहाँ थे ? इस वक्त स्वामी निर्भय, निष्परिपर, अपने शरीरमें भी आकांक्षा रहित, और रोष-तोषसे विमुक्त हो गये हैं; अर्थात इस समय प्रभु मोह-ममता रहित, और जंजालसे अलग हो गये हैं। उन्हें अपने शरीरकी भी आकांक्षा नहीं है। राग और द्वषने उनका पीछा छोड़ दिया है।” यह भी प्रभुका सेवक है, ऐसा समझकर नमि विनमिने मानपूर्जाक उनसे कहा-“थे हमारे स्वामी—मालिक और हम इनके सेवक या चाकर हैं। इन्होंने आज्ञा देकर हम को किसी और जगह भेज दिया और भरत प्रभृति अपने पुत्रोंको राज्य बाँट दिया। यद्यपि इन्होंने सर्वस्व दे दिया हैं, तथापि थे हमको भी राज्य न देंगे। उनके पास वह चीज है या नहीं, ऐसो चिन्ता करनेकी सेवकको क्या जरूरत ? सेवकका कर्त्तव्य तो स्वामी की सेवा करना है।" उनकी बातें सुनकर धरणेन्द्र ने उनसे कहा-"तुम भरतके पास जाकर भरतसे मांगो। वह प्रभुका पुत्र है,अतः प्रभुतुल्य है ।" नमि और विनमिने कहा- "इन विश्वेस को पाकर, अब हम इन्हें छोड़ और दूसरेको स्वामी नहीं मानेंगे। क्योंकि कल्पवृक्षको पाकर करीलकी सेवा कौन करता है ? हम जगदीशको छोड़कर, दूसरे से नहीं मांगेंगे।
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प्रथम पर्व
२५६
आदिनाथ-चरित्र क्या चातक-पपहिया मेघको छोड दूसरेसे याचना करता है ?भरत आदिक का कल्याण हो ! आप किसलिये चिन्ता करते हैं ? हमारे स्वामी से जो होना होसो हो, उसमें दूसरेको क्या मतलब ? अर्थात हम सेवक, ये स्वामी, हम याचक, ये दाता, इनकी इच्छा हो सो करें'। इनके और हमारे वीचमें बोलने वाला दूसरा कौन ? नमि विनमि को धरणेन्द्र द्वारा वैताट्य का
राज दिया जाना। उन कुमारों की उपरोक्त युक्तिपूर्ण बातें सुनकर नागराजने प्रसन्न होकर कहा-“मैं पातालपति और इन स्वामी का सेवक हूँ। तुम धन्य हो, तूम भाग्यशाली और बडे सत्यवान हो जो इन स्वामीके सिवा दूसरेको सेवने योग्य नहीं समझते और इसकी दृढ़ प्रतिज्ञा करते हो। इन भुवन पति की सेवासे पाशसे खींची हुई की तरह राज्य सम्पतियाँ पुरुषके सामने आकर खड़ी हो जाती हैं। अर्थात इन जगदीश की सेवा करने वालेके सामने अष्ठ सिद्धि और नवनिद्धि हाथ वाँधे खड़ी रहती हैं। इतना ही नहीं, इन महात्मा की कृपासे, लटकते हुए फलकी तरह, वैताढ्य पर्वतके ऊपर रहने वाले विद्याधरोंका स्वामित्व भी सहजमें मिल सकता है। और इनकी सेवासे, पैरोंके नीचेके खजाने की तरह, भुवनाधिपति की लक्ष्मी भी बिना किसी प्रकारके प्रयास और उद्योग के मिल जाती है। मन्त्रसे वशमें किये हुए की तरह, इनकी सेवासे व्यन्तरेन्द्र की लक्ष्मी भी इनके सेवक के पास नम्र होकर
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
रहती है I जो भाग्यशाली पुरुष इनकी सेवा करता है, स्वयंवर बधूके समान, ज्योतिष्पति की लक्ष्मी भी उसे वरती है—उसे अपना पति बनाती है । वसन्त ऋतुसे जिस तरह विचित्र विचित्र प्रकारके फूलों की समृद्धि होती है, उसी तरह इनकी सेवासे इन्द्रकी लक्ष्मी भी प्राप्त होती है । मुक्तिकी छोटी बहन जैसी ओर कठिन से मिलने योग्य अरमिन्द्र की लक्ष्मी भी इनकी सेवा करने वाले को मिलती है 1 इन जगदीश की सेवा करने वाले प्राणी को जन्म-मरण रहित सदा आनन्दमय परमपद की प्राप्ति होती है । अर्थात् इनका सेवक जन्म-मरणके कष्ट से छुटकारा पाकर नित्य सुख भोगता है। ज़ियादा क्या । कहूँ, इनकी सेवासे प्राणी इस लोक में इनकी ही तरह तीन लोक का अधिपति और परलोक में सिद्ध होता है । मैं इन प्रभुका दास हूँ और तुम भी इनके सेवक हो ; अतः इनकी सेवाके फल स्वरूप मैं तुम्हें विद्याधरोंका ऐश्वर्य देता हूँ । उसे तुम इनकी सेवा से ही मिला हुआ समझो। क्योंकि पृथ्वी पर जो अरुण का प्रकाश होता है वह भी तो सूर्यसे ही होता है ये कहकर पाठ करने मात्र सिद्धि देने वाली यों ही और प्रज्ञाप्ति प्रभृति अड़तालिस हजार विद्याएँ उन्हें दी और आदेश किया कि तुम वैताढ्य पर्वत पर जाकर दो श्रेणियों में नगर स्थापन करके अक्षय राज करो । इसके बाद वे भगवान्को नमस्कार करके, पुष्पक विमान बना, उसमें बैठ; नागराजके साथही बहाँसे चल दिये। पहले उन्होंने अपने पिता कच्छ और महाकच्छके पास जाकर, स्वामी सेवा रूषी
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
वृक्षके फल स्वरूप उस नूतन सम्पत्तिकी प्राप्ति का वृतान्त निवेदन किया; अर्थात् अपने पिताओं के पास जाकर उनसे कहा कि हमने स्वामीकी इस तरह सेवा की और उसके एवज़में हमें ये नवीन सम्पत्ति-विद्याधरोंका राज मिला है। इसके बाद वे अयोध्या पति महाराज भरतके पास गये और अपनी सम्पत्ति और राज पानेका सारा हाल कह सुनाया। यानी पुरुष के मानकी सिद्धि अपना स्थान बतानेसे ही होती है। शेषमें वे अपने नाते रिश्तेदारों और नौकर चाकरों-स्वजन और परिजनों को साथ लेकर उत्तम विमान में बैठ, वैताढ्य पर्वतकी ओर रवाना हुए।
वेताढ्य पर्वत पर बसाये हुए ११० नगर ।
वैताढ्य पर्वत के प्रान्त भागको लवण-समुद्र की उत्तान तरङ्ग चुमती थीं और वह पूरव तथा पश्चिम दिशा का मानदण्ड सा मालूम होता था, भरत क्षेत्र के उत्तर और दक्षिण भागकी सीमा स्वरूप वह पहाड़ उत्तर-दक्खन ४०० मील लन्बा है, पचास भील पृथ्वी के अन्दर है और पृथ्वीके ऊपर २०० मील ऊँचा है। मानो भुजायें फैलायें हो, इसतरह हिमालयने गङ्गा और सिन्ध नदियोंसे उसका आलिङ्गन किया है। भरतार्द्ध की लक्ष्मी के विश्राम के लिये क्रिड़ा घर हों—ऐसी खण्डप्रभा और तमिस्रा नामकी कन्दराएँ उसके अन्दर हैं। जिस तरह चूलिका या चोटी से मेरू पर्वत की शोभा दीखती है ; उसी तरह शाश्वत प्रतिभा युक्त सिद्धपद शिखर या चोटीसे अपूर्व शोभा झलक मारती है। विचित्र
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आदिनाथ-चरित्र २६२
प्रथम पर्व रत्नमय नवीन कण्ठाभरण जैसी नौ चोटियाँ उस पहाड़ पर हैं। यहाँ देवता क्रीड़ा करते हैं। दक्खन और उत्तर ओर १६० मील की ऊँचाई पर, मानो वस्त्र हों ऐसी व्यन्तरों की दो निवास श्रेणियाँ उस पहाड़ पर मोजूद हैं। नीचे से चोटी तक मनोहर सोने की शिलाओंवाले उस पर्वत को देखने से मालूम होता है मानों स्वर्गके एक पाँव का आभरण या गहना नीचे गिरा हुआ है। हवाके कारण से पहाड़ के ऊपर के वृक्षों की शाखायें हिल रही थीं, उनके देखने ऐसा जान पड़ता था, मानो पर्वत की भुजायें दूरसे बुला रही हों। उसी वैताढ्य पर्वत पर नामि और विनमि जा पहुँचे।
नमि राजाने, पृथ्वी से अस्सी मील की ऊँचाई पर, उस पर्वत की दक्खन श्रेणी में पचास शहर बसाये। किन्तु पुरुषों ने जहाँ पहले गान किया है, ऐसे बाहुकेतु, पुण्डरीक, हरिकेतु, सेतकेतु, सारिकेतु, श्रीबाहु, श्रीगृह, लोहार्गल, अरिजय, स्वर्ग। लीला, वज्रार्गल, बज्रविमोक, महीसारपुर, जयपुर, सुकृतमुखी, चर्तुमुखी, वहुमुखी, रता, विरता, अखण्डलपुर, विलासयोनिपुर, अपराजित, काँचीदाम, सुविनय, नभःपुर, क्षेमंकर, सहचिन्हपुर, कुसुमपुरी, संजयन्ती, शक्रपुर, जयन्ती, वैजयन्ती, विजया, क्षमंकटी, चन्द्रभासपुर, रविभासपुर, सप्तभूतलावास, सुविचित्र, महानपुर, चित्रकूट, त्रिकूटक, वैश्रवणकूट, शशिपुर, रविपुर, धिमुखी, वाहिनी, सुमुखी, नित्योद्योतिनी, और श्रीरथनुपुर, चक्रवालये उन नगर और नगरियोंके नाम रक्खे। इन नगरोंके बीचों
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ - चरित्र
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बीचमें आये हुए रथनुपुर चक्रवाल नगर में नामी ने निवास किया धरणेन्द्र की आज्ञासे पर्वत की उत्तर श्रेणी में विनमीने उसी तरह पचास नगर बसाये । अर्जुनी, वारुणी, वैसंहारिणी, कैलासवारुणी, विद्युतदीप, किलिकिल, वारुचूड़ामणि, चन्द्रभाभूषण, वन्शवत्, कुसुम चल, हन्सगर्भ, मेधक, शङ्कर, लक्ष्मीहर्म्य, चामर, विमल, असुमत्कृत, शिवमन्दिर, वसुमती, सर्व सिद्धस्तुत, सर्व शत्रु गय, केतुमालांक, इन्द्रकान्त, महानन्दन, अशोक, वीत शोक, विशोकक, सुखालोक, अलक तिलक, नभस्तिलक, मन्दिर, कुमुद कुन्द, गगनवल्लभ, युवतीतिलक, अवनितिलक, सगन्धर्ग, मुक्तहार, अनिभिष, विष्टुप अग्निज्वाला, गुरुज्वाला, श्रीनिकेतपुर जयश्री निवास, रत्नकुलिश, वशिष्टाश्रम, द्रविणाजय, सभद्रक, भद्राशयपुर, फैन शिखर, गोक्षीरवर शिखर, वैर्यक्षोभ शिखर, गिरिशिखर, धरणी, वारणी, सुदर्शन पुर, दुर्ग, दुर्द्धर, माहेन्द्र, विजय, सुगन्धिनी, सुरत, नागर पुर, और रत्नपुर - ये उन पचास नगर और नगरियों के नाम रक्खे | इन नगर और नगरियों के वीचों बीच में जो गगनवल्लभ नाम का नगर था, उसीमें धरणेन्द्र की आज्ञा से विनमि ने निवास किया । विद्याधरोंकी महत् ऋद्धि वाली वे दोनों श्रेणियाँ अपने ऊपर वाली व्यन्तर श्रेणी के प्रतिविम्ब - अक्स की तरह सुशोभित थीं; यानी वे दोनों श्रेणी उनके ऊपरकी व्यन्तर श्रेणी के प्रतिविम्व की जैसी मालूम होती थीं। उन्होंने और भी अनेक गाँव और खेड़े बसाये और स्थान की योग्यतानुसार कितने ही जनपद भी स्थापन किये। जिस देश से लाकर जो लोग वहाँ
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आदिनाथ-चरित्र २६४
प्रथम पर्व बसाये, उस देशका उन्होंने वही नाम रक्खा। इन सब मगरों में, हृदय की तरह, सभाके अन्दर नमि और विनमि ने नाभिमन्दन की मूर्ति स्थापित की। विद्याधर विद्या से दुर्मद होकर दुविनीत न हो जाय, अर्थात् विद्यासेमत वाले होकर उद्धण्ड और उच्छल न हो जाय इसलिये धरणेन्द्र ने ऐसी मर्यादा स्थापन की—'जो दुर्मद वाले पुरुष-जिनेश्वर, जिन
चैत्य, चरमशरीरी, और कायोत्सर्गमें रहने वाले किसी भी मुनिका पराभव या उल्लङ्घन करेंगे, उन्हें विद्याएँ उसी तरह त्याग देंगी, जिस तरह आलसी पुरुषको लक्ष्मी त्याग देती है। जो विद्याधर किसी स्त्री के पति को मार डालेगा और स्त्री के बिना मरज़ी के उसके साथ भोग करेगा, उसको भी विद्यायें तत्काल छोड़ देंगी' । नागराजने ये मर्यादा ज़ोर से सुनाकर, वह यावत् चन्द्र रहें; यानी जब तक चन्द्रमारहे तब तक रहें, इस ग़रज़ से उन्हें रत्नभित्ति की प्रशस्ति में लिख दी। इस के बाद नमि और विनमि दोनों विद्याधरों का राजत्व प्रसाद सहित स्थापन कर एवं और कई व्यवस्थाएँ करके नागपति अन्तर्धान होगये।। .. नमि विनमि की राज्य स्थिति। :: अपनी अपनी विद्याओं के नामसे विद्याधरों के सोलह निकाय या जातियाँ हुई। उन में गौरी विद्या से गौरेय हुए। मनु विद्या से मनु हुए, गान्धार विद्यासे गान्धार हुए; मानवी से मानव हुए, कौशिकी विद्यासे कौशिकी पूर्व हुए; भूमितुण्ड विद्यासे भूमि
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प्रथम पर्व
२६५ आदिनाथ-चरित्र तुण्ढक हुए ; मूलवीर्य्य विद्यासे मूलविय्येक हुथे, शंकुका विद्यासे शंकुक हुए, पाण्डुकी विद्यासे पाण्डुक हुए, काली विद्यासे कालिकेय हुए, श्वपाकी विद्यासे श्वपाक हुए, मातंगी से मातंग हुए वंशालया से वंशालय हुए, पांसुमूल विद्यासे पांसुमूलक हुए और वृक्षमूल विद्यासे वृक्षमूलक हुए। इन सोलह जातियों के दो विभाग करके नमि और विनमि राजाओंने आठ आठ भाग ले लिये। अपने अपने निकाय या जाति में अपनी कायाकी तरह भक्ति से विद्याधिपति देवताओं की स्थापना की। नित्य ही ऋषभ स्वामी की मूर्ति की पूजा करने वाले वे लोग धर्म में बाधा न पहुँचे, इस तरह कालक्षेप करते हुए देवताओं की तरह भोग भोगने लगे। किसी किसी समय वे दोनों मानो दूसरे इन्द्र और ईशानेन्द्र हों इस तरह जम्बूद्वीप की जगति के जालेके कटक में स्त्रियों को लेकर क्रीड़ा करते थे। किसी किसी समय मेरु पर्वत पर नन्दन आदिक बनों में, हवा की तरह, अपनी इच्छानुसार आनन्द पूर्वक विहार करते थे। किसी समय श्रावक की सम्पत्ति का यही फल है, ऐसा धार कर, नन्दीश्वरादि तीर्थों में शाश्वत प्रतिमा की अर्चना करनेके लिए जाते थे। किसी वक्त विदेहादिक क्षेत्रोंमें, श्री अर्हन्त के समवसरण के अन्दर :जाकर, प्रभु के वाणी रूप अमृत का पान करते थे और हिरन जिस तरह कान ऊँचे करके संगीत ध्वनि सुना करते हैं, उसी तरह कभी कभी वे चारण मुनियों से धर्म-देशना या धर्मोपदेश सुनते थे। समकित और अक्षीण भण्डार को धारण करनेवाले वे दोनों
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आदिनाथ चरित्र
२६६
प्रथम पर्व
भाई विद्याधरों से घिर कर, त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम-का बाधा न आवे इस तरह राज्य करते थे ।
कच्छ और महाकच्छ की तपश्चर्या ।
कच्छ और महाकच्छ जो कि राज तापस हुए थे, गंगा नदी के दहने किनारे पर, हिरनों की तरह, वनचर होकर फिरते थे और मानो जंगम वृक्ष हों इस तरह छालों के कपड़ों से शरीरको ढकते थे । कय किये हुए अन्न की तरह, गृहस्थाश्रमी के आहार को वे कभी छूते भी न थे । चतुर्थ और छट्ट वगैर: तपसे से उनकी धातुएं सूख गई थीं, अतः शरीर एक दम दुबले होगये थे और खाली पड़ी हुई धाम्मण की उपमा को धारण करते थे । पारणे के दिन भी सड़े हुए और ज़मीन पर पड़े हुए पत्रफलादि को खाकर हृदय में भगवान् का ध्यान करते हुए वहीं रहते थे 1
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लोगों का प्रभुका आतिथ्य सत्कार करना ।
भगवान् ऋषभ स्वामी आर्य अनार्य देशों में मौन रहकर घूमते थे । एक वर्ष तक निराहार रहकर भुने प्रविचार किया कि, जिस तरह दीपक या चिराग़ तेलसेही जलता है और वृक्ष जलसेहो सरसव्ज़ या हरे भरे रहते हैं; उसी तरह प्राणियों के शरीर आहार से ही कायम रहते हैं, वह आहार भी बयालीस दोषोंसे रहित हो तो साधुको माधुकरी वृत्ति से भिक्षा करके उचित समय पर उसे खाना चाहिये । गये दिनों की तरह,
अगर अब भी मैं
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र आहार न लेता हुआ अभिग्रह करके रहूँगा, तो मेरा शरीर तो ठहरा रहेगा; परन्तु जिस तरह ये चार हज़ार मुनि भोजन न मिलनेसे पीड़ित होकर भग्न होगये हैं, उसी तरह और मुनि भी भग्न होंगे। ऐसा विचार करके, प्रभु भिक्षा के लिए, सब नगरों में मण्डन रूप, गजपुर नामक नगर में आये । उस नगर में वाहु. पलिके पुत्र सोमप्रभ राजाके श्रेयांस नामक कुमारने उस समय स्वप्न में देखा, कि मैंने चारों ओर से श्याम रंग हुए सुवर्णगिरी -मेरु पर्वत को, दूधके घड़ेसे अभिषेक कर, उज्ज्वल किया । सुबुद्धि नामक सेठ ने ऐसा स्वप्न देखा कि सूर्यसे गिये हुए हज़ार किरण श्रेयांसकुमारने फिर सूरज में लगा दिये, उनसे सूर्य अतीव प्रकाशमान् हो उठा। सोमयज्ञा . राजाने स्वाप्न में देखा कि, अनेक शत्रुओंसे चारों ओरसे घिरे हुए किसी राजाने अपने पुत्र श्रेयांस की सहायतासे विजय-लक्ष्मी प्राप्त की। तीनों शक्सों ने अपने अपने स्वाप्नों की बात आपस में कही, पर उनका फल या ताबीर न जान सकने के कारण अपनेही घरको चले गये। मानो उस स्वप्नका निर्णय प्रकट करने का निश्चयही कर लिया हो, इस तरह प्रभु ने उसी दिन भिक्षा के लिए हस्तिनापुर में प्रवेश किया। एक संवत्सर तक निराहार रहने पर भी ऋषभ की लीला से चले आते हुए प्रभु हर्षके साथ लोगों की दृष्टितले आये।
श्रेयांस को जाति स्मरण । प्रभु को देखतेही पुरवासी लोगोंने संभ्रम से दौड़कर, विदेश
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
से आये हुए बन्धु की तरह, उन्हें चारों ओर से घेर लिया, और कहने लगे :- हे प्रभो ! आप कृपाकरके हमारे घर पर चलिये; क्योंकि वसन्त ऋतुके समान आप बहुत दिनों बाद दिखाई दिये हैं । किसने कहा - "हे स्वामिन्! स्नान करने के लिए उत्तम जल, वस्त्र और पीठिका आदि मौजूद हैं। इसलिये आप स्नान कीजिये और प्रसन्न हूजिये" किसीने कहा – “मेरे यहाँ उत्तम चन्दन, कपूर, कस्तूरी और यक्षकदर्भ तैयार हैं, उन्हें काम में लाकर मुझे कृतार्थ कीजिये ।” किसीने कहा – “हे हमारे रत्नमय अलङ्कारों को धारण करके कीजिये ।” किसीने कहा - " हे स्वामिन्! अपने शरीर में आने वाले रेशमी कपड़े पहनकर उन्हें पवित्र कीजिये ।" किसीने कहा- - "हे देव ! देवाङ्गना समान मेरी स्त्री को आप अपनी सेवामें स्वीकार कीजिये, आपके समागम से हम धन्य है ।" किसीने कहा - "हे राजकुमार ! खेलके मिससे भी आप पैदल क्यों चलते हैं ? मेरे पर्वत जैसे हाथी पर बैठिये ।” किसीने कहा – “सूर्यके घोड़ोंके समान मेरे घोड़ों को ग्रहण कीजिये । आतिथ्य स्वीकार न करके, हमें नालायक - अयोग्य क्यों वनाते हैं ?” किसीने कहा- “मेरा जातिवन्त घोड़ोंसे जुता हुआ रथं स्वीकार किजिये। आप मालिक होकर अगर पैदल चलते हैं, तब इस रथका रखना फिजूल है । इसकी क्या जरूरत है ।" किसीने कहा- "हे प्रभो ! इस पके हुए आमके फलको आप ग्रहण कीजिये । स्त्रही जनोंका अपमान करना अनुचित है"
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जगत् रत्न ! कृपा कर शरीरको अलंकृत मेरे घर पधार कर
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थम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
किसीने कहा - " आप पान सुपारी प्रसन्न होकर स्वीकार कीजिये" किसीने कहा - "प्रभो ! हमने क्या अपराध किया है, जो आप हमारी प्रार्थना पर कान भी नहीं देते और कुछ जवाब भी नहीं देते ?” इस प्रकार नगर निवासी उनसे प्रार्थना करते थे, पर वे उन सब चीजोंको अकल्प्य समझ, उनमें से किसी को भी स्वीकार न करते थे और चन्द्रमा जिस तरह नक्षत्र नक्षत्र पर फिरता है, उसी तरह प्रभु घर घर घूमते थे । पक्षियों के सवेरेके समय के कोलाहल की तरह नगरनिवासियों का बह कोलाहल अपने घर में बैठे हुए श्रेयांसके कानों तक पहुंचा । उसने 'यह क्या हैं इस बातकी खबर लानेके लिये छड़ीदार को भेजा । वह छड़ीदार सारा समाचार जानकर, वापस महल में आया और हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगा:
श्रं यांस द्वारा भगवान का पारणा ।
राजाओं के जैसे अपने मुकुटों से जमीनको छूकर चरणके पोछे लोटनेवाले इन्द्र दृढ़ भक्तिसे जिनकी सेवा करते हैं; सूर्य जिस तरह पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी तरह जिन्होंने इस लोक में मात्र अनुकम्पा - दया के वश होकर, सब को आजीविकाके उपाय रूप कर्म बतलाये हैं--- जिन्होंने मनुष्यों पर दया करके उन्हे आजीविका - रोज़ी के उपायोंके लिये तरह तरह के काम बतलाये हैं । जिन्होंने दीक्षा ग्रहण की 'इच्छा करके, अपनी प्रसाद की तरह, भरत प्रभृति और
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
तुमको यह पृथ्विी दी है। जिन्हों ने समस्त सावद्य वस्तुओं का परिहार करके, अष्ट कर्म रुपी महापङ्क-गहरी कीचड़को सुखानेके लिये, गरमी के मौसमको जलतो हुई धूपके जैसे तप को स्वीकार किया है, घोर तपश्चर्या करना मंजूर किया है वे ही ऋषभ देव प्रभु निस्सङ्ग, ममता रहित और निराहार अपने पाद सञ्चार से पृथ्विी को पवित्र करते हुए विचरते हैं। वे सूरज की घामसे दुखी नहीं होते और छायासे सुखो नहीं होते, किन्तु पहाड़ की तरह धूप और छायाको बराबर समझते हैं। वज्रशरीरी की तरह, उन्हें शीतसे विरक्ति और उष्णता-गरमीसे आसक्ति नहीं होती, उन्हें शरदी बुरी और गरमी अच्छी नहीं लगती; चे सरदी
और गरमी को समान समझते हैं ; जहाँ जगह मिलती है वहाँ पड़ रहते हैं। ससार रूपी कुञ्जर में केसरी सिंहकी तरह वे युगमात्र दृष्टि करते हुए, एक चींटी को भी तकलीफ न हो—इस तरह ज़मीन पर कदम रखते हैं। प्रत्यक्ष निर्देश करने योग्य, त्रिलोकी के नाथ आपके प्रपितामह हैं । वे भाग्य योग्य से ही यहां आये हैं। जिस तरह ग्वालिये के पीछे गायें दौड़ती हैं, उसी तरह नगरके लोग प्रभुके पीछे दौड़ रहे हैं । ये उन्हींका मधूर कोलाहल है।” जिनीश्वर के नगरमें आने की खवर पाते ही, युवराज प्यादों का उल्लङ्घन कर, तत्काल दौड़ा। युवराज को बिना छाते और जूतों के दौड़ते देख, उसकी सभाके लोग भी जूते ओर छाते छोड़कर, छाया की तरह, उसके पीछे दौड़े। उस समय युवराज के कुण्डल हिलते थे, उनके देखने से ऐसा मालूम होता था, गोया वह स्वामी के सामने
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प्रथम पर्व
२७१
आदिनाथ चरित्र फिर बाल-क्रोड़ा करता हुआ सुशोभित है। अपने घरके आँगन में आये हुए प्रभु के चरण कमलों में लौटकर, वह अपने भौंरेके भ्रमको उत्पन्न करनेवाले वालों से उन्हें पोंछने लगा। इसके बाद उसने फिर उठकर जगदीश की तीन प्रदक्षिणाकी। फिर मानो हर्ष से धोताहो, इस तरह चरणोंमें नमस्कार किया। फिर खड़े होकर प्रभु के मुखकमल को इस तरह देखने लगा, जिस तरह चकोर चन्द्रमाको देखते हैं। “ऐसी सूरत मैंने कहीं देखी है" यह विचार करते हुए, उसको विवेक वृक्षका वीज रूप जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उससे उसे मालूम हुआ कि पहले जन्म पूर्व विदेह क्षेत्र में भगवान् वज्रनाभ नामक चक्रवर्ती थे। मैं उनका सारथी था। उस भव या जन्म में स्वामी के वज्रसेन नामक पिता थे, उनके ऐसे ही तीर्थङ्कर चिन्ह थे। वज्रनाभने वनसेन तीर्थङ्कर के चरणोंके समीप दीक्षा ली। उस समय मैं ने भी उन्हींके साथ दीक्षाली। उस वक्त वज्र सेन अर्हन्त के मुंहसे मैंने सुना था, कि यह वज्रनाभभरतखण्डमें पहला तीर्थकर होगा। स्वयं प्रभादिकके भवों में मैंने इनके साथ भ्रमण किया था। ये अब मेरे प्रपितामह लगते हैं। इनको आज मैं भाग्य योग से ही देख सका हूँ । आज ये प्रभु साक्षात् मोक्षकी तरह समस्त जगत्का
और मेरा कल्याण करने के लिये पधारे हैं,। युवराज इस प्रकार से विचार कर ही रहा था कि इतने में किसीने नवीन ईख-रससे भरे हुए घड़े प्रसन्नता पूर्वक युवराज श्रेयांस को भेंट किये। निर्दोष भिक्षा देने की विधि को जानने वाले कुमार ने
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
कहा - "हे भगवन् ! इस कल्पनीय रसको ग्रहण कीजिये ।” प्रभुने अञ्जलि जोड़कर, हाथ रूपी बर्तन सामने किया, उसमें ईख रस के घड़े ओज ओज कर ख़ाली किये गये । भगवानके हस्त पात्रमें बहुत सा रस समा गया भगवानकी अञ्जलि में जितना रस समाया, उतना हर्षं श्रेयांस के हृदय में नहीं समाया । : स्वामी की अअलि में आकाश में जिसकी शिखायें लग रही हैं, ऐसा रस मानो ठहर गया हो, इस तरह स्तम्भित हो गया; क्योंकि तीर्थङ्करों का प्रभाव अचिन्त्य होता है । प्रभु ने उस रससे पारणा किया · और सुर, असुर एवं मनुष्यों के नेत्रों ने उनके दर्शनरूपी अमृत से पारणा किया। उस समय मानो श्रेयांसके कल्याणकी ख्याति करने वाले चारण भाट हों, इस तरह आकाशमे प्रतिनाद से बढ़े हुए दुन्दुभी वाजे ध्वनि करने लगे। मनुष्यों के नेत्रोंके आनन्दाश्रुओं की वृष्टि के साथ आकाशसे देवताओंने रत्नों की बृष्टी की; मानों प्रभु के चरणों से पवित्र हुई पृथ्वी की पूजा के लिये हो इस तरह देवता उस स्थान पर आकाशसे पचरंगे फूलों की वर्षा करने लगे; सारे ही कल्प वृक्षों के फूलोंसे निकाला गया हो ऐसे गन्धोदक की वर्षा देवताओं ने की और मानो आकाश को विचित्र मेघमय करते हों, इस तरह देव और मनुष्य उज्ज्वल उज्ज्वल कपड़े फेंकने लगे। वैशाख मासकी तृतीया (तीज) को दिया हुआ वह दान अक्षय हुआ, इसलिये वह पर्व आखातीज के नामसे अबतक चला जाता है । जगत् में दान धर्मं श्रेयांससे चले और बाक़ी सब व्यवहार और नीति क्रम भगवन्त से चले !
अक्षय तृतिया या
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आदिनाथ चरित्र
077 पामगर
"हे भगवन् ! इस कल्पनीय रसको ग्रहण कीजिये।" प्रभुने अंजलि जोड़कर, हाथ रूपी बर्तन सामने किया, उसमें ईख-रस के घड़े प्रोज अोज कर ख़ाली किये गये। [पृष्ठ २७२ ] Narsingh Press, Calcutta.
सके।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
राजा और नगर निवासियों का श्रेयांस से
प्रश्न करना ।
प्रभुके पारणेसे और उस समय की रत्न वृष्टि से विस्मित हो हो कर राजा और नगर निवासी श्रेयांस के महल में आने लगे । कच्छ और महाकच्छ आदि क्षत्रिय तपस्वी प्रभुके पारणे की बातें सुनकर, अत्यन्त प्रसन्न होकर वहाँ आये । राजा और नगर निवासी तथा देशके लोग रोमाञ्चित प्रफुल्लित हो होकर श्रेयॉन्स से इस तरह कहने लगे- "हे कुमार ! आप धन्य हो और पुरुषों में शिरोमणि हो; क्योंकि आपका दिया हुआ रस प्रभु ने ले लिया और हम सर्वस्व देते थे, पर प्रभु ने उसे तृणवत् समझकर अस्वीकार कर दिया । प्रभु हम पर प्रसन्न नहीं हुए । ये एक साल तक गाँव, खदान, नगर और जंगल में घूमते रहे, तो भी हममें से किसीका भी आतिथ्य ग्रहण नहीं किया । इसलिये हम भक्त होने के अभिमानियों को धिकार हैं ! हमारे घरमें आराम करना एवं हमारी चीज़ लेना तो दूर की बात है । आज तक वाणी से भी प्रभुने हमको संभावित नहीं किया; अर्थात् हम से दो दो बातें भी न की । जिन्होंने पहले लखों पूर्वतक हमारा पुत्रकी तरह पालन किया है, वे ही प्रभु मानो हम से परिचय या जानपहचानही न हो, इस तरह व्यावहार करते हैं ।”
श्रेयांसका नगर निवासियों को उत्तर देना । लोगों की बातें सुनकर श्रेयांस ने कहा - "तुम लोग ऐसी बातें
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भादिनाथ चरि
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प्रथम पव क्यों कर रहे हो ? ये स्वामी अब पहले की तरह परिग्रह धारी राजा नहीं हैं। वे तो अब संसार रूपी भंवर से निकलने के लिए समग्र सावद्य व्यापार को त्यागकर यति हुए हैं । जो भोग भोगने की इच्छा रखते हैं, वेही स्नान, अंगराग, आभूषण-गहने जेवर और कपड़े लेते और काममें लाते हैं । परन्तु प्रभुतो उन सब से विरक्त हैं, उनसे सख्त नफरत या घृणा होगई है। अतः इन्हें इन सब की क्या ज़रूरत ? जो काम देव के वशीभूत होते हैं, वही कन्याओं को स्वीकार करते हैं। परन्तु ये प्रभु तो काम को जीतने वाले हैं । अतः सुन्दरी कामिनी इनके लिए पाषाणवत पत्थरके समान है। जो राज्य भोगकी इच्छा रखते हैं, वेही हाथी, घोड़े, रथ, वाहन आदि लेते हैं, परन्तु प्रभुने तो संयमरूपी साम्राज्य ग्रहण किया है, अतः उन्हें तो ये सब जले हुए कपड़ोंके समान है। जो हिंसक होते हैं, वेही सजीव फलादिक ग्रहण करते हैं; परन्तु ये प्रभु तो समस्त प्राणियोंको अभयदान देने वाले हैं, अतः ये उन्हें क्यों लेने लगे? ये तो केवल एषणीय, कल्पनीय और प्रासुक अन्न आदिकको ग्रहण करते हैं । लेकिन तुम मढ़ लोग इन सब बातोंको नहीं जानते।"
उन्होंने कहा-“हे युवराज ! ये शिल्पकला या कारीगरीके जो काम आजकल होते हैं, ये सब पहले प्रभु ने ही बतायेथेस्वामीने सिखाये-बताये थे, इसीसे सब लोग जानते हैं और आप जो बातें कहते हैं, ये तो स्वामीने बताई नहीं, इसी लिये हम कैसे जान सकते हैं ? आपने ये बात कैसे जानी? आप इस बातके कहने लायक हैं, अतः कृपया बताइये।"
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प्रथम पर्व
२७५
आदिनाथ चरित्र युवराजने कहा-“ग्रन्थ अवलोकन या शास्त्र देखनेसे जिस तरह बुद्धि पैदा होती है, उसी तरह भगवान के दर्शनोंसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। जिस तरह सेवक एक गाँवसे दूसरे गाँवको जाता है ; उसी तरह स्वर्ग और मृत्युलोकमें वारी वारीसे आठ भवों या जन्मों तक मैं प्रभुके साथ साथ रहा हूँ। इस भवसे तीसरे भवमें यानी अबसे पहले हुए तीसरे जन्ममें, विदेह क्षेत्रमें भगवानके पिता वज़सेन नामक तीर्थङ्कर थे। उनसे प्रभुने दीक्षा ली प्रभुके बाद मैंने भी दीक्षा ली। उस जन्मकी बातें याद आने से मैं इन सब बातोंको जान गया। गत रात्रिमें मुझे, मेरे पिता और सुबुद्धि सार्थवाह को जो स्वप्न दीखे थे उसका फल मुझे प्रत्यक्षमिल गया। मैंने स्वप्नमें श्याम मेरु पर्वतको दूधसे धोया हुआ देखा था, उसी से आज इन प्रभुको जो तपस्यासे दुबले हो गये हैं, मैंने ईश्वरसे पारणा कराया व्यौर उससे ये शोभने लगे। मेरे पिताने उन्हें दुश्मनोंसे लड़ते हुए देखा था, मेरे पारणेकी सहायतासे उन्होंने परीषह रूपी शत्रुओंका पराभव किया है। सुबुद्धि सार्थवाह या सेठने स्वप्नमें देखा था, कि सूर्यमण्डलसे हज़ारों किरणें गिरी ओर मैंने वे फिर लगादी ; इससे दिवाकर खूब सुन्दर मालूम होने लगा। उसका यह अर्थ है, कि सूर्य समान भगवान्का सहस्र किरणरूपी केवल ज्ञान भ्रष्ट हो गयाथा उसे मैंने आज पारणे से जोड़ दिया। और उससे भगवान् शोभने लगे ; अर्थात् प्रभुको आहारका अंतराय था, आहार बिना शरीर ठहर नहीं
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व सकता। शरीर बिना केवल ज्ञान हो नहीं सकता, अब मैंने प्रभुका पारणा करा दिया-ईखरस पिला दिया, इससे पृभुके शरीरमें बलआया और वह कान्तिमान हो गया। अव प्रभुको केवल ज्ञान हो सकेगा, यह सब मेरे द्वारा हुआ इसीसे स्वप्नमें मेरे द्वारा सूर्यकी गिरी हुई सहस्र किरणें फिर सूर्यमें जोड़ी हुई और सूर्य तेजवान देखा गया। खुलासा यह है, स्वप्नमें जो सूर्य सेठको दीखा, वह यह भगवान् हैं। उसकी सहस्र किरणें गिरी हुई देखी गई' ; वह आपका केवल ज्ञानसे भ्रष्ट होना है। मैंने किरणें फिर सूर्यमें जड़दी, वह मेरा प्रभुको पारणा करा देना है। सूर्यका तेज जिस तरह स्वप्नमें मेरे किरण जड़ देने पर बढ़ गया उसी तरह पारणा कराने से भगवानका तेज बल बढ़ गया और उनमें केवल ज्ञानका सम्भव है।” युवराजले ये बातें सुनकर वे सब "बहुत ठीक है, बहुत ठीक हैं” कहते हुए खुशीके साथ अपने अपने घर गये।
श्रेयांसके घर पारणा कर जगत्पति वहांसे दूसरी जगहको विहार कर गये; यानी चले गये। क्योंकि छद्मस्थ तीर्थङ्कर एक जगह नहीं ठहरते। भगवान्के पारणेके स्थानको कोई उलाँधे नहीं, इसलिये श्रेयांसने वहाँ रत्नमय पीठ बनवा दी। मानों साक्षात् भगवान्के चरण-कमल ही हों, इस तरह गाढ़ भक्तिसे विनम्र हो, वह उस रत्नमय पीठकी त्रिकाल, अर्थात् तीनों समय पूजा करने लगा। “यह क्या हैं ?” जब लोग इस तरह पूछते थे, तब श्रेयांस यह कहते थे- 'यह आदिकर्ताका मण्डल है।' इसके
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प्रथम पवं
आदिनाथ चरित्र बाद प्रभुने जहाँ जहाँ भिक्षा ग्रहण की, वहाँ वहाँ लोगोंने इसी तरह पीठे बनवा दीं। इससे अनुक्रमसे “आदित्य पीठ" इस तरह प्रवृत्त हुआ।
भगवान् का तक्ष शिला गमन । ___ एक समय, जिस तरह हाथी कुञ्जमें प्रवेश करता है, उस तरह प्रभु सन्ध्या समय, बाहु बलि देशमें, बाहुबलिकी तक्षशिला पुरीके निकट आये और नगरीके बाहर एक बगीचेमें कायोत्सर्ग में रहे। बाग़के मालीने यह समाचार बाहुबलिको जा सुनाया। खबर पातेही बाहुबलिने फ़ौरन ही नगर। रक्षक बुलाये और उन्हें हुक्म दिया कि नगरके मकानात और दूकानोंको खूब अच्छी तरह सजा कर नगरको अलंकृत करो। यह हुक्म निकलते ही नगरके प्रत्येक स्थानमें लटकने वाले बड़े बड़े झमरोंसे राहगीरोंके मुकुटोंको चूमने वाली केलेके खंभोंकी तोरण मालिकायें शोभा देने लगीं। मानों भगवान के दर्शनों के लिए देवताओंके विमान आये हों, इस तरह हरेक मार्ग रत्नपात्रसे प्रकाशमान मंचोंसे शोभायमान दीखने लगा। वायुसे हिलती हुई उद्दाम पताकाओं की पंक्तियोंसे वह नगरी हज़ार भुजाओं वाली होकर नाचती हो ऐसी शोभने लगी। नवीन केशरके जलके छिड़कावसे सारे नगरकी ज़मीन ऐसी दीखने लगी, मानों मंगल अंगराग किया हो। भगवान्के दर्शनोंकी उत्कण्ठा रूपी चन्द्रमाके दर्शनसे वह नगर कुमुदके खण्डके समान प्रफुल्लित हो उठा ; यानी सारा शहर
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
निद्रा रहित हो गया। सारी रात आँखसे आँख न लगी। नगर निवासी रात भर जागते रहे। मैं सवेरे ही स्वामीके दर्शनोंसे अपनी आत्मा और लोगोंको पवित्र करूँगा,—ऐसे विचार घाले बाहुबलिको वह रात महीनाके बराबर हो गई। इधर रातके प्रभातमें परिणत होते ही, प्रतिमास्थिति समाप्त होते ही, प्रभु वायु की तरह दूसरी जगहको विहार कर गये अर्थात अन्यत्र चले गये। बाहुबलि का प्रभुके पास वन्दना करने को जाना
सवेरा होते ही बाहुबलिने उस बाग़की ओर जानेकी तैयारी की, जिसमें रातको भगवान्के ठहरनेकी बात सुनी थी। जिस समय वह चलनेको उद्यत हुआ . उस समय अनेक सूर्योके समान बड़े बड़े मुकटधारी मण्डलेश्वरोंने उसे चारों ओरसे घेर लिया। उसके साथ अनेकों क्रियाकुशल, शुक्राचार्य प्रभृति की बराबरी करने वाले मूर्तिमान अर्थ शास्त्रसदृश मंत्री थे। गुप्त पंखों वाले, गरुड़के समान जगत्को उल्लंघन करनेमें वेगवान्, लाखों घोड़ोंसे घिरा हुआ वह बहुतही शोभायमान दीखता था ।करते हुए मदजल की वृष्टिसे मानो झरने वाले पर्वत हों, ऐसे पृथ्वीकी रजको शान्त करने वाले हाथियोंसे वह शुशोभित था। पाताल कन्याओं के जैसी, सूर्यको न देखने वाली वसन्त श्री प्रभृति अन्तः पुरकी रमणियाँ उसके आस पास तैयार खड़ी थीं। उसके दोनों ओर चमर धारिणी गणिकायें खड़ी थीं। उनसे वह राजहंस सहित
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
गंगा-जमुना से सेवित प्रयागराज जैसा दोखता था । उसके सिर पर मनोहर सफेद छत्र फिर रहा था। इसलिये पूर्णमासीके आधीरात के चन्द्रमासे जिस तरह पर्वत सोहता है, उसीतरह वह सोह रहा था । देवनन्दी - इन्द्रका प्रतिहार जिस तरह इन्द्रको राह दिखाता है; उसी तरह सोनेकी छड़ी वाला प्रतिहार उसके आगे आगे राह दिखाता चलता था । लक्ष्मी - पुत्रोंकी तरह, रत्न जड़ित गहने और ज़ेवरोंसे सजकर शहर के शाहूकार घोड़ों पर चढ़ चढ़कर उसके पीछे पीछे चलानेको तयार खड़े थे । जवान सिंह जिस तरह पर्वतकी शिला पर चढ़कर बैठता है; उसी तरह इन्द्रके सदृश बाहुबलि राजा भद्र जातिके सर्वोत्तम गजराज पर सवार हो गया । जिस तरह चूलिका से मेरु पर्वत शोभता है; उसी तरह मस्तक पर तरंगित कान्ति वाले मुकुटसे वह सुशोभित था । उसके दोनों कानों में जो दो मोतियोंके कुण्डल पड़े हुए थे, उनके देखनेसे ऐसा मालूम होता था, मामो उसके मुखकी शोभासे परा जित हुए जम्बू दीपके दोनों चन्द्रमा उसकी सेवा करनेके लिये आये हों । लक्ष्मी के मन्दिर स्वरूप हृदय पर उसने बड़े बड़े फार मोतियों का हार पहना था, वह हार उस मन्दिरका क़िला सा जान पड़ता था। भुजाओं पर उसने सोंनेके दो भुजबन्धर पहने थे, उनके देखने से ऐसा जान पड़ता था, गोया भुजा रूपी वृक्ष नयी लताओंसे घेरकर दृढ़ किये गये हैं। हाथोंके पहुचों या कलाइयों पर उसने मोतियोंके दो कड़े पहने थे, वे लावण्य रूपी नदी के तीर पर रहने वाले फैनके जैसे मालूम होते थे ।
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व अपनी कान्तिसे आकाशको पल्लवित करने वाली दो अगूठियाँ उसने पहनी थीं। वे सर्पके फण जैसी शोभा वाले हाथोंकी मणियोंकी तरह सुन्दर मालूम होती थीं। शरीर पर उसने सफ़ेद रंगके महीन कपड़े पहने थे, जो शरीर पर लगाये चन्दनसे अलग न मालूम होते थे। पूर्णिमाका चन्द्रमा जिस तरह चन्द्रिका को धारण करता है ; उसी तरह उसने गंगाके तरङ्ग समूहकी स्पर्धा करने वाला सुन्दर वस्त्र चारों ओर धारण किया था, विचित्र धातुमय पृथ्वीसे जैसे पर्वत शोभता है; उसी तरह विचित्र वर्णके सुन्दर अन्दर के कपड़ोंसे वह शोभता था । मानों लक्ष्मीको आकर्षण करने वाली क्रीड़ा करनेका तीक्ष्ण शस्त्र हो, इस तरह वह महाबाहु वज्र को अपने हाथमें फेरता था और वन्दि जन जयजय शब्दसे दिशाओंके मुखोंको पूर्ण करते थे। इस प्रकार बाहुबलि राजा उत्सव पूर्वक-बड़े ठाट बाट और आन शानसे स्वामीके चरण कमलोंसे पवित्र हुए बाग़के पास आया। इसके बाद आकाशसे जैसे पक्षिराज उतरते हैं, उसी तरह हाथीसे उतर, छत्र प्रभृति त्याग, बाहुबलि बाग़में दाखिल हुआ। वहाँ उसने चन्द्रविहीन आकाश और सुधारहित अमृत कुण्डकी तरह बागीचा देखा ; अर्थात उसने बाग़में प्रभुको न देखा। उसे उनके दर्शनोंकी बड़ी उत्कण्ठा थी। उसने मालियोंसे पूछा"मेरे नेत्रोंका आनन्द बढ़ाने वाले जिनेश्वर कहाँ हैं !” मालियोंने उत्तर दिया-“रात्रिकी तरह प्रभु भी कुछ आगे चले गये। जब हमें यह बात मालूम हुई कि स्वामी पधार गये। तभी
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प्रथम पर्द
आदिनाथ चरित्र हम लोग आपकी सेवामें खबर देनेको आना चाहते ही थे, कि इतने में आपही यहाँ पधार गये" मालियोंकी बात सुनते ही तक्षशिलाधीश बाहुबलि हाथोंसे डाढ़ी पकड़, आँखोंमें आँसू डबडबा, दुःखित होकर चिन्तामग्न हो गया। वह मन-ही-मन विचार करने लगा-"अरे! मैंने विचार किया था, कि आज मैं परिजन सहित स्वामीकी पूजा करूँगा–मेरा यह विचार मरुस्थली में बोये हुथे वीजकी तरह वृथा हुआ। लोगोंके अनुग्रह की इच्छा से मैंनेबहुत देर करदी । अतः मुझे धिक्कार है ! “ऐसे स्वार्थके कारण मेरीमूर्खता ही प्रगट हुई। प्रभुके चरण कमलोंके दर्शनों में विघ्न बाधा उपस्थित करनेवाली इस बैरिन रातको और अधम बुद्धिको धिक्कार है !! इस समय स्वामी मुझे नहीं दीखते, अतः यह प्रभात-प्रभात नहीं; यह यह सूर्य-सूर्य नहीं और ये नेत्र-नेत्र नहीं हैं। हाय ! त्रिभुवन पति रातको इस जगह प्रतिमा रूप से रहे और बेहया–बे शर्मनिलजा बाहुबलि अपने महलमें आनन्द पूर्वक सोता रहा।” बाहु बलिको इस तरह चिन्ता सागरमें गोते लगाते देख, उसका प्रधान मन्त्री शोक रुपी शल्य को विशल्य रूप करने वाली वाणी से यों बोला-“हे देव ! आपने यहाँ आकर स्वामीके दर्शन नहीं पाये इस लिये शोक क्यों करते हो? रञ्जीदा क्यों होते हो? क्योंकि प्रभु तो निरन्तर आपके हृदय में वसते हैं। यहाँ जो उनके वज्र अङ्कश, चक्र कमल, ध्वजा और मत्स्यसे लांछित चरण-चिह्न देखते हैं, इनसे आप यही समझिये कि हम साक्षात् प्रभुको ही देख रहे हैं। मन्त्री की बातें सुनकर, अन्तःपुर और परिवार सहित
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२८२
आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व सुनन्दानन्दन बाहुबलि ने प्रभु के चरण-चिन्हों की बन्दना की। इन चरण-चिन्हों को कोई उलांघ न सके, इस लिये उसने उनके ऊपर रत्नमय धर्म चक्र स्थापन करा दिया । चौसठ माईल के विस्तारवाला, बत्तीस मील ऊँचा और हज़ार आरे वाला वह धर्मचक्र मानो बिल्कुल सूर्य-बिम्ब ही हो-इस तरह सुशोभित होने लगा। त्रिलोकी नाथ के ज़बर्दस्त प्रभावसे, देवताओं से भी न हो सकने योग्य चक्र, बाहुबलिने तत्काल तैयार पाया। इसके बाद उसने सब जगहों से लाये हुए फूलों से उसकी पूजा की। इससे वह फुलों का ही पहाड़ हो-ऐसा दीखने लगा। नन्दीश्वर द्वीपमें जिस तरह इन्द्र उट्ठाई महोत्सव करता है ; उसी तरह उत्तम सङ्गीत
और नाटक आदि से अट्ठाई महोत्सव किया। शेषमें पूजा करने वाले और रक्षा करनेवाले आदमी वहाँ छोड़ और सदा रहने का हुक्म दे तथा चक्र को नमस्कार कर बाहुवलि राजा अपनी नगरी को गया।
भगवान् को केवल ज्ञान । इस प्रकार हवा की तरह आजादी से रहने वाले, अस्खलित रीतिसे विहार करने वाले, विविध प्रकार के तपों में निष्ठा रखने वाले जुदे जुदे प्रकारके अभिग्रह करने में उद्युक्त; मौनव्रत धारण करने के कारण यवनाडव प्रभृति म्लेच्छ देशोंमें रहने वाले, अनार्य प्राणियों को भी दर्शन मात्र से भद्र या आर्य करनेवाले और उत्सर्ग तथा परिषह आदिको सहन करने
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प्रथम पवे
२८३
आदिनाथ चरित्र
वाले प्रभुने एक हजार वर्ष एक दिनके समान बिता दिये। कुछ दिन वाद वे महानगरी अयोध्याके शाखा नगर पुरि भतालमें आये। उसकी उत्तर दिशामें, दूसरे नन्दनवनके जैसा शकट मुख नामक वागीचा था। प्रभुने उसमें प्रवेश किया, अष्टम तप कर, एक बटवृक्षके नीचे प्रतिभारूप से स्थित प्रभु, अप्रमत्त नामक अष्टम गुण स्थानको प्राप्त हुए इसके वाद अपूर्ण करण; यानी शुक्लध्यान के पहले पाये पर आरूढ़ हो, सविचार पृथकत्व वितर्क युक्त शुक्लध्यानके पाये को प्राप्त हुए। इसके वाद अनिवृत्ति गुण स्थान एवं सूक्ष्म संपराय–सातवें गुण- स्थान को प्राप्त हो, क्षण भरमें ही क्षीण कषायत्व को प्राप्त हुए। उसी ध्यानसे क्षणमात्र में पूर्ण किये हुए लोभका नाश कर, कतक या निर्मली चूर्ण से जलके समान उपशान्त कषाय हुए। इसके पीछे ऐक्य श्रुत अविचार नामके शुक्लध्यान के दूसरे पायेको प्राप्त हो, अन्तिम क्षणमें, पलभर में हो क्षीणमोहक बारहवे गुणस्थान को प्राप्त हुए। फिर पाँच ज्ञानावर्णी चार दर्शनावर्णी और पांच तरहके अन्तराय कर्मोंका नाश करने से समस्त घाति कर्मों का नाश किया। इस तरह व्रत लेनेके पीछे, एक हजार वर्ष बीतने पर, फागुनके महीने के कृष्ण पक्षकी एकादशी के दिन, चन्द्रमा उत्तराषाढा नक्षत्र में आया था, उस समय, प्रातःकाल में, मानों हाथमें ही रखे हों-इस तरह तीन लोकों को दिखाने वाला त्रिकाल सम्बन्धी केवल ज्ञान हुआ। उस समय दिशायें प्रसन्न हुई। सुखदायी हवा चलने लगी और नारकीय जीवों को भी क्षण भरके लिये सुख मिला।
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आदिनाथ चरित्र
२८४
प्रथम पव
भगवान् के पास इन्द्र का आगमन ।
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अब मानों स्वामीके केवल ज्ञान उत्सवके लिये प्रेरणा करते हों इस प्रकार समस्त इन्द्रोंके आसन. काँपने लगे मानों अपने अपने लोक के देवताओं को बुलाकर इकठ्ठा करनी चाहती हों, इस तरह देवलोक में सुन्दर शब्दावाली ध्वनियाँ बजने लगीं । ज्योंही सौधर्मपति ने स्वामी के चरण कमलोंमें जाने का विचार किया, कि त्योंही अहिरावण देवगज रूप होकर उनके पास आ खड़ा हुआ । स्वामीके दर्शन की इच्छा से मानों चलता हुआ मेरु पर्वत हो, इस तरह उस गजवरने अपना शरीर चार लाख कोस या आठ लाख मील के विस्तार का बना लिया । शरीर की बर्फके समान सफेद कान्ति से वह हाथी ऐसा दिखता था, गोया चारों दिशाओं के चन्दन का लोप करता हो । अपने गण्डस्थलों से करने वाले अत्यन्त सुगन्धित मदजल से वह स्वर्गकी अङ्गण भूमिको कस्तूरी की तहोंसे अङ्कित करता था मानों दोनों तरफ पते हों, ऐसे अपने चपल चञ्चल कर्णताल से, कपोलों से करने वाले मद की गन्ध अन्धे हुए भौरों को दूर हटाता था । अपने कुम्भस्थल के तेजसे उसने बाल सूर्य के मण्डल का पराभव किया और अनुक्रम से पुष्ट और गोलाकार सूँ डसे वह नागराज का अनुसरण करता था । उसके नेत्र और दाँत मधु की सी कान्तिवाले थे । ताम्बेके पत्तर जैसा उसका तालू था । थम्भे के समान गोल और सुन्दर उसकी गर्दन थी और शरीर के भाग विशाल थे । प्रत्यञ्चा चढ़ाये हुए धनुष के जैसा उसकी पीठका भाग था ।
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प्रथम पर्व
२८५ आदिनाथ चरित्र उसका पेट या उदर कृश था और चन्द्र मण्डल के जैसे नख मण्डल से मण्डित था। उसका नि:श्वास दीर्घ और सुगन्धि पूर्ण था। उसकी सूंडका अगला भाग लम्बा और चञ्चल था। उसके होठ, गुह्य इन्द्रिय और पूछ-ये तीनों बहुत लम्बे लम्बे थे। जिस तरह दोनों ओर रहने वाले सूरज और चन्द्रमा से मेरु पर्वत अङ्कित होता हैं ; उसी तरह दोनों ओर केघण्टों से वह अङ्कित था। कल्प-वृक्षके फूलों से गुधी हुई उसके दोनों ओर की डोरियाँ थीं। मानों आठ दिशाओं की लक्ष्मीकी विभ्रम भूमि हो, इस तरह सोने के पट्टों से अलंकृत किये हुए आठ ललाटों और आठ मुखों से वह सुशोभित था। बड़े भारी पर्वत के शिखरों की तरह, मज़बूत, किसी क़दर टेढ़े और ऊँचे प्रत्येक मुखमें आठ आठ दाँत थे। प्रत्येक दाँत पर सुस्वादु और निर्मल जलकी एक एक पुष्करिणी थी। जो वर्षधर पर्वतके ऊपर के सरोवर की तरह शोभायमान थीं। प्रत्येक पुष्करिणी में आठ आठ कमल थे। उनके देखने से ऐसा जान पड़ता था, गोया जलदेवी ने जलके बाहर अपने मुख निकाल रखे हों। प्रत्येक कमलमें आठ आठ विशाल पत्ते थे। वे क्रीड़ा करती हुई देवाङ्गनाओं के विश्राम लेने के द्वीपोंकी तरह सुशोभित थे। प्रत्येक पत्ते पर चार चार प्रकार के अभिनय हाव भावसे युक्त जुदे जुदे आठ आठ नाटक शोभते थे। और हरेक नाटक में मानों स्वादिष्ट रसके कल्लोल की सम्पत्ति वाले सोते हों ऐसे बत्तीस बत्तीस पात्र नाटक करने वाले थे। ऐसे उत्तम गजेन्द्र पर अगाड़ी के आसन्न में परिवार समेत इन्द्र सवार हुभा !
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आदिनाथ चरित्र
२८६
प्रथम पर्व
हाथी के कुम्भस्थलों से उसकी नाक ढक गई। परिवार सहित इन्द्र ज्योंही गजपति पर बैठा, त्यों ही सारा सौधर्म लोक हो, इस तरह वह हाथी वहाँसे चला । पालक विमान की तरह अनुक्रम से अपने शरीर को छोटा करता हुआ वह हाथी क्षणभर में प्रभु द्वारा पवित्र किये हुए बाग़ में आ पहुँचा। दूसरे अच्युत प्रभृति इन्द्र भी 'मैं पहले पहुँच, 'मैं पहले पहुँचूँ' इस तरह जल्दी जल्दी देवताओं को साथ लेकर वहाँ आन पहुँचे ।
समवसरण की रचना |
उस समय वायुकुमार देवताने मान को त्याग कर,
समवरु
मेघ कुमार के देवताओं
व्यन्तर
के लिये, आठ मील पृथ्वी साफ की। ने सुगन्धित जलसे ज़मीन पर छिड़काव किया । इससे मानो पृथ्वी, यह समझकर कि प्रभु स्वयं पधारेंगे, सुगन्धि पूर्ण आँसुओं से धूप और अर्थ को उड़ाती हुई सी मालूम होती थी । देवताओंने भक्ति पूर्वक अपनी आत्माके समान ऊँची ऊँची किरण वाले सोने, मानिक, और रत्नों के पत्थर ज़मीन पर विछा दिये । मानों पृथ्वी से ही निकले हों ऐसे पचरंगे सुगन्धित फूल वहाँ विखेर दिये । चारों दिशाओं में मानों उनकी आभूषणाभूत कष्ठियाँ हों इस तरह रत्न, माणक और सोने के तोरण बाँधे । वहाँ पर लगाई हुई रत्नमय पुतलियों की देहके प्रतिविम्ब एक दूसरे पर पड़ते थे । उनके देखने से ऐसा मालूम होता था, गोया सखियाँ परस्पर आलिङ्गन कर रही हों । चिकनी चिकनी इन्द्रनीलमणि
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प्रथम पर्व
२८७
आदिनाथ चरित्र
से बनाये हुए मगर के चित्र नाशको प्राप्त हुए कामदेव द्वारा छोड़े हुए अपने चिन्ह रूप मगर के भ्रमको करते थे । भगवान् के केवल ज्ञान कल्याण से उत्पन्न हुई दिशाओं की हँसी हो, इस तरह सफेद सफेद छत्र वहाँ शोभायमान थे । मानों अत्यन्त हर्ष से पृथ्वीने स्वयं नाच करने के लिये अपनी भुजायें ऊँची की हों, इस तरह ध्वजापताकायें फड़कती थीं। तोरणोंके नीचे जो स्वस्तिका दिक अष्ट मङ्गलिकके श्रेष्ठ चिन्ह किये गये थे, वे वलिपद जैसे मालूम होते थे । समवसरण के ऊपरी भागका गढ़ विमान पतियों या वैमानिक देवताओं ने रत्नों का बनाया था। इससे रत्नगिरी की रत्नमय मेखला वहां लाई गई हो, ऐसा जान पड़ता था । उस गढ़ पर नाना प्रकार की मणियों के कंगूरे वनाये थे । वे अपनी किरणों से आकाश को विचित्र रङ्गोंके कपड़ों बाला बनाते थे I बीचमें ज्योतिस्पति देवताओंने, मानों पिण्डरूप अपने अड़की ज्योति हो, इस तरह का सोनेका दूसरा गढ़ रचा था। उन्होंने उस गढ़पर रत्नमय कंगूरे लगाये थे, वे सुर असुर पत्नियों के मुँह देखने के दर्पण या आईने से मालूम होते थे । भुवन पतियों ने बाहर की ओर एक चाँदीका तीसरा गढ़ बनाया था, उसके देखने से ऐसा मालूम होता था, गोया बैताढ्य पर्वत भक्ति से मण्डल रूप हो गया है । उस गढ़ पर जो सोनेके कंगूरे बनाये थे, वे देवताओं की वापड़ियों के गले में सोने के कमलसे मालूम होते थे । वह तीनों गढ़वाली पृथ्वी भुवनपति, ज्योतिस्पति और विमानपति की लक्ष्मी के एक एक गोलाकार कुण्डल से शोभे इस तरह शोभती थी । पताका
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२८८
आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व ओंके समूह वाले मणिमय तोरण, अपनो किरणों से मानों दूसरी पताकाये बनाते हों, इस तरह दीखते थे। उनमें से प्रत्येक गढ़में चार चार दरवाज़े थे। वे चार प्रकारके धर्म की क्रीड़ा करने को खड़े हों, ऐसे मालूम होते थे। प्रत्येक दरवाजे पर व्यन्तरों के रखे हुए धूपपात्र या धूपदानियाँ इन्द्रनीलमणि के खम्भों के जैसी धूम्रलता या धूएँ की बेलसी छोड़ती थीं। अर्थात् धूपदानियोंमें रखी हुई धूपसे जो धूआँ उठता था, वह नीलम का खम्भा सा मालूम होता था। उस समवसरणके प्रत्येक द्वारमें, गढ़की तरह, चार चार दरवाज़ों वाली, सोनेके कमलों सहित बावड़ियाँ बनायी थीं। दूसरे गहमें, प्रभुके आराम करने के लिए एक देव छन्द बनाया था। भीतरके पहले कोटके द्वार पर, दोनों ओर, सोनेके से वर्ण वाले, दो वैमानिक देवद्वार पालकी ड्यू टी बजाने को खड़े थे। दक्खन द्वारमें, दोनों तरफ, मानो एक दूसरे के प्रतिबिम्ब या अक्स हों, इस तरह उज्ज्वल व्यन्तर देवद्वारपाल हुए थे। पच्छमी द्वारपर, संध्या-समय जिस तरह सूर्य और चन्द्रमा आमनेसामने हो जाते हैं, इस तरह लाल रङ्ग वाले ज्योतिस्क देव द्वारपाल बनकर खड़े थे। उत्तर द्वार पर मानो उन्नत मेघ हों, इस तरह काले रङ्गके भुवनपतिदेव दोनों ओर द्वारपाल बने खड़े थे। दूसरे गढ़के चारों द्वारों के दोनों तरफ अनुक्रमसे अभय, पास, अंकुश ओर मुद्गर धारण करने वाली श्वेतमणि, शोण मणि, स्वर्णमणि और नीलमणि की जैसी कान्ति वाली, पहले की तरह, चार निकायकी जया, विजया, अजिता और अपराजिता
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२८६
प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र नामकी दो दो देवियाँ प्रतिहारी के रूपमें खड़ी थीं । अन्तिम बाहर के कोटके चारों दरवाज़ोंपर तुम्बस खाटकी पाटी, मनुष्य मुण्डमाली, और जटाजूट मण्डित- इन नामोंके चार देवता द्वारपाल होकर खड़े थे। समवसरण के बीच में व्यन्तरोंने छै मील ऊँचा.एक चैत्य वृक्ष बनाया था। वह रत्नत्रयके उदय का उपदेश देता सा मालूम होता था। उस वृक्षके नीचे अनेक प्रकार के रत्नोंसे एक पीठ बनाई गई थी। उस पीठ पर अप्रतिम मणिमय एक छन्दक बनाया गया था। छन्दकके वीचमें, पूरब दिशाकी ओर, मानों सारी लक्ष्मीका सार हो ऐसा, पादपीठ समेत रत्न-जटित सिंहासन बनाया था और उस के ऊपर तीन लोक के आधिपत्य के चिह्नस्वरुप तीन छत्र बनाये थे। सिंहासन के दोनों ओर दो यक्ष हाथों में दो उज्ज्वल-उज्ज्वल चंवर लिये खड़े थे, जिनसे ऐसा जान पड़ता था, मानों भक्ति उनके हृदयों में न समाकर बाहर निकली पड़ती है। समवसरण के चारों दरवाजों पर अद्भुत कान्ति-समूह वाले धर्म-चक्र सोनेके कमलोंमें रखे थे। और भी जो करने योग्य काम थे, वे सब व्यन्तरों ने किये थे, क्योंकि साधारण समवसरण में वे अधिकारी हैं। ____ अब प्रातः कालके समय, चारों तरह के, करोड़ों देवताओं से घिरकर, प्रभु समवसरण में प्रवेश करने को चले। उस समय देवता हज़ार हज़ार पत्तेवाले सोनेके नौ कमल रचकर अनुक्रमसे प्रभुके आगे रखने लगे। उनमें से दो दो कमलों पर प्रभु पादन्यास करने लगे और देवता उन कमलों को आगे आगे रखने लगे।
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आदिनाथ चरित्र
२६०
प्रथम पर्व
जगत्पति ने समवसरण के पूर्वी दरवाजे से घुस कर चैत्य बृक्ष की प्रदक्षिणा की और इसके बाद तीर्थ को नमस्कार कर, सूर्य जिस तरह पूर्वाचलपर चढ़ता है, उसी तरह जगत्का मोहा. न्धकार नाश करने के लिये, प्रभु पूरव मुखवाले सिंहासन पर चढ़े। तब व्यन्तरोंने दूसरी तीन दिशाओं में, तीन सिहासनों पर, प्रभुके तीन प्रतिविम्ब बनाये। देवता प्रभुके अँगूठे जैसा रुप बनानेकी भी सामर्थ्य नही रखते, तथापि जो प्रतिविम्ब बनाये, वे प्रभुके भावसे वैसे ही होगये। प्रभुके हरेक मस्तक के फिरने से शरीर की कान्तिके जो मण्डल–भामण्डलप्रकट हुए, उनके सामने सूर्यमण्डल खद्योत–पटवीजना या जुगनू सा मालूम होने लगा। प्रति शब्दों से चारों दिशाओंको शब्दायमान करती हुई-मेघवत् गम्भीर स्वर वाली दुन्दुभि आकाशमें बजने लगी । प्रभुके पास एक रत्नमय ध्वजा थी, वह मानो अपना एक हाथ ऊँचा करके यह कहती हुई शोभा दे रही थी, कि धर्ममें यह एक ही प्रभु है।
इन्द्र द्वारा भगवान की स्तुति । अब विमान पतियों की स्त्रियाँ पूरवी द्वार से घुसकर, तीन परिक्रमा दे, तीर्थङ्कर और तीर्थ को नमस्कार कर, पहले गढ़में, साधु साध्वीयों का स्थान छोड़, उनके स्थानके बीच अग्निकोण में खड़ी हो गई। भुवनपति, ज्योतिष्पति और व्यन्तरों की स्त्रियाँ दक्खन द्वारसे घुस, पहले वालियों की तरह नमस्कार प्रभृति कर नैऋत कोणमें खड़ी हो गई। भुवन-पति, ज्योतिष्पति और
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प्रथम पर्व
२६१
आदिनाथ चरित्र
व्यन्तर देवता पच्छम दिशाके दरवाज़ेसे घुस, नमस्कार कर, परिक्रमा दे, वायव्य कोण में बैठ गये । वैमानिक देवता, मनुष्य और मनुष्यों की स्त्रियाँ उत्तर दिशाके द्वारसे घुस पहले आने वालों की तरह नमस्कारादि कर ईशान दिशामें बैठगये । वहाँ पहले आये हुए अल्प ऋद्धिवाले, जो बड़ी ऋद्धि वाले आते उनको नमस्कार करते थे । और आने वाले पहले आये हुओं को नमस्कार करके आगे बढ़ जाते थे प्रभु के समवसरण में किसी को रोकटोक नहीं थी; किसी तरह की विकथा नहीं थी । बैरियों में भी आपसका वैर नहीं था और किसी को किसी का भय न था दूसरे गढ़में आकर तिर्यञ्च बैठे और तीसरे गढ़में सब आने वालों के वाहन या सवारियाँ थीं। तीसरे गढ़ के बाहरी हिस्से में कितनेही तिर्यञ्च, मनुष्य और देवता आते जाते दिखाई देते थे । इस प्रकार समवसरण की रचना हो जाने पर, सौधर्म कल्पका इन्द्र हाथ जोड़ नमस्कार कर इस तरह स्तुति करने लगा - "हे स्वामी ! कहाँ में बुद्धिका दरिद्र और कहाँ आप गुणोंके गिरिराज ? तथापि भक्ति से अत्यन्त वाचाल हुआ मैं आपकी स्तुति करता हूँ । हे जगत्पति जिस तरह रत्नोंसे रत्नाकर - सागर शोभा पाता है; उसी तरह आप एकही अनन्त ज्ञान दर्शन और वीर्य - आनन्दले शोभा पाते हैं, हे देव ! इस भरतक्षेत्र में बहुत समय से नष्ट हुए धर्म-वृक्षको फिर पैदा करनेमें आप वीजके समान हैं। हे प्रभो ! आपके महात्म्य की कुछ भी अवधि नहीं; क्योंकि अपने स्थानमें रहने वाले अनुत्तर विमानके देवताओंके सन्देहको आप यहींसे जानते
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पत्र है और उस सन्देहको दूर भी करते हैं। बड़ी ऋद्धि वाले और कान्तिसे प्रकाशमान देवता जो स्वर्गमें रहते हैं, वह आपकी भक्तिके लेशमातृका फल है। जिस तरह मूल्को ग्रन्थका अभ्यास क्लेशके लिये होता है, उसी तरह आपकी भक्ति बिना वोर तप भी मनुष्योंको कोरी मिहनतके लिये होता है ; अर्थात् आपकी भक्ति बिना घोर तपश्चर्या वृथा कष्ट देने वाली है। आपकी भक्ति ही सर्वोपरि है। हे प्रभो ! जो आपकी स्तुति करते है, जो आपमें श्रद्धा-भक्ति रखते हैं और जो आपसे द्वेष रखते हैं, उन दोनोंको ही आप समदृष्टि या एक नज़रसे देखते हैं, परन्तु उनको शुभ और अशुभ-बुरा और भला फल अलग-अलग मिलता है ; इसलिये हमें आश्चर्य होता है। हे नाथ ! मुझे स्वर्गकी लक्ष्मीसे भी सन्तोष नहीं है-मेरी तृष्णाकी सीमा नहीं है; अतः मैं विनीत भावसे प्रार्थना करता हूँ, कि आपमें मेरी अक्षय और अपार भक्ति हो ।” इस प्रकार स्तुति और नमस्कार कर, इन्द्र स्त्री, मनुष्य, नरदेव और देवताओंके अगले भागमें अञ्जलि जोड़ कर बैठ गया।
मरुदेवा माता का विलाप ।
भरत का समाधान । इधर तो यह हो रहा था ; उधर अयोध्या नगरीमें विनयी भरत चक्रवर्ती, प्रातः समय, मरूदेवा माताको प्रणाम करनेको गया। अपने पुत्रकी जुदाईके कारण, अविश्रान्त आँसुओंकी धारा गिरने
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प्रथम पव
आदिनाथ चरित्र से जिसके नेत्र-कमल जाते रहे हैं, ऐसी पितामही-दादीको “यह आपका बड़ा पोता चरणकमलोंमें प्रणाम करता हैं।” यह कह कर भरतने प्रणाम किया । स्वामिनी मरुदेवाने पहले तो भरतको आशीर्वाद दिया और पीछे हृदयमें शोक न समाया हो, इस तरह वाणीका उद्गार बाहर निकाला ।- "हे पौत्र भरत ! मेरा बेटा ऋषभ मुझे, तुझे, प्रथ्वीको पूजाकी और लक्ष्मीको तिनकेकी तरह अकेला छोढ़ कर चला गया, तोभी यह मरुदेवा न मरी। कहाँ तो मेरे पुत्रके मस्तक पर चन्द्रमाके आतप कान्ति जैसे छत्रका रहना और कहाँ सारे अंगोंको जलानेवाले सूर्यके तापका लगना! पहले तो वह लोलासे चलने वाले हाथी वगैरः जानवरोंपर सवार होकर फिरता था और आजकल पथिक-राहगीरकी तरह पैदल चलता है ! पहले मेरे उस पुत्र पर वारांगनायें चैवर ढोरती थी: और आजकल वह डांस और मच्छरोंके उपद्रव सहन करता हैं : पहले वह देवताओंके लाये हुए दिव्य आहारोंका भोजन करता था और आजकल वह बिना भोजन जैसा भिक्षा-भोजन करता है ! बड़ी ऋद्धि वाला वह पहले रत्नमय सिंहासन पर बैठता था और आजकल गैंडेकी तरह बिना आसन रहता हैं। पहले वह पुररक्षक और शरीर-रक्षकोंसे घिरा हुआ नगरमें रहता था और आजकल वह सिह प्रभृति हिंसक-जानवरोंके निवास स्थान-वनम रहता है ! पहले वह कानोंमें अमृत रसायनरूप दिव्यांगनाओंका गाना सुनता था और आजकल वह उन्मत्त सर्पके कानमें सूईकी तरह फुङ्कारें सुनता है। कहाँ उसकी पहलेकी स्थिति और कहाँ
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व
वर्त्तमान स्थिति ! हाय ! मेरा पुत्र कितनी तकलीफें उठाता है, कितने कष्ट भोगता है, कि वह स्वयं पद्मखण्ड- समान कोमल होने पर भी वर्षाकालमें जलके उपद्रव सहता हैं । हेमन्त काल या 1 जाड़े में जंगली मालतीके स्तम्बकी तरह हमेशा बर्फ गिरने के कुशको लाचारीसे सहता है और गरमीकी ऋतुमें जंगली हाथीकी तरह सूरजकी अतीव तेज़ धूपको सहता है ! इस तरह मेरा पुत्र वनमें वनवासी होकर, बिना आश्रयके साधारण मनुष्यों की तरह अकेला फिरता हुआ दुःखका पात्र हो रहा हैं । ऐसे दुःखोंसे व्याकुल पुत्रको मैं अपने सामने ही इस तरह देखती हूँ और ऐसी ऐसी बातें कहकर तुझे भी दुखी करती हूँ ।
मरुदेवा माताको इस तरह दुःखों से व्याकुल देख, भरतराजा हाथ जोड़, अमृत तुल्य वाणीसे बोला- “हे देवि ! स्थैर्य्यके पर्वत रूप, वज्र के सार रूप और महासत्वजनों में शिरोमणि मेरे पिताकी जननी होकर आप इस तरह दुखी क्यों होती हो ? पिताजी इस समय संसार-सागर से पार होनेकी भरपूर चेष्टा कर रहे हैं, उद्योग कर रहे हैं। इसलिये कण्ठमें वँधी हुई शिलाकी तरह उन्होंने अपन लोगोंको त्याग दिया हैं । वनमें विहार करने वाले पिताजीके सामने, उनके प्रभावसे हिंसक और शिकारी प्राणी भी पत्थर के स्वे हो जाते हैं और उपद्रव कर नहीं सकते। भूख, प्यास और धूप आदि दुःसह परिषह कर्म रूपी शत्रुओंके नाश करनेमें उल्टे पिताजी के मददगार हैं । अगर आपको मेरी बातों पर यकीन न आता हो, मेरी बातें विश्वास योग्य न मालूम होती हों, तो थोड़ेही समय
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
में आपको आपके पुत्रके केवल ज्ञान होनेके उत्सवकी खबर सुन कर प्रतीति हो जायगी ।
भरत का भगवान की बन्दना को चलना । मरुदेव की मोक्ष |
इधर दादी पोतेमें यह बातें होही रही थीं, कि इतनेमें प्रतिहारीने महाराज भरतसे निवेदन किया कि महाराज ! द्वार पर दो पुरुष आये हुए हैं। उनके नाम यमक और शमक हैं । राजाने अन्दर आनेकी आज्ञा दी। उनमें से यमकने महाराजको प्रणाम कर कहा"हे देव ! आज पुरिमताल नगर के शकटानन बगीचे में युगादिनाथ को 'केवल ज्ञान' हुआ है । ऐसी कल्याण - कारिणी बात सुनाते मुझे मालूम होता है, "कि भाग्योदयसे आपकी वृद्धि हो रही है। शमकने कहा - "महाराज ! आपकी आयुधशाला या शस्त्रागार में अभी चक्र पैदा हुआ है ।" यह वात सुनकर भरत महाराज क्षण भर के लिये इस चिन्तामें डूब गए, कि उधर पिताजीको केवल ज्ञान हुआ है और इधर चक्र पैदा हुआ है, मुझे पहले किसकी अर्चना करनी चाहिए । कहाँ तो जगतको अभयदान देने वाले पिताजी और कहाँ प्राणियोंका नाश करने वाला चक्र ? इस तरह विचार कर, अपने आदमियोंको पहले स्वामीकी पूजा की तैयारीका हुक्म दिया और यमक तथा शमकको यथोचित इनाम देकर विदा किया। इसके बाद मरुदेवा मातासे कहा - "हे देवी ! आप सदैव करुण स्वरसे कहा करती थीं कि मेरा भिक्षा
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आदिनाथ-चरित्र २९६
प्रथम पर्व माँगकर गुज़र करने वाला पुत्र दुःखोंका पात्र है; परन्तु आप त्रिलोकीके आधिपत्यको भोगने वाले अपने पुत्रकी सम्पत्तिको देखिये।" यह कह कर उन्होंने माताजीको गजेन्द्र पर सवार कराया। इसके बाद मूर्तिमान लक्ष्मी हो इस तरह सुवर्ण और माणिकके गहने वाले घोड़े, हाथी, रथ और पैदल लेकर वहाँसे कूच किया। अपने आभूषणोंसे जंगम-चलते हुएतोरणकी रचना करने वाली फौजके साथ चलने वाले महाराज भरतने दूरसे ऊपरका रत्नमय गढ़ देखा। उन्होंने माता मरुदेवास कहा-“हे देवि ! देखो, देवी और देवताओंने प्रभुका समवसरण बनाया है। पिताजीके चरण-कमलोंकी सेवामें आनन्द-मग्न हुए देवोंका जयजय शब्द सुनाई दे रहा है। हे माता ! मानो प्रभुका वन्दी हो, ऐसे गम्भीर और मधुर शब्दले आकाशमें बजता हुआ दुदुभीका शब्द आनन्द उत्पन्न कर रहा है। स्वामीके चरण कमलोंकी वन्दना करने वाले देवताओंके विमानोंमें उत्पन्न हु: अनेक घुघरुओंकी आवाज आप सुन रही है। स्वामीके दर्शनोंसे आनन्दित देवताओंका मेघकी गरजनाके समान यह सिंहनाद आकाश में हो रहा है। ग्राम और रागसे पवित्र ये गन्धर्वोका गाना मानो प्रभुकीवाणीके सेवक हो, इस तरह अपनेको आनन्दित कर रहा है।” जलके प्रवाह से जिस तरह कीच धुल जाती है, उसी तरह भरतकी बातोंसे उत्पन्न हुए आनन्दके आँसुओंसे माता मरुदेवा की आँखोंमें पड़े हुए पटल धुलगये । उनकी गई हुई आँखें लौट आई- उन्हें नेत्रज्योति फिर प्राप्त होगई। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रकी अतिशय सहित ती
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
थंकरपने की लक्ष्मी अपनी आँखों से देखी। उसके देखने से जो आनन्द उत्पन्न हुआ, उससे मरूदेवा देवी तन्मय हो गई। तत्काल समकाल में अपूर्व करण के क्रमसे क्षपक श्रेणी में आरूढ़ हो, श्रेष्ट कर्मको क्षीण कर केवल ज्ञान को प्राप्त हुई और उसी समय आयु पूरी हो जाने से अन्तकृतकेवली हो, हाथीके कन्धे पर ही अव्ययपद-मोक्ष-पद को प्राप्त हुई। इस अवसर्पिणीकालमें मरूदेवा पहली सिद्ध हुई। उनके शरीरका सत्कार कर देवताओंने उसे क्षीर सागरमें फेंक दिया। उसी समय से इस लोकमें मृतक-पूजा आरम्भ हुई। क्योंकि महात्मा जो कुछ करते हैं, वही आचार होजाता है। माता मरुदेवाकी मुक्ति हो गई यह जानकर मेघ की छाया और सूरज की धूपसे मिले हुए शरद ऋतुके समयके समान हर्ष और शोकसे भरत राजा व्याप्त हो उठे। इसके बाद, उन्होंने राज्य चिह्न-त्याग, परिवार सहित पैदल चलकर, उत्तर के दरवाजे से समवसरण में प्रवेश किया। वहाँ चारों निकायके देवताओंसे घिरे हुए, दृष्टि रूपी चकोर के लिए चन्द्र के समान प्रभु को भरत राजने देखा । भगवान् की तीन प्रदक्षिणा दे, प्रणाम कर, मस्तक पर अञ्जलि जोड़, चक्रवर्ती महाराज भरत ने स्तुति करना आरम्भ किया।
भरत द्वारा की हुई प्रभु स्तुति । ___“ हे अखिल जगन्नाथ ! हे विश्व संसार को अभय देने वाले ! हे प्रथम तीर्थङ्कर ! हे जगतारण! आप की जय हो! आज
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आदिनाथ- चरित्र
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प्रथम पर्व
इस अवसर्पिणी कालमें जन्मे हुए लोग रूपी पद्माकर को सूर्य-समान आपके दर्शनोंसे मेरा अन्धकार नाश होकर प्रभात हुआ है 1 हे नाथ ! भव्य जीवोंके मन रूपी जलको निर्मल करने की क्रिया मैं निर्मली जैसी आपकी वाणी की जय हो रही है । हे करुणा के क्षीरसागर ! आपके शासन रूपी महारथमें जो चढ़ते हैं, उनके लिए लोकाग्र - मोक्ष दूर नहीं है । निस्कारण जगत् बन्धु ! आप साक्षात् देखने में आते हैं, इस लिये हम इस संसारको मोक्ष से भी अधिक मानते हैं । हे स्वामी ! इस संसार में निश्चल नेत्रों से, आपके दर्शन के महानन्द रूपी करने में हमें मोक्ष-सुखके स्वाद का अनुभव होता है । हे नाथ ! रागद्वेष और कषाय प्रभृति शत्रुओं द्वारा रुँधे हुए इस जगत् को अभयदान देने वाले आप रुँधन से छुड़ाते हैं । हे जगदीश ! आप तत्व बताते हैं, राह दिखाते हैं, आप ही इस संसार की रक्षा करते हैं, अतः मैं इससे अधिक और क्या माँगूँ ? जो अनेक प्रकार के युद्ध और उपद्रवों से एक दूसरे के गाँवों और पृथ्वी को छीन लेने वाले हैं, वे सब राजा परस्पर मित्र होकर आपकी सभा में बैठे हुए हैं । आपकी सभामें आया हुआ यह हाथी अपनी सूंड से केसरी सिंह की सूँड को खींच कर अपने कुम्भस्थलों को बारबार खुजाता है यह भैंस दूसरी भैंस की तरह, मुहवत से, बारम्बार इस हिनहिनाते हुए घोड़े को अपनी जीभ से साफ करती है I लीला से अपनी पूँछ को हिलाता हुआ यह हिरन कान खड़े करके और मुखको नीचा करके अपनी नाक से इस व्याघ्र के मुहको सूँघता
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
है
T यह जवान बिल्ली अपने आगे पीछे बच्चे की तरह फिरने वाले चूहे को आलिङ्गन करती है । यह सर्प अपने शरीरको कुण्डलाकर करके इस न्यौले के पास मित्र की तरह बैठा है। हेदेव ! ये निरन्तर वैर रखने वाले भी दूसरे प्राणी यहाँ निर्वैर होकर बैठे हैं। इन सब वातों का कारण आपका अतुल्य प्रभाव हैं ।"
महीपति भरत इस तरह जगत्पतिको स्तुति करके, अनुक्रमसे पीछे सरक कर, स्वर्गपति इन्द्र के पीछे बैठ गये । तीर्थनाथ के प्रभाव से उस चार कोस के क्षेत्र में करोड़ों प्राणी बिना किसी प्रकार की निर्बाधता या दिक्कतके बैठ गये । भाषाओं को स्पर्श करने वाली और पैंतीस अतिशय वाली एवं योजन - गामिनी वाणी से इस तरह देशना — उपदेश देना आरम्भ किया ।
उस समय समस्त
भगवान् की देशना ।
महीपति भरत इस भाँति त्रिलोकी नाथकी स्तुति कर, अनुक्रम से पीछे हट स्वर्गपति इन्द्रके पीछे बैठ गया । वह मैदान केवल ८ मीलके विस्तार का था, पर तीर्थनाथ के प्रभाव से करो - ड़ों प्राणी उसी मैदानमें बिना किसी प्रकार की सुकड़ा - सुकड़ी और अड़ास बैठ गये 1 उस समय समस्त भाषाओं का स्पर्श करने वाली, पैंतीस अतिशयवाली और आठ मील तक पहुँचनेवाली आवाज़ से ब्रभुने इस प्रकार देशना - उपदेश देना आरम्भ किया“आधि - व्याधि, जरा और मृत्यु से व्याकुल यह संसार समस्त
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व प्राणियों के लिये देदीप्यमान और प्रज्वलित अग्नि के समान है । इसलिये विद्वानोंको उसमें लेशमात्र भी प्रमाद करना उचित नहीं; क्योंकि रात में उल्लङ्घन करने योग्य मरुदेश - मारवाड़ में अज्ञानी के सिवा और कौन प्रमाद करें ? अनेक जीवयोनि रूप भँवरों से आकुल संसार-सागर में, उत्तम रत- समान मनुष्य जन्म प्राणियों को बड़ी कठिनाई से मिलता है । दोहद या खाद पूरने से जैसे वृक्ष फल - युक्त होता है; उसी तरह परलोक-साधन करने से प्राणियों को मनुष्य जन्म सार्थक होता है । इस जगत् में दुर्जनों की वाणी जिस तरह सुनने में पहले मधुर और मनोमुग्धकर और शेषमें अतीव भयङ्कर विपत्तियों का कारण होती है; उसी तरह विषय भोग भी पहले मधुर और परिणाम में भयङ्कर और जगत् को ठगने वाले हैं । विषय पहले बड़े मधुर और मनको मोहने वाले मालूम होते हैं ; प्राणी विषयों में बड़ा सुख-आनन्द समझते हैं; उनके विषम विषमय फल भोगने पड़ते हैं । वे उनसे बुरी तरह ठगे जाते हैं। उनके धोखे में आकर वे अपने मनुष्य जन्म को वृथा नष्ट करते और शेषमें उन्हें नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेकर अनेक प्रकारके घोरातिघोर कष्ट उठाने पड़ते हैं । जिस तरह अधिक उँचाईका अन्त पतन होने या पड़ने में है; उसी तरह संसार के समस्त पदार्थों के संयोग का अन्त वियोगमें है । दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं, अत्यधिक उचाईका परिणाम पतन है और संयोग का परिणाम वियोग है । जो बहुत ऊँचा चढ़ता है, वह नीचा गिरता है और जिसका संयोग होता हैं, उसका बि
पर अन्तमें उन्हें
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प्रथम प
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आदिनाथ चरित्र
योग अन्तमें होता ही है। संयोग और वियोग का जोड़ा है। आज संयोग-सुख है, तो कल वियोगजन्य दुःख अवश्य होगा 1 मानो परस्पर स्पर्द्धा से हो, इस तरह इस जगत् में प्राणियों के आयुष्य, धन और यौवन- ये सब नाशमान और जानेके लिए जल्दी करने वाले हैं; अर्थात् प्राणियों की उम्र, दौलत और और जवानी परम्पर होड़ा-होड़ी करके एक दूसरेसे जल्दी चले जाना चाहते हैं I ये तीनों चञ्चल हैं: अपने साथीके साथ सदा या चिरकाल तक ठहरने वाले नहीं । जिसने जन्म लिया है, उसे जल्दी ही मरना होगा । जो आज धनी है, उसे किसी न किसी दिन निर्धन होना ही होगा, और जो आज जवान है, उसे कल या परसों बूढ़ा होना ही होगा । मतलब यह कि, धन, यौनव और आयुष्य मनुष्य के साथ सदा या चिरकाल तक टिकने वाले नहीं। जिस तरह मरुदेश या मरुस्थलीमें स्वादिष्ट जल नहीं होता : उसी तरह संसार की चारों गतियों में सुख का लेश भी नहीं ; अर्थात् संसारमें दुःख ही दुःख हैं, सुखका नाम भी नहीं । क्षेत्र - दोष से दुःख पाने वाले और परम अधार्मिक होने के कारण क्लेश भोगने वाले नारकीयों को सुख कहाँ हो सकता है ? शीत, वात, आतप और जल तथा बध, बन्धन और क्षुधा प्रभृतिसे नाना प्रकार के क्लेश भोगने वाले तिर्य्यञ्च प्राणियों को भी क्या सुख हैं ? गर्भवास, व्याधि, दरिद्रता, बुढ़ापा और मृत्यु से होने वाले दुःखों के फेर में पड़े हुए मनुष्यों को भी सुख कहाँ है ? परस्पर के मत्सर, अमर्षं, कलह एवं च्यवन आदि दुःखों से देवताओं को भी
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
NAA..
लेशमात्र सुख नहीं ; तथापि जल जिस तरह नीची ज़मीन की ओर जाता है, उसी तरह प्राणी, अज्ञानवश, बारम्बार इस संसार की ओर जाते हैं। अतएव चेतनावाले भव्य जीवो! दूरसे सर्प को पोषण करने की तरह तुम अपने मनुष्य-जन्म से संसार को पोषण मत करो। हे विवेकी पुरुषो ! इस संसार-निवास से पैदा होने वाले अनेकानेक दु:ख और क्लेशोका विचार करके, सव तरह से मोक्ष लाभ की चेष्टा करो । नरक के दुःखों के जैसा गर्भ में रहने का दुःख संसार की तरह मोक्षमें हरगिज़ नहीं होता। कुम्भीमें से खीचे हुए नारकीय जीवों की पीड़ा जैसी प्रसव-वेदना मोक्षमें कदापि नहीं होती । बाहर और भीतर से लगे हुए तीरोंके तुल्यपीड़ा की कारण रूप आधि-व्याधि उसमें नहीं होती। यमराज की अग्रगामिनी दूती, सव तरहके तेजको चुराने वाली और पराधीनता को पैदा करने वाली वृद्धावस्था भी उसमें नहीं हैं। और नारकीय तिर्यञ्च, मनुष्य और देवताओं की तरह बारम्बारके भ्रमण का कारण रूप “मरण" भी मोक्षमें नहीं है। वहाँ तो महा आनन्द, अद्वैत और अव्यय सुख, शाश्वत रूप और केवलज्ञानरूप सूर्य से अखण्डित ज्योति है। निरन्तर ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी तीन उज्ज्वल रत्नोंका पालन करने वाले पुरुष ही मोक्ष लाभ कर सकते हैं। उनमें से जीवादिक तत्त्वों के संक्षेप से अथवा विस्तार से अवबोध को सम्यक् ज्ञान समझना चाहिये। मति,श्रुति अवधि, मन:पर्याय और केवल, इस तरह अन्वय-सहित भेदोंसे वह ज्ञान पांच तरह के होते हैं। उनमें से अवग्रह आदिक भेदों
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
वाला एवं वहुग्राही और अबहुग्राही भेदोंवाला तथा जो इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से उत्पन्न होता है, उसे “मतिज्ञान" जानना चाहिये । पूर्वअङ्ग, उपांग और प्रकीर्णक सूत्रों-ग्रन्थोंसे अनेक प्रकार के विस्तार को प्राप्त हुआ और स्यात् शब्दसे लांछित “श्रुतज्ञान” अनेक प्रकारका होता है। देवता और नारकी जीवों को जो भवसम्बन्ध से उत्पन्न होता है, वह "अवधिज्ञान" कहलाता है । यह क्षय उपशम लक्षणों वाला है, और मनुष्य तिर्य्यश्च के आश्रयसे उसके छ: भेद हैं। मन: पर्य्यायज्ञान ऋजुमती और विपुलमतीइस तरह दो भाँति का हैं । उनमें विपुलमती में विशुद्धि अप्रतिपादत्व से विशेषता है I समस्त पर्य्याय के विषय वाला विश्व लोचन - समान, अनन्त, एक और इन्द्रियों के विषयों से रहित ज्ञान “केवल ज्ञान” कहलाता है 1
समकित वर्णन |
a
इस
शास्त्रोक्त तत्त्वों में रुचि - सम्यक् श्रद्धा कहलाती है । वह श्रद्धा समकित स्वभाव और गुरूके उपदेश से प्राप्त होती हैं 1 अनादि अनन्त संसार के भँवरों में पड़े हुए जीवोंको ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी वेदनी और अन्तराय. नामके कर्मों की उत्कृष्ट स्थितितीस कोटानुकोटि सागरोपम की है । गोत्र और नामकरण की स्थिति बीस कोटानुकोटि सागरोपम की हैं। और मोहनीय कर्म की स्थिति सत्तर कोट | नुकोटि सागरोपम की है । अनुक्रम से, फलके अनुभव से, वे सब कर्म - पहाड़से निकली हुई नदी में
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पवे
लुढ़कता-लुढ़कता पत्थर गोल हो जाता है-उस. न्यायकी तरह-स्वयं क्षय हो जाते हैं। इस प्रमाण से क्षय होते हुए कर्म की अनुक्रम से उन्तीस उन्तीस और उनहत्तर कोटानुकोटि सागरोपम की स्थिति क्षय को प्राप्त होती है। और किसी क़दर कम कोटानुकोटि सागरोपमकी स्थिति जब बाकी रह जाती है, तब प्राणी यथा प्रवृत्ति-करण से ग्रन्थी देशको प्राप्त होते हैं । राग द्वेषको भेद सके, ऐसे परिणाम को ग्रन्थी कहते हैं। वह लकड़ी की गाँठ की तरह मुश्किल से छेदी जाने योग्य और बहुत ही मज़बूत होती है। हवाके झोके से किनारे पर आई हुई नाव जिस तरह फिर समुद्र में चली जाती है ; उसी तरह रागादिक से प्रेरित किये हुए कितने ही जीव ग्रन्थि या गाँठ को छेदे बिना ही ग्रन्थीके पास आकर वापस चले जाते हैं। कितनेही प्राणी राहमें फिसल कर, नदीके जलकी तरह, किसी प्रकारके परिणाम विशेष से, वहाँ ही बिराम को प्राप्त होते हैं। कोई कोई प्राणी, जिनका भविष्यमें-आगे चलकर कल्याण होने वाला होता हैभला होने वाला होता है, अपूर्व करण से, अपना वीर्य प्रकट करके, लम्वी-चौड़ो राहको तय करने वाले मुसाफिर जिस तरह घाटी को लांघते हैं ; उसी तरह दुर्लथ्य ग्रन्थी-गाँठको तत्काल भेद डालते हैं। कितने ही चार गति वाले प्राणी अनिवृत्तिकरण से अन्तरकरण करके; मिथ्यात्व को विरल कर, अन्तमुहुर्त मागमें सम्यक् दर्शन पाते हैं । वे नैसर्गिक-स्वाभाविक सम्यक् श्रद्धान कहलाते हैं। गुरूके उपदेश के अवलम्बन से भव्य प्राणियों को
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प्रथम पद
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आदिनाथ-चरित्र जो समकित उत्पन्न होता है, वह गुरुके अधिगमसे हुआ समकित कहलाता है। ___समकित के औपशमिक सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक
और क्षायिक—ये पाँच प्रकार या भेद हैं। जिसकी कर्म ग्रन्थि मिदी हुई है, ऐसे प्राणी को जो समकित का लाभ, प्रथम अन्तमुहुर्त में होता है, वह औपशामिक समकित कहलाता है। उसी तरह उपशम श्रेणी के योग से जिसका मोह शान्त हुआ हो ऐसे देही-प्राणी को मोह के उपशम से उत्पन्नहो बह भी औपशमिक समकित कहलाता है। सम्यक्भावका त्याग करके मिथ्यात्व के सन्मुख हुए प्राणी को, अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होने पर, उत्कर्षसे छः आवली तक और जघन्य से एक समय समकित का परिणाम रहता है, वह सास्वादन समकित कहलाता है। मिथ्यात्व मोहनी का क्षय और उप शम होने से उत्पन्न हुआ-तीसरा क्षयोपशमिक समकित कहलाता है। वह समकित मोहनी के उदय परिणाम वाले प्राणी को होता है। ___ समकित दर्शन गुणसे रोचक, दीपक और कारक-इन नामों से तीन प्रकार का है। उनमें से शास्त्रोक्त तत्वों में हेतु और उदाहरण के बिना—जो दृढ़ प्रतीति उत्पन्न होती है वह रोचक समकित। जो दूसरों के समकितको प्रदीप्त करे वह दीपक समकित, और जो संयम और तप आदि को उत्पन्न करता है, वह कारक समकित कहलाता है। वह समकित-शम, संवेग, निर्वेद और अनुकम्पा एवं आस्तिक्य-इन पांच लक्षणों से अच्छी तरह पह
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्ब
चाना जाता है । अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न हो, उसे शम कहते हैं; अथवा सम्यक् प्रकृति से कषायों के परिणाम के देखने को भी शम कहते हैं । कर्मके परिणाम और संसार की असारता को विचारने वाले पुरुष को जो वैराग्य उत्पन्न होता है, उसे संवेग कहते हैं । संवेग वाले पुरुष को संसार में रहना जेलखाने के समान है; अर्थात् वह संसार को कारागार समझता है और स्वजनों को बन्धन मानता है। जिसके ऐसे वचार होते हैं, उसे निर्वेद कहते हैं। 1 एकेन्द्रिय आदि प्रा. णियों को संसार में डूबते जो क्लेश होता है, उसे देखकर दिलका पसीजना, उनके दुःखों से दुखी होना और उनके दुःख दूर करने की यथा साध्य चेष्टा करना - अनुकम्पा है, दूसरे तत्वों को सुनने पर भी, अर्हत तत्वमें प्रतिपत्ति रहना--"आस्तिक्य" कहलाता है । इस तरह सम्यक् दर्शन वर्णन किया है। इसकी क्षणमात्र भी प्राप्ति होने से बुद्धि में जो पहले का अज्ञान होता है, उसका पराभव होकर मतिज्ञान की प्राप्ति होती है । और श्रुत अज्ञानका पराभव होकर श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है और विभंग ज्ञानका नाश होकर अवधि ज्ञान की प्राप्ति होती है।
चारित्र वर्णन ।
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समस्त सावद्य योगके त्याग करने को “चारित्र" कहते हैं वह अहिंसा प्रभृति के भेद से पांच तरह का होता है। अहिंसा
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सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य्य, और परिग्रह – ये पांचवत पाँच पाँच
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प्रथम पर्ब
आदिनाथ-चरित्र
भावनाओं से युक्त होने से मोक्ष के कारण होते हैं। प्रमाद के योगसे त्रस और स्थावर जीवोंके प्राण नाश न करनेको “अहिंसा" व्रत कहते हैं। प्रिय, हितकारी और सत्य वचन बोलने को "सुनत" प्रत या सत्यव्रत कहते हैं। और अहितकारी सत्य वचन भी असत्य के समान है। अदत्त वस्तु को ग्रहण न करना; यानी बिना दी हुई चीज न लेना “अस्तेय" व्रत कहलाता है, क्योंकि द्रव्य मनुष्य का बाहरी प्राण है। इसलिये उसको हरण करने वाला—उसे चुराने वाला उसके प्राण हरण करने वाला समझा जाता है। दिव्य और औदारिक शरीर से अब्रह्मचर्य सेवनकामन, बचन और कायासे, करना, कराना और अनुमोदन करनाइन तीन प्रकारों का त्याग करना “ब्रह्मचर्य" व्रत कहलाता है। उसके अठारह भेद होते हैं। सब पदार्थों के ऊपर से मोह दूर करना “अपरिग्रह” व्रत कहलाता है ; क्योंकि मोहसे असत् पदार्थ में भी चित्तका विप्लव होता है । यतिधर्मके व्रती यतीन्द्रोंको इस तरह सर्वसे चारित्र कहा है और गृहस्थों को देशसे चारित्र कहा है। ____समकित मूल पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, और चार शिक्षाव्रत-इस तरह गृहस्थों को बारह व्रत कहे हैं। बुद्धिमान् पुरुषों को लंगड़े, लूले, कोढ़ी और कुणित्व आदि हिंसा के फल देखकर निरपराधी त्रस जीवों की हिंसा संकल्प से छोड़ देनी चाहिये। भिनभिनापन, मुखध्वनि रोग गूंगापन, और मुखरोग-इनको असत्यका फल समझ कर, कन्या अलीक वगैरः पाँच बड़े बड़े असत्य छोड़ने चाहिएं। कन्या, गाय और जमीन के सम्बन्ध में
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व झूट बोलना, पराई धरोहर हज़म कर जाना, और झूठी गवाही देना-ये पाँच स्थूल असत्य त्याग देने चाहिएं। दुर्भाग्य, कासिदपना-दूतपना, दासत्व, अङ्गछेदन और दरिद्रता—इनको चोरीके फल समझ कर, स्थूल चोरीका त्याग करना चाहिये । नपुंसकता-नामर्दी और इन्द्रिय छेदनको अब्रह्मचर्यका फल समझ कर, सुबुद्धिमान् पुरुषको अपनी स्त्री में संतोष रखकर पर स्त्री का त्याग करना चाहिये। असन्तोष, अविश्वास, आरम्भ और दुःख-- इन सब को परिग्रह की मूर्छा के फल जानकर, परिग्रह का प्रमाण करना चाहिये। दशों दिशाओं में निर्णय की हुई सीमा का उल्लङ्घन न करना, दिग्विरति नामक पहला गुणव्रत कहलाता है। जिस में शक्तिपूर्वक भोग उपभोग की संख्या की जाती है, उसे भोगोपभोग प्रमाण नामका दूसरा गुणव्रत कहते हैं। आर्त, रौद्र-ये दो अपध्यान, पापकर्म का उपदेश , हिंसक अधिकरण का देना तथा प्रमादाचरण-ये चार तरह के अनर्थ दण्ड कहलाते हैं। शरीर आदि अर्थ दण्ड की शत्रुता से रहनेवाला अनर्थदण्ड का त्याग करे, वह तीसरा गुणव्रत कहलाता है। आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग करके तथा सावध कर्म को छोड़कर मुहूर्त; यानी दो घड़ी तक समता धारण करना सामायिक व्रत कहलाता है। दिन और रात-सम्बन्धी दिगवत में परिमाण किया हुआ हो, उसे संक्षेप करना देशावकाशिक व्रत कहलाता है। चार पर्वके दिन उपवास आदिक तप प्रभृति करना, कुव्यापार त्यागना, यानी
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
संसार–सम्बन्धी समस्त व्यापार त्यागना, ब्रह्मचर्य पालना और दूसरी स्नानादिक क्रियाओं का त्याग करना - पौषध व्रत कहलाता है। अतिथि-मुनि को चार प्रकार का आहार, पात्र, कपड़ा, स्थान या उपाश्रय का दान करना, – अतिथिसंविभाग नामक व्रत कहलाता है । मोक्ष की प्राप्ति के लिये मुनियों और श्रावकों को अच्छी तरह से इन तीन रत्नों की उपासना सदा करनी चाहिये
३०६
प्रभु द्वारा की गई चतुर्विध संघकी स्थापना ।
गणधरों की स्थापना |
इस प्रकार देशना - उपदेश सुनकर भरतके पुत्र ऋषभसेन ने प्रभुको नमस्कार कर इस प्रकार कहना आरम्भ किया - " हे स्वामी ! कषाय रूपी दावानल से दारुण इस संसार रूपी अरण्य में, आपने नवीन मेघ की तरह अद्वितीय तत्वामृत की वर्षाकी है। हे जगदीश ! जिस तरह डूबते हुए को नाव मिलजाती है, प्यासों को पानी की प्याउ मिल जाती है, शीत पीडितों के लिये आग मिल जाती है। 1 धूप से तपे हुओं के लिये छाया मिल जाती है, अँधेरे में डूबे हुएको प्रकाश या रोशनी मिल जाती है, दरिद्री को ख़ज़ाना मिलजाता है, विष पीड़ितों को अमृत मिल जाता है, रोगी को दवा मिल जाती है, शत्रुसे आक्रान्त लोगों के लिये क़िलेका आश्रय मिल जाता है; उसी तरह संसार से भीत हुओंके लिये आप मिल गये हैं, इसलिये हे दयानिधि !
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आदिनाथ-चरित्र
३१०
प्रथम पर्व रक्षाकरो! रक्षाकरो! पिता, भाई, भतीजे.एवं अन्य स्वजननातेदार, जो इस संसार-भ्रमण के एक हेतु रुप हैं, और इसी से अहितकारी या अनिष्ट करने वाले हो रहे हैं, उनकी क्या ज़रुरत है ? हे जगत्शरण्य ! हे संसार-सागर से तारनेवाले-पार लगाने वाले ! मैंने तो आपका आश्रय ले लिया है, आपकी शरण में आगया हूँ। इसलिये मुझे दीक्षा दीजिये ओर मुझ पर प्रसन्न होइये। इस प्रकार कहकर ऋषभसेन ने भरत के अन्य पाँचसौ पुत्र और सात सौ पौत्रों के साथ व्रत ग्रहण किया। सुर-असुरों द्वारा की हुई प्रभुके केवल ज्ञान की महिमा देखकर, भरतके पुत्र मरीचि ने भी व्रत ग्रहण किया। भरत के आज्ञा देने से ब्राह्मी ने भी व्रत ग्रहण किया ; क्योंकि लघुकर्म करने वाले जीवों को बहुत करके गुरुका उपदेश साक्षी मात्र ही है। बाहुबलि से मुक्त की गई सुन्दरी भी व्रत ग्रहण करने की आकांक्षा रखती थी; पर जब भरत ने निषेध किया-व्रत ग्रहण करने की मनाही की, तब वह पहली श्राविका हुई। भरतने प्रभुके समीप श्रावकपना अंगीकार किया; यानी उसने श्रावक होनेका व्रत अङ्गीकार किया; क्योंकि भोग कर्मोंके भोगे बिना व्रत या चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। मनुष्य तिर्यञ्च, और देवताओं की मण्डलियों में से किसी ने व्रत ग्रहण किया, किसीने श्रावकपना अङ्गीकार किया, और किसीने सम. कित धारण किया। पहले के राजतपस्वियों में से कच्छ और महाकच्छके सिवा और सभीने स्वामीके पास आकर फिर खुशी से दीक्षा ग्रहणकी। ऋषभसेन-पुण्डरीक प्रभृति साधुओं, ब्राह्मी
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प्रथम पर्व
३११
ओदिनाथ-चरित्र
वगैर: साध्वियों, भरत आदि श्रावकों और सुन्दरी प्रभृति श्राषिकाओं से उस समय चार तरह के संघकी व्यवस्था आरम्म हुई जो धर्मके एक श्रेष्ठ ग्रहके रूप में आजतक चली जाती है । उस समय प्रभुने गणधर नाम कर्मवाले ऋषभसेन आदि चौरासी सद् बुद्धिमान् साधुओं को, जिसमें सारे शास्त्र समाये हुए हैं, ऐसी उत्पात, विगम और ध्रौव्य नामकी त्रिपदी का उपदेश दिया । उन्हों ने उस त्रिपदी के अनुसार अनुक्रम से चतुर्दश पूर्व और द्वादशाङ्गी रची। इसके बाद देवताओं से घिरा हुआ सुरपतिइन्द्र, दिव्यचूर्ण से भरा हुआ एक थाल लेकर, प्रभुके चरणोंके पास आकर खड़ा हुआ; तब प्रभुने खड़े हो कर अनुक्रम से उनके ऊपर चूर्णक्षेप कर चूर्ण फेंक कर सूत्र से, अर्थ से, सूत्रार्थ से द्रव्य, गुण से, पर्याय से, और नय से उन को अनुयोगकी अनुज्ञा दी तथा गुणकी अनुमति भी दी। इसके बाद देवता, मनुष्य और उनकी स्त्रियोंने, दुंदुभि की ध्वनिके साथ, उन पर चारों ओर से वासक्षेप किया। मेघके जलको ग्रहण करने वाले वृक्ष की तरह प्रभु की वाणी को ग्रहण करने वाले सब गणधर हाथ जोड़े खड़े रहे । तब प्रभुने पहले की तरह पूर्वाभिमुख सिंहासन पर बैठ कर फिर शिक्षापूर्ण धर्म देशना या धर्मोपदेश दिया । उस समय प्रभु रूपी देशना रूपी उद्दामवेलाकी मर्यादा के पूरी हुई ।
समुद्र में से उत्पन्न हुई जैसी पहली पौरुषी
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पवे ... बलिउत्प । उस समय अखण्ड, तुष-रहित और उज्वल शाल से बनाया हुआ चार प्रस्थ जितना बलि थाल में रखकर, समवसरणके पूर्व द्वार से , अन्दर लाया गया ; अर्थात् उस समय बिना टूटे हुए साफ और सफेद चावलों की चार प्रस्थ प्रमाण बलि थाल में रख कर, समवसरण के पूर्व दरबाजे से भीतर लाई गई। देवता
ओंने उसमें सुगन्धी डालकर उसे दूनी सुगन्धित कर दिया था, प्रधान पुरुष उसे उठाकर लाये थे और भरतेश्वरने .उसे बनवाया था। उसके आगे आगे बजने बाली दुदुभि से दशों दिशाएं गूंज रही थीं। उसके मंगल गीत गाती गाती स्त्रियों चल रही थीं। मानो प्रभुके प्रभाव से उत्पन्न हुई पुण्यराशि हो, इस तरह वह पौर लोगों से चारों ओर से घिर रहा था। मानों बोने के लिए कल्याण रूपी धान्यका बीजहो, इस तरह वह बलि प्रभु की प्रदक्षिणा कराकर उछाल दिया गया। जिस तरह मेघ के जलको चातक-पपहिया ग्रहण करता है, उसी तरह आकाश से गिरनेवाले उस बलि के आधे भाग को आकाश में ही देवता ओं ने लपक लिया। जो भाग पृथ्वी पर गिरा, उसका आधा भरत राजाने लेलिया और जो बाकी रहा उसे राजाके गोती भाइयोंने आपस में बाँट लिया। उस बलिका ऐसा प्रभाव है, कि उस से पुराने रोग नष्ट हो जाते हैं और छै महीने तक नये रोग पैदा नहीं होते। इसके बाद उत्तर के दरवाज़ेकी राहसे प्रभु बाहर निकले। जिस तरह पद्म खण्ड के फिरने से भौंरा फिरने
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प्रथम पर्व
३१३ आदिनाथ-चरित्र लगता है ; उसी तरह सब इन्द्र प्रमुके पीछे-पीछे चलने लगे। वहाँ से चलकर प्रभुःसोने के कोट के बीच में, ईशान कोन के देवछन्दोमें विश्राम लेने या आराम करने को बैठे। उस समय गणधरों में प्रधान ऋषभसेन ने भगवान् के पाद पीठ पर बैठकर धर्म-देशना. या धर्मोपदेश देना आराम किया ; क्योंकि स्वामी के खेद में विनोद, शिष्योंका गुणदीपन और दोनों ओर से प्रतीति ये गणधर की देशनाके गुण हैं। ज्योंही गणधर ने देशना समाप्त की, कि सब लोग प्रभुको प्रणाम कर करके अपने अपने घरों को गये।
इस प्रकार तीर्थ पैदा होते ही गोमुख नामका एक यक्ष प्रभुके पास रहनेवाला अधिष्ठायक हुआ। उसके दाहिनी तरफ के दोनों हाथों में से एक वरदान चिह्नवाला था और एकमें उत्तम अक्षमाला सुशोभित थी। उसके बायीं तरफ के दोनों हाथों में बिजौरा और पाश थे। उसके शरीरका रंग सोनेका साथा और हाथी उसका वाहन था। ठीक इसी तरह प्रभुके तीर्थ में उनके पास रहनेवाली एक प्रतिचक्रा--यक्षेश्वरी नामकी शासनदेवी हुई। उसकी कान्ति सुवर्णके जैसी थी और गरुड़ इसका वाहन था, उसकी दाहिनी ओर की भुजाओं में वरप्रदचिह्न, बाण, चक्र, और पाश थे और बायीं ओर की भुजाओं में धनुष, वज्र, चक्र और अङ्कुश थे।
यक्ष और यक्षिणी की स्थापना । इसके बाद नक्षत्रों-सितारों से घिरे हुए चन्द्रमाकी तरह
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आदिनाथ-चरित्र
३१४
प्रथम पर्व महर्षियों से घिरे हुए प्रभु यहाँ से अन्यत्र विहार कर गये; अर्थात् किसी दूसरी जगह चले गये। उस समय जब प्रभु राह में चलते थे, भक्ति से वृक्ष नमते थे-झुकते थे, काँटे नीचा मुख करते थे और पक्षी परिक्रमा देते थे। विहार करने वाले प्रभुको ऋतु, इन्द्रियार्थ और वायु अनुकूल होते थे। उनके पास कम-से कम एक कोटि देव रहते थे। मानो भवान्तर-जन्मान्तर में उत्पन्न हुए कर्मों को नाश करते देख, डर गये हों, इस तरह जगदीशके बाल, डाढ़ी, नाखुन नहीं बढ़ते थे। प्रभु जहाँ जाते थे, वहाँ वैर, महामरी, मरी, अकाल-दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, स्वचक्र और परचक्र से होनेवाला भय-ये नहीं उत्पन्न होते थे। इस प्रकार जगत् को विस्मित करने वाले अतिशयों से युक्त, संसार में भ्रमण करनेवाले जीवों पर अनुग्रह करने की बुद्धिवाले नाभेय-नाभिनन्दन भगवान् पृथ्वी पर वायुकी तरह बेरोक टोकके-बेखटके हो कर विहार करने लगे।
- तीसरा सर्ग समाप्त। ।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
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चतुर्थ सर्ग।
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RECT ब इधर, अतिथि की तरह, चक्र के लिये उत्कण्ठित ! अ हुए भरत राजा विनिता नगरीके मध्य मार्ग से होकर
o आयुधागार में आये; अर्थात् राजा शहर के बीच में होकर अपने अस्त्रागार या सिलहखाने में आये। वहाँ पहुँच कर चक्रको देखते ही राजाने उसे प्रणाम किया ; क्योंकि क्षत्रिय लोग अस्त्रको प्रत्यक्ष अधिदेव मानते हैं। भरत ने मोरछत्र लेकर चक्रको पोंछा, यद्यपि ऐसे सुन्दर और अनुपम चक्ररत्नके ऊपर धूल नहीं जमती, तथापिभक्तोंका कर्त्तव्य है, फर्ज है, कि अपनी ड्यूटी पूरी करें। इसके बाद पूर्व-समुद्र जिस तरह उदय होते हुए सूर्यको स्नान कराता है; उसी तरह महाराज ने पवित्र जलसे चक्रको स्नान कराया। मुख्य गजपति-गजराजके पिछले भागकी तरह,उसके ऊपरगोशीर्ष चन्दन का “पूज्य” सूचक तिलक किया। इसके पीछे साक्षात् जय लक्ष्मी की तरह पुष्प, गन्ध, वासचूर्ण, वस्त्र और आभूषणों से उसकी पूजाकी, उसके आगे रूपे के चाँवलों से अष्ट मंगलरचा या मांडा।
और उन आठ जुदे-जुदे मंगलों से आठ दिशाओं की लक्ष्मी घेरली। उसके पास पचरंगे फूलोंका उपहार रखकर पृथ्वी विचित्र रंग की बनादी। और शत्रुओं के यशकी तरह प्रयत्न करके चन्दन
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व कपूर मय उत्तम धूप जलाई। इसके बाद चक्रधारी महाराज भरतने चक्रको तीन प्रदक्षिणा की, और गुरु की तरह अवग्रह से सात आठ कदम पीछे हट गये। जिस तरह अपने तई कोई स्नेही-मुहब्बत से चाहने वाला नमस्कार करता है, उस तरह महाराज ने बायाँ घुटना नीचे दवाया, सुकेड़ कर और दाहने से पृथ्वी पर टिक कर चक्र को नमस्कार किया। शेषमें मूर्तिमान हर्ष ही हो, इसतरह पृथ्वीपतिने वहाँ ठहरकर चक्रका अष्टान्दिका उत्सव किया। उनके अलावः शहरके धनीमानी लोगोंने भी चक्र की पूजा का उत्सव किया ; क्योंकि पूजित या माननीय लोग जिसकी पूजा करते हैं, उसे दूसरा कौन नहीं पूजता ?
भरतद्वारा कीगई चक्र की पूजा। इसके बाद, उस चक्रके दिगविजय रूप उपयोग को ग्रहण करने की इच्छा वाले भरत महाराज ने मंगल मानके लिए स्नानागार या स्नान-घरमें प्रवेश किया। गहने कपड़े उतार कर और स्नान के समय कपड़े पहन कर, महाराज पूरबकी ओर मुंह करके स्नान सिंहासन पर बैठे। ठीक इसी समय, मर्दन करने योग्य
और न करने योग्य मालिश करने लायक और न करने लायक स्नानोंको जाननेवाले,मर्दनकला निपुण संवाहक पुरुषोंने, देववृक्ष के पुष्प-मकरन्द के जैसी सुगन्धी वाला सहस्रपाक प्रमुख तैल महाराजकेलगाया। मांस,हड्डी,चमड़ा और रोमोको सुख देने वालीचार प्रकारकी संवाहनासे और मृदुत्मध्य और दृढ़--तीन प्रकारके
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
:
1
हस्तलाघव से राजाको सब तरहसे संवाहन किया। इसके पीछे, आदर्श की तरह, अम्लाव कान्तिके पात्ररूप उस राजा के दिव्य चूर्णका उबटन मला । उस समय ऊँची डण्डीवाले नये कमलकी बावड़ी की तरह शोभायमान् कितनी ही स्त्रियाँ सोनेके जल - कलश लेकर खड़ी थीं। कितनी ही स्त्रियां मानो जल, धन रुप होकर कलशको आधार मय हुआ हो इस तरह दिखाती हुई चाँदीके कलश लेकर खड़ी थीं कितनी ही स्त्रियाँ अपने सुन्दर हाथोंमें लीलामय सुन्दर नील कमल की भ्रान्ति करने वाले इन्द्रनीलमणि के घड़े लिये हुए थी ; और कितनी ही सुभ्रु बालाओं - कितनी ही सुन्दरी षोडशी रमणियोंने अपने नख - रत्नकी कान्ति रूपी जलसे भी अधिक शोभावाले दिव्य रत्नमय घड़े ले रखे थे जिस तरह देवता जिनेन्द्र भगवान् को स्नान कराते हैं; उसी तरह इन बालाओं ने अनुक्रम से सुगन्धित और पवित्र जल धाराओं से धरणी पति को स्नान कराया। इसके बाद राजाने दिव्य विलेपन लगवाया और दिशाओंके आभाष-जैसे उज्ज्वल वस्त्र पहने। फिर मानो यश रूपी नवीन अङ्कुर हो, ऐसा मंगल मय चन्दन का तिलक उसने ललाट पर लगाया । जिस तरह आकाश मार्ग बड़े बड़े तारों समूह को धारण करता है, उसी तरह ज्ज्वल मोतियों के अलंकार - गहने पहने। महल शोभा देता है, उसी तरह अपनी किरणोंसे सूर्य को लजाने वाले मुकुट से वह सुशोभित हुआ । बारांगनाओं के कर कमलों से बारम्बार उठने वाले कानों के कर्णफूल जैसे दो चँवरोंसे वह
के
यशपुञ्जके समान उ
जिस तरह कलशसे
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आदिनाथ चरित्र
३१८
प्रथम पर्व शोभित होने लगा । जिस तरह लक्ष्मी के घररूप कमलों को धारण करने वाले पद्म-सरोवर या कमलमय सरोवर से हिमालय पर्वत शोभायमान लगता है; उसी तरह सोनेके कलश धारण करने वाले सफेद छत्रसे वह शोभने लगा । मानो सदा पास रहने वाले प्रतिहारी- अर्दली हों, इस तरह सोलह हज़ार यक्ष भक्त होकर उसे घेर कर खड़े हो गये । पीछे इन्द्र जिस तरह ऐरावत पर चढ़ता है; उसी तरह ऊँचे कुम्भ स्थल के शिखर से दिशामुख को ढकने वाले रत्नकुञ्जर पर वह सवार हुआ । तब उत्कट मद की धाराओंसे मानों दूसरा मेघ हो, उस तरह उस जातिवान हाथीने बड़े ज़ोर से गर्जना की, मानो आकाश को पल्लवित करता हो, इस तरह हाथ ऊंचे करके बन्दगीण एक साथ “जय जय” शब्द करने लगे । जिस तरह वाचाल गवैया दूसरी गाने वालियों से गाना कराता है, उस तरह ऊँचा नाद करने वाला नगाड़ा दिशाओं से नाद कराने लगा, और सब सैनिकों को बुलाने में दूत जैसे अन्य श्रेष्ठ मंगल मय बाजे भी बजने लगे 1 मानो धातु समेत हो, ऐसे सिन्दूर को धारण करने वाले हाथियोंसे, अनेक रुपको धारण करने वाले सूरज के घोड़ोका धोखा करने वाले अनेक घोड़ोंसे और अपने मनोरथ जैसे विशाल रथोंसे और मानो वशीभूत किये हुए क्रमी पैदलों से अलंकृत होकर महाराजा सेना के चलने से उड़ी हुई धूल से दिशाओं को बस्त्र पहनाते हुए पूरब दिशा की तरफ चलदिये ।
सिंह हों - ऐसे पराभरतेश्वर मानो अपनी
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प्रथम पर्व
३१६
आदिनाथ चरित्र
भरतचक्री की दिग्विजय के लिये तैयारी |
उस समय आकाश मे फिरते हुए सूर्य बिम्ब की तरह, हज़ार यक्षोंसे अधिष्ठित चक्र रत्न सेना के आगे चला । दण्डरन को धारण करने वाला सुषेण नामक सेनापतिरत्न अश्वरत्न के ऊपर चढ़कर चक्र की तरह आगे आगे चला । मानो सारी शान्ति कराने वाली विधियों में देहधारी शान्ति मन्त्र हो, इस तरह पुरोहितरत्न राजाके साथ चला । जङ्गम अन्तशाला- जैसा, फौजके लिए हर मुकाम पर दिव्य भोजन कराने में समर्थ गृहपतिरत, विश्वकर्मा की तरह, शीघ्रही पड़ाव आदि करने में समर्थ वर्द्धकी रत्न और चक्रवर्ती के सब स्कन्धावारों पड़ावों के प्रमाण और विस्तार की शक्ति वाला होने में अपूर्व चर्मरत्न और छत्ररत्न महाराजा के साथ चले । अपनी कान्ति से सूरज और चन्द्रमा की तरह अँधेरे को नाश कर सकने वाले मणि और कांकी नामक दोरन भी चलने लगे और सुर असुरोंके सारसे बनाया गया हो, ऐसा प्रकाशमान् खङ्गरत्न भी नरपति के साथ चलने लगा ।
गंगा तटपर पड़ाव |
जिस समय चक्रवतीं भरतेश्वर प्रतिहार की तरह चक्रका अनुसरण करते हुए राहमें चले, उस समय ज्योतिषियोंकी तरह अनुकुल हवा और शकुनों ने सब तरह से उनको दिग्विजय की सूचना दी। किसान जिस तरह ऊँची नीची ज़मीन को हल से
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आदिनाथ-चरित्र ३२०
प्रथम पर्व हमवार-चौरस करते हैं, उसी तरह सेनाके आगे आगे चलने वाला सुषेण सेनापति दण्डरत्न से विषम या नाबराबर रास्तों को समान करता चलता था। सेनाके चलने से उड़ी हुई धूलिके कारण दुर्दिन बना हुआ आकाश रथ और हाथियों के ऊपर की पताका रूप बगलों से शोभित हो रहा था। चक्रबर्ती की सेना जिसका अन्त दिखाई नहीं देता था, अस्खलित गतिवाली गङ्गा दूसरी गङ्गा नदी सी मालुम होती थी। दिगविजय उत्सब के लिये रथ चित्कारों से, घोड़े हिनहिनाने से और हाथी चिङगड़ोंसे परस्पर शीघ्रता करते थे। सेनाके चलने से धूल उड़ती थी, तो भी सबारों के भाले उसके भीतर से चमकते थे, इससे वे ढकी हुई सूर्य की किरणों की हँसी करते हों ऐसा मालूम होता था। सामानिक देवों से घिरे हुए इन्द्रकी तरह मुकुटधारी भक्ति भावपूर्ण राजाओंसे घिरा हुआ राजकुञ्जर भरत बीचमें सुशोभित था। पहले दिन चक्र एक योजन या चारकोस चलकर खड़ा होगया । उस दिनसे उस प्रयाण के अनुमान से ही योजन का माप आरम्भ हुआ। हमेशा एक एक योजन के मान से प्रयाण करते हुए चार चार कोस रोज.चलते हुए और पड़ाब करते हुए महाराजा भरत कितने ही दिनोंमे गङ्गा नदीके दक्षिणी किनारे पर आ पहुंचे। महाराजा भरतने, गङ्गा नदीकी विशाल भूमिको भी, अपनी सेनाके जुदे जुदे पड़ावों से संकुचित करके, विश्राम किया। उस समय गङ्गाके किनारे की जमीन पर, हाथियोंके झरते हुए मदसे, बर्षा काल की तरह कीचड़ होगई। जिस तरह मेघ समुद्र से जल
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३२१
आदिनाथ चरित्र
ग्रहण करते हैं, उसी तरह उत्तमोत्तम गजराज गङ्गा के निर्मल प्रबाह से इच्छानुसार जल ग्रहण करने लगे 1 अत्यन्त चपलतासे बारम्बार कूड़ने वाले घोड़े गङ्गा किनारे पर तरंगों का भ्रम उत्पन्न करने लगे और बड़ी मिहनत से गङ्गा के भीतर घुसे हुए हाथी, घोड़े, भैंसे, और सांड ऐसा भ्रम उत्पन्न करने लगे मानों उस उत्तम नदी में नये नये प्रकार के मगर मच्छ प्रभृति जल जीव हों । अपने किनारे पर डेरा डालने वाले राजाके अनुकूल हो, इस तरह गङ्गा नदी अपनी उछलने वाली लहरों की बूंदो या छीटों से राजा की फौज की थकान को जल्दी जल्दी दूर करने लगी। महाराज की जबर्दस्त फौज या बड़ी भारी सेना से सेवित हुई गङ्गा नदी शत्रुओं की कीर्ति की तरह कृश होने लगी अर्थात् महाराज की सेना इतनी बड़ी थी कि उसके गङ्गाके किनारे ठहरने और उसका जल काममें लाने से गङ्गा क्षीणकाय होने लगी- उसका जल कम होने लगा । भागीरथी के तीर पर उगे हुए देवदारु के वृक्ष सेना के गजपतियों के लिये प्रयत्तसिद्ध बन्धनस्थान होगये, यानी गङ्गा तट पर लगे हुए देवदारु के वृक्ष, बिना प्रयत्न के; हाथियों के बाँधने के खूटों का काम देने लगे ।
हाथियोंके महाबत हाथियोंके लिए पीपल, सल्लकी, कर्णिकार और गूलर के पत्ते कुल्हाड़ियों से काटते थे । पंक्तिबद्ध कतारों में खड़े हुए हज़ारों घोड़े अपने ऊँचे ऊँचे कर्णपल्लवों से तोरण से बनाते हुए शोभायमान थे अर्थात् हज़ारों घोड़े जो कतार बाँधे खड़े थे, उनके ॐ चेऊँ चे कानों के देखने से तोरणों का धोखा होता था ।
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प्रथम पब
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
३२२ अश्वपाल या घाड़ों की खबरगिरी करने वाले सईस, बन्धुओं की तरह, मोठमूंग, और चने वगेर; लेकर बड़ी तेजी से घोड़ोंके सामने रखते थे।महाराजकी छावनी में विनिता नगरी की तरह क्षण भर में ही, चौक, तिराहे और दुकानों की पंक्तियाँ लग गई । गुप्त, बड़े बड़े
और स्थूल तम्बुओं में सुखसे रहने वाले सेनाके लोग अपने पहलेके महलों की भी याद न करते थे । खेजड़ी, बेर.और बबूलके काँटे दार वृक्षों को खाने वाले ऊँट सेनाके कण्टक शोधन का कमा करते से जान पड़ते थे। स्वामी के सामने सेवकों की तरह, खच्चर, जाह्नवी के रेतीले किनारे पर, अपनी चाल चलायमान करते हुए लोटते थे। कोई लकड़ी लाता था, कोई नदी का जल लाता था, कोई दूब की भारी लाता था, कोई साग सब्जी और फल प्रभृति लाता था, कोई चूल्हा खोदता था, कोई शाल खांडताथा,कोई आग जलाता था, कोई भात रांधता था, कोई घरकी तरह एकान्त में निर्मल जल से स्नान करता था, कोई स्नान करके सुगन्धित धूपसे शरीर को धूपित करता था । कोई पहले पैदल प्यादों को खिलाकर, पीछे स्वयं इच्छा मत भोजन करता था। कोई स्त्रियों सहित अपने अङ्ग चन्दनादिका विलेपन करता था। उस चक्रवर्ती राजाकी छावनी में सारे जरूरी सामान लीलासे अनायासही मिल सकते थे, अतः कोई भी आदमी अपने तई कटक में आया हुआ न समझता था; अर्थात् वहाँ जरूरियातकी समी चीजें बड़ी ही आसानी से मिल जाती थीं। अतः घरकी तरह ही आराम था, इससे कोई यह न समझता था कि, हम घर छोड़ कर सेनाके साथ आये हैं।
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३२३
प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र मागधतीर्थ पर भरतचक्री का आना। वहाँ एक दिन रात बिताकर-२४ घण्टे ठहर कर-सवेरे ही कूच किया गया। उस दिन भी एक योजन चार कोस चलने वाले चक्र के पीछे चक्रवर्ती भी उतनाही चले। इस तरह सदा चार कोस रोज चलने वाले चक्रवर्ती महाराज मागध तीर्थ में आ पहुँचे। वहाँ पूर्व समुद्र के किनारे महाराज ने ३६ कोसकी चौड़ाई और ४८ की लम्बाई में सेनाका पड़ाव किया; यानी वह सेना १७२८ कोस या ३४५६ बर्गमील भूमिमें ठहरी। वर्द्धकिरन ने वहाँ सारी सेना के लिये आवास-स्थान बनाये। और धर्म रूपी हाथी की शालारूप पौषधशाला भी बनाई। जिस तरह सिंह पर्वत से उतरता है ; उसी तरह महाराजा भरत उस पौषध शालामें अनुष्ठान करने की इच्छा से हाथी से उतरे। संयम रूपी साम्राज्य लक्ष्मी के सिंहासन-जैसा दूबका नूतन संथारा भी चक्रवत्ती ने वहाँ बिछाया। हृदय में मागध तीर्थ कुमार देवको धारण करके, अर्थसिद्धि का आदि द्वार रूप अष्टमभक्त, यानी अठुमका तप किया। पीछे निर्मल बस्त्र पहन, फूलों की माला और विलेपन को त्याग कर, शस्त्र को छोड़कर, पुण्यको पोषण करने के लिये, औषध के समान पौषधव्रत ग्रहण किया। अव्यय पद में जिस तरह सिद्धि निवास करती है, उसी तरह उस दूबके संथारे पर पौषधव्रती महाराज ने जागते हुए पर क्रिया रहित हो कर निवास किया। शरद् ऋतु के मेघोंमें जिस तरह सूर्य निकलता
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आदिनाथ-चरित्र ३२४
प्रथम पर्व है, उसी तरह या वैसी ही कान्तिके साथ महाराजा पौषधागार में से निकले। पीछे सर्व अर्थ को प्राप्त हुए राजाने स्नान करके बिलविधान किया ; क्योंकि यथार्थ विधि को जानने वाले पुरुष विधि को नहीं भूलते। मागध तीर्थ के अधिपति देवको साधन
करने का यत्न । इसके बाद पवन के जैसे वेग बाले और सिंहके समान धैर्य धारी घोड़ोंके रथमें उत्तम रथी भरतराय सबार हुए। मानों च. लसा हुआ महल हो, इस तरह उस रथके उपर ऊँची पताका वाला ध्वजस्तम्भ था। शस्त्रागार की तरह अनेक श्रेणियों से वह विभूषित था और मानो चारों दिशाओं की विजय लक्ष्मी के बुलाने के लिये रखी हों, ऐसी टन टन करने वाली चार घन्टियाँ उस रथके साथ बँधी हुई थीं। शीघ्र ही इन्द्र के सारथी मातलि की तरह राजा के भावको समझने वाले सारथी ने रास हाथोंमें लेकर धोड़े हाँके। महा हस्ती रूपी गिरिवाला, बड़े बड़े शकट रूपी मकर समुह वाला, चपल अश्व रूपी कल्लोल :वाला, विचित्र शस्त्र रुपी भयङ्कर सो वाला, पृथ्वी की उछलती हुई रज रूपी बेला वाला और रथों के निर्घोष रूपी गरजना वाला-दूसरे समुद्र के जैजा वह राजा समुद्र के किनारे पर आया। (यहाँ रूपक बांधा है, महाराजा भरत की तुलना सुमुद्रसे की है, समुद्र में पर्वत होते हैं, महाराज के पास पर्वत समान हाथी थे, समुद्र में बड़े
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प्रथम पर्व
३२५
आदिनाथ चरित्र
बड़े ग्राह और मगर मच्छ होते हैं, राजाके पास मगर मच्छ जैसे शकट या गाडे थे, समुद्रमें कल्लोलें होती हैं, राजा के पास कल्लोलों के बजाय चपल घोड़े थे, समुद्र में सर्प रहते हैं, उनके बजाय राजाके यहाँ विचित्र विचित्र अस्त्र शस्त्र थे । समुद्र में किनारा होता है, राजाकी सेनाके चलने से जो धूल उड़ती थी, वही वेला या किनारा था, समुद्र गर्जना करता है, महाराजा के रथ गर्जना करते थे - अतः महाराजा दूसरे समुद्र के समान थे, फिर मच्छों की आवाज़ों से जिसकी गर्जना बड़ गई है, ऐसे समुद्र में रथकी धुरी तक रथको प्रविष्ट किया। पीछे एक हाथ धनुषके मध्य भाग में रख, एक हाथ प्रत्यञ्चा के अन्त में रख, प्रत्यञ्चा को चढ़ाकर पञ्चमीके चन्द्रमाके आकार धनुष को बनाया, और अपने हाथसे धनुषकी प्रत्यञ्चा खींचकर, मानों धनुर्वेद का आदि ओंकार हो - इस तरह ऊँची आवाजसे टंकार किया। पीछे पाताल द्वार में से निकलते हुए नागके जैसा अपने नामसे अङ्कित हुआ एक बाण तरकस में से निकाला । सिंहके कर्ण जैसी मुट्ठी से, पडुके अगले भाग से उसे पकड़ कर, शत्रुओं में बज्रदण्डके समान उस बाण को प्रत्यञ्चाके साथ जोड़ दिया ! सोने के कर्णफूल रूप पद्म नाल की तुलना करने वाला वह सुवर्ण मय बाण चक्रवर्त्तीने कानों तक खींचा। महाराज के नव रत्नोंसे प्रसार पाती हुई किरणों से बह बाण मानों अपने सहोदरों से घिरा हो इस तरह शोभायमान था । खींचे हुए धनुष के अन्तिम भागमें लगा हुआ वह प्रदीप्त बाण, मौत के खुले हुए मुँह के भीतर चञ्चल जीभकी लीला को धारण करता था
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आदिनाथ-चरित्र ३२६
प्रथम पव यानी ऐसा जान पड़ता था गोया मौत मुँह खोलकर अपनी चञ्चल जीभ लपलपा रही हो । उस धनुष के घेरे में से दीखने वाले लोकपाल महाराज भरत, मण्डल में रहने वाले सूर्य की तरह, महा भय. ङ्कर मालूम होते थे। 'उस समय यह राजा मुझे स्थान से चलाय मान करेगा; अथवा मेरा निग्रह करेगा' ऐसा समझ कर लवण ससमुद्र क्षुभित होने लगा। फिर पृथ्वी पतिने बाहर, बीचमें, मुख में और पंख पर नाग कुमार, असुर कुमार और सुवर्ण कुमारादिक देवताओं से अधिष्ठित किये हुए दूतकी तरह आज्ञाकारी और शिक्षाअक्षर से भयङ्कर उस बाण को मागध तीर्थके अधिपति पर छोड़ा। उत्कट पड्डोंके सन सनाहट से साकाशको गुनाता हुआ वह बाण तत्काल गरूड़ के जैसे वेगसे चला। मेघसे जिस तरह बिजली, आकाश से जिस तरह उल्काग्नि, अग्नि से जिस तरह तिनक, तपस्वीसे जिस तरह तेजोलेश्या, सूर्यकान्त मणि से जिस तरह अग्नि और इन्द्र की भुजासे छुटकर जिस तरह वज्र शोभा पाता। उसी तरह राजाके धनुषसे निकला हुआ वह बाण शोभा पाने लगा, क्षण भरमें बारह योजन—४८ कोस उलाँघ कर वह बाण, हृदयके भीतर शल्य के समान, मागधपति की सभा में जा गिरा। जिस तरह लाठी या दण्डे की चोट लगने से सर्प क्रुद्ध होता है, उसी तरह बाण के गिरने से मागधपति क्रुद्ध हुआ। भयङ्कर धनुष की तरह उसकी दोनों भौऐं चढकर गोल होगई, जलती हुई आग की समान उसके नेत्र लाल होगये। धोंकनी की तरह उसकी नाक फूलने लगी, ओर तक्षक सर्पका छोटा भाई हो, इस तरह वह
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प्रथम पर्व
३२७
आदिनाथ-चरित्र अधर दल-होठोंको फड़काने लगा। आकाश में धूमकेतुके समान ललाटमें रेखाओं को चढा, बाज़ीगर जिस तरह सांप को पकड़ता है, उसी तरह अपने दाहिने हाथसे आयुध को ग्रहण कर, बायें हाथ से, शत्रुके गाल की तरह, आसन पर ताड़न कर, विषज्वाला जैसी वाणी से बह बोला।
मागधतीर्थपति का कोप । अप्रर्थित वस्तु की प्रार्थना करने वाले अविचारी विवेक शून्य और अपने तई बीर मानने वाले किस कुबुद्धि पुरुष ने मेरी सभामें यह बाण फैका है ? ऐसा कौन पुरुष है, जो ऐरावत हाथी के दाँत तोड़ कर अपने कानों का गहना बनाना चाहता है ? ऐसा कौन पुरूष है जो, गरुड़ के पड्ढों का मुकुट बनाना चाहता है ? शेष नाग के मस्तकके ऊपर की मणिमाला को ग्रहण करने की कौन आशा करता है ? कौन पुरुष है, जो सूर्यके घोड़ों को हरने की इच्छा करता है ? ऐसे पुरुष के प्राणो को मैं उसी तरह हरण करता हूँ, जिस तरह गरुड़ सर्पके प्राणोंको हरण करता है ।” यह कहता हुआ मागध पति बड़े ज़ोर से उठकर खड़ा हो गया और बिलमें से सर्प की तरह म्यानसे तलवार खींची और आकाश में धूमकेतु का भ्रम करने वाली तलवार को कम्पाने लगा। समुद्र बेलाके समान उसका सारा दुर्वार परिवार भी एक दम कोपटोप सहित तत्काल खड़ा होगया। कोई अपने खड्गों से आकाशको मानो कृष्ण विद्यु तमय करते हों, इस तरह करने लगे। कोई
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
अपने उज्ज्वल वसुनन्द नामक आयुध से मानों अनेक चन्द्र वाला हो—इस तरह करने लगा। कोई मृत्युकी दन्त-पंक्तिसे बनाए गये हों ऐसे अपने तीक्ष्ण भालोंको चारो और उछालने लगे। कोई अग्निकी जीभ जैसी फरसियों को फेरने लगे ; कोई राहुके समान भयङ्कर पर्यन्त भाग वाले मुद्गर फेरने लगे। कोई बज्रकी उत्कट धार जैसे त्रिशूल को ग्रहण करने लगे और कोई यमराज के दण्ड जैसे प्रचण्ड दण्ड को ऊँचा करने लगे। कितने ही शत्रुको विस्फोट करने में कारणरूप अपने भुज दण्डों को अस्फोटन करने लगे। कितने ही मेघनाद जैसे उर्जित सिंहनाद करने लगे; कितने ही 'मारो, मारो' इस तरह कहने लगे ; कितने ही पकड़ो, पकड़ो' इस तरह कहने लगे। कितने ही खड़े रहो, खड़े रहो' और कितने ही 'चलो चलो' इस तरह कहने लगे। मागध पतिका सारा परिवार इस तरह विचित्र कोपकी चेष्टा करने लगा। इसके बाद प्रधान मन्त्रोने आकर बाण को अच्छी तरह देखा । इतने में उसे उसके ऊपर मानो दिव्य मन्त्राक्षर हों ऐसे उदार और बड़े सारवाले नीचे के मुताबिक अक्षर दीखे:--
__“साक्षात् सुर असुर और नरों के ईश्वर ऋषभ स्वामी के पुत्र भरत चक्रवर्ती तुम्हे ऐसा
आदेश करते हैं, कि यदि राज्य और जीवन की कामना हो तो हमें अपना सर्वस्व देकर हमारी सेवकाई करो॥” इसका खुलासा यह है कि, उस तीर पर यह लिखा हुआ था
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प्रथम पर्व
३२६
आदिनाथ चरित्र
कि देवता, राक्षस और मनुष्यों के साक्षात् ईश्वर ऋषभ भगवान हैं 1 उन्हीं के पुत्र महाराज भरत चक्रवर्त्ती आपकी यह हुक्म देते हैं, कि अगर आप अपने राज्य और जानमाल की ख़ैरियत चाहते हो, तो अपना सर्वस्व हमारी भेंट करके हमारी टहल बन्दगी करो । अगर आप इस आज्ञा को न मानोगे - हुक्म अदूली करोगे, तो आपका राज्य छीन लिया जायगा और आपका जीवन समाप्त कर दिया जायगा ।
मागधतीर्थपतिका सेवक होना ।
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ऐसे अक्षरों को देखकर मंत्री ने अवधिज्ञान से सारा मामला समझ लिया और वह वाण सबको दिखाया और ऊँची आवाज़ से बोला- " अरे समस्त राजा लोगों ! साहस करने वाले, मतलब की बात न समझने वाले अपने मालिक का अनभल कराने वाले, और फिर अपनी जाती को स्वामिभक्त माननेवाले आप लोगों को धिक्कार है । इस भरत क्षेत्र में पहले तीर्थङ्कर, श्री ऋषभ स्वामीके पुत्र महाज भरत पहले चक्रबर्ती हुए हैं। वे अपन लोगों से दण्ड माँगते हैं और इन्द्रके समान प्रचण्ड शासन वाले वे हम सबको अपनी आज्ञा या अधीनता में रखना चाहते हैं । कदाचित समुद्र सोखा जा सके, मेरु पर्वत उखड़ जाय, यमराज मारा जाय, पृथ्वी उलट जाय, वज्र पीसा जाय, और बड़ वाग्नि बुझ जाय, पर पृथ्वी पर चक्रवर्ती की पराजय हो नहीं सकती, चक्रवर्ती को कोई जीत नहीं सकता, चक्रवर्ती अजेय है
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आदिनाथ चरित्र
३३०
प्रथम- पव
अतएव हे बुद्धिमान राजा ! इन ओछी बुद्धिबालों को मनाकर, और दण्ड तैयार करके, चक्रवर्ती को प्रणाम करनेके लिये कूच बोलदे । गन्धहस्ती को सूंघकर जिस तरह दूसरे हाथी शान्त हो जाते हैं - कान पूँछ नहीं हिलाते - उत्पात नहीं करते; उसी तरह मंत्री की बातें सुनकर और वाण पर लिखे अक्षर देखकर मगधाधिपति शान्त हो गया- -उसका क्रोध हबा हो गया । शेष में, वह बाण और भेंट को लेकर भरत चक्रवर्ती के पास आया और प्रणाम करके इस भाँति कहने लगा:- “पृथ्वीनाथ ! कुमुदखण्डको पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह, भाग्य योगसे मुझे आप के दर्शन मिले हैं । भगवान् ऋषभ स्वामी जिस तरह पहले तीर्थ ङ्कर होकर विजयी हुए हैं, उसी तरह आप भी पहले चक्रवर्ती होकर बिजयी हों, जिस तरह ऐरावत हाथी का कोई प्रतिहस्ती नहीं, वायुके समान कोई बलवान नहीं और आकाश से बढ़कर कोई मानवाला नहीं; उसी तरह आप की बराबरी करने बाला भी कोई नहीं हो सकता । कान तक खींचे हुए आपके धनुष में से निकले हुए बाण को, इन्द्र-वज्रकी तरह, कौन सह सकता है ? मुक प्रमादी पर कृपा करके, आपने कर्त्तव्य जनाने के लिये, छड़ी दार की तरह, यह बाण फेंका, इसलिये हे नृपशिरोमणि ! आज से मैं आपकी आज्ञा को शिरोमणि की तरह, मस्तक पर धारण करूँगा । हे स्वामिन ! मैं आपके आरोपित किये - स्थापित किये जयस्तम्भ की तरह, निष्कपट भक्ति से इस मागधतीर्थ में रहूँगा । यह राज्य, यह सब परिवार, स्वयं मैं और अन्य
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प्रथम पव
३३१
आदिनाथ-चरित्र
सब आपका ही है; अपने सेवक की तरह मुझे आज्ञा कीजिये।
इस तरह कहकर उसने वह वाण, मागध तीर्थ का जल, मुकट और दोनों कुण्डल अर्पण किये । भरतरायने उन सब चीज़ों को स्वीकार करके उसका सत्कार किया; क्योंकि महात्मा लोग सेबाके लिए नम्र हुए मनुष्यों पर कृपा ही करते हैं। अर्थात् बड़े लोगों की शरणमें जो कोई नम्र हो कर, उनकी सेवकाई के लिये, आता है, उस पर वे दया किया करते हैं। इसके बाद. इन्द्र जिस तरह अमरावती में जाता है, उसी तरह चक्रवर्ती रथ को वापस लौटाकर, उसी राह से छावनी में आये। रश से उतर, स्नानकर, परिवार समेत उन्होंने अठ्ठम का पारणा किया। पीछे, आये हुए मागधाधीशका भी चक्र की तरह, :चक्रवर्तीने वहाँ बड़ी मृद्धिके साथ अष्टान्हिक, उत्सव किया। मानो सूर्यके रथ में से ही निकल कर आया हो, इस तरह तेज से भी तीक्ष्ण चक्र अष्टाह्निका उत्सव के पीछे आकाश में चला और दक्खन दिशा में वर दान तीर्थ की ओर रुख किया। प्रादि उपसर्ग जिस तरह धातु के पीछे जाते है। उसी तरह चक्रवर्ती भी उसके पीछे पीछे चलने लगे। भरत चक्रि का वरदाम तीर्थ की ओर प्रयाण।
वरदाम पति का कोप और अधिन होना । सदा योजन मात्रप्रयाण से चलते हुए--नित्य चार कोस
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र ३३२ की मञ्जिल तय करते हुए ; अनुक्रम से जैसे राजहंस मान-सरोवर पहुँच जाता है, उसी तरह चक्रवर्ती दक्खन-समुद्रके नज़दीक आ पहुंचे। इलायची, लौंग, चिरौंजी और कंकोल के वृक्षों की जहाँ बहुतायत या इफरात है, उसी दक्षिण-सागरके निकट चक्रवर्ती ने अपनी सेना का निवास कराया, महाराजकी आज्ञा से, पहले. ही की तरह, वर्द्धकिरत्नने-सैन्यके निवास-गृह और पौषधशालाकी वहाँ रचनाकी। उस वरदान तीर्थ के देवता को हृदय में धारण करके, महाराज ने अट्ठमका तप किया और पौषधशाला में पौषधवत ग्रहण किया। पौषध पूर्ण होने पर, पौषध घर में से निकल कर, धनुर्धारियों में अग्रसर, महाराजने कालपृष्ट रूप दण्ड ग्रहण किया और फिर सारे ही सोने से बनेहुए और करोड़ों रत्नों से जड़े हुए, जयलक्ष्मी के निवास-गृह उसरथ में सवार हुए।अनुकूल पवन से चपल-हिलती हुई ध्वजा-पताकाओं से आकाश मण्डल को भूषित करता हुआ वह रथ, नाव की तरह समुद्र में जाने लगा। रथको उसकी नाभि या धूरी तक समुद्र में ले जाकर, आगे बैठे हुए सारथि ने घोड़े रोके। रोकने से रथ खड़ा हुआ, फिर आचार्य जिस तरह शिष्य या चेले को नमाते हैं, उसी तरह पृथ्वीपति ने धनुष को नमा कर प्रत्यंचा चढ़ाई, और संग्रामरूपी नाटक के आरम्भ में नान्दी जैसा, और कालके आव्हान में मंत्र—जैसा टंकार किया। फिर लालट पर किए हुए तिलक की शोभा को चुरानेवाला बाण तरकश से निकाल कर.धनुष पर चढ़ाया। चक्ररूप किये हुए धनुष के मध्य भाग में धुरे का भ्रम
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प्रथम पर्व
३३३
आदिनाथ-चरित्र
करने वाले उस बाण को महाराज ने कान तक खींचा। कान तक आया हुआ बाण-"मैं क्या करूँ ?” इस तरह प्रार्थना करता हुआ सा दिखई देता था। चक्रवर्ती ने उसे वरदामपति की ओर छोड़ा। आकाश में प्रकाश करने वाले उस वाण को पर्वत, वज्र, सर्पने गरुड़ और समुद्र दूसरा बड़वानल समझकर भय से भीत हो गये ; अर्थात् पर्वतों ने उसे वज्र समझा, सर्पो ने उसे गरुड़ समझा और समुद्र ने दूसरा बड़वानल समझा और इस कारण डर गये। बारह योजन या छियानवे मील उलाँघ कर, वह वाण, उल्कापतन की तरह, वरदामपति की सभा में गिरा। शत्रुके भेजे हुए घात करने वाले मनुष्य की तरह, उस वाणको गिरा हुआ देख, वरदामपति कुपित हुआ और तूफानी समुद्रकी तरह, वह उद्भ्रान्त भ्रकुटियों में बल डालकर, उत्कठ वाणी से नीचे लिखे अनुसार बोला:__“पाँव से छूकर आज इस केशरी सिंहको किसने जगाया ? आज मृत्युने किस का पन्ना खोला ? कोढ़ीकी तरह अपने जीवन में आज किसे वैराग्य हुआ कि जिसने अपने साहस से मेरी सभा में यह वाण फैंका ? इस वाण के फैकनेवाले को इस वाण से ही मारूँगा।" यह कहकर, और क्रोध में भरकर उसने वह वाण उठाया। मागधपति की तरह, वरदामपतिने भी वाण के ऊपर पूर्वोक्त अक्षर देखे। जिस तरह नागदमनी औषधियों से नाग शान्त होता है ; उसी तरह उन अक्षरों को पढ़कर वह तत्काल शान्त हो गया, और कहने लगा:-"अहो ! मैंडक जिस तरह
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आदिनाथ चरित्र
३३४
प्रथम पर्व काले साँपको थप्पड़ मारनेको तैयार हो, मैढ़ा जिस तरह अपने सीगों से हाथी को मारने की इच्छा करे और हाथी अपने दाँतोंसे पर्वत को ढाहने की चेष्टा करें; ठीक उसी तरह मन्दबुद्धि से मैं ने भी भरत चक्रवर्ती से युद्ध करने की इच्छा की !” ख़ैर, अभी तक कुछ भी नहीं बिगड़ा, यह निश्चय करके उसने अपने नौकरों को भेंटका सामान जुटाने की आज्ञा दी । फिर वाण और अपूर्व भेंटों को लेकर, वह उसी तरह चक्रवर्ती के पास जानेको तैयार, हुआ, जिस तरह इन्द्र वृषभध्वज के पास जाता है चक्रवर्ती के पास पहुँचकर और नमस्कार करके वह यों बोला :- हे पृथ्वी के इन्द्र ! इनकी तरह, आपके बाण द्वारा बुलाये जाने पर मैं आज यहाँ हाज़िर हुआ हूँ । आपके स्वयं पधारने पर भी, मैं सामने नहीं आया, मेरी मूर्खता के इस दोष को आप क्षमाकरें ! क्योंकि अज्ञता दोषको आच्छादन करती है; अर्थात् मूर्खता दोष को ढकती है । हे स्वामिन ! थका हुआ आदमी जिस तरह आश्रयस्थलरहने का स्थान पाता है और प्यासोंको जिस तरह जलपूर्ण सरोवर मिलता है; उसी तरह मुझ स्वामी रहित को आज आपके समान स्वामी मिला है। हे पृथ्वीनाथ ! समुद्र में जिस तरह वेलंधर पर्वत होते हैं, उसी तरह आज से मैं आपका नियता किया हुआ, आपकी मर्यादा में रहूँगा ।' यह कहकर भक्तिभावसे पूर्ण बरदामपति ने पहले की धरोहर रक्खी हो, इस तरह वह बाण वापस सौंपा। सूर्यकी कान्ति से गुथे हुए के जैसा और अपनी कान्ति से दिशाओं को प्रकाशित करने वाला एक रत्नमय
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प्रथम पर्व
३३५
आदिनाथ चरित्र
कटिसूत्र या कमर में पहनने की कर्द्धनी तथा यश के समूह - जैसी बहुत दिनों की सञ्चित की हुई मोतियों की राशि उसने महाराज भरतको भेंट की इनके सिवा अपनी उज्ज्वल कान्ति से प्रकाशमान रत्नाकर - सागर के सर्व्वस्व जैसा रत्नों का ढेर भी महाराज को अर्पण किया। ये सब स्वीकार करके महाराज ने वरदापमति को अनुग्रहीत किया और उसे वहाँ अपने कीर्त्तिकर की तरह मुकर्रर किया। इसके बाद वरदामपतिको कृपापूर्वक बुलाकर विदा किया और विजयी महाराज स्वयं अपने कटक में पधारे ।
रथ में से उतर कर राजचन्द्रने परिजनोंके साथ अष्टम भक्त का पारणा किया और इसके बाद बरदाम पतिका अष्टान्हिक उत्सव किया । महात्मा लोग आत्मीय जनों को लोक में महत्व प्रदान करने के लिये मान देते हैं ।
प्रभास तीर्थ की ओर प्रयाण । प्रभास पति का अधिन होना ।
इसके पीछे, पराक्रममें मानो दूसरा इन्द्र हो, इस तरह चक्रवर्त्ती चक्र के पीछे-पीछे, पश्चिम दिशा में प्रभास तीर्थकी ओर चले | सेनाके चलने से उड़ी हुई धूल से पृथ्वी और आकाश के बीचले भाग को भरते हुए, कितने ही दिनों में वे, पश्चिम समुद्र के ऊपर आ पहुँचे। सुपारी, ताम्बूली और नारियलके वन से व्याप्त पश्चिम समुद्र के किनारे पर उन्होंने अपनी सेनाका पड़ाव किया। वहाँ प्रभासपतिके उद्देश से अष्टमभक्त व्रत किया और पहले की तरह पौषध
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आदिनाथ-चरित्र
३३६
प्रथम पर्व
शाला में पौषध लेकर बैठे । पौषधके अन्तमें मानो दूसरे बरुण हों, इस तरह चक्रवर्तीने रथमें बैठ कर सागर में प्रवेश किया । रथको पहियेकी धूरी तक पानी में ले जाकर उन्होंने अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाई, इसके बाद, जय-लक्ष्मी की क्रीड़ा करनेकी वीणारूप धनुर्यष्ठिकी तंत्री- जैसी प्रत्यंचाको आपने हाथ से शब्दायमान् कर, खंकार देकर, मानो समुद्रको छड़ी - दण्ड देना हो, समुद्रको वेत्राघातकी सज़ा देनी हो, समुद्रके बेत लगवाने हों इस तरह तरकशमें से तीर निकाल कर, आसन पर अतिथि को बैठानेकी तरह उसे धनुष - आसन पर बिठाया । सूर्यबिम्बमें से खींची हुई किरण के जैसे उस बाणको उन्होंने प्रभास देवकी ओर चलाया । वायु-वेग से, बारह योजन - छियानवे मील समुद्रको पार करके, आकाश में चाँदना करता हुआ वह तीर प्रभासपतिके सभास्थानमें जा पड़ा । वाणको देखते ही प्रभासेश्वर कुपित हुए; परन्तु उस पर लिखे हुए अक्षर देखकर, अन्य रसको प्रकट करने वाले नटकी तरह, तत्काल शान्त हो गया । फिर वाण और भेंट की दूसरी चीजें लेकर प्रभासपति चक्रवर्तीके पास आये और इस प्रकार कहने लगे:"हे देव ! आप स्वामीके द्वारा प्रकाशित हुआ, मैं आज ही सच्चा प्रभास हुआ हूँ । क्योंकि कमल सूरजकी किरणों से ही कमलपानीको सुशोभित करने वाला होता है । हे प्रभो ! मैं पश्चिममें सामन्त राजाकी तरह रह कर, सदा, पृथ्वीके शासक आपकी आज्ञा पालन करूँगा यह कह कर महाराजका फेंका हुआ बाण, युद्धमें फेंके हुए बाणको उठाकर लाने वाले सेवककी तरह भरते
"
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प्रथम पर्व
३३७
आदिनाथ चरित्र
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I
श्वरको अर्पण किया उसके साथही अपने मूर्त्तिमान तेज-जैसे कड़े कौंधनी, मुकुट, हार तथा अन्यान्य द्रव्य चक्रवतीं को भेट किये। उसे आश्वासन देने के लिए राजी करने के लिए--उसकी दिलशिकनीका ख़याल करके महाराजने भेटके समस्त द्रव्य ले लिये। क्योंकि भेट लेना स्वामीकी कृपा का पहला चिह्न है । क्यारीमें जिस तरह वृक्षको स्थापन करते हैं, उसी तरह उसे वहाँ स्थापन करके – मुकर्रर करके शत्रुनाशन महाराज अपने कटक में पधारे 1 कल्पवृक्षके समान गृहिरन द्वारा लाये गये दिव्य भोजनोंसे उन्होंने अष्टमभक्त का पारणा किया और प्रभास देवका अष्टान्हिका उत्सव किया : क्योंकि पहली बार तो सामन्त जैसे राजा की भी सत्वृति करनी उचित है।
1
सिन्धु देवि प्रभृति को साधना ।
1
जिस तरह दीपकके पीछे-पीछे प्रकाश चलता है: उसी तरह चक्रके पीछे पीछे चलने वाले चक्रवर्त्ती महाराज, समुद्रके दक्खन किनारेके नजदीक, सिन्धनदी के किनारे पर आ पहुँचे उसके किनारे किनारे पूर्वाभिमुख चलकर सिन्धदेवी के सदन के समीप उन्होंने पड़ाव डाला । वहाँ अपने मनमें सिन्धुदेवी का स्मरण कर उन्होंने अष्टमतप लहरोंकी तरह सिन्धुदेवी का आलन चलायमान हुआ । अवधिज्ञान में चक्रवत्त को आये हुए समझ, उत्तमोत्तम दिव्य वस्तुएँ भेट में देने के लिये लेकर, उनके सम्मानार्थ वह २२
किया । इससे, वायुसे ताड़ित
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आदिनाथ - चरित्र
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प्रथम पर्व
उनके सामने आई। देवीने आकाशमें ठहरकर "जय जयं" कहते हुए आशीर्वाद पूर्वक कहा - "हे चक्रवत्तीं ! मैं यहाँ आपकी टहलुवी होकर रहती हूँ आप आशा दें वही काम करूँ ।" यह कहकर लक्ष्मीदेवी के सर्वस्व और निधान की सन्तति जैसे रत्नोंसे भरे हुए १००८ कुम्भ या घड़े, कीर्त्ति और जय लक्ष्मीके एक साथ बैठनेको बने हों ऐसे रत्नमय दो भद्रासन, शेष नागके मस्तक पर रहने वाली मणियोंसे बने हों ऐसे प्रदीप्त रत्नमय बाहुरक्षक - बाज़ूवन्द, बीच में सूर्यविम्बका कान्ति रक्खी हो ऐसे कड़े, और मुट्ठ में समा जाने वाले सुकोमल - नर्मानर्म दिव्यवस्त्र उसने चक्रवर्तीको भेंट किये । सिन्धुराजकी तरह उन्होंने वे सब चीजें स्वीकार कर लीं । और मधुर आलाप - मीठी मीठी बातोंमे देवीको प्रसन्न करके उन्होंने उसे बिदा किया। पीछे पूर्णमासीके चन्द्रमा जैसे सुवर्णकेपात्र में अष्टमभक्त का पारणा क्रिया और देवीका अष्टान्हिका उत्सव करके चक्रकी बताई हुई राहसे आगे चले 1
उत्तर -- पूर्व दिशा के मध्य - ईशानकोण – की तरफ चलते हुए, अनुक्रमसे दोनों भरतार्द्धके बीचों-बीचमें सीमा रूप से स्थित, वैताढ्य पर्वतके पास आये । उस पतके दक्खन भागके ऊपर मानो कोई लम्बा चौड़ा द्वीप हो, ऐसा पड़ाव महाराजने डाला । वहीं ठहरकर महाराजने अष्टम तप किया, इतनेमें हो वंताढ्या दि कुमार का आसन काँपा । उसने अवधि ज्ञानसे जान लिया कि; भरत क्षेत्रमें यह पहला चक्रवर्त्ती हुआ है। इसके बाद उसने चक्रवर्त्ती के पास आकर, आकाशमें ही ठहर कर कहा - "हे
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प्रथम पर्व
३३६
आदिनाथ-चरित्र
प्रभो ! आपकी जय हो ! मैं आपका सेवक हूँ । मुझे जो आज्ञा देनी हो सो दीजिये। मैं आपकी आज्ञापालन या हुक्म की तामील करने के लिए तैयार हूँ ।' यह कहकर बड़ा भारी खजाना खोल दिया हो, इस तरह मूल्यवान - कीमती कीमती रत्न, रत्न और जवाहिरों के गहने - ज़ेवर दिव्य वस्त्र - सुन्दर सुन्दर कपड़े और प्रताप सम्पत्तिका क्रोड़ा स्थान जैसा भद्रासन उसने महाराज को भेंट किया । पृथ्वीपतिने उसकी दी हुई सारी चीजें लेली; क्योंकि निर्लोभ स्वामी भी सेवकों पर अनुग्रह करने के लिये उनकी भेंट स्वीकार कर लेते हैं। इसके बाद महाराज ने उसे इज्जत के साथ बुलाकर, गोरव के साथ विदा किया। महा पुरुष अपने आश्रय में रहे हुए साधारण पुरुषों की भी अवज्ञा नहीं करते । अष्टम भक्त का पारणा करके, वहीं वैताल देव का अष्टान्हिका उत्सव किया ।
वहाँ से चक्ररत तमिस्रा गुहा की तरफ चला । राजा भी पदन्वेषो या खोजों के पीछे पीछे चलनेवाले की तरह चक्र के पीछे पीछे चले । अनुक्रम से, तमिस्रा के निकट, मानो विद्याधरों के नगर वैनाढ्य पर्वत से नीचे उतरते हों इस तरह अपनी सेनाका पड़ाव कराया । उस गुफा के स्वामी कृतमालदेवको मन में याद करके, उन्होंने अष्टम तप किया । इस से देवका आसन चलाय मान हुआ । अवधिज्ञान से चक्रवर्ति को आया हुआ समझ बहुत दिनोंके बाद आये हुए गुरु की तरह, चक्रवर्ती रूपी अतिथि की पूजा-अर्चना करनेके लिये वह वहाँ आया और कहने लगा
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२४०
आदिनाथ-चरित्र
प्रथम-पर्व " हे स्वामिन् ! इस तमिस्रा गुफाके द्वार में, मैं आपके द्वारपाल की तरह रहता हूँ। यह कह कर उसने भूपति की सेवा अंगीकार की। स्त्री रत्न के लायक अनुत्तम सर्वश्रेठ चौदह तिलक और दिव्य आभरण समूह उसने महाराज के भेंट किये। उसके साथ ही, मानो महाराज के लिएही पहले से रख छोड़ी हों ऐसी, उनके योग्य मालाएँ और दिव्य वस्त्र भी अर्पण किये। चक्रवर्ती ने उन सब को स्वीकार कर लिया; क्योंकि कृतार्थ हुए राजा भी दिग्विजय की लक्ष्मी के चिह्नरूप ऐसे दिशादण्ड को नहीं छोड़ते। अध्ययन के बाद उपाध्याय जिस तरह शिष्यको आज्ञा देता है—सबक पढ़लेने बाद उस्ताद जिस तरह शागिर्द को छुट्टी देता है, उसी तरह भरतेश्वर ने उस से अच्छी-अच्छी मीठी-मीठी बातें करके उसे विदा किया। इसके बाद मानो अलग किये हुए अपने अंश हो और ज़मीन पर पात्र रखकर सदा साथ जीमने वाले राज कुमारों के साथ उन्होंने पारणा किया। फिर कृतमालदेव का अष्टाम्हिका उत्सव किया। नम्रता से वश किये हुए स्वामी सेवक के लिये क्या नहीं करते? दक्षिण सिंधु निष्कूट साधने के लिये
सेनानी को भेजना। - दूसरे दिन, इन्द्र जिस तरह नैगमेषी देवता को आज्ञा देता है: उसी तरह महाराज ने सुषेण सेनापति को बुलाकर आज्ञा दी'तुम चर्मरत्न से सिन्धु नदी को पार करके, सिन्धु, समुद्र और
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र वैताढ्य पर्वत के बीच में रहने वाले दक्षिणसिन्धु निष्कूट को सा. धो और बदरी बन की तरह वहाँ रहने वाले मलेच्छों को आयुध वृष्टि से ताड़नकर, चर्मरत्नके सर्वस्व फलको प्राप्त करो; अर्थात म्लेच्छों को अपने अधीन करो। वहीं पैदा हुएके समान, जल स्थल के ऊँचे-नीचे सब भागों और किलों तथा दुर्गम स्थानों में जाने को राहों के जाननेवाले, म्लेच्छ-भाषा में निपुण, पराक्रम में सिंह, तेज में सूर्य, बुद्धि और गुण में वृहस्पति के समान, सब लक्षणों में पूर्ण सुषेण सेनापतिने चक्रवर्ती की आज को शिरोधार्य की। फौरन ही स्वामी को प्रणाम कर वह अपने डेरे में आया। अपने प्रतिबिम्ब-समान सामन्त राजाओ को कूच के लिये तैयार होने की आज्ञा दी फिर स्वयं स्नानकर, बलिदे, पर्वतसमान ऊंचे गजरत्न पर सवार हुआ, उस समय उसने कोमती कीमती थोड़से जेवर भी पहन लिये । कवच पहना, प्रायश्चित्त और कौतुक मङ्गल किया। कंठ में जयलक्ष्मी को आलिंगन करने के लिये अपनी मुजलता डाली हो, इस तरह दिव्य हार पहना । प्रधान हाथी की तरह वह पद से सुशोभित था। मूर्णिमान शक्ति की तरह एक छुरी उसकी कमर में रक्खी हुई थी। पीठ पर सरल आकृतिवाले सोने के दो तरकश थे, जो पीठ पीछे भी युद्ध करने के लिये दी वैक्रिय हाथ-जैसे दीखते थे। गणनायक, दण्डनायक, सेठ, सार्थवह, सन्धिपाल और नौकर-चाकरों से वह युवराज की तरह घिरा हुआ था। मानी आसन ही के साथ पैदा हुआ हो, इस तरह उसका अग्रासन
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आदिनाथ - चरित्र
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पथम पर्व
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निश्चल था । सफेद छत्र और चंवर से सुशोभित देवतुल्य उस सेनापति ने अपने पाँव के अँगूठे से हाथी को चलाया। चक्रवर्ती की आधी सेनाके साथ वह सिन्धु नदीके किनारे पर पहुँचा । सेनाके चलने से उड़नेवाली धूल से मानो पुल बाँधता हो, ऐसी स्थिति उसने करदी । जो बारह योजन — छियानवे मील तक बढ़ सकता था, जिस पर सवेरा का बोया हुआ अनाज सन्ध्या समय उग सकता था, जो नदी, द्रह तथा समुद्रके पार उतार सकता था, उस चर्मरत्न को सेनापति ने अपने हाथ से छूआ । स्वाभाविक प्रभाव से उसके दोनों सिरे किनारे तक बढ़कर चले गये । तब सेनापति ने उसे तेल की तरह पान पर डाला । उस चर्म रत्न के ऊपर होकर वह पैदल सेना सहित नदीके परले किनारे पर जा उतरा ।
दक्षिण सिंधु निष्कूट की साधना ।
सिन्धके समस्त दक्षिण निष्कूट को साधने की इच्छा से वह
धनुष के निर्घोष शब्द
प्रलय काल के समुद्र की तरह फैल गया । से, दारुण और युद्ध में कौतुक वाले उस सेनापति ने सिंह की तरह, सिहल लोगों को लीलामात्र से पराजित कर दिया। बर्बर लोगों को मोल ख़रीदे हुए किडरों-कीत दासों या गुलामों की तरह अपने अधीन किया और टंकणोंको घोड़ों के समान राज चिह्न से उसने अङ्कित किया । रत्न और माणिकों से भरे हुए जलहीन रत्नाकर सागर जेसे यवन द्वीपको उस नर केशरीने लीला
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
मात्र से जीत लिया उसने कालमुख जातिके म्लेच्छों को जीत लिया इससे: वे भोजन न करने पर भी मुँह में पाँच ऊंगलियाँ डालने लगे । उसके फैलने से जोनक नामके म्लेच्छ लोग वायुसे वृक्षके पल्लवों की तरह पराङ्मुख होगये । बाज़ीगर या सपेरा जिस तरह
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वहाँसे आगे
सब तरह के साँपों को जीत लेता है, उसी तरह उसने वैताढ्य पर्वत के पास रहने वाली सब जातियाँ उसने जीत लीं । अपने प्रौढ़ प्रताप को बेरोक टोक फैलाने वाले उस सेनापति ने चलकर, जिस तरह सूर्य सारे आकाश को आक्रान्त कर लेता है: उसी तरह उसने कच्छ देश की सारी पृथ्वी आक्रान्त करली | जिस तरह सिंह सारे बनको दबा लेता है; उसी तरह उसने सारे निष्कूट को दबा कर, कक्छ देश की समतल मूमि में आनन्दसे डेरा डाला । जिस तरह स्त्रियाँ पतिके पास आती हैं, उसी तरह म्लेच्छ देशके राजा लोग भक्ति से मेंट ले लेकर, सेनापति के पास आने लगे । किसी ने सुवर्ण गिरिके शिखर या मेरू पर्वत की चोटी जितना सुवर्ण और रत्नराशि दी । किसीने चलते फिरते बिन्ध्याचल जैसे हाथी दिये । किसीने सूरज के घोड़ोको उल्लंघन करने वाले - चाल और तेजीमें परास्त करने वाले घोड़े दिये और किसीने अञ्जन से रचे हुए देवरथ जैसे रथ दिये। इनके सिवा, और भी सार रूप पदार्थ उन्हों ने दिये । क्योंकि पहाड़ों में से नदियों द्वारा खींचे हुए रत्न भी अनुक्रम से शेषमें, रत्नाकर मे ही आते हैं। इस तरह भेटें देकर उन्होंने सेनापति स कहा" आज से हम लोग तुम्हारी आज्ञा पालन करने वाले – गुलाम
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आदिनाथ चरित्र ३४४
प्रथम पर्व होकर, आपके नौकरों की तरह, अपने अपने देशोंमें रहेगे।” सेना पति ने उनका यथोचित सत्कार करके उन्हें विदा किया और आप पहले की तरह सुखसे सिन्ध नदीके पार वापस आगया। मानो कीर्ति रूपी वल्लिका दोहद हो इस तरह म्लेच्छों के पास से लाया हुआ सारा दण्ड उसने चक्रवर्ती के सामने रख दिया। कृतार्थ चक्रवर्तीने उसे अनुग्रह पूर्बक सत्कार करके विदा किया। वह भी खुशी खुशी अपने डेरे पर आया।
तमिस्त्रा गुफा को खोलना। यहाँ भी भरतराज अयोध्याकी तरह सुख से रहते थे, क्योंकि सिंह जहाँ जाता है वहीं उसका स्थान हो जाता है। एक रोज़ महाराजने सेनापतिको बुलाकर आदेश किया-तमिस्रा गुफाके द्वार खोलो। नरपतिको उस आज्ञाको मालाकी तरह सिर पर चढ़ाकर सेनापति शीघ्रही गुफाद्वारके पास आ रहा। तमिस्राके अधिष्ठायक देव कृतमालको मनमें याद करके उसने अष्टम तप किया ; क्योंकि सारी सिद्धियाँ तपोंमूल हैं; यानी सिद्धियों की जड तप है। इसके बाद सेनापति स्नान कर श्वेतवस्त्ररूपी पंख को घारण कर, जिस तरह सरोवरमें से हंस निकलता है उस तरह स्नान भुवनसे निकले। और सोने के लीलाकमलको तरह, सोनेकी धूपदानी हाथमें ले, तमिलाके द्वारके पास आथे । वहाँके किवाड़ देख, उन्होंने पहले प्रणाम किया क्योंकि शक्तिमान महापुरुष पहले सामभेदका ही
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
प्रयोग करते हैं। वहाँ वैताढ्य पर्वत पर सञ्चार करने वाली विद्याधरों की स्त्रियोंको स्तम्भन करने या रोकने में औषधिरूप महर्द्धिक अष्टान्हिका उत्सव किया, और मांत्रिक जिस तरह मण्डल बनाता है, उस तरह सेनापतिने अखण्ड तन्दुलों या चावलों से वहाँ अष्टमंगलिक बनाये । फिर इन्द्र-वज्रके समान - शत्रुओं का नाश करने वाला चक्रवर्तीका दण्डरत्न अपने हाथमें लिया और किवाड़ों पर चोट मारनेकी इच्छासे वह सात-आठ क़दम पीछे हटा ; क्योंकि हाथी भी प्रहार करने या चोट करनेकी इच्छा से पीछे हटता है। पीछे सेनापतिने दण्डले किवाड़ पर तीन चोटें मारी और बाजेकी तरह उस गुफाको बड़े जोर से गुजाई । तत्कालही खूब ज़ोरसे मींची हुई आँखोंकी तरह, वैताढ्य पर्वत के खूब ज़ोर से बन्ध किये हुए वज्र निर्मित किवाड़ खुल गये I दण्डेकी चोटोंसे खुलने वाले ये किवाड़ ज़ोर ज़ोर से चीखते हों, इस तरह तड़ तड़ शब्द करने लगे 1 उत्तर दिशाके भरतखण्डको जय करने में प्रस्थान मंगल रूप उन किवाड़ोंके खुलनेका वृत्तान्त चक्रवर्त्तीको जनाया । इस ख़बर के मिलते ही, गजरत्न पर, सवार होकर, प्रौढ़ पराक्रम वाले महाराजने चन्द्रकी तरह तमिस्रा गुफा में प्रवेश किया ।
प्रवेश करते समय, नरपतिने चार अंगुल प्रमाणका सूर्यके समान प्रकाशमान् मणिरत्न ग्रहण किया । वह एक हज़ार यक्षों
अधिष्ठित था । यदि वह शिखाबन्धके समान मस्तक पर धारण किया जाता हैं, चोटीमें बाँधा जाता है, तो तिर्यञ्च देव और
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आदिनाथ-चरित्र ३४६
प्रथम रर्व मनुष्य-सम्बन्धी उपद्रव नहीं होते उस रत्नके प्रभावसे सारे दुःख अन्धकार की तरह नाश हो जाते हैं तथा शास्त्रके घावकी तरह रोग भी निवारण हो जाते हैं। सोने के घड़े पर जिस तरह सोनेका ढक्कन रखते हैं ; उसी तरह रिपुनाशक राजा ने हाथीके दाहिने कुम्भस्थल पर उस रत्नको रक्खा। पीछे-पीछे चलनेवाली चतुरंगिणी सहित चक्रको अनुसरण करने वाले, केशरी सिंहके समान गुफामें प्रवेश करने वाले नरकेशरी चक्रवर्तीने चार अंगुल प्रमाणका दूसरा काकिणी रत्न भी ग्रहण किया। वह रत्न सूर्य चन्द्र और अग्नि के जैसा कान्तिमान् था, आकाशमें अधिकारणी के बराबर था हजार वृक्षोंसे अधिष्ठित था। ये वज़नमें आठ तोले था। छ पत्ते और बारह कोने वाला तथा समतल था ; और मान उन्मान एवं प्रमाणसे युक्त था। उसमें आठ कणिकायें थीं और वह बारह योजन; यानी छियानवे मील तकके अन्धकार को नाश कर सकता था। गुफाके दोनों ओर, एक योजन या चार चार कोसके फासले पर, उस काकिणीरत्नसे, अनुक्रमसे गोमुत्रिके सदृश मण्डल लिखते हुए चक्रवर्ती चलने लगे। प्रत्येक मण्डल पाँच सौ धनुषके विस्तार वाला एक योजन—चार कोस तक प्रकाश करने वाला था। वे सव गिन्तीमें उनचास हुए। जहाँ तक महीतल-पृथ्वी पर कल्याणवन्त चक्रवर्ती जीते हैं, वहाँतक गुफाके द्वार खुले रहते हैं।
तमीस्त्रा गुफामें प्रवेश। चक्ररत्नके पीछे-पीछे चलने वाले चक्रवर्तीके पीछे चलनेवाली
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र उनकी सेना, मण्डलोंके प्रकाशसे, अस्खलिततासे - बेखटके चलने लगी । संचार करने वाली चक्रवर्तीकी सेना से वह गुफा असुरादिककी सैन्यसे रत्नप्रभाके मध्य भाग जैसी शोभने लगी । मथनदण्ड या रईसे मथनीमें जैसी आवाज होती हैं, उस संचार करने वाली सेना से वह गुफा उद्दाम घोष घोर शब्द करने लगी अर्थात् सेनाके चलने से गुरुामें घोर रव होने लगा ।
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जिस गुफा में किसी भी सञ्चार नहीं किया था, उस गुफाके मार्ग में रथोंके कारण लीफें बन गई और घोड़ोंकी टापोंसे कंकर उड़ गये, अतः वह नगर मार्गके जैसा हो गया सेनाके लोगों के चलने से वह गुफा लोकनालिका या पगडण्डीके समान टेढ़ी तिरछी होगई | चलते-चलते तमिस्रा गुफाके मध्य भागमें - अघो वस्त्र के ऊपर रहने वाली कटिमेखला या कर्द्ध नीके समानउन्मग्ना या निमग्ना नामकी नो नदियोंके निकट चक्रवर्त्ती जा पहुँचे वे नदियाँ ऐसी दीखती थीं गोया दक्खन और उत्तर भरतार्द्धसे आने वाले लोगोंके लिये, वैताढ्य पर्वतने नदियोंके बहाने से दो आज्ञा रेखायें खींच रखी हों। उनमें से उन्मग्ना नदीमें पत्थरकी शिला तूम्बीकी तरह तैरती हैं और निमग्नामें तूम्बी भी पत्थर की शिला की तरह डूब जाती है । वे दोनों नदियाँ मित्रा गुफाकी पूर्व भित्ति में से निकलती हैं और पश्चिम भित्ति के बीच में होकर, सिन्ध नदी में मिलती हैं । उन नदियोंके ऊपर मानो वैतालकुमार देवकी विशाल एकांत शय्या हो, ऐसी एक निर्दोष पुलिया बना दी । वह पुलिया वार्द्धकिरत्नने क्षण भर में
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व तैयार कर दी, क्योंकि गुहाकार कल्पवृक्षको जितनी देर भी उसे नहीं लगती । उस पुलियाके ऊपर अच्छी तरहसे जोड़े हुए पत्थर इस तरहसे लगाये गये थे, जिससे सारी पुलिया और उपरकी राह एकही पत्थर से बनी हुई, की तरह शोभती थी हाथके समान समतल और वज्रवत् मज़बूत होने के कारण से वह पुलिया और राह गुफाद्वारके दोनों किवाड़ोंसे बनाई हुई सी जान पड़ती थी । पदविधि या समासविधिकी तरह, समर्थ चक्रवर्त्ती सेना सहित उन दोनों दुस्तर नदियोंके पार उतर गये । सेनाके साथ चलने वाले महाराज, अनुक्रमसे, उत्तर दिशाके मुख जैसे, गुफा के उत्तर द्वारके पास आ पहुँचे । उसके दोनों किवाड़ मानों दक्खनी दरवाज़ेके किवाड़ोंका शब्द सुन कर भयभीत हो गये हों, इस तरह - आपसे आप खुल ये | वे किवाड़ खुलते वक्त "सर सर" शब्द करने लगे । उस "सर सर" शब्द से ऐसा जान पड़ता था, मानो ये चक्रवर्त्तीकी सेनाको गमन करनेकी प्रेरण करते हों-आगे बढ़ने को कहते हों। गुफा की दोनों ओर की दीवारोंसे वे दोनों किवाड़ इस तरह चिपट गये कि गोया पहले थे ही नहीं और दो भोगलों से दीखने लगे । पीछे सूर्य जिस तरह बादलों में से निकलता है, इस तरह पहले चक्रवर्त्ती के आगे-आगे चलने वाला चक्र गुफामें से निकला और पातालके छेदमें से जिस तरह बलिन्द्र निकलते हैं, उस तरह पीछे पृथ्वीपति भरत महाराज निकले । पीछे विन्ध्याचलकी गुफा की तरह, उस गुफा में से निःशंक होकर मौजके साथ चलते हुए गजेन्द्र निकले ।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र समुद्र में से निकलनेवाले सूर्यके घोड़ोंका अनुसरण करते हुए सुन्दर घोड़े अच्छी चालोंसे चलते हुए निकले। धनाढ्य लोगोंके घरों में से निकलते हों, इस प्रकार अपनी अपनी आवाजोंसे आकाशको गुजाते हुए निकले। स्फटिक मणिके बीमले में से जिस तरह सर्प निकलता उस तरह बताढ्य पर्वतकी गुफा में से बलवान पैंदल भी निकले।
मिस्त्रा गुफा से बाहर निकलना । इस प्रकार पचास योजन अथवा चार सौ मोल लम्बी गुफा को पार करके, महाराज भरतेशने उत्तर भरतार्द्ध को विजय करने के लिये उत्तर खण्डमें प्रवेश किया। उस खण्डमे “अपात" नामक भील रहते थे। वे पृथ्वी पर रहने वाले दानवों जैसे धनाढ्य, पराक्रमी और महातेजस्वी थे। अनेक बड़ी बड़ी हवेलियों, शयन, आसन, और वाहन एवं बहुतसा सोना चाँदी होने के कारण कुवेरके गोती भाइयोंसे दीखते थे। वे बहु कुटुम्बी
और बहुतसे दास परिवार वाले थे और देवताओं के बगीचोंके वृक्षोंकी तरह कोई भी उनका पराभव कर न सकता था। बड़े गाडे के भारको खींचने वाले बड़े बड़े बैलोंकी तरह, वे अनेक युद्धोंमें अपनी शक्ति और पराक्रम प्रकाशित करते थे। निरन्तर जब यमराजके समान भरतपतिने उन पर बलात्कार से---जबदस्ती चढ़ाई की, तब अनिष्ट सूचक बहुतसे उत्पात होने लगे। चलती हुई चक्रवर्तीकी सेनाक भार से मानो पीड़ित हुई हो, इस
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आदिनाथ-चरित्र ३५०
पथम पर्व तरह गृहउद्यानको कपाती हुई पृथ्वीधूजने लगी। चक्रवतोंके दिगन्तव्यापी प्रौढ़ प्रतापसे हुआ हो, इस तरह दिशाओं में दावानल जैसा दाह होने लगा। उड़ती हुई बहुनसी धूलसे दिशाएँ पुष्पिणीरजश्वला स्त्रो की तरह अनालोकपात्र-न देखने योग्य हो गई। दुष्ट और दुःश्रव निर्घोष करने वाले मगर जिस तरह समुद्रमें परस्पर टकराते हों, इस तरह दुष्ट पवन परस्पर टकगने लगे। आकाशमें से चारों तरफ, मशालोंके समान समस्त म्लेच्छ-व्याघ्रों के हृदयोंको क्षुभित करने वाला उल्कापात होने लगा; अर्थात् आकाशसे तारे टूट टूट कर गिरने लगे, जिसको देख कर म्लेच्छों के हृदय हिलने लगे। क्रोध करके उठे हुए यमराजके हस्ताघात पृथ्वी पर पड़ते हों, इस तरह भयङ्कर शब्दोंके साथ वज्रपात होने लगा; अर्थात् भयङ्कर गर्जनाके साथ पृथ्वी पर बिजलियाँ पड़ती । थीं; उनसे ऐसा जान पड़ता था, मानो यमराज क्रोधमें भर कर पृथ्वी पर अपने भयङ्कर हाथ मार रहे हों। मृत्यु-लक्ष्मी के क्षत्र हों, इस तरह कव्वों के मण्डल आकाश में जगह जगह घूमने लगे।
इस ओर, सोने के कवच, फर्सी और प्रासकी किरणों से, आकाश चारो सहस्र-किरण सूर्य को कोटि किरणवाला करनेवाले, उदंड दंड कोदंड और दुर से आकाश को उन्नत करने वाले, ध्वजाओं में चिते और लिखे हुए व्याघ्र, सिंह और सों के चित्रों से आकाशचारी-आकाश में रहनेवाली स्त्रियों को भय भीत करनेवाले और बड़े-बड़े हाथियों के घाटारूपी मेघों से
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र दिशाओं को अन्धकारमय करनेवाले महाराज भरत आगे बढ़ने लगे। उनके रथ के आगे जो मगरों के मुख लगे हुए थे, वे यमराज के मुख को स्पर्धा करते थे। वे घोड़ोंकी टापों की आवाज़ों से धरती को और जय-बाजों के घोर शब्द से आकाश को फोड़ते हों, ऐसे जान पड़ते थे और आगे-आगे चलनेवाले मंगल ग्रह से जिस तरह ‘सूर्य भयङ्कर लगता हैं ; उसी तरह आगे आगे चलनेवाले चक्र से वे भयङ्कर दीखते थे।
म्लेच्छों के साथ युद्ध करना। उनको आते हुए देखकर किरात लोग अत्यन्त कुपित हुए और क्रूरग्रहको मैत्रीका अनुसरण करने वाले वे इकठे हो कर, मानो चक्रवर्ती को हरण करने की इच्छा करते हों, इस तरह क्रोध सहित बोलने लगे-“साधारण मनुष्य की तरह लक्ष्मी लज्जा, धोरज और कीर्ति से वर्जित यह कौन पुरुष है, जो बालक की तरह अल्प बुद्धि से मृत्युको कामना करता है ? हिरन जिस तरह सिंह की गुहा में जाता है; उसी तरह यह कोई पुण्यचतुदशी-क्षीण और लक्षणहीन पुरुष अपने देश में आया मालूम होता है। महा पचन जिस तरह मेवों को इधर उधर फेंक देता है; उसी तरह इस उद्धत आकार वाले और फैलते हु-पुरुष को अपन लोग दशों दिशाओं में फेंक दें। इस तरह ज़ोर-ज़ोर से चीखते-चि. लाते हुए इकट्ठे हाकर, शरभअष्टपद जिस तरह मेघ के सामने गर्जना करता और दौड़ता है उसी तरह युद्ध करने के लिये
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आदिनाथ चरित्र
पथम पर्व
भरत के सामने उद्यत हुए। किरातपतियोंने कछुओंकी पीठोंकी हड़ियों से बनाये हों ऐसे दुर्भेद्य कवच -- जिरह वख्तर पहने । उन्होंने मस्तक पर लंबे लंबे बाल वाले निशाचरों की शिरलक्ष्मी को बताने वाले एक तरह के बालों से ढकेहुये शिरस्त्राण धारण क्रिये I रणोत्साह से उन की देह इस तरह फूलने लगी कि, उस से उनके कवचों के जाल टूटने लगे । उनके ऊंचे ऊंचे केश वाले मस्तकों पर शिरस्त्राण रहते न थे, इसलिये मानो हमारी रक्षा कोई दूसरा कर नहीं सकता, इस तरह मस्तकों को अमर्ष करते हों - ऐसे मालूम होते थे । कितने ही कुपित किरात यमराज की भृकुटो जैसे बांके और सींगों से बने हुए धनुषों को लीला से सजा सजाकर धारण करने लगे। कितने ही जयलक्ष्मी की लीला की शय्या की जैसी रणमें दुर्वार और भयङ्कर तलवारों को म्यानों से निकालने लगे । यमरोजके छोटे भाई जैसे कितने ही किरात डण्डों कों ऊचा करने लगे। कितने ही धम्रकेतु-जैसी भालों को आकाश में नचाने लगे। कितने ही रणोत्सव में आमंत्रित किये हुए प्रतराज को खुश करने के शत्रुओं को शूली पर चढ़ाने के हों ऐसे त्रिशूलों को धारण करने लगे । ने ही शत्रुरूपी चक्रत्रेपक्षियों के प्राणनाश करने वाले वाज पक्षी जैसे लोहे के शल्यों को हाथों में धारण करने लगे । कोई मानो आकाश में से तारामण्डल को गिरनेकी इच्छा करते हों, इस तरह अपने उद्धत हाथों से तत्काल मुद्गर फिरने लगे। जिस तरह बिना बिषके कोई सर्प नहीं होता, इस तरह उनमें से कोई भी हथियार
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र विना न था । युद्ध रस की इच्छावाले वे, मानो एक आत्मावाले हों इस तरह, एकदम से भरतकी सारी सेना पर टूट पड़े । ओलों की वर्षा करने वाले प्रलयकाल के मेघों की तरह, शस्त्रों की झड़ी लगाते हुए म्लेच्छ, भरत की आगेकी सेना से बड़े ज़ोरों के साथ युद्ध करने लगे। मानो पृथ्वी में से, दिशाओं के मुखों से और आकाशमें से, पड़ते हों इस तरह, चारों ओर से शस्त्र पड़ने लगे। दुर्जनों के वचन जिस तरह सभी के दिलों में लगते हैं, इस तरह किरात लोगों के वाणों से भरत की सेना में कोई भी ऐसा न रहा, जिसके शस्त्र न छिदा हो , बाणों से कोई भी अछूता न बचा । म्लेच्छों के आक्रमण से चक्रवर्तीके आगे वाले घुड़सवारसमुद्रकी वेला से नदीके पिछले हिस्से की तरंगके समान-पीछे हट कर चलायमान होने लगे ; अर्थात् समुद्र की लहरों से जिस तरह नदी के पिछले भागकी तरंगे पीछे को हटती है; उसी तरह म्लेच्छों के हमलों से राजा के आगे के घुड़सवार पीछे को हटने को मजबूर हुए। म्लेच्छ-सिंहों के वाण रूपी सफेद नाखुनों से चोट खाकर चक्रवर्ती के हाथी बुरी तरह से चिवाड़ने लगे। म्लेच्छ वीरों के प्रचण्ड दण्डायुधों की मार से पैदल सिपाही गैंदोंको तरह ज़मीन पर लुढ़कने लगे। वज्राघात से पर्वतों की तरह यवन-सेनाने गदा के प्रहारों से चक्रवर्ती की अगली सेना के रथ चूर्ण कर डाले । संग्राम रूपी सागर में, तिमिंगल जातके मगरों से जिस तरह मछलियाँ प्रस्त और प्रस्त होती हैं, उस तरह म्लेच्छ लोगों से चक्रवर्ती की सेना ग्रस्त और त्रस्त हुई
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम-पर्व ___ अनाथकी तरह अपनी सेना को पराजित हुई देखकर, राजा की आज्ञा की तरह, क्रोध में सेनापति सुषेण को जोश आगया। उसके नेत्र और मुँह लाल होगये और क्षणभर में मनुष्य रूप में जैसे अग्निहो, इस तरह वह दुर्निरीक्ष्य हो गया ; अर्थात् क्रोध के मारे वह ऐसा लाल हो गया, कि उसकी तरफ कोई देख न सकता था। राक्षस पति की तरह समस्त पराई सेना के पास करने के लिये स्वयं तैयार हो गया। अंग में उत्साह-जोशआ जाने से, उसका सोनेका कवच शरीरमें सटकर दूसरी चमड़ी के समान शोभा देने लगा। कवच पहनकर, साक्षात् जयरूप हो, इस तरह, वह सुषेण सेनापति कमलापीड़ नामक घोड़े पर सवार हुआ। वह घोड़ा अस्सी अंगुल ऊँचा और नवाणु अँगुल विशाल था तथा एक सौ आठ अंगुल लम्बा था। उसका मस्तक भाग सदा बत्तीस अंगुल की उँचाई पर रहता था। चार अंगुल के उसके बाहु थे, सोलह अंगुलकी उसकी जाँघे थीं, चार अंगुल केघुटने थे, चार अंगुल ऊँचे खुर थे, गोलाकार और घूमा हुआ उसका बीचला भाग था; विशाल, किसी कदर नर्म और प्रसन्न करनेवाले पिछले भाग से वह शोभायमान था, कपड़ेके तन्तु जैसे नर्म-नर्म रोम उसके शरीर पर थे। उस पर श्रेष्ठ बारह 'भावर्त या भौरे थे। वह शुद्ध लक्षणों से युक्त था, जवान तोते ' के पंखों जैसी उसकी कान्ति थी। कभी भी उसने चाबुककी 'चोट न खाई थी, वह सवार के मनके माफ़िक चलनेवाला था, . रमजड़ित सोने की लगाम के बहाने से मानो लक्ष्मी ने निज
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
हाथों से उसका आलिङ्गन किया हो, ऐसा दीखता था। उसके ऊपर सोने के घुघरुओं की मालायें मधुर स्वर से छम-छम करती थीं, इसलिये मानो भौंरोंके मधुर स्वर वाली कमलों की मालाओं से चञ्चित किया हुआसा वहदीखता था । पाँच रंगकी मणियों से, मिश्र सुवर्णालङ्कार की किरणों से अद्वैत रूप की पताकाके चिह्न से अंकित हुआ सा उसका मुख था। मङ्गल ग्रह से अंकित, आकाश के समान सोनेके कमल का उसका तिलक था और धारणा किये हुए चमरों के आभूषणों से-मानो उसके दूसरा कान हो ऐसा दीखता था। चक्रवर्ती के पुण्य से प्राप्त हुए इन्द्र के उच्चैःश्रवा की तरह वह शोभायमान था। टेढ़े पांव रखनेसे उसके पाँव लीला से पड़ते से दीखते थे। दूसरी मूर्तिसे मानो गरूड़ हो: अथवा मूर्तिमान पवन हो, ऐसा वह एक क्षणमें सौ योजन अथवा आठ सौ मील उलाँघ जानेका पराक्रम दिखलाता था। कीचड़, जल, पत्थर, कंकड़ और खड्डोंसे विषम वन जंगल और पर्वत गुहा आदि दुर्गम स्थानोंको पार करने में वह समर्थ था। चलते समय उसके पाँव जमीन को ज़रा ज़रा ही छूते थे । वह बुद्धिमान और नर्म था। पाँच प्रकारकी गतिसे उसने श्रम या थकानको जीत लिया था। कमलके जैसी उसके श्वासकी सुगन्ध थी। ऐसे घोड़े पर बैठ कर सेनापतिने यमराजकी तरह. मानो शत्रुओंका पन्ना हो ऐमा खगरत ग्रहण किया। वह खङ्ग पचास अंगुल लम्बा, सोलह अंगुल चौड़ा और आधा अंगुल मोटा था और सोने तथा रत्नोंका उसका म्यान था। उसने
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व उसे म्यानसे बाहर निकाल रखा था, इसलिये वह कोचली से निकले हुए सर्प जैसा दिखाई देता था। उस पर तेज़ धार थी
और वह दूसरे वज्रकी तरह मजबूत और अजीब या । विचित्र कमलोंकी पंक्ति जैसे साफ अक्षरोंसे वह शोभता था। इस खङ्गाके धारण करने से वह सेनापति पंख वाले गरुड़ और कबचधारी केशरी सिंह सा दीखने लगा। आकाशमें चमकने वाली बिजली की सी चपलतासे खड्गको फिराते हुए उसने रणक्षेत्रमें घोड़ेको हाँका । जलकान्त मणि जिस तरह जलको जुदो करती है ; उसी तरह शत्रु सेनाको काई की तरह फाड़ता हुआ वह सेनापति रणभूमि में दाखिल हुआ।
जब सुषेण ने शत्रु ओं को मारना आरम्भ किया, तब कितने ही शत्रु तो हिरनों की तरह डर गये; कितने ही पृथ्वी पर पड़े हुए खरगोश की तरह आँखे बन्द करके वहीं बैठ गये। कितने ही रोहित की तरह दुखित होकर वहीं खड़े रहे ; कितने बन्दों की तरह दरख्तों पर चढ़ गये ; वृक्षों की पत्तियों की तरह कितनों ही के हथियार गिर गये ; यशकी तरह कितनों ही के छत्र गिर पड़े : मन्त्र से वश किये हुए सर्पकी तरह कितनों ही के घोड़े निश्चल या अचल होगये और मिट्टीके बने हुओं की तरह कितनों ही के रथ टूट गये। अनजानों की तरह कोई किसी की राह देखने को खड़ा न रहा। सब म्लेच्छ अपने-अपने प्राण लेकर जहाँ जिसके सींग समाये भाग गया। जलके प्रवाह से जिस
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प्रथम पर्व
३५७
आदिनाथ-चरित्र तरह वृक्ष नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह सुषेण रूपी जलकी बाढ़से निर्बल हो, किरात कोसों दूर भाग गये। फिर कव्वों की तरह इकट्ठे हों, क्षणमात्र में विचार कर, घबराया हुआ बालक जिस तरह माँके पास आता है, उसी तरह महानदी के नजदीक आये और मृत्यु-स्नान करनेके लिये तैयार हो इस तरह उसके किनारों पर बिछौने बिछाकर बैठ गये। वहाँ उन्होंके नड़े और उतान हो मेघ मुख आदि नाग कुमार निकाय अपने कुल-देवताओं को याद कर अष्टम तप करने लगे। अष्टम तपके अन्तमें, मानों चक्रवर्ती के तेज से भीत हुए हों, इस तरह नाग कुमार' प्रभृति देवताओं के आसन काँपे। अवधिशानसे म्लेच्छों को इस तरह दुखी देखकर दुखित हुए पिताके समान उनके सामने आकर प्रकट हुए
और आकाश में ठहर कर उन्होंने किरातों से कहा-“तुम्हारे मनमें किस बातकी चाहना है ? तुम क्या चाहते हो?" आकाश में रहने वाले मेघ मुख नागकुमार को देख, त्रसित हुए या डरे की तरह सिर पर हाथ रख कर उन्होंने कहा-"आज तक हमारे देश पर किसीने भी आक्रमण या हमला नहीं किया, लेकिन अभी कोई आया है, आप ऐसा उपाय कीजिये कि वह यहाँ से वापस चला जाय।”
किरातों की प्रार्थना सुन कर देवताओंने कहा--"किरातो ! यह भरत नामका चक्रवर्ती राजा है, इन्द्र की तरह यह देव असुर
और मनुष्यों से भी अजेय है : अर्थात् इसे सुर; असुर और नर कोई भी जीत नहीं सकते। टांकियों से जिस तरह पहाड़ के
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आदिनाथ-चरित्र ३५८
प्रथम पर्व पत्थर नहीं टूटते ; उसी तरह पृथ्वी पर चक्रवर्ती राजा मंत्र, तन्त्र विष, अस्त्र और विद्याओं से परास्त और अधीन किया जा नहीं सकता; तथापि तुम्हारे भाग्रह से हम कुछ उपद्रव करेंगे।" यह कहकर देवता अन्तर्धान होगये ।
म्लेच्छों का किया हा उपद्रव ।
क्षणमात्र में मानों पृथ्वी पर से उछल कर समुद्र आकाशमें आगये हों,इस तरह काजल जैसी श्याम कन्ति वाले मेघ आकाश में छागये। वे बिजली रूपी तर्जनी अंगुली से चक्रवर्ती की सेना का तिरस्कार और उत्कट गर्जनासे बारम्बार आक्रोष कर उसका अपमान करते हुए से दीखते थे। सेना को चूर्ण करने के लिये, वज्रशिला जैसे महाराजा की छावनी पर तत्काल चढ़ आये और लोहेके अग्रभाग, बाण और डण्डों जैसीधाराओं से बरसने लगे। पृथ्वी चारों ओर से मेघ-जलसे भर उठी। उस जलमें रथ नावों की तरह तथा हाथी घोड़े मगर मच्छों से दीखने लगे। सूरज मानों कहीं भाग गया हो, पर्वत कहीं चले गये हों, इस तरह मेघों के अन्धकार से कालरात्रि या प्रलयका सा दृश्य होगया। उस समय पृथ्वी पर जल और अन्धकारके सिवा कुछ न दीखता था। इस कारण मानो एक समय युग्म धर्म वर्त्तते हों, ऐसा दीखने लगा। इस तरह अरिष्टकारक वृष्टि को देख कर चक्रवर्ती ने प्यारे सेवकके समान अपने हाथों से चर्म रत्न को स्पर्श किया। जिस तरह उत्तर दिशा की हवासे मेघ बढ़ता है, उस
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प्रथम पर्व
३५६
आदिनाथ-चरित्र तरह चक्रवर्ती के हस्तस्पर्श या हाथसे छू देने से चर्मरत्न बारह योजन या छियानवे मील बढ़ गया। समुद्र के बीचमें ज़मीन हो इस तरह जलके ऊपर रहने वाले चर्मरत्न पर महाराज सेना समेत रहे। फिर ; प्रवाल या मूगों से जिस तरह क्षीरसागर शोभता है, उस तरह सुन्दर कान्तिमयी सोने की नवाणु हजार शलाकाओं से शोभित, नालसे कमल की तरह, छेद और गाँठों रहित सरलता से सुशोभित, सोने के डण्डे से सुन्दर और जल, धूप, हवा और धूपसे रक्षा करने में समर्थ छत्ररत्न राजाके छूनेमात्र से चमरत्न की तरह बढ़ गया। उस छत्रद-ण्डके ऊपर अन्धकार नाश करने के लिए, सूर्यके समान अत्यन्त तेजस्वी मणिरत्न स्थापित किया । छत्ररत्न और चर्म रत्न का वह संपूट तैरने वाले अण्डे की तरह दीखने लगा। उसी समय से दुनियाँमें ब्रह्माण्ड की कल्पना हुई। गृहिरत्न के प्रभाव से उस चर्मरत्न पर, जैसे अच्छे खेतमें वेरे ही बोये हुए अनाज शाम को पैदा हो जाते हैं : चन्द्र-सम्बन्धी महलों की तरह उसमें प्रातः कालको लगाये हुए कोहले, पालक और मूली प्रभृति सायं. काल को उत्पन्न होते हैं और सवेरे के वक्त के लगाये हुए केले आदिके फल-वृक्ष भी महान् पुरुषोंके आरम्भ के समान सन्ध्या समय फल जाते हैं । उसमें रहने वाले लोग पूर्वोक्त धान्य, साग और फलों को खाकर सुखी होते हैं और बगीचों में क्रीड़ा करने को जाकर रह गये हों, उस तरह करक का श्रम भी न जानते थे मानों महलों में रहते हों उस तरह मर्त्य लोकके पति महाराज
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
भरत छत्ररत्न और चर्मरत्नके बीचमें परिवार सहित सुखसे रहने लगे। इस भांति उसमें रहने पर; कल्पान्तकालको तरा, अश्रांत वर्षा करने वाले नागकुमार देवताओं ने सात अहोरात्र-दिनरात बिता दिये।
इसके बाद, 'यह कौन पापी मुझे ऐसा उपसर्ग करने के लिए तैयार हुआ है' राजाके मनमें आये हुए ऐसे विचार को जानकर महा पराक्रमी और सदा पास रहनेवाले सोलह हजार यक्ष तैयार हुए, तरकश बाँधकर अपने धनुष सजाये और क्रोध रूपी अग्निसे शत्रुओं कोजलाना चाहते हों, इस तरह होकर नाग कुमारों के पास आये और कहने लगे-"अरे शोक करने योग्य नाग कुमारो तुम भक्षानो की तरह क्या पृथ्वीपतिमहाराज भरत को नहीं जानते ? यह राजा सारे संसार के लिये अजेय है, इस राजा पर किया हुआ उपद्रव, बड़े पर्वत पर दांतों की चोट करने वाले हाथियों की तरह तुम्हारीही विपत्ति का कारण होगा। अच्छा हो, यदि तुम खटमलों की तरह यहाँ से फौरन नौ दो ग्यारह हो जाओ, नहीं तो तुम्हारी जैसी पहले कभी नहीं हुई है, वैसी ही अपमृत्यु होगी।
_____ म्लेच्छों का अधीन होना।
ये बातें सुन कर आकुल व्याकुल हुए मेघमुख नागकुमारों ने ऐन्द्रजालिक जिस तरह अपने इन्द्रजाल का संहार करता है, बाज़ीगर अपनी माया का संहार करता है, उसी तरह क्षण भरमें ही मेघजल का संहार कर दियो। और 'तुम महाराज भरत की
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प्रथम पवं
आदिनाथ-चरित्र
शरण जाओ' इस तरह किरात लोगोंसे कहकर अपने अपने स्थानों को चले गये। देवताओंके बचन से भग्न मनोरथ होकर, दूसरी शरण न होने से, शरण के योग्य भरत महाराज की शरण में वेगये मेरू पर्वत के सार जैसी सुवर्ण राशि, और अश्वरत्नके प्रतिबिंब सदश लाखों अश्व या घोड़े, उन्हों ने भरतराज की भेंट किये। फिर मस्तक पर अञ्जलि जोड़, सुन्दर वचन गर्भित वाणीसे वन्दीजनों के सहोदरों की तरह, ऊँचे स्वर से कहने लगे -हे जगत्पति ! हे अखण्ड प्रचण्ड पराक्रमी! आपकी विजय हो, आपकी फतह हो, छः खण्ड पृथ्वी-मण्डल में आप इन्द्र के समान होओ। हे राजन् ! हमारी पृथ्वी के किले जैसे वैताढ्य पर्वतके वड़े गुफाद्वार को आपके सिवाय दूसरा कौन खोल सकता है ? हे विजयी राजा ! आकाश में ज्योतिश्चन्द्र की तरह, जल के ऊपर सारी सेनाका पड़ाव रखने में आपके सिवा दूसरा कौन समर्थ हो सकता था ? हे स्वामिन् ! अद्भुत शक्ति होनेके कारण आप देवताओं से भी अजेय हो, यह बात हमें अब मालूम हुई है ; इसलिये हम मूों का अपराध क्षमा करें। हे नाथ ! नया जन्म देने वाले अपने हाथ हमारी पीठ पर रक्खें। आजके दिन से हम आपकी आशा में चलेंगे।' कृतज्ञ महाराज ने उनको अपने अधीन कर.उनका सत्कारकर बिदा किया.; उत्तम पुरुषोंके क्रोध की अवधि प्रणाम नमस्कार तक ही होती है ; अर्थात् उत्तम पुरुष चाहे जैसे कुपित क्यों न हो, प्रणाम करते ही शान्त हो जाते हैं, उनका क्रोध काफूर हो जाता है। चक्रवर्ती की आज्ञा से सेनापतिसुषेण पर्वत और
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आदिनाथ-चरित्र ३६२
प्रथम पर्व समुद्र की मर्यादा वाले सिन्धके उत्तर निष्कूट को विजय करके आया ; और अनार्य लोगों को अपनी संगति या सुहबत से आर्य बनाने की इच्छा करते हों इस तरह सुखोपभोग करते हुए चक्रवर्ती वहाँ बहु काल तक रहे।
हिमाचल कुमार देव को साधना। एक दिन दिग्विजय करने में ज़मानत-खरुप, तेजसे विशाल चक्ररत्न आयुधशाला से निकला और क्षुद्र हिमालय पर्वत पर की ओर, पूरब दिशाको राहसे चला । जलका प्रवाह जिस तरह नीककी राहसे चलता है, उसी तरह चक्रवर्ती भी चक्रके मार्गसे चले। गजेन्द्रकी तरह लोलासे चलते हुए महाराज कितने ही कूवोंके बाद क्षुद्र हिमाद्रिके दक्षिण नितम्ब या दक्खन भागके निकट आये। भोजपत्र, तगर और देवदारुके वनसे आकूल उस भागके एक भाग पाण्डुक वनमें इन्द्रकी तरह महा. राजा भरतने अपनी छावनी डाली । वहाँ क्ष द्र हिमाद्रि कुमारदेव को उपदेश करके महाराजा भरतने अष्टम तप किया, क्योंकि कार्यसिद्धिमें तपही आदि मंगल है। रातका अवसान या अन्त होने पर, जिस तरह सूर्य पूरब समुद्र के बाहर निकलता है, उसी तरह अष्टमभक्तके अन्तमें तेजस्वी महाराज रथ पर चढ़कर कटकक्षुद्र हिमालय पर्वतको रथके अगले भागसे तीन वार तड़ित किया। धनुर्धरकी वैशाष आकृतिमें रह कर तीरन्दाज़ के से पैंतरे बदल कर, महाराजने अपने नामसे अङ्कित बाण हिमाचल
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३६३
प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र कुमार पर छोड़ा। पक्षीकी तरह आकाशमें बहत्तर योजन या पाँच सौ छिहत्तर मील चलकर वह बाण उसके सामने गिरा। अश को देखकर मतवाला हाथी जिस तरह कुपित होता है : उसी तरह शत्र के बाणको देखकर उसके नेत्र लाल हो गये; परन्तु बाण को हाथमें लेते हीउसपर सर्पके समान भयकारक नामाक्षर पढ़कर, वह दीपकके समान शान्त हो गया, उसका क्रोध जाता रहा, गुस्सा हवा हो गया। इस कारण प्रधान पुरुषकी तरह उस वाणको साथ ग्ख, भेंट ले वह भरतगजके पास आया। आकाशमें रह कर उच्चम्बरसे “जय जय" कह, बाणकारक पुरुष की तरह उसने चक्रवर्तीको उनका बांण सोंपा और पीछे देववृक्षके फलोंकी माला. गोशीप चन्दन, सर्वोषधि और पद्मद्रहका जल --ये सब महाराजको भेंट किये, क्योंकि उसके पास यही चीजें मार थीं। इनके सिवा कड़े, वाजूबन्द और दिव्य वस्त्र भेंटके मिषसे दाडमें महाराजको दिये और कहा--- "हे स्वामिन् ! उत्तर दिशा के अन्तमें, आपके चाकरकी तरह मैं रहूँगा।” इस प्रकार कह कर जब वह चुप हो गया तत्र महाराजने उसका सत्कार कर उसे विदा किया। इसके बाद, क्षुद्र हिमालयके शिखर और शत्रु ओंके मनोरथ जैसा अपना रथ वहाँसे वापस लौटाया। इसके बाद अपभनन्दन ऋषभकूट पर्वत पर गये और हाथी जिस तरह अपने दाँतोंसे पर्वत पर प्रहार या चोट करता है: उसी तरह रथ शीष से तीन बार ताड़न किया। पीछे सूर्य जिस तरह किरणकेशको ग्रहण करता है ; उस तरह चक्रवर्तीने, रथको
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व वहाँ ठहराकर, हाथमें कांकिणी रत्न ग्रहण किया। उस कांकिणी रत्नसे, उस पर्वतकी पूरबी चोटी पर उन्होंने लिखा_ “अवसर्पिणी कालके तीसरे आरेके प्रान्त भागमें, मैं चक्रवर्ती हुआ हूँ, ये शब्द लिखकर चक्रवर्ती अपनी छावनीमें आये और उसके लिए किये हुए अष्टम तपका पारणा किया। फिर हिमालय कुमारकी तरह, उस ऋषभकूटपतिका, चक्रवर्तीकी सम्पत्तिके योग अष्टान्हिका उत्सव किया ।
नमि और विनमि के साथ युद्ध करना। गंगा और सिन्ध नदीके बीचकी जमीनमें मानो समाते न हों इस कारण आकाशमें उछलने वाले घोड़ोंसे, सेनाके बोझसे ग्लानिको प्राप्त हुई पृथ्वी पर छिड़काव करना चाहते हों, ऐसे पदजलके प्रवाहको झराने वाले गन्धहस्तियोंसे, उत्कट चक्रधार से पृक्वीको सीमान्तसे भूषित करने वाले उत्तम रथोंसे,
और मानो नराद्वतको बताने वाले अद्वैत पराक्रमशाली भूमिपर फैलने वाले करोड़ों पैदलो से घिरे हुये चक्रवर्ती महाराज सवारो का अनुसरण करके चलने वाले जात्यगजेन्द्रकी तरह, चक्रके अनुगत होकर, वैताढ्य पर्वत पर आये। जहाँ शबर स्त्रियां-भील रमणियाँ आदीश्वरके आनन्दित गीत गाती थीं, वहीं पर्वतके उत्तर भागमें महाराजने छावनी डाली। वहां रह कर भी उन्होंने नमि विनमि नामके विद्याधरों पर दण्ड मांगनेवाला बाण फेंका। बाणको देखते ही दोनों विद्याधरपति कोपाटोप कर-भयङ्कर क्रोधके आवेशमें आ, इस प्रकार विचार करने लगे
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प्रथम पर्व
३६५
आदिनाथ चरित्र
हैं
"जम्बूद्वीप के भरतखण्डमें यह भरतराज पहले चक्रवर्ती हुए 1 ऋषभकूट पर्वत पर चन्द्रविम्ब की तरह अपना नाम लिख कर, वापस लौटते हुए वे यहाँ आये हैं। हाथीके आरोहक या चढ़ने वाले की तरह उन्हों ने इस वैताढ्य पर्वत के पार्श्वभाग या बग़ल में डेरे डाले हैं । सर्वत्र विजय लाभ करने या सब जगह फतहयाबी हासिल करने की वजह से उन्हें अपने भुजबल का गर्व हुआ है; अतः वह अब अपने से भी जय प्राप्त करने की लालसा करते हैं - अपने ऊपर भी विजयी होना चाहते हैं। मैं समझता हूँ, इसी कारणसे उन्होंने यह उद्ध डद्दण्डरूप बाण अपने ऊपर छोड़ा है; इस तरह विचार कर दोनों ही युद्धके लिये तैयार हो, अपनी सेनासे पर्वत शिखर या पहाड़की चोटीको आच्छादन करनेढकने लगे ; अर्थात् पहाड़की चोटी पर ज़ोरसे फौजें इकट्ठी करने लगे । सौधर्म और ईशानपतिकी देव सेनाकी तरह, उन दोनों की आज्ञासे विद्याधरोंकी सेना आने लगी। उनके किलकिला शब्दोंसे या किलकारियोंसे वैताढ्य पर्वत हँसता हुआ - गरजता हुआ और फटता हुआ सा जान पड़ता था । विद्याधरेन्द्रके सेवक वैताढ्य गिरिकी गुफाकी जैसी सोनेकी विशाल दुंदुभि या नगाड़ा बजाने लगे । उत्तर और दक्खन श्रेणीकी भूमि, गाँव और शहर के स्वामी या अधिपति, रत्नाकर के पुत्रोंकी तरह विचित्र-विचित्र रत्नाभरण धारण करके गरूड़ की तरह अस्खलित गति से आकाशमें चलने लगे । नमि विनमिके साथ चलते हुए वे उनकी तीसरी मूर्ति से दीखते थे। कोई विचित्र
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पव माणिकोंकी प्रभासे दिशाओंको प्रकाशित करने वाले विमानों में बैठ कर, वैमानिक देवोंसे अलग न हो जायें, इस तरह चलने लगे। कोई पुष्करावर्त्त मेघ जैसे मद विन्दुओंको बरसाने वाले और गर्जना करने वाले गन्धहस्ती पर बैठ कर चले। कोई सूर्य और चन्द्रके तेजसे व्याप्त हों ऐसे सोने और जवाहिरातसे बने हुए रथों पर सवार होकर चले। कितने ही आकाशमें सुन्दर चाल से चलने वाले और अत्यन्त वेगवान, वायुकुमार देव जैसे घोड़ों पर बैठ कर चलने लगे और कितने ही हाथोंमें हथियार ले, वज्र के कवच पहन, बन्दरोंकी तरह कूदते उछलते पैदल ही चलने लगे। इस तरह विद्याधरोंकी सेनासे घिरे हुए नमि विनमि बैताठ्य पर्बतसे उतर कर, महाराज भरतके पास आये।
नमि और विनमि का अधीन होना। आकाशमें से उतरती हुई विद्याधरोंकी सेना मणिमय विमानों से आकाशको बहुसूर्यमय प्रज्वलित तथा प्रकाशमान् अस्त्र शस्त्रों से विद्यु तमय और उद्दाम दुंदुभि ध्वनिसे घोषमय करती हुई सी मालूम होती थी ; अर्थात् विद्याधर-सेनाको आकाश से नीचे उतरती हुई देखने से ऐसा मालूम होता था, गोया आस्मानमें अनेक सूरज प्रकाश कर रहे हैं, बिजलियाँ चमक रही है और गरजना हो रही है। 'अरे दण्डार्थि' ओ दण्ड मांगनेवाले ! तू हम लोगोंसे दण्ड लेगा ?' यह कहते हुए, विद्यासे उन्मत्त और गर्वित उन दोनों विद्याधरोंने भरतपतिको युद्धके लिये ललकारा।
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प्रधम पर्व
आदिनाथ-चरित्र पीछे सेना सहित उन दोनोंके साथ अलगअलग और मिलकर, विविध प्रकारसे युद्ध होने लगा। क्योंकि जय लक्ष्मी युद्धसे ही उपार्जन करने योग्य है ; अर्थात विजय लक्ष्मी युद्धसे ही प्राप्त की जाती है। बारह वर्षतक युद्ध करके, अन्तमें चक्रवर्ती ने उन दोनों विद्याधरोंको जीत लिया। पराजित होने के बाद, हाथ जोड़ और प्रणाम करके उन्होंने भरतेश्वरसे कहा--'हे कुल. स्वामी! सूर्यसे दूसरा अधिक तेजस्वी नहीं,वायुसे अधिक दूसरा वेगवान नहीं और मोक्षसे अधिक दूसरा सुख नहीं, उसी तरह आपसे अधिक दूसरा कोई शूरवीर नहीं। हे ऋषभपुत्र ! आज आपको देखने से हम साक्षात ऋषभदेवको ही देख रहे हैं। हमने अज्ञानतासे जो कष्ट आपको दिया है, उसके लिये क्षमा कीजिये; क्योंकि हमने आपको मूर्खतासे जागृत किया है। जिस तरह पहले हम ऋषभस्वामीके दास थे ; उसी तरह अबसे हम आपके सेवक हुए। क्योंकि स्वामीकी तरह, स्वामी पुत्र को सेवा भी लज़ाकारक नहीं होती। हे महाराज! दक्षिण और उत्तर भरतार्द्ध के मध्यमें स्थित वैताढ्य पर्वतके दोनों ओर, दुर्गरक्षककी तरह, आपकी आज्ञामें रहेंगे।” इस तरह कहकर विनमि राजाने जो कि महाराजको कुछ भेंट देने की इच्छा रखते थे,मानो कुछ मांगना चाहते हों इस तरह, नमस्कार कर हाथ जोड़,-मानो स्थिर हुई लक्ष्मी हो ऐसी,स्त्रियोंमें रत्नरूप अपनी सुभद्रा नामक पुत्री चक्रवर्तीके अर्पण की।
मानो सूत लगा कर बनाई हो, ऐसी उसकी सम चौरस
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व आकृति थी; त्रिलोकीके माणिक्योंके तेजपुञ्ज जैसी उसकी कान्ति थी,कृतज्ञ सेवकोंसे घिरी हुई की तरह वह यौवनावस्था तथा नित्य स्थिर रहने वाले शोभायमान केशों और नाखूनोंसे अतीव सुन्दरी मालूम होती थी, दिव्य औषधिकी तरह वह समस्त रोगोंको शान्त करने वाली थी और दिव्य जलकी तरह वह इच्छानुरूप शीत
और उष्ण स्पर्श वाली थी। वह तीन ठौरसे श्याम, तीन ठौरसे सफेद और तीन ठोरसे ताम्र, तीन ठौरसे उन्नत, तीन ठौर से गम्भीर, तीन ठौरसे विस्तीर्ण, तीन ठौरसे दीर्घ और तीन ठौरसे कश थी। अपने केश कलापसे वह मयूरके कलापको जीतती थी और ललाटसे अष्टमीके चन्द्रमाका पराभव करती थी। रति और प्रीति की क्रीड़ा वापिका सी उसकी सुन्दर दृष्टि थी। ललाटके लावण्य-जल की धारा सी उसकी दीर्घ और मनोहर नाक थी। नवीन दर्पके जैसे उसके मनोहर गाल थे। दो झूलोंके जैसे कन्धों तक पहुँचने वाले उसके दोनों कान थे। एक साथ पैदा हुए से विम्बोफल सद्श उसके दोनों होउथे। हीरे की कनियोंकी शोभा को पराभव करने वाले उसके दांत थे। पेटकी तरह उसके कण्ठमें तीन रेखायें थी। कमलनाल जैसी सरल और विषके समान कोमल उसकी भुजायें थी। कामदेव के कल्याण कलश जैसे दो स्तन थे। स्तनोंने उदरकी सारी पुष्टता हरली थी, इसलिये उसका उदर कृश और कोमल था। नदीके भँवरोंके समान उसका नाभिमण्डल था। नाभि रूपी पापिकाके किनारेके ऊपरकी दूर्वावली-दूब हो-ऐसी उसकी
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ- चरित्र
रोमावली थी । कामदेवकी शय्या के जैसे उसके विशाल नितम्ब थे 1 हिंडोलेके सुन्दर खम्भोंके जैसे उसके दोनों उरूदण्ड थे । हिरनीकी जाँघों का तिरस्कार करने वाली उसकी दोनों जायें थीं । मोथोंकी तरह उसके चरण भी कमलोंका तिरस्कार करने वाले थे। हाथों और पावोंकी अंगुलियोंसे वह पल्लवित लता सी दीखती थी । प्रकाशमान नखरूपी रत्नोंसे वह रत्नाचलकी तरी सी
मालूम होती थी, विशाल, स्वच्छ, कोमल और सुन्दर वस्त्रोंसे वह मन्द मन्द वायु से तरंगित सरिताके समान दीखती थी । स्वच्छ, कान्तिसे तरङ्गित सुन्दर सुन्दर अवयवोंसे वह अपने सोने और जवाहिरातके गहनोंकी खूबसूरती को बढ़ाती थी। छाया की तरह उसके पीछे पीछे छत्रधारिणी स्त्रियाँ उसकी सेवा के लिये रहती थीं। दो हंसोंके बीचमें कमल जिस तरह मनोहर मालूम होता है, उसी तरह दो चंवरोंके अगल बगल फिरने से वह मनोमुग्धकर जान पड़ती थी । अप्सराओंसे लक्ष्मी की तरह और नदियोंसे जान्हवी - गंगाकी तरह वह सुन्दरी बाला, समान उम्र वाली हज़ारों सखियोंसे घिरी रहती थी 1 नमि राजाने भी महामूल्यवान रत्न चक्रवर्त्तीको भेंट किये क्योंकि स्वामी घर आवे तब महात्माओंको क्या आदेय है ? इसके बाद • महाराज भरतसे बिदा होकर नमि, विनमि अपने राज्यमें आये और अपने पुत्रोंके पुत्रोंको राज्य सौंप, विरक्त हो, ऋषभदेव भगवान के चरण कमल में जा, व्रत ग्रहण किया ।
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आदिनाथ- चरित्र
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प्रथम पर्व
गंगा देवीकी साधना करके उसके यहाँ रहना ।
वहाँ से चक्ररत्नके पीछे चलने वाले तीव्र तेजस्वी भरत महाराज गङ्गा- तट के ऊपर आये । गंगा-तटके पासही महाराजने अपनी सेना सहित पड़ाव किया। महाराजाकी आज्ञासे सुषेण सेनापतिने सिन्ध की तरह, गङ्गोत्तरी के उत्तर निष्कुट को अपने अधीन किया । फिर चक्रवर्त्तीने अष्टम भक्तले गङ्गा देवीकी साधना की । समर्थ पुरुषोंका उपचार तत्काल सिद्धिके लिये होता है। गंगा देवीने प्रसन्न होकर महाराजको दो रत्नमय सिंहासन और एक हजार आठ रत्नमय कुम्भ - घड़े दिये । गङ्गादेवी, रूप और लावण्यसे कामदेवको भी किंकर तुल्य करने वाले महाराजको देखकर क्षोभको प्राप्त हुई; अर्थात् वह महाराजका कामदेवको शर्माने वाला रूप लावण्य देखकर उन पर आशिक हो गई । गङ्गादेवीने मुखचन्द्रको अनुसरण करने वाले मनोहर तारागण जैसे मोतियोंके गहने सारे शरीर में पहने थे I केलेके अन्दरकी त्वचा या गाभे जैसे वस्त्र उन्होंने शरीर में पहने थे । जो उसके प्रवाह जलके परिणामको पहुँचे जान पड़ते थे । रोमाञ्च रूपी कंचुकि या आँगीले उसकी स्तनोंके ऊपरकी कंचुकि तड़ातड़ फटती थी और स्वयम्वरकी मालाकी तरह वे अपनी धवल दृष्टि महाराज पर फेंकती थीं। इस दशाको प्राप्त हुई गङ्गादेवीने कीड़ा करने की इच्छासे प्रेमपूग्ति गद्गद् वाणीसे महाराज भरतकी बहुत कुछ खुशामद और प्रार्थना की और उन्हें
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र अपने रतिगृहमें ले गई। वहाँ महाराजने उनके साथ नाना प्रकारके भोग-विलास किये और एक हजार वर्ष एक दिनकी तरह बिता दिये। शेषमें महाराजने गङ्गादेवीको समझाबुझा कर उनसे विदा ली और रतिगृहसे बाहर आये। इसके बाद उन्होंने अपनी प्रबल सेनाके साथ खण्डप्रपाता गुफाकी ओर कूच किया।
खंड प्रपाता खोलकर निकलना । जिस तरह केशरी सिंह एक वनसे दूसरे वनमें जाता है : इसी तरह अखण्ड पराक्रमशाली चक्रवर्ती महाराज उस स्थानसे खएडप्रपाताके नज़दीक पहुँचे। गुफोसे थोड़ी दूर पर इस बलिष्ट राजाने अपनी छावनी डाली। वहाँ उस गुफाके अधिछायक नाट्यमाल देवको मनमें याद कर उन्होंने अष्टम तप किया। इससे उस देवका आसन काँपने लगा। अवधिज्ञान से भरतचक्रवर्तीको आये हुए जान, जिस तरह कर्जदार साहू. कारके पास आता है, उसी तरह वह भेंट लेकर महाराजके सामने आया। महत् भक्तिवाले उस देवने छै खण्ड पृथ्वीके आभूषणरूप महाराजको अपण किये और उनकी सेवा बन्दगी स्वीकार की। नाटक कर चुके हुए नटकी तरह, नाट्यमाल देवको विचारशील चक्रवर्तीने प्रसन्न होकर बिदा किया। और फिर पारणा कर उस देवका अष्टाहिका उत्सव किया। इसके बाद चक्रवर्तीने सुषेण सेनापतिको खण्ड.
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पवं
प्रपाता गुफा खोलनेका हुक्म दिया । सेनापति ने मंत्र के समान, नाट्यमाल देवको मनमें याद करके, अष्टमकर पौषधालय में पौधवत ग्रहण किया । अष्टमके अन्तमें पौषधागारसे निकल कर प्रतिष्ठा में श्रेष्ठ आचार्य जिस तरह बलि-विधान करता है, उसी तरह बलि-विधान किया 1 फिर प्रायश्चित्त और कौतुक मंगलकर, थोडेसे कीमती कपड़े पहन, हाथमें धूपदानी ले, गुफा के पास जा, उसे देखते ही पहले नमस्कार कर, उसके द्वारकी पूजा की और वहाँ अष्टमंगलिक लिखे । इसके बाद किवाड़ खोलने के लिये सात आठ कदम पीछे हटा इसके बाद मानो किवाड़ खोलनेकी सुवर्णमय कुंजी हो, इस तरह दण्डस्त्र ग्रहण किया और उससे द्वारपर प्रहार किया - चोटें मारी । सूर्य की किरणोंसे जिस तरह कमल खिलता है; उसी तरह दण्डस्त्रकी चोटोंसे दोनों द्वार खुल गये । गुफाका द्वार खुलने की ख़बर महाराजको दी गई । समाचार मिलते ही हाथी के कन्धे पर सवार हो, हाथीके दाहने कुम्भस्थलके ऊँचे स्थान पर " मणिरत्न" रखकर महाराजने गुफा में प्रवेश किया 1 आगे-आगे महाराज और पीछे-पीछे फौज चलती थी। गुफामें अँधेरा था, इसलिये महाराज पहलेकी तरह कौंकिणी रत्नसे मंडल बनाते हुए गुफा में चले | जिस तरह दो सखियाँ तीसरीसे मिलती है, उसी तरह गुफाकी पश्चिम ओर की दीवार में से निकल कर, पूरबकी दीवार के नीचे होकर उन्मग्ना और निमग्ना नामकी दो नदियाँ गंगामें मिलती हैं । वहाँ
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र पहुंचते ही, पहले की तरह, दोंनों नदियों पर पुलिया और पगदण्डी बना, चक्रवर्ती सेना समेत पार हो गये। सेनाके शल्यसे दुखित हो वैताढ्य पर्वतने प्रेरणा की हो, इस तरह गुफाके दक्खनी द्वार तत्काल आप-से-आप खुल गये। केशरी सिंहके समान नरकेशरी भरत महाराज गुफाके बाहर निकले और गंगाके पश्चिमी किनारे पर उन्होंने पड़ाव डाला।
नौ निधानकी प्राप्ती। वहाँ नौनिधानको उद्देश करके पृथ्वीपतिने पहलेके तपसे उपार्जन की हुई लब्धियोंसे होनेवाले लाभके मार्गको दिखाने वाला अष्टम तप किया। अष्टमके शेषमें नौनिधि प्रकट हुए और चक्रवर्तीके पास आये। उनमेंसे प्रत्येक निधि एक एक हज़ार यक्षोंसे अधिष्ठित थे। उन नौऊ निधियोंके नैसर्ग, पांडुक, पिंगल, सर्वरत्नक, महापद्म, काल, महाकाल, माणव और शंखक ये नाम थे। आठ चक्रों पर वे प्रतिष्टित थे। वे आठ योजनचौंसठ मील ऊँचे, नौ योजन-बहत्तर मील विस्तृत और दश योजन-अस्सी मील लम्बे थे। वैडूर्यमणिके किवाड़ोंसे उनके मुँह ढके हुए थे। वे एक समान सुवर्ण और रत्नोंसे भरे हुए थे एवं उनपर चक्र, चन्द्र ओर सूर्यके चिह्न थे। उन निधियोंके नामानुसार पल्योयम आयुष्य वाले नागकुमार निकायके देव उनके अधिष्ठायक होकर रहते थे।
उनमेंसे नैसर्ग नामके निधिसे छावनी, शहर, गाँव, खान,
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व द्रोणमुख, मंडप और पत्तन आदि स्थानोंका निर्माण होता है; यानी ये सव स्थान तैयार होते हैं । पांडुक नामकी निधिसे मान, उन्मान और प्रमाण-इन सबकी गणित और बीज तथा धान्य या अनाजकी उत्पत्ति होती है। पिंगल नामकी निधिसे नर, नारी, हाथी और घोड़ोंके सब तरहके आभूषणोंकी विधि जानी जा सकती है। सर्वरत्नक नामकी निधिसे चक्ररत्न आदि सात एकेन्द्रिय और सात पंचन्द्रिय रत्न पैदा होते हैं। महापद्म नामकी निधिसे सब तरहके शुद्ध और रंगीन वस्त्र तैयार होते हैं। काल नामकी निधिसे भूत, भविष्यत और वर्तमान कालका ज्ञान, खेती प्रमृति कर्म एवं अन्य शिल्प–कारीगरीके कामोंका ज्ञान होता है। महाकालकी निधिसे प्रवाल-मूंगा, चाँदी, सोना, मोती, लोहा तथा लोह प्रभृति धातुओंकी खान उत्पन्न होती है। माणव नामक निधिसे योद्धा आयुध, हथियार और कवच-ज़िरहवख्तरकी सम्पत्तियों तथा सब तरहकी युद्ध-नीति और दण्ड-नीति प्रकट होती हैं । नवीं शंखक नामकी महानिधिसे चार प्रकारके काव्योंकी सिद्धि, नाट्य-नाटककी विधि और सब तरहके बाजे उत्पन्न होते हैं। इस प्रकारके गुणोंवाली नौ निधियाँ आकर कहने लगी कि, “हे महाभाग! हम गंगाके मुखमें मागधतीर्थकी निवासिनी हैं। आपके भाग्यके वश होकर, आपके पास आई हैं; इसलिये अपनी इच्छानुसार-अविश्रान्त होकर-हमारा आप भोग लीजिये और दीजिये। कदाचित समुद्र भी क्षियको प्राप्त हो जाय, समुद्र भी
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
घट जाय, पर हम कभी भी क्षयको प्राप्त नहीं होतीं। हममें कमी नहीं आती।" यह कह कर सारी निधियाँ-नौऊ निधियाँ महाराजके अधीन हो गई। इसके बाद विकार-रहित राजाने पारणा किया, और वहीं उनका अष्टाह्निका उत्सव किया । महाराज की आज्ञासे सुषेण सेनापति भी गंगाके दक्खिन निस्कूट को, छोटे भीलोंके गाँवकी तरह, लीलामात्रमें जीतकर आ गया। पूर्वापर समुद्रको लीलासे आक्रान्त करके रहनेवाला मानों दूसरा वैताढ्य पर्वत हो, इस तरह महाराज भी वहाँ बहुत समय तक रहे।
अयोध्याकी ओर प्रयाण एक दिन सारे भारत क्षेत्रको साधन करने वाला भरतपतिका चक्र अयोध्याकी ओर चला। महाराज भी स्नान कर, कपड़े पहन, वलिकर्म प्रायश्चित्त और कौतुक मंगल कर इन्द्रके समान गजेन्द्र पर सवार हुए। कल्पवृक्ष ही हों ऐसी नवनिधियोंसे पुष्ट भण्डार वाले, सुमंगलाके चौदह स्वप्नोंके अलग अलग फल हों ऐसे चौदह रत्नोंसे निरन्तर युक्त, राजाओंकी कुल-लक्ष्मी जैसी, जिन्होंने कभी सूरज भी आँखोंसे नहीं देखा, ऐसी अपनी व्याहता बत्तीस हज़ार राजकन्याओं सहित मानों अप्सरा हों ऐसी बत्तीस हज़ार देशोंसे व्याही हुई अन्य बत्तीस हज़ार सुन्दरी स्त्रियोंसे सुशोभित, सामन्त जैसे अपने आश्रित बत्तीस हज़ार राजाओं तथा विन्ध्याचल जैसे चौरासी लाख हाथियोंसे विराजित और मानों
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र समस्त जगतसे इकट्ठे किये हों ऐसे चौरासी लाख घोड़ों, उतने ही रथो और पृथ्वीको ढक देने वाले छियानवे करोड़ योद्धा. ओंसे घिरे हुए भरत चक्रवर्ती रवानः होनेके पहले दिनसे साठ हज़ारवें बरस चक्रके मार्गको अनुसरण करते हुए अयोध्या की ओर चले। इसका खुलासा यह हैं, कि महाराज जब अयोध्याको चले, तब नवनिधियोंसे भरे भण्डार, चौदह रत्न, बत्तीस हज़ार राजकन्यायें, अन्य बत्तीस हज़ार सुन्दरी स्त्रियाँ, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख घोड़े, चौरासी लाख रथ और छियानवे करोड़ योद्धा और बत्तीस हज़ार सामन्त राजाये सब उनके साथ थे। वे प्रयाणके दिनसे ६० हज़ारवें वर्ष फिर अयोध्याको वापस लौटे। _रास्तेमें चलते हुए चक्रवर्ती, सेनासे उड़ी हुई धूलके स्पर्श से मलिन हुए खेचरोंको पृथ्वी पर लेटाये हों ऐसा कर देते थे; पृथ्वीके मध्य भागमें रहने वाले भवनपति और व्यन्तरोंकोसेनाके भारसे-पृथ्वीके फट पड़नेकी आशङ्कासे भयभीत कर देते थे : गोकुलमें विकस्वर दृष्टिवाली गोपाडूनाओंका माखन रूप अर्घ्य अमूल्य हो इस तरह भक्तिसे ग्रहण करते थे; वन-वनमें हाथियोंके कुम्भस्थलमें से पैदा हुए मोतियोंकी भीलोंद्वारा दी हुई भेंटको ग्रहण करते थे, पर्वत-पर्वतके राजाओं द्वारा आगे रखे हुए रत्न और सोनेकी खानोंके महत् सार को अनेक बार स्वीकार करते थे। मानों गाँव-गाँवमें उत्कण्ठित बान्धव हों, ऐसे गाँवके बड़े बूढ़ोंके नज़राने प्रसन्नतासे
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
स्वीकार करते और उन पर कृपा करते थे, खेतों में पड़ने वाली गायोंकी तरह, गावोंमें चारों ओर फैलने वाले सैनिकोंको अपने आज्ञारूपी उग्रदण्डसे रोकते थे, बन्दरोंकी तरह वृक्षोंपर चढ़ कर अपने तई (महाराजके तई ) हर्ष - पूर्वक देखने वाले गाँव के बालकोंको पिताकी तरह प्रमसे देखते थे, धन, धान्य और जीवन से निरुपद्रवी गांवों की सम्पत्ति को अपनी नीतिरूपी लता के फलरूपसे देखते थे; नदियोंको कीचयुक्त करते थे; सरोवरों सोखते थे और बावड़ी तथा कूओंको पाताल- विवरकी तरह खाली करते थे । दुर्विनीत शत्रुओंको शिक्षा देनेवाले महाराज भरत इस तरह मलय पवनकी तरह लोगों को सुख देते हुए और धीरे-धीरे चलते हुए अयोध्यापुरीके समीप आ पहुँचे । मानों अयोध्याका अतिथिरूप सहोदर हो, इस तरह अयोध्या के पासकी ज़मीन में महाराजने पड़ाव डाला। फिर राज शिरोमणि भरतने राजधानीको मनमें यादकर उपद्रव रहित प्रोतिदायक अष्टम तप किया । अष्टम भक्त के अन्त में पौषधालय से बाहर निकल, अन्य राजाओंके साथ दिव्य भोजनसे पारणा किया ।
अयोध्या की विशेष शोभा ।
इधर अयोध्या में स्थान-स्थान पर, मानों दिग् दिगन्तसे आई हुई लक्ष्मीके खेलनेके झूले हो; ऐसे ऊंचे ऊंचे तोरण बँधने लगे । जिस तरह भगवानके जन्म समय में देवता सुगन्धित जलकी वर्षा करते हैं, उसी तरह नगर के लोग प्रत्येक
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आदिनाथ चरित्र
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- प्रथम पर्व राह-वाटमें केशरके जलसे छिड़काव करने लगे। मानों निधियाँ अनेक रूपसे आगे हो आगई हों, इस तरह मंच सोनेके खम्भोंसे बनवाने लगे। उत्तर कुरु देशमें पांच नदियोंके दोनों ओर रहने वाले दश दश सुवर्णगिरि शोभते हैं, इसी तरह राहकी दोनों ओर आमने-सामनेके मंच शोभने लगे। प्रत्येक मंचमें बाँधे हुए रत्नमय तोरण इन्द्रधनुषकी श्रेणीकी शोभाका पराभव करने लगे
और गन्धोंकी सेना विमानोंमें बैठती हों, इस तरह गानेवाली स्त्रियाँ मृदंग और बीण बजानेवाले गन्धवों के साथ, उन मंचों पर बैठने लगीं। उन मंचोंके ऊपरके चन्दवोंके साथ बँधी हुई मोतियोंकी झालरें, लक्ष्मीके निवास गृहकी तरह कान्तिसे दिशाओंको प्रकाशित करने लगीं। मानो प्रमोदको प्राप्त हुई नगरदेवीका हास्य हो इस तरह चैवरोंसे, स्वर्गमण्डनकी रचना के चित्रोंसे, कौतुकसे आये हुए नक्षत्र-तारे हों ऐसे दर्पणोंसे, खेचरोंके हाथोंके रूमाल हों ऐसे वस्त्रोंसे और लक्ष्मीकी मेखला विचित्र मणिमालाओंसे नगरके लोग ऊँचे किये हुए खम्भोंमें हारकी शोभा करने लगे। लोगों द्वारा बाँधी हुई धुंघरुओं वालों पताकायें, सारस पक्षीके मधुर शब्द वाले शरद् ऋतुके समय को बताने लगी। व्यापारी लोग हरेक दूकान और मन्दिरोंको यक्ष कर्दमके गोबरसे लीपने लगे और उनके आँगनोंमें मोतियों के साथिये पूरने लगे। जगह-जगह अगरके चूर्णकी धूपका धूआँ ऊँचा उठ रहा था, इससे ऐसा जान पड़ता था, गोया स्वर्गको भी धूपित करनेकी इच्छा करते हैं।
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प्रथम पवे .
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आदिनाथ-चरित्र इस तरह नगरके लोगोंको सजायी हुई नगरीमें प्रवेश करने की इच्छासे पृथ्वीन्द्र चक्रवर्ती शुभ मुहूर्तमें मेघवत् गर्जना करनेवाले हाथी पर चढ़े। आकाश जिस तरह चन्द्रमण्डलसे शोभता है; उसी तरह कपूरके चूर्ण जैसे सफेद छत्रोंसे वे शोभते थे। दो चँवरोंके मिषसे, अपने शरीरोंको छोटा बनाकर, आई हुई गंगा और सिन्धने उनकी सेवा की हो, ऐसा मालूम होता था। स्फटिक पर्वतोंकी शिलाओं में से सार लेकर बनाये हों, ऐसे उज्वल, अति सूक्ष्म, कोमल और घन-ठोस कपड़ोंसे वे शोभते थे, मानों रत्नप्रभा पृथ्वीने प्रेमसे अपना सार अर्पण किया हो, ऐसे विचित्र रत्नालङ्कारोंसे उनके सारे अंग अलंकृत थे। फणों पर मणिको धारण करनेवाले नागकुमार देवोंसे घिरे हुए नागराजकी तरह, वे माणिक्यमय मुकुटवाले राजाओंसे घिरे हुए थे। जिस तरह चारण देवराज इन्द्रके गुणोंका कीर्तन करते हैं ; उसी तरह जय जय शब्द बोलकर आनन्दकारी चारण और भाट उनके अद्भुत गुणोंका कीर्तन करते थे और मंगल बाजे प्रति शब्दके मिषसे, ओकाश भी उनकी मंगल ध्वनि करता हुआ सा जान पड़ता था । इन्द्रके समान तेजस्वी और पराक्रमके भण्डार महाराज चलनेके लिए गजेन्द्रको प्रेरणा कर आगे चलने लगे। मानों स्वर्गसे उतरे हों अथवा पृथ्वी में से निकले हों; इस तरह बहुत समयके बाद आनेवाले राजाके दर्शन करनेकी इच्छासे दूसरे गाँवोंसे भी आदमी आये थे। महाराजकी सारी सेना और दर्शनार्थ आये हुए लोग
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पत्र
इन दोनोंके इकट्ठे होनेसे, सारा मृत्युलोक एक स्थानमें पिण्डीभूत हुआ सा जान पड़ता था। सेना और आये हुए लोगों की भीड़से उस समय तिलका दाना भी फेंकनेसे जमीन पर न पड़ता था। कितने ही लोग भाटोंकी तरह खड़े होकर खुशीसे स्तुति करते थे। कोई कोई चंचल भँवरोंकी तरह अपने वस्त्राञ्चलसे हवा करते थे। कोई मस्तक पर अञ्जलि जोड़ कर सूर्यकी तरह नमस्कार करते थे । कोई मालाकार रूपमें फल और फूल अर्पण करते थे। कोई कुलदेवकी तरह उनकी वन्दना करता था और कोई गोत्रके बूढ़े आदमीकी तरह उन्हें आशीर्वाद देता था।
अयोध्या नगरीमें प्रवेश । जिस तरह ऋषभदेव भगवान् समवशरणमें प्रवेश करते हों, इस तरह महाराजने चार दरवाजेवाली अपनी नगरीमें पूरवी दरवाजेसे प्रवेश किया। लग्न-घड़ीके समय एक साथ बाजोंकी आवाज हो, इस तरह उस समय प्रत्येक मञ्च पर संगीत होने लगा। महाराज आगे चले, तब राजमार्गके घरोंमें रहनेवाली स्त्रियाँ हर्षसे दृष्टिके समान धानी उड़ाने लगीं। पुरवासियों द्वारा फूलोंकी वर्षासे ढका हुआ महाराजका हाथी पुष्पमय रथ-जैसा बन गया । उत्कंठित लोगोंकी अत्यन्त उत्कंठा देखकर चक्रवर्ती :राजमार्गमें धीरे-धीरे चलने लगे। लोग हाथीसे न डर कर, महाराजके पास आकर फल वगैरह
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प्रथम पर्व
३८१ आदिनाथ-चरित्र भेंट करने लगे। क्योंकि हर्ष ऐसा ही बलवान है। राजा हस्तीके कुम्भस्थलमें अंकुशकी ताड़ना करके उसे हर मंचके सामने खड़ा रखते थे। उस समय दोनों तरफके मंचोंके ऊपर, आगे खड़ी हुई सुन्दरी रमणियाँ एक साथ कपूरसे चक्रवर्ती की आरती उतारती थीं। दोनों तरफ आरती होनेसे, महाराज दोनों ओर सूर्य-चन्द्र धारण करने वाले मेरु पर्वतकी शोभा को हरण करते थे। अक्षतोंके साथ मोतियोंसे भरे हुए थाल ऊँचेकर चक्रवर्तीको बधाई देनेके लिए दूकानोंके आगे खड़े हुए वणिक लोग उनको दृष्टिसे आलिङ्गन करते थे। राजमार्ग की बड़ी बड़ी हवेलियोंके दरवाज़ोंमें खड़ी हुई कुलीन स्त्रियों के किये हुए मांगलिकको महाराज अपने बहनोंके किये हुए मांगलिककी तरह मानते थे। दर्शनोंकी इच्छासे पीड़ित कितने ही लोगोंको देखकर, वे अपना अभयप्रद हाथ ऊंचा करके छड़ीदारोंसे उनकी रक्षा करवाते थे। इस तरह चलते-चलते महाराजने अपने पिताके सतमञ्जिले महल में प्रवेश किया। उस महलके आगेकी जमीनमें राजलक्ष्मीके कीड़ापर्वत-जैसे दो हाथी बंधे थे। दो चकवोंसे जिस तरह जल-प्रवाह शोभता है, उसी तरह दो सोनेके कुलढों से उस महलका विशाल द्वार सुशोभित था और इन्द्रनीलमणिसे बने हुए कंठाभरणकी तरह, आमके पत्तोंके मनोहर तोरण बन्दनवारोंसे वह राजमहल शोभता था। उसमें कितनी ही जगह मोतियोंसे, कितनी ही जगह कपूरसे और कितनी ही जगह चन्द्रकान्तमणिसे, स्वस्तिक
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प्रथम पर्व
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और मंगलिक किये गये थे। कहीं चोनी कपड़ोंसे, कहीं रेशमी कपड़ोंसे और कहीं दिव्य वस्त्रोंसे लगाई हुई पताकाओंकी पंक्तियोंसे वह महल शोभायमान था। उस महलके आँगनमें कहीं कपूरके पानीसे, कहीं फूलोंके रससे और कही हाथियोंके मदजलसे छिड़काव किया गया था। उसके ऊपर जो सोनेके कलश रखे थे, उससे ऐसा मालूम होता था, गोया उनके मिश से वहाँ सूर्यने विश्राम किया है। उस राजगृहके आँगनमें अग्र. वेदी पर अपने पैर जमाकर छड़ीदारने हाथका सहारा देकर महाराजको हाथीसे उतारा और प्रथम आचार्यके समान अपने सोलह हजार अंगरक्षक देवोंका पूजन कर महाराजने उन्हें बिदा किया। इसी तरह बत्तीस हज़ार राजे, सेनापति, प्रोहित, गृहपति और वर्द्धकिको भी महाराजने विसर्जन किया। हाथियोंको जिस तरह आलान-स्तम्भसे बाँधनेकी आज्ञा देते हैं; उसी तरह तीनसौ तिरेसठ रसोइयोंको अपने-अपने घर जानेकी आज्ञा दी। उत्सवके अन्तमें अतिथिकीतरह सेठोंको, *श्रेणी-प्रश्रेणियोंको, दुर्गपालों और सार्थवाहोंको भी जाने की छुट्टी दी। पीछे इन्द्राणी के साथ इन्द्रकी तरह,स्त्रीरत्न सुभद्राके साथ बत्तीस हज़ार राज. कुलमें जन्मी हुई रानियोंके साथ उतनी ही; यानी बत्तीस हज़ार देशके आगेवानोंकी कन्याओंके साथ बत्तीस-बत्तीस पात्रवाले उतने ही नाटकोंके साथ मणिमय शिलाओंकी पंक्तिपर दृष्टि
* माली वगैरः नौ जातियाँ श्रेणी कहलाती हैं और घांची प्रभृति नौजातियाँ प्रश्रेणी कहलाती हैं।
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
AAAAAAAAAAA
फेंकते हुए महाराजने, यक्षपति कुवेर जिस तरह केलाशमें प्रवेश करते हैं ; उसी तरह उत्सवके साथ राजमहलमें प्रवेश किया । वह क्षणभर पूरबकी तरफ मुँह करके सिंहासन पर बैठे और कितनी ही सत्कथाएं करके स्नानागार या गुशल. खाने में गये। हाथी जिस तरह सरोवरमें स्नान करता है, उसी तरह स्नान करके परिजनोंके साथ अनेक प्रकारके रसोंवाले आहारका भोजन किया। पीछे योगी जिस तरह योग में काल निर्गमन करता है-समय बिताता है; उसी तरह राजा ने नवरस पूर्ण नाटकों और मनोहर संगीतमें कितनाही समय बिताया।
चक्रवर्तीका राज्याभिषेकोत्सव । एक समय सुरनरोंने आकर प्रार्थना की कि महाराज ! आपने विद्याधरपति समेत षट्खण्ड पृथ्वीका साधन किया है-छहों खण्ड मही जीत ली है ; इस कारण हे इन्द्रके समान पराक्रमशाली ! अगर आप हमें आज्ञा दें, तो हम स्वच्छन्दता. पूर्वक आपका महाराज्याभिषेक करें । महाराजने आज्ञा दे दी,-- तब देवताओंने शहरके बाहर ईशान कोणमें, सुधर्मा समाके एक खएड जैसा मण्डप बनाया। वे सरोवर, नदियाँ, समुद्र और अन्यान्य तीर्थोंसे जल, औषधि और मिट्टी लाये । महाराजने पौषधालयमें जाकर अष्टम तप किया, क्योंकि तपसे मिला हुआ राज्य तपसे ही सुखमय रहता है। अष्टम तप पूर्ण होनेपर
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आदिनाथ चरित्र
३८४
प्रथम पर्व
अन्तःपुर और परिवारसे घिर कर हाथी पर बैठे और उस मण्डपमें गये। फिर अन्तःपुर और हज़ारों नाटकोंके साथ उन्होंने उच्च रूपसे बनाये हुए अभिषेक-मण्डपमें प्रवेश किया । वहाँ स्नान-पीठमें सिंहासन पर चढ़े, उस समय हाथीके पर्वतशिखर पर चढ़नेका सा दृश्य हुआ। मानों इन्द्रकी प्रीतिके लिये हो, इस तरह वे पूरब दिशाकी और मुह करके रत्नसिंहासन पर बैठे। थोड़ेही हों इस तरह बत्तीस हज़ार राजा लोग उत्तर ओरकी सीढ़ियोंसे स्नान-पीठ पर चढ़े और चक्रवर्तीके पास भद्रासनोंपर हाथ जोड़कर उसी तरह बैठे, जिस तरह देवता इन्दके सामने हाथ जोड़कर बैठते हैं। सेनापति, गृहपति, वर्द्धकि, पुरोहित और सेठ-साहूकार प्रभृति दक्खनकी सीढ़ियोंसे स्नान-पीठ पर चढ़े। मानों चक्रवर्तीसे प्रार्थना करनेकी इच्छा रखते हों, इस तरह अपने योग्य आसनों पर हाथ जोड़कर बैठ गये। पीछे आदिदेवका अभिषेक करने के लिये इन्द्र आये हों उस तरह इस नग्देवका अभिषेक करनेके लिये उनके आभियोगिक, देव निकट आये। जलपूर्ण होनेसे मेघ जैसे, मानों चकवा पक्षी हो इस तरह मुख भाग पर कमल वाले और भीतरसे जल गिरते लमय बाजेकी सी आवाज़ करने वाले स्वाभाविक और वैक्रियक रत्न कलशोंसे वे सब महाराजका अभिषेक करने लगे। मानों अपने ही नेत्र हों ऐसे जल से भरे हुए कलशोंसे बत्तीस हज़ार राजाओंने, शुभ मुहूर्तमें उनका अभिषेक किया और अपने सिरपर कमल कोषकी तरह
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प्रथम पर्व
३८५
आदिनाथ-चरित्र
हाथ जोड़े और "आपकी जय हो, आप विजयी हों" कहकर चक्रवर्ती को बधाने लगे। इसके बाद सेनापति और सेठ प्रभृति जलसे अभिषेक करके उस जलके जैसे उज्ज्वल वाक्योंसे उनकी स्तुति करने लगे । फिर उन्होंने पवित्र रोंएँ वाले कोमल गंधharat वस्त्र, माणिक्यकी तरह, उनका शरीर पोंछ कर साफ किया तथा गेरू जिस तरह सोनेकी कान्तिको पोषण करता है, उसकी कान्तिको बढ़ाता है, उस तरह शरीर की कान्तिको पोषण करनेवाले गोशार्ष चन्दनका लेप महाराजने अंगमें किया । इन्द्रने जो मुकुट ऋषभ स्वामीको दिया था, देवताओंने वही मुकुट अभिषिक्त और राजाओंमें श्रेष्ठ चक्रवर्त्तीके सिर पर रखा । उनके मुख-चन्द्र के पास रहने वाले चित्रा और स्वाती नक्षत्र जैसे रत्नों के कुण्डल उनके दोनों कानोंमें पहनाये 1 जिसमें धागा नहीं दीखता, जो मानों हारके रूपमें ही पैदा हुआ हो, ऐसा सीपके मोतियोंका हार उनके गलेमें पहनाया । मानों सब अलङ्कारोंका हार रूप राजाका युवराज हो ऐसा एक सुन्दर अर्द्धहार उनके उरस्थल या छाती पर पहनाया, मानों कान्तिमान अभ्रकके सम्पुट हों ऐसे उज्ज्वल कान्तिसे शोभने वाले देवदूष्य वस्त्र महाराजको पहनाये । और मानों लक्ष्मीके उरस्थल रूपी मन्दिरको कान्तिमय किले जैसी एक सुन्दर फूलों की माला उनके कण्ठमें पहनाई। इस प्रकार कल्पवृक्ष के जैसे अमूल्य कपड़े और माणिकके गहने पहन कर महाराजाने स्वर्गखण्डकी तरह उस मण्डपको सुशोभित किया। फिर समस्त पुरुषोंमें
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
अग्रणी और महा बुद्धिमान् महाराजने छड़ीदार द्वारा सेवक पुरुषोंको बुलवा कर हुक्म दिया-“ हे अधिकारी पुरुषों ! तुम हाथी पर बैठ और सब जगह घूम घूम कर इस विनीता नगरी को बारह बरसके लिए किसी भी प्रकारको जकात-चुंगी, महसूल, कर, दण्ड, कुदण्ड और भयसे रहित कर सुखी करो।" अधिकारियोंने तत्काल उसी तरह उद्घोषण कर, ढिंढोरा पीट, महाराजके हुक्मकी तामील की। कार्यसिद्धिमें चक्रवर्तीकी आज्ञा पन्द्रहवाँ रत्न है।
इसके बाद महाराजा रत्नमय सिंहासनसे उठे। उनके साथ उनके प्रतिबिम्बकी तरह और सब लोग भी उठे। पर्वतके जैसीस्नान-पीठ परसे भरतेश्वर अपने आनेके मार्गसे नीचे उतरे। साथ ही और लोग भी अपने अपने रास्तेसे उतरे। फिर मानों अपना असह्य प्रताप हो, ऐसे उत्तम हाथी पर बैठ चक्रवर्ती अपने महलमें पधारे। वहाँ स्नानघर या गुशलखानेमें जाकर, निर्मल जलसे स्नान कर उन्होंने अष्टम भक्तका पारणा किया। इस तरह बारह वर्षमें अभिषेकोत्सव समाप्त हुआ। तब चक्रवतीने स्नान, पूजा, प्रायश्चित्त और कौतुक मंगल कर, बाहरके सभास्थानमें आ, सोलह हज़ार आत्मरक्षक देवोंका सत्कार कर उनको बिदा किया। फिर विमानमें रहने वाले इन्द्रकी तरह महाराजा अपने उत्तम महलमें रह कर विषय-सुख भोगने लगे। ___महाराजकी आयुधशाला या अस्त्रागारमें चक्र, छत्र, खङ्ग और दण्ड-ये चार एकेन्द्रिय रत्न थे। जैसे रोहणाचलमें माणिक्य भरे रहते हैं, वैसेहो उनके लक्ष्मीगृहमें कांकिणीरत्न, चर्म
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प्रथम पर्व
३८७ আৰিনাথ-অবিস্ব रत्न, मणिरत्न और नवों निधियाँ वर्तमान थीं। उन्हींकी नगरी में उत्पन्न हुए सेनापति, गृहपति, पुरोहित और वर्द्धकि-ये चार नर-रत्न थे। वैताढ्य-पर्वतके मूलमें उत्पन्न होनेवाले गजरत्न और अश्वरत्न तथा विद्याधरोंकी उत्तम श्रेणीमें उत्पन्न स्त्री-रत्न भी उन्हें प्राप्त थे। उनकी मूर्ति नेत्रोंको आनन्द देनेवाली तथा चन्द्रमाकी तरह शोभायमान थी। अपने असहनीय प्रतापके कारण वे सूर्यके समान चमक रहे थे। जैसे समुद्रफे मध्यभागमें क्या है, यह कोई जल्दी नहीं जान पाता, वैसे ही उनके हृदयमें क्या है, यह बात कोई शीघ्र नहीं मालूम कर पाताथा । उन्हें कुर की तरह मनुष्यों पर स्वामिता मिली हुई थो। जम्बूद्वीप, जैसे गङ्गा और सिन्धु आदि नदियोंसे शोभा पाता है, वैसेही वे भी पूर्वोक्त चौदहों रत्नोंसे शोभित थे। विहार करते हुए ऋषभप्रभुके चरणोंके नीचे जैसे नव सुवणे-कमल रहते हैं, वैसे ही उनके चरणों के नीचे नवों निधियाँ निरन्तर पड़ी रहती थीं। वे सदा सोलह हज़ार पारिपार्श्वक देवताओंसे घिरे रहते थे, जो ठीक बड़े दामों पर खरीदे हुये आत्मरक्षकसे मालूम पड़ते थे। बत्तीस हज़ार राजकन्याओंकी भांति बत्तीस हजार राजागण निर्भर भक्तिके साथ उनकी उपासना करते रहते थे। बत्तीस हज़ार नाटकोंकी तरह बत्तीस हज़ार देशोंकी बत्तीस हज़ार राजकन्याओंके साथ वे रमण किया करते थे। संसारके वे श्रेष्ठ राजा तीन सौ तिरेसठ दिनोंके वर्षकी भाँति तीन सौ तिरेसठ रसोईदारों से सेवित थे। अठारह लिपियोंका प्रवर्तन करनेवाले भगवान्
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आदिनाथ-चरित्र
३८८
प्रथम पर्व ऋषभदेवकी भाँति उन्होंने भी संसारमें अठारह श्रेणो-प्रश्रेणियोंका व्यवहार चलाया था। चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख घोड़े, चौरासी लाख रथ, छियानवे करोड़ अशिक्षितों तथा इतने ही पैदल सिपाहियोंसे वे शोभित थे। बत्तीस हज़ार देशों
और बहत्तर हज़ार बड़े-बड़े नगरोंके वे अधिपति थे। निन्नानवे हज़ार द्रोणमुख और अड़तालीस हज़ार किलेबन्द शहरोंके अधिपति थे। आडम्बर-युक्त लक्ष्मीवाले चौबीस हज़ार करबट, चौबीस हज़ार मण्डप और बीस हज़ार खानोंके वे मालिक थे। सोलह हज़ार खेड़ों ( ज़िलों ) के वे शासनकर्ता थे। चौदह हज़ार संवाद तथा छप्पन द्वीपोंके वे ही प्रभु थे। उनचास छोटेछोटे राज्योंके वे नायक थे। इस प्रकार वे इस समस्त भरतक्षेत्रके शासन-कर्त्ता स्वामी थे।
इस प्रकार अयोध्या नगरीमें अखण्डित आधिपत्य चलानेवाले महाराजने अभिषेकोत्सव समाप्त हो जानेपर एक दिन अपने सम्बन्धियोंका स्मरण किया। तत्काल ही अधिकारी पुरुषोंने साठ हज़ार वर्षसे महाराजके दर्शनोंके लिये उत्सुक बने हुए सब सम्बन्धियोंको उन्हें ला दिखलाया। उनमें सबसे पहले बाहुबलीके साथ जन्मी हुई, गुणोंसे सुन्दर बनी हुई सुन्दरीका नाम पहले बतलाया। वह सुन्दरी गरमीके दिनोंमें पतली धारवाली नदीको तरह दुबली, पालेकी मारी कमलिनी की तरह कुम्हलायी हुई, हेमन्त ऋतुकी चन्द्रकलाकी तरह नष्ट लावण्यवती थी और शुष्क पत्रोंवाली कदलीकी तरह उसके गाल
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
फीके और कृश हो गये थे । सुन्दरीकी यह बदली हुई सूरत देख कर महाराजने क्रोधके साथ अपने अधिकारियोंसे कहा,“ऐ ! यह क्या ? क्या मेरे घर में अच्छा अनाज नहीं है ? लवणसमुद्र में लवण नहीं रह गया ? सब रसोंके जानने वाले रसोइये नहीं हैं ? अथवा तुम लोग निरादर-युक्त और कामके चोर हो गये हो ? क्या दाख और खजूर आदि खाने लायक मेवे अपने यहां नहीं हैं ? सुवर्ण- पर्वतमें सुवर्ण नहीं रह गया ? बाग़ीचोंक वृक्ष क्या अब फल नहीं देते ? क्या नन्दन वनके वृक्ष भी अब नहीं फलते ? घड़े के समान थनोंवाली गायें क्या अब दूध नहीं देतीं ? क्या कामधेनुके स्तनोंका प्रवाह भी सूख गया ? अथवा इन सब खाने योग्य उत्तमोत्तम पदार्थों के रहते हुए भी सुन्दरी किसी रोग से पीड़ित होनेके कारण खाती ही नहीं है ? यदि इस के शरीर में ऐसा कोई रोग हो गया है, जो कायाके सौन्दर्य का नाश करने वाला है, तो क्या हमारे यहाँके सब वैद्य मर गये हैं ? यदि अपने घर में दिव्य औषधि नहीं रही, तो क्या आजकल हिमाद्रि पर्वत भी औषधि-रहित हो गया है ? अधिकारियों ! मैं इस दरिद्रीकी पुत्रीकी तरह दुबल बनी हुई सुन्दरीको देख कर बहुत ही दुःखित हुआ । तुम लोगोंने मुझे शत्रुकी तरह धोखा दिया ।"
-
भरत - पति को इस प्रकार क्रोधसे बोलते देख, अधिकारियोंने प्रणाम कर कहा, – “महाराज ! स्वर्ग - पतिकी तरह आपके घरमें सब कुछ मौजूद है ! परन्तु जबसे आप दिग्विजय करने चले
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आदिनाथ- चरित्र
प्रथम पर्व
गये, तबसे यह सुन्दरी केवल प्राणरक्षणके निमित्त आम्बिल तप कर रही है I आपने इसे दीक्षा लेनेको मना कर दिया था, इसीलिये यह भावदीक्षित होकर रहती आयी है ।"
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यह सुन, राजाने सुन्दरीकी ओर देखकर पूछा, "हे कल्याणी ! क्या तुम दीक्षा लेना चाहती हो ?
"
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सुन्दरीने कहा,
ai!"
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यह सुन, भरतरायने कहा, – “ ओह ! केवल प्रमाद और सर. लताकै कारण मैं अबतक इसके व्रतमें विघ्नकारी बनता आया । यह बेटी तो ठीक पिताजीके ही समान निकली और मैं उन्हींका पुत्र होकर सदा विषयोंमें आसक्त और राज्य में अतृप्त बना रहा । वह आयु समुद्रको जलतरंगकी तरह नाशवान् है, परन्तु विषयभोग मैं पड़े हुए मनुष्य इसे नहीं जानते । देखते-ही-देखते नाशको प्राप्त हो जानेवाली बिजलीके सहारे जैसे रास्ता देख लिया जाता है, वैसे ही इस चंचल आयुमें भी साधु-जनों को मोक्षकी साधना कर लेनी चाहिये । मांस, विष्टा, मूत्र, मल, प्रस्वेद और व्याधियोंसे भरे हुए शरीरको सँवारना - सिंगारना क्या है, घरकी मोरीका शृङ्गार करना है प्यारी बहन ! शाबाश! तुम धन्य हो, कि इस शरीर के द्वारा मोक्षरूपी फलको उत्पन्न करनेवाले व्रतको ग्रहण करने की इच्छा तुम्हारे मनमें उत्पन्न हुई । चतुर लोग खारी समुद्रमेंसे भी रत्न निकाल लेते हैं।" यह कह, महा
I
* एक धार्मिक व्रत, जिसमें खट्ट, चरपरे. गरम और भारी पदार्थ
नहीं खाये जाते ।
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moon
प्रथम पवं
३६१
आदिनाथ-चरित्र राजने हर्षित हृदयसे सुन्दरीको दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा दे दी। इस आज्ञाको पाकर वह सुन्दरी, जो तपसे कृश हो रह थी, ऐसी हर्षित हुई, कि आनन्दके उच्छ्वासके मारे वह हृष्टपुष्ट मालूम पड़ने लगी।
इसी समय जगत्पी मयूरको मेघके समान हर्ष देनेवाले भगवान् ऋषभ-स्वामी विहार करते हुए अष्टापद गिरिपर आ पहुँ. चे। उस पर्वतके ऊपर देवताओंने रत्न, सुवर्ण और चाँदीका मानों दूसरा पर्वत ही हो, ऐसा उत्तम समवशरण बनाया। उसी में बैठ कर प्रभु देशना देने लगे। गिरिपालकोंने तत्काल भरतपतिसे आ कर यह बात कही। यह वृत्तान्त श्रवण कर मेदिनी. पतिको उससे भी अधिक आनन्द हुआ, जितना उन्हें भरत-क्षेत्रके छओं खण्डों पर विजय प्राप्त करनेसे होता। स्वामीके आग. मनका समाचार सुनाने वाले सेवकोंको उन्होंने साढ़े बारह करोड़ मुहरें' इनाममें दी और सुन्दरीसे कहा,-"देखो, तुम्हारे मनोरथके मूर्तिमान स्वरूप जगद्गुरु विहार करते हुए यहीं आ पहुँचे हैं।” इसके बाद चक्रवतीने दासीजनोंकी तरह अन्तःपुरकी स्त्रियोंसे सुन्दरीका निष्क्रमणाभिषेक करवाया। सुन्दरीने स्नान कर, पवित्र विलेपन लगा, मानों दूसरा विलेपन किया हो ऐसी उज्जल किनारीदार साड़ी तथा उत्तम रत्नालङ्कार पहन लिये। यद्यपि उसने शीलरूपी सर्वोत्तम अलङ्कार धारण कर ही रखा था, तथापि आचारकी रक्षाके लिये उसने अन्य अलङ्कार भी पहन लिये। उस समय रूप सम्पत्तिसे सुशोभित सुन्दरी
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आदिनाथ-चरित्र ३६२
प्रथम पर्व के सामने स्त्रीरत्न सुभद्रा दासी सी मालूम पड़ती थी। शीलसे सुन्दर बनी हुई वह बाला, चलती-फिरती कल्पलताकी भांति याचकोंको मुँह माँगो चीजें दे रही थी। मानों हंसनी कमलिनीके ऊपर बैठी हुई हो, इसी प्रकार वह कर्पूरकी रजकी भांति सफेद वस्त्रसे सुशोभित हो, वह एक पालकामें बैठ गई। हाथी, घोड़े, पैदल और रथोंसे पृथ्वीको आच्छादित करते हुए महाराज मरुदेवीके समान सुन्दरीके पीछे-पीछे चले। उसके दोनों ओर चवर ढल रहे थे, माथे पर श्वेत छत्र शोभित हो रहा था और भाटचारण उसके व्रत-सम्बन्धी गाढ़ संश्रयकी स्तुति कर रहे थे। उसकी भाभियाँ उसके दीक्षोत्सवके उपलक्षमें माङ्गलिक गीत गातो तथा उत्तम स्त्रियाँ पग-पग पर उस पर राई-लोन वारती चली जाती थीं। इस प्रकार अनेक पूर्ण पात्रोंके साथ-साथ चलती हई वह प्रभुके चरणोंसे पवित्र बने हुए अष्टापद-पर्वतके ऊपर आई। चन्द्रमाके साथ उदयाचलकी जो शोभा होती है, वैसेही प्रभुसे अधिष्ठित उस पर्वतको देख कर भरत तथा सुन्दरीको बड़ा हर्ष हुआ। स्वर्ग और मोक्षको ले जाने वाली सीढ़ीके समान उस विशाल शिलायुक्त पर्वत पर वे दोनों चढ़े ओर संसारसे भय पाये हुए प्राणियोंके लिये शरण-तुल्य, चार द्वार-युक्त संक्षिप्त किये हुए जम्बूद्वीपके दुर्गकी तरह उस समवशरणमें आ पहुंचे। वे लोग समवशरणके उत्तर द्वारके मार्गसे यथाविधि उसके भीतर आये। इसके बाद हर्ष तथा विनयसे अपने शरीरको उच्छ्वसित तथा संकुचित करते हुए उन्होंने प्रभुकी तीनबार
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प्रथम पर्व
३६३
आदिनाथ चरित्र
प्रदक्षिणा की और पञ्चाङ्गसे भूमिको स्पर्श कर नमस्कार किया । उस समय ऐसा मालूम हुआ मानों वे रतों पर पड़े हुए प्रभुका प्रतिविम्ब देखनेकी इच्छासे ही गिर पड़े हों। इसके बाद चक्रवर्त्तीने भक्ति से पवित्र बनी हुई बाणीके द्वारा प्रथम धर्म-चक्री की (तीर्थङ्कर की इस तरह स्तुति करनी आरम्भ की।
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हे प्रभु! अविद्यमान गुणोंको बतलानेवाले मनुष्य, अन्य जनों की स्तुति कर सकते हैं; पर मैं तो आपके विद्यमान गुणोंको भी कहने में असमर्थ हूँ; फिर मैं कैसे आपकी स्तुति कर सकता हूँ ? तथापि जैसे दरिद्र मनुष्य भी धनवानोंको नज़राना देते हैं, वैसे ही मैं भी, हे जगन्नाथ ! आपकी स्तुति करता हूँ । हे प्रभु ! जैसे चन्द्रमाकी किरणोंको पाकर शेफाली के फूल झड़ जाते हैं, वैसे हो आपके चरणोंके दर्शन करते ही मनुष्योंके पूर्व जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं । हे स्वामी ! जिनकी चिकित्सा नहीं हो सकती, ऐसे महामोहरूपी सन्निपातसे पीड़ित प्राणियों के लिये आपकी वाणी वैसी ही फलप्रद है, जैसी अमृतकी सी रसायन । हे नाथ ! जैसे वर्षाकी बूंदें चक्रवर्त्ती और भिक्षुक पर एक समान पड़ती हैं, वैसे ही आपकी दृष्टि सबकी प्रीतिसम्पत्तिका एकसाँ कारण होती है । हे स्वामी ! क्रूर कर्म-रूपी बर्फ़के टुकड़ोंको गला देने वाले सूर्यकी तरह आप हम जैसोंके बड़े पुण्य से इस पृथ्वी में विहार करते हैं। हे प्रभु! शब्दानुशासन में ( व्याकरण में ) कहे हुए संज्ञा - सूत्रकी तरह आपकी त्रिपदी जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमय है, सदा जयवती है । हे भगवन् ! जो
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आदिनाथ चरित्र
३६४
प्रथम पर्व
आपकी स्तुति करते हैं, वे आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं; फिर जो आपकी सेवा और ध्यान करते हैं, उनका तो कहना ही क्या है ?"
इस प्रकार भगवान्की स्तुति करनेके बाद नमस्कार कर, भरतेश्वर ईशान कोणमें योग्य स्थान पर जा बैठे । तदनन्तर सुन्दरी, भगवान् वृषभध्वजको प्रणाम कर, हाथ जोड़े, गद्गद वचनोंसे बोली, – “हे जगत्पति ! इतने दिनों तक मैं मन-ही-मन आपका ध्यान कर रही थी; पर आज बड़े पुण्योंके प्रभाव से मेरा ऐसा भाग्योदय हुआ, कि मैं आपको प्रत्यक्ष देख रही हूँ । इस मृगतृष्णाके समान झूठे सुखोंसे भरे हुए संसार रूपी मरुदेशमें आप अमृतकी झीलोंके समान हम लोगोंके पुण्यसे ही प्राप्त हुए हैं । हें जगन्नाथ ! आप मर्मरहित हैं, तो भी आप जगत पर वात्सल्य रखते हैं, नहीं तो इस विषम दुःखके समुद्रसे उसका उद्धार क्यों करते हो ? हे प्रभु ! मेरी बहन ब्राह्मी, मेरे भतीजे और उनके पुत्र – ये सब आपके मागेका अनुसरण कर कृतार्थ हो चुके हैं। भरतके आग्रह से ही मैंने आज तक व्रत नहीं ग्रहण किया, इसलिये मैं स्वयं ठगी गयी हूँ । हे विश्वतारक ! अब आप मुझ दीनाको तारिये । सारे घरको प्रकाश करने वाला दीपक क्या घड़ेको प्रकाश नहीं करता ? अवश्य करता है ।
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इसलिये हे विश्व-रक्षा करनेमें प्रीति रखने वाले ! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों और मुझे संसार-समुद्रसे पार उतारने वाली नौकाके समान दीक्षा दीजिये ।
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प्रथम पर्व
३६५ , आदिनाथ-चरित्र सुन्दरीकी यह बात सुन कर प्रभुने “ हे महासत्वे! तू धन्य है, " ऐसा कह सामायिक सूत्रोच्चार-पूर्वक उसे दीक्षा दी। इसके बाद उन्होंने उसे महाव्रत रूपी वृक्षोंके उद्यानमें अमृत की नहरके समान शिक्षा मय देशना सुनाई, जिसे सुनकर वह महामना साध्वी अपने मनमें ऐसा मान कर मानों उसे मोक्ष प्राप्त ही होगया हो, बड़ी बड़ी साध्वियोंके पीछे अन्य ब्रतिनी-गण के बीचमें जा बैठी। प्रभुकी देशना सन, उनके चरण-कमलोंमें प्रणाम कर, महाराज भरतपति हर्षित होते हुए अयोध्या-नगरी में चले आये।
वहाँ आते ही अधिकारियोंने अपने सब सजनोंको देखने की इच्छा रखने वाले महाराजको उन लोगोंको दिखला दिया, जो आये हुए थे और जो लोग नहीं आये थे उनकी याद दिला दी। तब महाराज भरतने उन भाइयोंको बुलानेके लिये अलग-अलग दूत भेजे, जो अभिषेक-उत्सव में नहीं आये हुए थे। दूतोंने उनसे जाकर कहा,-"यदि आप लोग राज्य करनेकी इच्छो करते हैं, तो महाराज भरतकी सेवा कीजिये।” दूतोंकी बात सन, उन लोगोंने विचार कर कहा.-"पिताने भरत और सब भाइयों के बीच राज्यका बँटवारा कर दिया था। फिर यदि हम उसकी सेवा करें तो, वह हमें अधिक क्या दे देगा ? क्या वह सिर पर आयी हुई मृत्युको टाल सकेगा ? क्या वह देहको जजर करने वाली जरा-राक्षसीको दबा सकता है ? क्या वह पीड़ा देने
ॐ तिनी-गण-साध्वियोंका समूह ।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व वाली व्याधि-रूपी व्याधोंको मार सकेगा ? अथवा उत्तरोत्तर बढ़ती हुई तृष्णाको चूर्ण कर सकेगा ? यदि हमारी सेवाके बदलेमें वह इस तरहका कोई फल हमें नहीं दे सकता, तो फिर इस संसारमें, जहाँ सब मनुष्य समान हैं, कौन किसकी सेवा करे ? उनको बहुत बड़ा राज्य मिल गया है, तो भी यदि उन्हें सन्तोष नहीं होता और वे बल पूर्वक हमारा राज्य छीन लेना चाहते हैं, तो हम भी एक ही बापके बेटे हैं; पर चूँकि तुम्हारे खामी हमारे बड़े भाई हैं, इसलिये हम बिना पिताजीको यह सब हाल सुनाये, उनके साथ युद्ध करनेको नहीं तैयार हैं। दूतोंसे ऐसा कह कर, ऋषभदेव जी के वे ६८ पुत्र, अष्टापदपर्वतके ऊपर समवशरण के भीतर विराजने वाले ऋषभ-स्वामीके पास आये। वहाँ पहुँचते ही प्रथम तीन बार उनकी प्रदक्षिणा कर उन्होंने परमेश्वरको प्रणाम किया। इसके बाद हाथ जोड़े हुए वे इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे। ____ “हे प्रभो ! जब देवता भी आपके गुणोंको नहीं जान सकते, तब दूसरा कौन आपकी स्तुति करने में समर्थ हो सकता है ? तो भी अपनी बाल-चपलताके कारण हम लोग आपकी स्तुति करते हैं। जो सदा आपको नमस्कार किया करते हैं, वे तपखियोंसे बढ़ कर हैं और जो तुम्हारी सेवा करते हैं, वे तो योगियोंसे भी अधिक हैं। हे विश्वको प्रकाशित करने वाले सूर्य ! प्रति दिन आपको नमस्कार करने वाले जिन पुरुषोंके मस्तक पर आपके चरण-नखकी किरणें आभूषण-रूप होकर
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
चमकती हैं, वे धन्य हैं। हे जगत्पति ! आप किसीसे कुछ भी साम या बलके द्वारा ग्रहण नहीं करते, तो भी आप त्रैलोक्य चक्रवती हैं। हे स्वामिन् ! सारे जलाशयके जलमें रहने वाले चन्द्रबिम्बकी तरह आप एक समान सारे जगत्के लोगोंके चित्तमें निवास करते हैं। हे देव ! आपकी स्तुति करने वाला पुरुष सबको स्तुति करने योग्य हो जाता है, आपकी पूजा करने वाला सबसे पूजा पाने योग्य हो जाता है, आपको नमस्कार करने वाला सबके द्वाग नमस्कृत होने योग्य हो जाता है, इसीलिये आपकी भक्ति उत्तम फलोंको देने वाली कही जाती है। दुःखरूपी दावानलसे जलते हुए जनोंके लिये आप मेघके समान
और मोह-रूपी अन्धकारमें मूर्ख बने हुए लोगोंके लिये दीपकस्वरूप हैं। पथके छायायुक्त वृक्षकी भांति आप राजा, रङ्क, मूर्ख और गुणवान् सबके लिये समान उपकारी हैं।" इस प्रकार स्तुति कर वे सबके सब प्रभुके चरणकमलोंमें अपनी दृष्टिको भ्रमर बनाये हुए एक मत होकर बोले,-"ह स्वामिन् ! आपने हमें और भरतको योग्यताके अनुसार अलग-अलग देश के राज्य बाँट दिये हैं। हम तो आपके दिये हुए राज्यको लेकर संतुष्ट हैं ; क्योंकि स्वामीको निश्चित की हुई मर्यादाको विनयी मनुष्य नहीं भङ्ग करते ; पर हे भगवन् ! हमारे बड़े भाई भरत अपने और दूसरोंके छीने हुये राज्योंको पाकर भी अब तक वैसे ही असंतुष्ट हैं, जैसे जलको पाकर भी बड़वाग्निको सन्तोष नहीं होता। उन्होंने जैसे औरोंके राज्य छोन लिये हैं,
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आदिनाथ चरित्र
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वैसेही हमारे राज्य भी हड़प कर लेना चाहते हैं। उन्होंने औरऔर राजाओं की तरह हमारे पास दूत भेज कर यह कहला भेजा है, कि या तो तुम अपने राज्य छोड़ दो अथवा मेरी सेवा करो | हे प्रभु ! हम लोग अपने बड़े भाई भरत की इस बातको सुनते ही क्यों अपने पिताका दिया हुआ राज्य नामर्दोंकी तरह छोड़ दें ? हम अधिक धन-दौलत भी तो नहीं चाहते, फिर हम उनकी सेवा क्यों करें ? जब हम राज्य भी नहीं छोड़ते और सेवा करने को भी तैयार नहीं होते, तब युद्ध होना एक प्रकारसे निश्चित साही है। 1 तो भी आपसे पूछे बिना हम लोग कुछ भी नहीं कर सकते ।”
प्रथम पव
पुत्रोंकी यह प्रार्थना सुन जिनके निर्मल केवल ज्ञान में सारा जगत साफ़ दीख रहा है, ऐसे कृपालु भगवान् आदीश्वर ने उन्हें इस प्रकार आज्ञा दी, – “पुत्रो ! पुरुष व्रत धारी बीर पुरुषों को चाहिये, कि अत्यन्त द्रोह करने करने वाले वैरियोंके ही साथ युद्ध करें। राग, द्वेष, मोह और कषाय- ये जीवों के सैकड़ों जन्मों तक दुःख देने वाले शत्रु हैं 1 राग, सद्गतिकी राहमें ले जाने वालोंके लिये लोहेकी जंजीर की तरह बन्धनका काम देता है । द्वेष, नरकमें पहुँचाने वाला बड़ा भारी ज़बरदस्त गवाह है । मोहने तो मानो इस बातका ठेका ही ले रखा है, कि मैं लोगोंको संसारके भँवर - जालमें घुमाया करूँगा और कषाय ? यह तो मानों अग्निके समान अपने ही आश्रितजनों को जला कर ख़ाक कर देता है । इसलिये अविनाशी उपाय
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
रूपी अत्रोंसे निरन्तर युद्ध करते हुए पुरुषों को चाहिये, कि इन बेरियोंको जीते और सत्य शरण भूत धर्मकी सेवा करें, जिससे शाश्वत आनन्दमय पदकी प्राप्ति सुलभ हो । यह राज- लक्ष्मी अनेक योनियोंमें भ्रमण करने वाली, अतिशय पीड़ा देनेवाली, अभिमान रूपी फल देने वाली और नाशवान है I इसलिये हे पुत्रों ! पूर्व में स्वर्गके सुखोंसे भी जब तुम्हारी तृष्णा न मिटी, तब कोयला करने वालेके समान मनुष्य सम्बन्धी भोगों से वह कैसे मिटेगी ? कोयला करने वालेका सम्बन्ध इस प्रकार है
"कोई कोयला करने वाला पुरुष पानीसे भरी हुई मशक लिये हुए एक निर्जल अरण्य में कोयला करनेके लिये गया । वहाँ मध्याह्न और अँगारेको गरमी से उसे ऐसी तृषा उत्पन्न हुई, कि वह अपने साथ लायी हुई मशकका सारा पानी पी गया, तो भी उसकी प्यास नहीं मिटी । इतनेमें उसे नींद आगयी । स्वप्नमें ही वह मानों अपने घर पहुँच गया और घर के अन्दर जितने घड़े, आदि पात्र जल से भरे रखे थे । उन सबको सफाचट कर गया, तथापि जैसे तेल पीकर अग्नि तृप्त नहीं होती, वैसे ही उसकी भी तृषा नहीं दूर हुई। तब उसने बावली कुएँ और सरोवरका जल सोख लिया । इसी तरह नदियों और समुद्रों का जल भी उसने सोख लिया, पर उसकी नारकी जीवोंकी सी तृषा-वेदना नहीं दूर हुई । इसके बाद उसने मरुदेशमें ( मारवाड़ में ) जाकर रस्सीके सहारे दभेका दोना बना कर जलके निमित्त कुएँ में डाला - क्योंकि आर्त्त मनुष्य क्या नहीं करता ? कुऍमें जल बहुत नीचे था; इसलिये
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व वह दोना ऊपर आते-न-आते उसका सारा जल बह गया। तो भी जैसे भिक्षुक तेलसे भीगे हुए कपड़ेको निचोड़ कर जाता है, वैसे ही वह दोनेको निचोड़ कर पीने लगा। परन्तु जो तृषा समुद्रका जल पो कर भी नहीं मिटी, वह दोनेके निचोड़े हुए जल से कैसे मिट सकती थी ?" इसी तरह तुम्हारी स्वर्गके सुखोंसे भी नहीं मिटने वालो तृष्णा राजलक्ष्मीसे ही क्योंकर मिट सकती है ? इसलिये पुत्रों ! तुम जैसे विकी मनुष्योंको चाहिथे, कि अमन्द आनन्दके झरनेके समान और मोक्ष प्राप्तिके कारण-स्वरूप संयमके राज्यको ग्रहण करो।"
स्वामीकी यह बात सुन उनके उन ६८ पुत्रोंको तत्काल वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने उसो समय भगवान्से दीक्षा ले ली। “अहा ! इनका धैर्य, सत्त्व और वैराग्य बुद्धि भी कैसी अपूर्व है ।” ऐसा विचार करते हुए वे दूत लौट गये और उन्होंने चक्रवर्तीसे यह सब हाल कह कर सुनाया। इसके बाद जैसे तारापति चन्द्रमा सब ताराओंकी ज्योतिको स्वीकार कर लेता है, सूर्य जैसे सब अग्नियोंके तेजको स्वीकार करता है और समुद्र सारी नदियोंके जलको स्वीकार कर लेता है, वैसे ही चक्रवर्तीने उन सबके राज्योंको स्वीकार कर लिया।
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पञ्चम सर्ग
एक दिन भरतेश्वर सुखसे सभामें बेठे हुए थे। इसी समय सुषेण सेनापतिने उन्हें नमस्कार कर कहा, “हे महाराज! आपने दिग्विजय किया, तो भी जैसे मतवाला हाथी आलान-स्तम्भ के पास नहीं आता, वैसे ही आपका चक्र अभीतक नगरीमें प्रवेश नहीं करता।"
भरतेश्वरने कहा,-"सेनापति ! क्या इस छः खण्डोंवाले भरतक्षेत्रमें आज भी ऐसा कोई वीर है, जो मेरी आमाको नहीं मानता ?"
तब मन्त्रीने कहा,-“हे स्वामिन् ! मैं जानता हूँ, कि महाराज ने क्षुद्र हिमालय तक सारा भरत-क्षेत्र जीत लिया है। जब आप दिग्विजय कर आये, तब आपके जीतने योग्य कौन बाकी रह गया? क्योंकि चलती हुई चक्कीमें पड़े हुए चनोंमें से एक भी दाना विना पिसे नहीं रहता। तथापि आपका चक्र जो नगरीमें प्रवेश नहीं कर रहा है, उससे यही सूचित होता है, कि अबतक कोई ऐसा उन्मत्त पुरुष जरूर बाकी रह गया है, जो आपकी आक्षाको नहीं मानता और आपके जीतने योग्य है। हे प्रभु! मुझे तो देवताओंमें भी ऐसा कोई नहीं दिखलाता, जो दुर्जेय हो और जिसे आप हरा न सके। परन्तु नहीं-अब मुझे याद आयी।
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व
इस जगत् में एक दुर्जेय पुरुष आपके जीतने योग्य बाकी रह गया है। वह है, ऋषभस्वामीका पुत्र और आपका छोटा भाई बाहुबली । वह महाबलवान है और बड़े-बड़े बलवानोंका बल तोड़ देनेवाला है । जैसे एक ओर सारे अस्त्र और दूसरी ओर अकेला वज्र बराबर होता है, वैसेही एक ओर समस्त राजागण और दूसरी तरफ़ बाहुबली बराबर है । जैसे आप श्रीऋषभदेवके लोकोत्तर पुत्र हैं, वैसा ही वह भी है। यदि आपने उसे नहीं जीता, तो समझ लीजिये, कि किसीको नहीं जीता, यद्यपि इस समय इस भरतखण्ड में आपके समान कोई पुरुष नहीं दिखलाई देता, तथापि उसे जीत लेनेसे आपका बड़ा उत्कर्ष होगा । वह बाहुबली आपकी जगत् भरसे मानी जाने वाली आज्ञाओंको नहीं मानता, इसी लिये यह चक्र उसके पराजित होने के पहले शर्म के मारे नगर में जाना नहीं चाहता । रोगकी तरह अन्य शत्रु की भी उपेक्षा करनी उचित नहीं, इस लिये आप बिना विलम्ब उसे जीत लेनेका यत्न कीजिये ।”
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मन्त्रीके ऐसे वचन सुन, दावानल और मेघों की वृष्टिमें पर्वत की तरह एकही समय कोप और शान्तिसे युक्त होकर भरतेश्वर ने कहा,--“एक ओर तो यह बात बड़ी लज्जाकी मालूम पड़ती है, कि अपना छोटा भाई मेरी आज्ञा नहीं मानता और दूसरी ओर छोटे भाई के साथ लड़नेको मेरा जी नहीं चाहता । जिसका हुक्म अपने घर वाले ही नहीं मानते उसकी आज्ञा बाहर भी उपहासजनक ही होती है। उसी प्रकार मेरे छोटे भाईको इस
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प्रथम पर्व
४०३ आदिनाथ-चरित्रं अविनयकी असह्यता भी मेरे लिये अपवाद-रूप है। अभिमानसे भरे हुए लोगोंका शासन करना राजधर्म अवश्य है : पर भाइयों में परस्पर मेल-जोल रहना चाहिये, यह भी तो व्यवहारकी बात है ? इस लिये मैं तो इस मामलेमें बड़ी दुविधामें पड़ गया।" .
मन्त्रीने कहा,-"महाराज! आपका यह सङ्कट आपके महत्त्व को देखकर आपका छोटा भाई ही दूर कर सकेगा। सामान्य गृहस्थोंमें भी यह चाल है, कि बड़ा भाई जो आज्ञा देता है, उसे छोटा भाई मान लेता है। अतएव आप भी अपने छोटे भाईके पास लोक रीतिके अनुसार दूत भेजकर उन्हें आज्ञा दें। महाराज! जैसे केशरी (सिंह) अपने कन्धेपर खोगीर नहीं सहन कर सकता, वैसे ही यदि आपका वह छोटा भाई, जो अपनेको बड़ा वीर समझता है, आपको जगन्मान्य आज्ञाको नहीं माने, तो आपको भी उसे उचित शिक्षा देनी ही पड़ेगी ; क्योंकि आपमें इन्द्रका सा पराक्रम भरा हुआ है। ऐसा करनेसे न तो लोकाचारका ही उल्लंघन होगा, न आपकी लोकमें बदनामी होगी।" .. ___ महाराजने मन्त्रीका यह वचन स्वीकार कर लिया ; क्योंकि शास्त्र और लोकव्यवहारके अनुसार कही हुई बातें मानही लेनी चाहिये। इसके बाद उन्होंने नीतिज्ञ, गुढ़ और वाक्चतुर दूत सुवेगको सिखा-पढ़ाकर बाहुबलीके पास भेजा। अपने स्वामी को वह उत्तम शिक्षा, दीक्षाकी भांति अङ्गीकार कर वह दूत रथ पर आरूढ़ हो, तक्षशिलाकी ओर चल पड़ा।
सब सैन्योंको साथ लिये हुए; अत्यन्त वेगयुक्त रथमें बठा
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पव
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हुआ वह दूत जब विनीता नगरीके बाहर निकल आया, तब ऐसा मालूम पड़ने लगा, मानों वह भरतपतिकी शरीरधारिणी आज्ञा ही हो। मार्गमें जाते-जाते उसका बायाँ नेत्र फड़कने लगा, मानों कार्यके आरम्भमें ही उसे बार-बार देवकी वामगति दिखाई देने लगी। अग्नि-मण्डलके मध्यमें नाड़ीको धौंकनेवाले पुरुषकी तरह उसकी दक्षिण नाड़ी बिना रोगके ही बारम्बार चलने लगी। तोतली बोली बोलनेवालोंकी जीभ जिस प्रकार असंयुक्त वर्णों का उच्चारण करनेमें भी लड़खड़ाने लगती है, उसी प्रकार उसका रथ बरावर रास्तेमें भी बार-बार फिसलने लगा। उसके घुड़सवारोंने आगे बढ़कर रोका, तो भी मानों किसीने उलटी प्रेरणा कर दी हो, उसी प्रकार कृष्णसार मृग उसकी दाहिनी ओरसे बायीं ओर चला आया। सूखे हुए काँटेदार वृक्षपर बैठा हुआ कौआ अपनी चोंचरूपी हथियारको पाषाण पर घिसता हुआ कटुस्वरमें बोलने लगा। उसकी यात्रा रोक देनेकी इच्छासे ही देवने मानों अडङ्गा लगा दिया हो, ऐसा एक काला नाग लम्बा पड़ा हुआ उसके आड़े आया। पीछेकी बातका विचार करने में पण्डित, उस सुवेगको मानों पीछे लौट जानेकी सलाह देनेके ही लिये, हवा उलटी बहने और उसकी आँखोंमें धूल डालने लगी। जिसके ऊपर आटा लगा हुआ नहीं है अथवा जो फूट गया हो, ऐसे मृदङ्गकी तरह बेसुरा शब्द करनेवाला गधा उसकी दाहिनी ओर आकर शब्द करने लगा। इन अपशकुनोंको सुवेग भली भांति जानता-समभाता था, तो भी वह आगे चलता ही गया।
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प्रथम पर्व
४०५
आदिनाथ-चरित्र कारण, नमकहलाल नौकर स्वामीके कार्यमें बाणकी तरह कभी स्खलनको प्राप्त नहीं होते, बहुतेरे गाँवों, नगरों, खानों और कसबोंको पार करता हुआ वह वहाँके लोगोंको क्षणभरके लिये बवंडरसा ही मालूम पड़ता था। स्वामीके कार्यमें दण्डको तरह डटे हुए उसने वृक्ष-समूह, सरोवर और सिन्धु-तट आदि स्थानोंमें भी विश्राम नहीं किया। इस प्रकार यात्रा करता हुआ वह एक ऐसे भयानक जङ्गल में पहुँचा, जो मृत्युकी एकान्त रतिभूमि मालूम पड़ती थी। वह जङ्गल धनुष बनाकर हाथियोंका शिकार करने वाले और चमरी-मृगोंको खालके बख़्तर पहननेवाले राक्षसोंके समान भीलोंसे भरा हुआ था। वह वन यमराजके नाते-गोतों के समान चमरी-मृगों, चीतों, बाघों, सिंहों और सरभों आदि क्रूर प्राणियोंसे भरा हुआ था। परस्पर वैर रखनेवाले साँ और नेवलोंके बिलोंसे वह जंगल बड़ा भयङ्कर लगता था। भालुओंके केश धारण करनेके लिये व्यग्र बनी हुई नन्हीं नन्हीं भीलनियाँ उस वनमें घूमती-फिरती रहती थीं। परस्पर युद्ध कर जंगली भैंसे वनके जीर्ण वृक्षोंको ताड़ा करते थे ; शहद निकालनेवालोंके द्वारा उड़ायी हुई मधुमक्खियोंके मारे उस जंगलमें चलना फिरना मुश्किल था। इसी प्रकार आसमान चूमनेवाले ऊँचे ऊँचे वृक्षोंके मारे वहाँ सूर्य भी नहीं दिखलाई देते थे। जैसे पुण्यवान् मनुष्य विपत्तियोंको पार कर जाता है, वैसेही खूब तेज़ रथमें बैठा हुआ सुवेग भी उस भयङ्कर जंगलको बड़ी आसानीसे पार कर गया। वहाँसे वह बहली-देशमें आ पहुँचा।
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पचं __ उस देशमें रास्तेके किनारे वाले वृक्षोंके नीचे अलङ्कार पहने हुई बटोहियोंको स्त्रियाँ निर्भय हो कर बैठी रहती थीं, जिससे वहाँ के सुराज्यका पता चलता था। प्रत्येक गोकुलमें वृक्षोंके नीचे बैठे हुए गोपालोंके पुत्र हर्षित-चित्तसे ऋषभदेवके चरित्र गाया करते थे। उस देशके सभी गाँव, ऐसे बहुतसे फलवाले और घने वृक्षोंसे अलंकृत थे, जो ठीक भद्रशाल-वनमें से लाकर लगाये हुएसे मालूम पड़ते थे। वहाँ गाँव-गाँव और घर-घरके गृहस्थ, जो दान देने में दीक्षित थे, याचकोंको खोजमें फिरते थे। कितने ही गाँवोंमें ऐले विशेष समृद्धिशाली यवन गण निवास करते थे, जो राजा भरतके भाससे उत्तर-भारतसे आये हुए मालूम पड़ते थे। भरतक्षेत्रके छः खण्डोंसे मानो यह एक निराला हो खण्ड था, इस तरह वहाँके लोग राजा भरतके हुक्म-हाकिम से अनजान थे। इस प्रकार उस बहेलो देशमें जाता हुआ सुवेग, वहाँके सुखो प्रजा-जनोंसे, जो बाहुबली राजाके सिवा और किसी को जानते हो नहीं थे, बारम्बार बाते किया करता था। उसने देखा, कि जंगलों तथा पर्वतोंमें घूमने-फिरनेवाले मदमत्त शिकारी भी बाहुबलीकी आज्ञासे मानो लँगड़े हो गये हैं। प्रजा-जनोंके अनुराग-पूर्ण वचनों और उनकी बढ़ो-चढ़ी हुई समृद्धि देखकर वह बाहुबलकी नीतिको अद्वैत मानने लगा। इस प्रकार राजा भरतके छोटे भाईका उत्कर्ष सुन-सुनकर विस्मित होता हुआ सुवेग अपने स्वामीके दिये हुए संदेसेको बार-बार याद करता हुआ तक्षशिला नगरीके पास आ पहुँचा। नगरीके बाहरी हिस्से
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
में रहनेवाले लोगोंने एक बार आँख उठाकर सहज रीतिसे उसकी ओर मामूली पथिककी दृष्टिसे देखा, क्रीड़ा-उद्यानमें धनुविद्याकी क्रीड़ा करनेवाले वीरोंके भुजास्फोटसे उसका घोड़ा डर गया और नगर निवासियोंको समृद्धि देखनेमें लगे हुए सारथीका ध्यान पूरी तरह अपने काममें नहीं होनेके कारण उसका रथ कुराह जा कर स्खलनको प्राप्त हुआ। बाहर के उद्यानवृक्षोंके पास उसने उत्तमोत्तम हाथी बँधे देखे, मानों सब द्वीपों के चक्रवर्ती राजाओ के गज-रत्न वहीं लाकर रख दिये हों । - मानों ज्योतिष्क देवताओंके विमान छोड़ कर आये हों, ऐसे उत्तम अभ्वोंसे बड़ी-बड़ी अश्वशालाएँ उसे भरी हुई दिखाई दीं। भारत के छोटे भाईके ऐश्वर्यको आश्चर्यके साथ देखते-देखते उसके सिर में मानों पीड़ा हो गयी : इसी लिये वह बार-बार सिर धुनता हुआ तक्षशिला नगरीमें प्रविष्ट हुआ । अहमिन्द्र के समान स्वच्छन्द वृत्तिवाले और अपनी-अपनी दूकान पर बैठे हुए धनाढ्य वणिकों को देखते हुए वह राजद्वार पर आ पहुँचा। मानों सूर्यके तेजको लेकर ही बनाये गये हों, ऐसे चमचमाते हुए भालोंको - हाथ में लिये हुए पैदल सिपाहियोंकी सेना उस राजद्वारके पास खड़ी थी । कहीं-कहीं ईखके पत्तेकी तरह नुकीले अग्रभागवाली बर्लियाँ लिये हुए पहरेदार ऐसे शोभित हो रहे थे, मानों शौर्यरूपी वृक्ष ही पल्लवित हुए हों। कहीं एक दाँतवाले हाथीकी तरह - पाषाण भङ्ग करने पर भी भङ्ग न होनेवाले लोहेके मुद्गर धारण किये हुए वीर खड़े थे । मानों चन्द्रके चिह्नले युक्त ध्वजा धारण
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ऑदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व कर रखी हो, ऐसी ढाल-तलवारसे सजे हुए प्रचण्ड शक्तिशाली वीर पुरुषों के समूहसे राजद्वार शोभित हो रहा था। कहीं दूरही से नक्षत्रों तक बाण मारनेवाले और शब्दबंध करनेवाले वीर पुरुष, बाणोंका तरकस पीठपर रख, हाथमें कालपृष्ठ धनुष लिये खड़े थे। राजद्वारके दोनों ओर द्वारपालकी तरह दो हाथी अपने लम्बी सूंड लिये खड़े थे, जिससे वह राजद्वार बड़ा भया. वना दीख रहा था। उस नरसिंहका ऐसा भड़कीला सिंहद्वार (प्रवेश-द्वार ) देख, सुवेगका मन विस्मयसे भर गया। राजद्वार के पास आकर वह भीतर जानेकी आज्ञा पानेके लिये ठहर गया ; क्योंकि राजद्वारकी यही मर्यादा थी। उसकी बात सुन, द्वारपालने भीतर जाकर राजा बाहुबलीसे निवेदन किया, कि आपके बड़े भाईका सुवेग नामका एक दूत आकर बाहर खड़ा है। राजा के उसे बुला लानेकी आज्ञा देने पर द्वारपाल उस बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सुवेगको उसी प्रकार सभामें ले गया, जिस प्रकार सूर्यमण्डलमें बुध प्रवेश करता है। ___वहां पहुंच कर पहलेसे ही आश्चर्यमें पड़े हुए सुवेगने रत्न जड़े सिंहासन पर बैठे हुए बाहुबलीको तेजके मूर्तिमान देवताकी भाँति विराजित देखा। आकाशके सूर्यकी तरह रत्नमय मुकुट धारण करनेवाले बड़े-बड़े तेजस्वी राजा उनकी उपासना कर रहे थे। अपने स्वामीकी विश्वासरूपी सर्वख वल्लीकी सन्तान, मण्डप- रूप, बुद्धिमान और परीक्षामें सचे उतरे हुए मंत्रियोंके समूहसे वे घिरे हुए थे। प्रदीप्त मुकुटमणियोंवाले और संसार
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र जिनके प्रतापको नहीं सहन कर सकता था, ऐसे नागकुमारोंके से राजकुमार उनके आस-पास बैठे हुए थे। बाहर निकली हुई जिहावाले सॉकी भांति खुले हुए हथियारोंको हाथमें लिये हुए हज़ारों आत्मरक्षकोंसे घिरे हुए थे। मलयाचलकी तरह भयङ्कर मालूम होते थे। जैसे चमरीमृग हिमालय पर्वतको चैवर डुलाते हैं, वैसेही सुन्दर-सुन्दर वाराङ्गनाएँ उन पर चैवर डुलाती थीं। बिजली सहित शरद् ऋतुके मेघकी तरह पवित्र वेश और छड़ी धारण करनेवाले छड़ीदारोंसे वे सुशोभित थे। सुवेगने भीतर प्रवेश कर, शब्दायमान, स्वर्ण-श्रृंखला-युक्त हाथीकी तरह ललाट को पृथ्वीमें टेक कर बाहुबलीको प्रणाम किया। तत्काल महाराजने कनखियोंसे इशारा किया और प्रतिहारी झटपट उसके लिये एक आसन ले आया, जिस पर वह बैठ गया। तदनन्तर प्रसादरूपी अमृतसे धुनी हुई उज्ज्वल दृष्टि से सुवेगकी ओर देखते हुए राजा बाहुबली ने कहा,-"सुवेग! कहो, भैया भरत सकुशल तो हैं। पिताजीको लालित-पालित विनीताकी सारी प्रजासानन्द है न ? कामादिक छः शत्रुओंकी तरह भरतक्षेत्रके छओं खंडों को महाराजने निर्विघ्न जीत लिया है न ? साठ हज़ार वर्ष तक विकट युद्ध करने के बाद सेनापति आदि सब लोग सकुशल लौट आथे हैं न ? सिन्दूरसे लाल रंगमें रंगे हुए कुम्भस्थलोंवाले, आकाशको सन्ध्याकालके मेघोंकी तरह रञ्जित करनेवाले हाथियोंकी श्रेणी ज्यों की त्यों है न ? हिमालय तक पृथ्वीको आक्रान्त कर लौटे हुए महाराजके उत्तम अश्व ग्लानि-रहित हैं न? अखण्ड
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आदिनाथ-चरित्र ४१०
प्रथम पवे आज्ञावाले सब राजाओ से सेवित आर्य भरतके दिन सुखसे व्यतीत होते हैं न ?”
इस प्रकार प्रश्न कर ऋषभात्मज बाहुबली चुप हो रहे। तब आवेग-रहित होकर हाथ जोड़े हुए सुवेगने कहा,-"सारी पृथ्वीकी कुशल करनेवाले भरतराजकी अपनी कुशल तो स्वतः सिद्ध ही है। भला जिनकी रक्षा करनेवाले आपके बड़े भाई हों, उन नगर, सेनापति, हस्ती और अश्वों की बुराई करनेको तो दैव भी समर्थ नहीं है। भला भरतराजासे बढ़कर या उनके मुकाबलेका, ऐसा दूसरा कौन है, जो उनके छओं खण्डों पर विजय प्राप्त करनेमें विघ्न डालता ? सब राजा लोग उनकी आज्ञाको मानते हुए उनकी सेवा करते हैं तथापि महाराज भरतपति किसी तरह अपने मनमें हर्षका अनुभव नहीं करते ; क्योंकि कोई दरिद्र भले ही हो ; पर यदि उसके अपने कुटुम्बके लोग उसकी सेवा करते हों, तो वह निश्चय ही ऐश्वर्यवान् है। और यदि भारी ऐश्वर्यशाली ही हो ; किन्तु उसके कुटुम्बी उसकी सेवा न करते हों, तो उसे उस ऐश्वर्यसे सुख थोड़े ही होता है ? साठ हज़ार वर्षों के अन्तमें आये हुए आपके बड़े भाई अपने सब छोटे भाइयोंके आनेकी राह बड़ी उत्कण्ठाके साथ देख रहे थे। सब सम्बन्धी और मित्रादिक वहाँ आये और उन्होंने महाराजका अभिषेक किया। उस समय सब देवताओंके साथ इन्द्र भी आये हुए थे, तथापि अपने छोटे भाइयोंको न देख कर महाराजको हर्ष नहीं हुआ। बारह वर्ष तक महाराजका अभिषेक चलता रहा। इस
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प्रथम पर्व
४११ आदिनाथ-चरित्र बीच कोई भाई वहाँ न आया, यह सुन कर उन्होंने अपने भाइयों को बुलानेके लिये दूत भेजे ; क्योंकि उत्कण्ठा बड़ी बलवान् होती है। वे लोग बहुत कुछ सोच-विचार कर भरतराजके पास नहीं आये और पिताके पास चले गये। वहाँ उन्होंने व्रत ग्रहण कर लिया। अब वे वैरागी हो गये, इस लिये संसारमें उनका कोई अपना-पराया नहीं रहा। अतएव उनसे महाराजके भ्रातृवात्सल्यकी साध नहीं मिट सकती। ऐसी दशामें यदि आपके मनमें उनके ऊपर बन्धु-स्नेह हो, तो कृपाकर वहाँ चलिये और महाराजको हर्षित कीजिये। आपके बड़े भाई बहुत दिनों बाद दिग्दिगन्तमें घूमते हए घर लौटे हैं, तो भी आप चुपचाप यहाँ पड़े हुए हैं, इससे तो मुझे यही मालूम होता है, कि आपका हृदय वज्रसे भी कठोर है और आप निर्भयसे भी बढ़कर निर्भय हैं ; क्यों कि बड़े-बडे शूर-वीर भी अपने बड़ोंका अदब करते हैं और आप अपने बड़े भाई की अवज्ञा करते हैं। विश्वकी विजय करनेवाले और गुरु की विनय करनेवाले मनुष्योंमें कौन प्रशंसाके योग्य हैं, इसका विचार करनेकी सभासदोंको ज़रूरत नहीं है ; क्योंकि गुरूजनोंकी विनय करने वालोंकी ही प्रशंसा करनी उचित है। आपकी इस अधिनीतताको सब कुछ सहनेमें समर्थ महाराज भी सहन कर रहे हैं सही; पर इससे चुगलखोरोंको उनके कान भरनेका पूरा मौका मिलेगा। सम्भव है, आपकी अभक्तिकी बातको नोन-मिर्च लगाकर कहनेवाले इन चुगलखोरोंकी वाणीरूपी , दहीके छींटे पड़नेसे क्रमशः महाराजका दूधसा
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आदिनाथ-चरित्र ४१२ . प्रथम पर्व हृदय भी फट जाये। स्वामोके सम्बन्धमें यदि अपना अल्प छिद्र भी हो, तो उसे ढकना चाहिये, क्योंकि छोटेसे छिद्रके ही सहारे पानी सारे सेतुका नाश कर देता है। यदि अबतक मैं न गया, तो आज क्यों जाऊँ ? ऐसी शङ्का आप न करें और अभी वहाँ चलें; क्योंकि उत्तम गुणवाले स्वामी भूलों पर ध्यान नहीं देते। जैसे आकाशमें सूर्यके उदय होने पर कोहरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही आपके वहाँ जानेसे चुगलखोरोंके मनोरथ नष्ट हो जायेंगे। जैसे पूर्णिमाके दिन सूर्य के साथ चन्द्रमाका संगम होजाता है। वैसेही स्वामीके साथ आपका सङ्गम होतेही आपके तेजकी वृद्धि हो जायेगी। स्वमीके समान आचरण करनेवाले बहुतसे बलवान पुरुष अपना स्वामित्व छोड़कर महाराजकी सेवा कर रहे हैं। जैसे सब देवताओं के द्वारा इन्द्र सेवा करने योग्य है, वैसेही निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ चक्रवर्ती सब राजाओं द्वारा सेवन करने योग्य हैं। यदि आप केवल उन्हें चक्रवर्ती जान कर ही उनकी सेवा करेंगे, तो भी उससे आपके अद्वितीय भातृप्रेमका प्रकाश होगा। कदाचित् आप उनको अपना भाई समझ कर वहाँ नहीं जायेंगे, तो भी यह उचित नहीं होगा, क्योंकि आज्ञा को श्रेष्ठ समझनेवाले राजा ज्ञातिभाव करके भी निग्रह करते हैं। लोहचुम्बकसे खिंचकर चले आने वाले लोहेकी तरह महाराज भरतपतिके उत्कृष्ट तेजकै प्रभावसे आकर्षित होकर सभी देव, दानव और मनुष्य उनके पास चले आते हैं। इन्द्रने भी महाराज भरतको अपना आधा आसन देकर मित्र बना लिया है, फिर आप
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प्रथम पर्व
४१३ . आदिनाथ-चरित्र केवल वहाँ जाकर ही उनको क्यों नहीं अपने अनुकूल बना लेते ? यदि आप अपनेको वीर मानते हुए महाराजका अपमान करेंगे, तो ठीक समझ लीजिये, आप उनके पराक्रमरूपी समुद्रमें सत्तूकी पिण्डीकी तरह हो जायेंगे। चलते-फिरते पर्वतोंकी तरह उनके चौरासी लाख ऐरावत-समान हाथी, जिस समय सामने आयेंगे उस समय कौन ऐसा हैं, जो उनके आक्रमणको सहन कर सके ? क्या कोई ऐसा माईका लाल है, जो कल्पान्त समुद्र के कल्लोलकी तरह सारी पृथ्वीको प्लावित करनेवाले उनके अश्वों और रथोंको रोक सके ? छियानवे करोड़ ग्रामोंके अधिपति महाराजके छियानवे करोड़ प्यादे सिंहके समान किसको त्रास नहीं देते ? उनका एक सुषेण नामक सेनापति ही हाथमें दण्ड लिये चला आता हो. तो उस यमराजके समान सेनापतिका प्रताप देव, और असुर भी नहीं सहन कर सकते जैसे सूर्य अन्धकारको दूर करता है, वैसेही शत्रुओंको दूर भगा देनेवाले चक्रको धारण करनेवाले भरत चक्रवर्तीके सामने तीनों लोक कोई चीज़ नहीं है। इस लिये हे बाहुबली! यदि आप राज्य और जीवनकी रक्षा चाहते हैं, तो उन महाराजकी सेवा करनी आपके लिये उचित है।"
सवेगकी ये बातें सन, अपने बाहुबलसे जगत्को नाश करनेवाले बाहुबलीने दूसरे समुद्रकी तरह गम्भीर खरसे कहा,“हे दूत ! तू बड़ा ही होशियार है। तेरी ज़बान भी खूब तेज़ है, तभी तो तू मेरे मुँह पर ही इतनी बातें बक गया। बड़े भाई होनेके कारण राजा भरत मेरे पिताके समान है। यह उनका
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आदिनाथ-चरित्र . ४१४
प्रथम पर्व बड़प्पन है, कि वे अपने भाईसे मिलना चाहते हैं : परन्तु सुर, असुर और अन्य राजाओंकी लक्ष्मो पाकर ऋद्धिशाली बने हुए वे अल्प वैभवशाली राजा मेरे जानेसे लजित होंगे, यही सोचकर मैं अब तक वहाँ नहीं गया। साठ हज़ार वर्ष तक पराये राज्यों का हरण करने में लगे हुए उनका अपने छोटे भाइयोंका राज्य हड़प जानेके लिये ब्यग्र होना अकारण नहीं है। यदि वे अपने भाइयों पर प्रेम रखते, तो उनके पास राज्य अथवा संग्रामकी इच्छासे दूत किस लिये भेजते ? ऐसे लोभी, पर साथ ही बड़े भाईके साथ कौन युद्ध करे ? यही सोच कर मेरे परम उदारहृदय भाइयोंने पिताका अनुसरण किया। उनका राज्य हड़प कर जानेका बहाना ढूंढ़ने वाले तुम्हारे स्वामीकी सारी कलई इस बातसे खुल गयी। इसी तरह मुझे भी झूठा स्नेह दिखला कर फँसानेके लिये उन्होंने तुमसे चतुर वक्ताको मेरे पास भेजा है। मेरे अन्य भाइयोंने जिस प्रकार दीक्षा ले, उन्हें अपना राज्य देकर हर्षित किया है, वैसा ही हर्ष मैं भी उन राज्यके लोभीको वहाँ पहुँच कर दूं ? ऐसा तो नहीं हो सकता। क्योंकि मैं वज्रसे भी कठोर हूँ; परन्तु अल्प वैभव वाला होकर भी मैं भाईके तिरस्कारके भयसे उनकी वृद्धि में हिस्सा बँटाने नहीं जाता। वह फूलसे कोमल हैं, पर मायावी हैं ; क्योंकि उन्होंने भाई-भाई के झगड़ेसे डरने वाले अपने छोटे भाइयोंका राज्य आप हड़प लिया। है दूत ! मैं भाइयोंका राज्य हड़प कर जाने वाले भरतकी उपेक्षा करता हूँ, इस लिये सचमुच मैं निर्भयसे भी
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प्रथम पर्व
४१५
आदिनाथ-चरित्र निर्भय हूँ। गुरुजनमें विनय-भक्ति रखना प्रशंसनीय है, इसमें । सन्देह नहीं ; पर वह गुरु भी दरअसल गुरु ( श्रेष्ठगुणयुक्त). हो; पर गुरुके गुणोंसे रहित गुरुजनमें विनय-भक्ति रखना उलटा लजा-जनक है। गर्वयुक्त, कार्याकार्यके नहीं जाननेवाले
और बुरी राह पर चलनेवाले गुरुजनोंका त्याग ही करना उचित है। मैंने क्या उनके हाथी-घोड़े छीन लिये हैं या उनके नगर आदिको ध्वंस कर डाला है, जो तू कहता है, कि वे मेरे अविनय को अपने सर्वंसह स्वभावके कारण सहन कर रहे हैं ? दुर्जनोंके प्रतिकारके लिये भी मैं वैसे कार्यों में प्रवृत्त नहीं होता ; फिर बिचार कर कार्य करने वाले सत्पुरुषोंको क्या दुष्टोंके कहनेसे ही दूषण लग जायेगा ? अभी तक मैं उनके पास नहीं आया, इस बातसे उदास होकर क्या वह कहीं चले गये हैं, जो मैं उनके पास जाऊँ ? भूतकी तरह बहाना ढूंढ़नेवाले भरतपति, सर्वत्र अप्रमत्त और अलुब्ध रहनेवाले मुझमें कौनसा दोष ढूंढ निकालेंगे ? उनका कोई देश या दूसरी कोई वस्तु मैंने नहीं ली, फिर वे मेरे खामी कैसे हुए ? हमारे और उनके स्वामी तो
ऋषभस्वामी हैं ; फिर वे मेरे स्वामी किस तरह हुए ? मैं तो स्वयं तेजकी मूर्ति हूँ, फिर मेरे वहाँ पहुँचने पर उनका तेज कैसे रहेगा ? कारण, सूर्यका उदय होने पर अग्निका तेज मन्द हो जाता है। जो राजा स्वयं स्वामी होते हुए भी उन्हें स्वामी मानकर उनकी सेवा करते हैं, वे असमर्थ हैं ; तभी तो वे उन दरिद्र राजाओं पर निग्रह और अनुग्रह करनेको समर्थ हैं।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
यदि मैं भाईचारेके नाते भी उनकी सेवा करूं, तो लोग उसे चक्रवर्तीके ही नाते की हुई सेवा समझेगे; क्योंकि लोगोंके मुंह पर कौन हाथ रख सकता है ? मैं उनका निर्भय भाई हूँ
और वे आज्ञा करने योग्य हैं ; पर इसमें जातिपनके स्नेहका क्या काम है ? एक जाति ऐसे वज्रसे क्या वज्रका भी विदारण नहीं हो जाता ? सुर, असुर और मनुष्योंकी उपासनासे वे भले ही प्रसन्न हों; पर उससे मेरा क्या आता-जाता है ? सजा-सजाया रथ भी ठीक रास्ते में हो चलनेको समर्थ होता है, टेढ़े-मेढ़े रास्तेमें तो गिर कर चूर-चूर ही हो जाता हैं। इन्द्र पिताजीके भक्त हैं, इस. लिये यदि उन्होंने उनका ज्येष्ठ पुत्र समझ कर भरतराजको अपने आधे आसन पर बैठाया, तो इससे वे इतना अभिमान क्यों करते हैं? इस भरतरूपी समुद्र में और-और राजा भले ही सैन्य-सहित सत्तूकी पिण्डियों की तरह समा जायें; पर मैं तो बड़वानल हूँ और अपने तेजके कारण दुस्सह भी हूँ। जिस तरह सूर्यके तेजके आगे और सबका तेज छिप जाता है, उसी तरह राजा भरत अपने समस्त हाथी-घोड़े, पैदल और सेनापतियोंके साथ मेरे सामने झेप जायेंगे। लड़कपन ही में मैंने हाथीकी तरह उन्हें पैरोंसे दबा कर, हाथसे उठा कर मिट्टीके ढेलेकी तरह आसमानमें उछाल दिया था। आसमानमें बहुत ऊँचे जाकर जब वे नीचे गिरने लगे, तब मैंने यही सोचकर उन्हें फूल की तरह स्वयंअपने ऊपर ले लिया, कि कहीं उनके प्राण न चले जायें; परन्तु अब मालूम होता है, कि वे वाचाल हो गये हैं और हारे हुए राजाओंकी खुशामद भरी बातों
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पा जाना पकार समझता हू।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र से अपना नया जन्म समझते हैं, इसीलिये ये सब बातें भूल गये है। परन्तु वे खुशामदी टट्ट किसी काम नहीं आयेंगे और उन्हें अकेले ही बाहुबलीके बाहुबलसे होने वाली व्यथाको सहन करना पड़ेगा। रे दूत ! तू अभी यहाँसे चला जा। राज्य और जीवनकी इच्छा हो, तो वह भलेही यहाँ आयें, पर मैं तो पिताके दिये हुए राज्य से सन्तुष्ट हूँ, इसलिये उनकी पृथ्वीकी मैं उपेक्षा करता हूँ और वहाँ जाना बेकार समझता हूँ ।
बाहुबलीके ऐसा कहतेही रङ्ग बिरङ्ग शरीर वाले और स्वामीकी आज्ञा रूपी दूढ़ पाशमें बंधे हुए अन्यान्य राजा भी क्रोध से लाल नेत्र किये हुए सुवेगकी ओर देखने लगे। रोषके मारे "भारो-मारो" की आवाज़ लगाते हुए कुमार ओठ फड़काते हुए बारम्बार उसके ऊपर विकट कटाक्ष निक्षेप करने लगे कमर बाँधे तैयार, खड्ग हिलाते हुए अङ्गरक्षक मानों मारनेकी इच्छा से ही उसे भृकुटी पर चढाकर देखने लगे। मन्त्रीगण इस हालत को देख उसके जानकी चिन्ता करने लगे। उन्हें भय होने लगा, कि कहीं स्वामीका कोई साहसी सिपाही इस ग़रीबको न मार डाले। इतने में हाथ तैयार कर लेरको ऊँचे किये हुए होनेके कारण उसकी गरदन नापनेको तैयार मालूम पड़ने वाले छडीवरदारों ने उसे आसनसे उठा दिया। इससे उसके मनमें बड़ा दुःख हुआ तो भी धैर्यका अवलम्बन कर वह सभासे बाहर निकला । क्रोध से भरे हुए बाहुबलीके जोशीले शब्दोंके अनुमानसे ही राजद्वार पर रहने वाली पैदल-सेना क्रोधसे तमतमा उठी। कितनेही कोधसे
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आदिनाथ-चरित्र
. ४१८
प्रथम पर्व
ढाल फेरने लगे, कितने ही तलवार नचाने लगे, कितने ही फेंकने के लिये चक्र सुधारने लगे, किसी ने मुद्गर उठाया, कोई त्रिशल सम्हालने लगा, कोई तरकस बाँधने लगा, कोई दण्डग्रहणकरने लगा और कोई परशुकी प्रेरणामें लग गया। उनकी यह हालत देख चारों ओरसे पग-पग पर अपने मौत धहरानेका समान देख कर सुवेग चंचल चरणोंसे चलता हुआ नरसिंह बाहुबलीके सिंह द्वार से बाहर निकला। वहाँसे रथमें बैठकर चलते हुए उसने नगरके लोगोंको इस प्रकार आपसमें बातें करते हुए सुना,
पहला-आ०-यह कौन नया आदमीराजद्वारसे बाहर निकला? दुसरा आ०-यह तो भरत राजाका दूत मालूम पड़ता है। पहला, तो क्या इस पृथ्वीमें बाहूबलीके सिवा और राजा हैं ? दूसरा,-अयोध्यामें बाहुबलीके बड़े भाई भरत राज्य करते हैं। पहला,-उन्हों ने इस दूतको यहाँ किसलिये भेजा था ? दूसरा,-अपने भाई राजा बाहुबलीको बुलानेके लिये। पहला, इतने दिनों तक हमारे राजाके भाई कहाँगये हुए थे। दूसरा,-भरतक्षेत्रके छओ खण्डोंको जीतने गये हुए थे।
पहला,-आज इतनी उत्कण्ठासे उन्होंने अपने छोटे भाईको क्यों बुलवाया?
दूसरा,-अन्यान्य छोटे-छोटे राजाओंकी तरह इनसे भी अपनी सेवा करानेके लिये।
पहला,-और-और राजाओंको जीत कर वह अब इस सूली पर चढ़नेको क्यों तैयार हो रहे हैं? .
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प्रथम पर्व
४१६ आदिनाथ-चरित्र दूसरा,-अखण्ड चक्रवर्ती होनेका अभिमान इसका कारण है।
पहला,-कहीं अपने छोटे भाईसे हार गये, तब तो सारी हैकड़ी किरकिरी हो न जायगी? फिर वे संसारको अपना मुंह कैसे दिखला सकेंगे?
दूसरा,-सब जगहोंसे जीत कर आया हुआ मनुष्य अपनी भावी पराजयकी कल्पना तक नहीं कर सकता।
पहला,--इस भरतराज्यके मन्त्रियों में क्या कोई चूहे जैसा भी नहीं हैं।
दूसरा,- उसके यहाँ कुल-क्रमसे चले आते हुए बहुतसे बुद्धिमान मन्त्री हैं।
पहला, फिर साँपके मस्तकको खुजलानेको इच्छा करने वाले उस भरतराजाको मन्त्रियों ने क्यों नहीं रोका ?
दूसरा,-रोकना तो दूर, उन्होंने उलटा उनको इसके लिये प्रेरित किया है। क्योंकि होनहार ही कुछ ऐसी प्रतीत होती है।
नगर निवासियोंकी यह बाते सुनता हुआ सुवेग नगरके बाहर चला आया। नगर द्वारके पास ही उसे दोनों ऋषभ कुमारोंके युद्धकी बात इतिहासके समान इस प्रकार सुननेमें आयी, मानों देवता उसे सुना रहे हों। सुनते ही वह क्रोधके मारे जल्दी-जल्दी पैर आगे बढ़ाने लगा । इधर युद्ध की बात मी उसकी चालसे होड़ करती हुई तेजीके साथ फैलने लगी। सहज युद्ध की बात सुनते ही हरएक गाँव-नगरके वीर योद्धागण युद्धके लिये इस तरह तैयार होने लगे, मानों राजाने उन्हें तैयार होनेकी
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आदिनाथवरित्र
४२०
प्रथम पर्व
१.
आज्ञा दे दी हो। जैसे योगी शरीरको दृढ़ करते हैं, वैसे ही कोई तो अपना युद्ध - रथ रथशालासे बाहर निकालकर उसमें नये धूरे आदि लगाकर उसे दृढ़ बना रहा था, कोई अपने घोड़ोंको नगरके बाहर मैदानमें ले जाकर उन्हें पाँचों प्रकारकी चालें सि. खला कर युद्धके लिये तैयार करता हुआ विश्राम करा रहा था कोई प्रभुकी तेजोमयी मूर्त्तिके समान अपने खड्डू आदि हथियारों को सान धराने वालेके यहाँ ले जाकर तेज़ करा रहा था : कोई अच्छे-अच्छे सींग और नयी ताँत लगवा कर अपने यमराजकी टेढ़ी भौहों के समान धनुषों को तैयार कर रहा था; कोई युद्धयात्रा के समय जानदार बाजोंका काम देनेवाले जङ्गली ऊँटोंको कवच आदि ढोनेके लिये ला रहा था; कोई अपने बाणोंको, कोई तरकस को, कोई सिर पर पहननेकी टोपीको, उसी प्रकार दृढ़ कर रहा था, जैसे तार्किक पुरुष अपने सिद्धान्तको दृढ़ करते हों । इसी तरह कोई-कोई अपना बख़्तर दृढ़ होने पर भी विशेष दृढ़ बना रहे थे । इसी तरह कोई गन्धर्वो के भवनके समान घरमें धरे रखे हुए तम्बूकनातोंको खोल-खोल कर देख रहे थे । राजा बाहुबलीके देशके लोग इसी प्रकार एक दूसरेसे स्पर्धा करते हुए युद्ध के लिये तैयारी कर रहे थे : क्योंकि वे अपने राजा पर बड़ी भक्ति रखते थे । ऐसा ही कोई राजभक्तिकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य, संग्राम में जानेके लिये तैयार हो रहा था, इसी समय उसके किसी
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गुरुजनने आकर उसे मना किया । इसपर वह बिगड़ उठा । सुवेगने रास्ते में जाते-जाते लोगोंको इसी प्रकार राजाके अनुराग
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प्रथम पर्व
४२१ आदिनाथ-चरित्र के वशवी होकर अपने प्राण देकर भी राजाका प्रिय करनेकी इच्छा प्रकट करते हुए देखा । युद्धकी बात सुन और लोगोंकी यह तैयारी देख, बाहुबली पर अटूट भक्ति रखने वाले कितने ही पहाड़ी राजा भी बाहुबलीके पास आने लगे । ग्वालेका शब्द सनकर जैसे गौएँ दौड़ी हुई चली आती हैं, वैसे ही उन पहाड़ी राजाओंके बजाये हुए सिंघेकी आवाज़ सुनते ही हज़ारों किरात, निकुंजोंसे निकल-निकल कर दौड़ते-हाँपते हुए आने लगे । उन शूर-वीर किरातोंमें कोई बाधको त्वचासे कोई मोरकी पोछोसे और कोई लताओंसे ही जल्दी-जल्दी अपने बाल बाँधने लगे। इसी तरह कोई सर्पकी त्वचासे, कोई वृक्षोंकी त्वचासे और कोई नील गायकी त्वचासे अपने शरीरमें पहने हुए मृगचर्मको बाँधने लगे। बन्दरोंकी तरह कूदते-फांदते हुए वे लोग हाथमें पाषाण और धनुष लिए हुए स्वामिभक्त श्वानोंकी तरह अपने स्वामीको घेर कर चलने लगे। वे सब आपसमें कह रहे थे, कि हम राजा भरतको एक-एक अक्षौहिणी सेनाको चूर्ण कर अपने महाराज वाहुबलीको कृपाका वदला अवश्य देंगे। . उनकी ऐसी सकोप तैयारी देख, सुवेग मन-हो-मन विवेकबुद्धिसे विचार करने लगा,- “ओह ! इस बाहुबलोके देशके लोग तो इसके ऐसे वशीभूत हैं, कि मालूम होता है, मानों ये अपने बापके वैरीसे बदला लेनेके लिए तत्परताके साथ युद्धकी तैयारी कर रहे हैं। राजा बाहुबलीकी सेनाके पहले ही रणकी इच्छा करने वाले ये किरात भी इस तरफ आने वाली हगरी
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आदिनाथ-चरित्र ४२२
प्रथम पर्व सेनाको मार गिरानेका उत्साह दिखला रहे हैं। मैं तो यहाँ कोई ऐसा मनुष्य नहीं देखता, जो युद्ध के लिये तैयार न हो। साथ ही ऐसा भी कोई नहीं दिखलाई देता, जो बाहुबली पर अनुराग न रखता हो। इस बहली-देशमें हल जोतनेवाले खेतिहर भी शूर. वीर और स्वामिभक्त हैं। क्या यह इस देशका ही प्रभाव है, अथवा राजा बाहुबलीमें ही ऐसा कोई गुण है । सामन्त आदि पारिषद तो मूल्य देकर ख़रीदे भी जा सकते हैं ; पर बाहुबलीने तो अपने गुणोंसे सारी पृथ्वीको मोल ली हुई पत्नीसी बना लिया है। जैसे अग्निके सामने तृणोंका समूह नहीं ठहरता, वैसे ही बाहु. बलीकी ऐसी सेनाके सामने तो मैं चक्रवर्तीकी विशाल सेनाको भी तुच्छ हो मानता हूँ। इस महावीर बाहुबलीके आगे मैं तो चक्रवर्तीको वैसा ही छोटा समझता हूँ, जैसा अष्टापदके सामने हाथीका छोटा बच्चा हो । शक्ति-सामर्थ्य में पृथ्वीमें चक्रवर्ती
और स्वर्गमें इन्द्र विख्यात हैं, पर इन दोनोंके बीचमें अथवा इन दोनोंसे भी बढ़कर ऋषभदेवका यह छोटा पुत्र जान पड़ता है। मुझे तो ऐसा मालूम पड़ता है, मानों बाहुबलोके थप्पड़ के सामने चक्रीका चक्र और इन्द्रका वज्र भी व्यर्थ है। इस बाहुबलीको छेड़ना क्या है, रीछके कान पकड़ना और साँपको मुट्ठीमें पकड़ना है। जैसे व्याघ्र एकही मृगको लेकर सन्तुष्ट रहता है, वैसे ही इतनीसी भूमि लेकर सन्तुष्ट रहनेवाले बाहुबलीको छेड़ कर व्यर्थ ही शत्रु बनाया गया। अनेक राजाओंसे सेवित महाराज को क्या कमी दिखलाई दी, जिसके लिये उन्होंने वाहनके लिये
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
सिंहको पकड़ मंगवानेकी तरह इस बाहुबलीको सेवाके लिये बुलवाया | स्वामीके हितको माननेवाले मंत्रियों और मुझको धिक्कार है, जो हम लोगोंने इस मामलेमें शत्रुकी तरह उनकी उपेक्षा की। लोग यही कहेंगे कि सुवेगने ही जाकर भरतसे बाहुबलीकी लड़ाई छिड़वायी । ओह! गुणको दूषित करनेवाले इस दूतपनको धिक्कार है !
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रास्ते भर इसी प्रकार विचार करता हुआ, नीति-निपुण सुवेग कितने ही दिन बाद अयोध्या नगरीमें आ पहुँचा । द्वारपाल उसे सभामें ले गया । वह प्रणाम कर हाथ जोड़े हुए बैठा ही था, कि महाराजने उससे बड़े आदर के साथ पूछा,“सुवेग ! मेरा छोटा भाई बाहुबली कुशल से है न ? तुम वहाँ से बड़ी जल्दी चले आये, इससे मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है । अथवा उसने तुम्हें खदेड़ दिया है, इसीलिये तुम झटपट चले आए हो ? क्योंकि यह वीरवृत्ति तो मेरे बलवान् भ्राताके योग्य ही है ।"
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सुवेगने कहा - "हे महाराज ! आपके ही समान अतुल पराक्रम वाले उन बाहुबली राजाकी बुराई करनेको देव भी समर्थ नहीं है । वे आपके छोटे भाई हैं, इसीलिये मैंने पहले उनसे स्वामीकी सेवा करनेके लिये आनेको विनय-पूर्वक हितकारी वचन कहा ; इसके बाद औषधकी तरह कड़वे, पर परिणाम में उपकारोतीखे वचन कहे ; पर क्या मीठे, क्या कड़वे, किसी तरहके वाक्यों से वे आपकी सेवा करने को नहीं तैयार हुए। जैसे सन्निपात के रोगीको दवा थोड़े ही असर करती है ? वह बलवान् बाहुबली
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
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साथ ही यह
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अभिमानमें चूर होकर तीनों लोकको तृण समान जानते हैं और सिंहकी तरह किसीको अपनी बराबरीका वीर नहीं मानते । मैंने जब आपके सेनापति सुषेण और आपकी सेनाका वर्णन किया, तब उन्होंने उसी तरह नाक साकोड ली, जैसे दुर्गंधकी महंक पाकर आदमी नाक सिकोड़ लेता है भी कहा, कि ये किस गिनतोमें है ? जब आपकी षट्खण्ड विजयका मैंने वर्णन किया, तब उन्होंने उसे अनसुना सा कर, अपने भुजदण्डको देखते हुए कहा, – “मैं अपने पिताके दिये हुये राज्य से हो सन्तुष्ट हूँ, इसीलिये मेरी उपेक्षाके हो कारण भरत भरत क्षेत्रके छहों खण्डों को पा सके हैं ।” सेवा करनी तो दूर रही, अभी तो वे निर्भयताके साथ आपको रणके लिये बुलावा दे रहे हैं, जैसे कोई सिंहनीको दूहनेके लिये बुलाये आपके भाई ऐस े पराक्रमी, मानी और महाभुज हैं, कि वे गन्धहस्तीकी तरह असा और पराये पराक्रमको नहीं सहन करनेवाले हैं । इन्द्रके सामानिक देवताओंकी तरह उनकी सभा में बड़े प्रचण्ड पराक्रमी सामन्तराजा हैं; इसलिये वे न्यून आशयवाले भी नहीं हैं उनके राजकुमार भी अपने राजतेज के कारण अत्यन्त अभिमानी हैं । युद्ध के लिये उनकी बाँहोंमें खुजली पैदा हो रही है, इसी लिये वे बाहुबली से दसगुने पराक्रमी मालूम पड़ते हैं। उनके अभिमानी मन्त्री भी उन्हींके विचारोंके अनुसार चलते हैं; क्योंकि जैसा स्वामी होता है, वैसाही उसका परिवार भी होता है । सती स्त्रियाँ जैसे पराये पुरुषको नहीं देखतीं, वैसेही उनकी प्रजा
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र भी यह नहीं जानती–कि उनके सिवा इस जगत्में दूसरा भी कोई राजा हैं। क्या कर देनेवाले, क्या बेगार देनेवाले, देशके सभी लोग सेबककी तरह उनकी भलाईके लिये प्राण देनेकी इच्छा रखते हैं। सिंहोंकी तरह वनचर और गिरिचर वीर भी उनके वसमें हैं और उनकी मान-सिद्धि करनेकी इच्छा रखते हैं। हे स्वामी ! अधिक क्या कहूँ, वे महावीर दर्शनकी उत्कण्ठासे नहीं, बल्कि युद्धकी लालसासे आपको तुरत देखनेकी इच्छा कर रहे हैं। अब आपको जैसा रुचे. वैसा कीजिये, क्योंकि दूत मन्त्री नहीं, केवल मात्र संवाद सुनानेवाला ही हैं।
उसकी ऐसी बातें सुन, नाटकाचार्यं भरतकी तरह एकही साथ विस्मय, कोप, क्षमा और हर्षका नाट्य करते हूए भरतने कहा,–“सुर, असुर और नरोंमें इस बाहुबलीकी बराबरीका कोई नहीं है, इस बातका तो मैं लड़कपन हीमें स्वयं अनुभव कर चुका हूँ। तीनों जगतके स्वामीका पुत्र और मेरा छोटा भाई बाहुबली अपने आगे तीनों लोकको तृण की तरह समझे, यह उसकी झूठी प्रशंसा नहीं बल्कि सच्ची बात है। ऐसा छोटा भाई पाकर मैं भी प्रशंसाके योग्य हो गया हू ; क्योंकि यदि अपना एक हाथ छोटा और दूसरा बड़ा हो, तो इससे मनुष्यको शोभा नहीं होती। यदि सिंह बन्धनको सहन करले और अष्टापद वशमें हो जाये, तो बाहुबली भी वशमें लाया जा सकता है। और यदि यह वशमें हो जाये, फिर न्यूनही क्या रह जाये ? मैं उसकी यह दुर्विनीतता सहन करूँगा। लोग इससे मुझे कमज़ोर भलेही
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पव
बतलायें -- मुझे इसकी कोई परवा नहीं । संसारमें धन से अथवा पुरुषार्थसे सब कुछ मिल जा सकता है; पर ऐसा भाई किसी तरह नहीं मिल सकता । मंत्रियो ! मेरा यह कहना मेरे योग्य है या नहीं ? तुम लोग क्यों चुपचाप मौनी बाबा बने बैठे हो ? जो उचित जान पड़े, वह कहो । "
बाहुबलीकी दुर्विनीतता और अपने स्वामीकी इस क्षमासे चोट खाये हुए की तरह सेनापति सुषेणने कहा, – “ऋषभस्वामी के पुत्र भरतराजको तो क्षमा करनी ही चाहिये, पर यह क्षमा उन्हीं लोगों पर दिखलायी जानी चाहिये, जो कृपाके पात्र हों । जो जिसके गाँव में रहता है, वह उसके अधीन होता है और यह बाहुबली तो एकही देशका राजा है, तथापि मुँह से भी आपकी वश्यता स्वीकार नहीं करता । प्राणोंका ग्राहक, पर प्रताप की वृद्धि करनेवाला शत्रु अच्छा; परन्तु अपने भाईके प्रतापको नष्ट करनेवाला बन्धु अच्छा नहीं । राजा, अपने भण्डार, सैन्य, मित्र, पुत्र और शरीर से भी अपने तेजकी रक्षा करते हैं, क्योंकि तेजहो उनका जीवन है। अपने आपके राज्यमें ही क्या नहीं था, जो आप छ खण्डों पर विजय प्राप्त करने गये ? यह सब तेजही के लिये तो ? एक बार जिस सतीका शील नष्ट हो गया, वह सदा असती ही कहलाती है, वैसेही एक स्थान पर नष्ट हुआ तेज सभी जगहों से नष्ट हुआ समझा जाता है। गृहस्थ में भाई-भाईके बीच द्रव्यका बराबर बँटवारा होता है : तो भी वे तेजको छीननेवाले भाईकी ज़रा भी उपेक्षा नहीं करते। अखिल भरतखण्डकी विजय कर
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प्रथम पखें
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आदिनाथ-चरित्र
लेने पर भी यदि आपकी यहीं अविजय हो गयी, तो फिर यही कहना पड़ेगा, कि समुद्रको तैर जानेवाला पुरुष गढ़ेयामें डूब गया ! क्या आपने यह कहीं देखा या सुना है, कि चक्रवर्तीकी प्रतिस्पर्धा करनेवाला राजा भी सुखसे राज्य कर सका हो ? हे प्रभु ! जो अपना अदब न करता हो, उसके साथ भाईचारा दिख. लाना, एक हाथसे ताली बजाना है। वेश्याओंकी तरह स्नेहरहित बाहुबली राजापर भरतराज स्नेह रखते हैं, ऐसा कहनेसे यदि आप लोगोंको रोकें, तो भलेही रोकें ; परन्तु आज तक जो चक्र नगरके बाहर यही प्रण करके ठहरा हुआ है, कि मैं तो सब शत्रुओंको जीत करही अन्दर प्रवेश करूँगा,उसे आप कैसे रोकेंगे? भाई होकर भी जो आपका शत्रु है। ऐसे बाहुबलीकी उपेक्षा करना आपके लिये उचित नहीं है ; आगे इस विषयमें आप अपने अन्यान्य मंत्रियोंसे भी पूछ लीजिये।"
सुषेणके ऐसा कह लेने पर महाराजने एक बार अन्यान्य सब लोगोंकी ओर देखा। इतने में वाचस्पतिके समान प्रधान मंत्री ने कहा,-"सेनापतिने जो कुछ कहा, वह ठीक ही है। ऐसी बातें कहनेको दूसरा कौन समर्थ हो सकता है ? जो पराक्रम
और प्रयासमें भीरु होते हैं, वे अपने स्वामीके तेजकी उपेक्षा करते हैं। स्वामी अपने तेजके लिये जो कुछ आदेश करते हैं, उसके विषयमें अधिकारीगण स्वार्थानुकूल उत्तर दिया करते और व्यर्थ कास्तुलकलाम किया करते हैं। पर सेनापति महोदय वैसेही आपके तेजकी वृद्धि करनेवाले हैं, जैसे वायु अग्निको बढ़ा देती है।
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
चक्ररत्नकी तरह सेनापति भी आपके इस बाकी बचे हुए शत्रुको भी पराजित किये बिना सन्तुष्ट नहीं होंगे। इस लिये आप अब विलम्ब न करें। आपकी आज्ञासे सेनापति हाथमें दण्ड लिये हुए शत्रुका शासन करनेको प्रस्थान करें, इसके लिये आप अभी बिगुल बजवा दे। सुघोषाके घोषको सुनकर जैसे देवतागण प्रस्तुत हो जाते हैं, वैसेहो आपकी बिगुलकी आवाज़ सुनते ही आपके सब सैंनिक वाहनों और परिवारोंके साथ एकत्र हो जायें और आप भी तेजकी वृद्धिके लिये उत्तरको ओर तक्षशिलापुरीके लिये सूर्यकी तरह प्रस्थान करें। आप स्वयं जाकर अपनी आँखों भाईका स्नेह देख आये और सुवेगकी बातोंकी सच्चाईझूठाईकी परीक्षा कर ले।” .. मन्त्रीकी यह बात राजाने स्वीकार कर ली और कहा,अच्छा, ऐसाही होगा।" क्योंकि विद्वान् मनुष्य दूसरोंकी कही हुई उचित बातोंको भी मान लेते हैं। इसके बाद शुभदिनको, यात्राके समय किये जानेवाले मङ्गलके कार्योंका अनुष्ठान कर, महाराज पर्वतकेसे उन्नत गजेन्द्रके ऊपर आरूढ़ हुए। मानों दूसरे राजाकी सेना ही, ऐसे रथों, घोड़ों और हाथियों पर सवार हज़ा. रों सेवक प्रयाण-समयके बाजे बजाने लगे। एक ताल पर संगीत करनेवालोंकी तरह प्रयाण-वाद्योंका नाद सुन, सारी सेना इकट्ठी हो गयी। राजाओं, मन्त्रियों, सामन्तों और सेनापतियोंसे घिरे हुए महाराज मानों अनेक मूर्तियोंवाले होकर नगरके बाहर आथे। एक हज़ार यक्षोंसे अधिष्ठित चक्ररत्न सेनापतिके समान
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
सारी सेनाके आगे-आगे चलने लगा। मानों शत्रुओंके गुप्तचर धूम रहे हों, इसी तरह महाराजके प्रयाणकी सूचना देनेके लिये चारों ओर धूल उड़-उड़ कर फैलने लगी। उस समय लाखों हाथियोंको जाते देख, ऐसा मालूम पड़ा, मानों पृथ्वी ही गजशून्य हो गयी हो। घोड़ों, रथों, खच्चरों और ऊँटोंकी पलटन देख, ऐसा जान पड़ा, मानों अब दुनियाँमें कहीं कोई सधारी नहीं रह गयी है। जैसे समुद्रकी ओर दृष्टि करने वालेको सारा जगत् जलमयही दीखता है, वैसेही उनकी पैदल सेनाको देखकर सारा जगत् मनुष्यमयही मालूम पड़ने लगा। राहमें जाते-जाते महाराज प्रत्येक नगर और ग्राममें लोगोंको राह-राह यही कहते हुए पाने लगे,-"इस राजाने इस सारे भरत क्षेत्रको एक क्षेत्रकी तरह वशमें कर लिया है और मुनि जिस प्रकार चौदह पूर्वको मिलाते हैं, उसी प्रकार चौदहों रत्नोंको प्राप्त कर लिया है। आयुधोंके समान इन्होंने नवों निधियोंको वशमें कर लिया है। फिर इतना वैभव होते हुए भी महाराजने किस लिये और कहाँको प्रस्थान किया है ? कदाचित् अपनी इच्छासे अपना देश देखने के लिये जा रहे हों, तो फिर शत्रुओंको दण्ड देनेवाला यह चक्ररत्न क्यों आगे-आगे जा रहा है ? परन्तु दिशाका अनुमान करनेसे तो यही मालूम होता है, कि ये बाहुबलीके ऊपर चढ़ाई करने जारहे हैं। ओह, बड़े आदमियोंके कषायका वेग भी बड़ा अखण्ड होता है। वह बाहुबली देवों और असुरोंसे भी मुश्किल से जीता जा सकता है, ऐसा सुननेमें आता है, फिर उसे जीतने
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व की इच्छा करनेवाले ये राजा मानों उँगली पर मेरुपर्वत उठाने जा रहे हैं, इस युद्ध में छोटे भाईने कहीं बड़ेको जीत लिया अथवा बड़ेनेही छोटेको परास्त कर दिया, तो दोनोंही अवस्थाओंमें महाराजको ही भारी अपयश प्राप्त होगा।"
सैन्योंकी उड़ायी हुई धूलकी बाढ़से विन्ध्याचलकी वृद्धिकी तरह चारों ओर अन्धकार फैलाते; अश्वोंके हषारव, गजोंके गर्जन, रथोंके चीत्कार और योद्धाओंके कराघातों इन चारो प्रकार के शब्दोंसे नगाड़ेके शब्दकी तरह दिशाओंको नादमय करते, ग्रीष्म
तुके सूर्यकी तरह रास्तेकी नदियोंको सोखते; उत्कट पवनकी भांति मार्गके वृक्षोंको उखाड़ कर फेकते ; सेनाकी ध्वजाओंके वस्त्रसे आकाशको बगुलोंसे भरा हुआ बनाते ;सैन्यके भारसे दबी हुई पृथ्वीको हाथियोंके मदसे शान्त करते और प्रतिदिन चक्रके बतलाये हुए रास्तेपर चलते हुए महाराज उसी प्रकार बहलोदेशमें आ पहुँचे, जैसे सूर्य दूसरी राशिमें संक्रमण करता है। उस देशकी सीमाके पास पहुँचकर उन्होंने पड़ाव डाला और समुद्रकी तरह मर्यादा बाँधकर वहीं टिक रहे।
इसी समय सुनन्दाके पुत्र बाहुबलीने राजनीति रूपी भवनके स्तम्भ-स्वरूप चरोंके मुँहसे चक्रवर्तीके आनेका समाचार सुना। सनतेही उन्होंने भी अपनी प्रतिध्वनिसे स्वर्गको भी शब्दायमान करनेवाली दुन्दुभि बजायी। प्रस्थानही कल्याणकारी हो, इस लिये उन्होंने मूर्तिमान कल्याणकी तरह भद्र-गजेन्द्रके ऊपर उत्साह की तरह सवारी की। बड़े बलवान, बड़े उत्साही, कार्यमें एक
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प्रथम पर्व
मादिनाथ-चरित्र
सी प्रवृत्ति रखनेवाले, दूसरोंसे अभेद्य और अपनेही अंशके समान उनके राजकुमारों, मन्त्रियों और वीरपुरुषों से घिरे हुए राजा बाहुबली देवताओंसे घिरे हुए इन्द्र की तरह शोभित होने लगे। मानो उनके मनमेंही बसे हों, ऐसे लाखों योद्धा-कुछ हाथियोंपर, कितनेही घोडोंपर, कितनेही रथोंपर सवार हो, तथा कितनेही पैदल बाहर निकले। बलवान् और ऊँचे-ऊँचे अस्त्रोंवाले अपने वीरोंसे एक वीरमयी पृथ्वीकी रचना करते हुए अचल निश्चय वाले बाहुबली चल पड़े। विभागरहित जयको इच्छा रखनेवाले उनके वीर सुभट, "मैं अकेला ही शत्रुको जीत लूँगा,” ऐसा एक दूसरेसे कह रहे थे। रोहणाचल-पर्वतके सभी पत्थर जैसे मणिमय होते हैं, वैसेही उस सेनामें बाजे बजानेवाले भी अपनेको वीर ही समझ रहे थे। उनके माण्डलिक राजाओं के चन्द्रमाकी सी कान्तिवाले छत्र-मण्डलसे आकाश श्वेतकमलमय दीखने लगा। हरएक पराक्रमी राजाको देखकर उन्हें अपनी भुजाके समान मानते हुए वे आगे-आगे चलने लगे। राहमें चलते हुए राजा बाहुबली अपनी सेनाके भारसे पृथ्वीको और बाजोंकी ध्वनिसे आकाशको फाड़ने लगे। उनके देशकी सीमा दूर थी ; तोभी वे तत्काल वहाँ आ पहुँचे। क्योंकि रणके लिये उत्कण्ठित वीरपुरुषगण वायुसे भी अधिक वेगवान् हो जाते हैं। भरतराजके पड़ावसे न बहुत दूर न बहुत निकट, गङ्गाके तटपर बाहुवलीने पड़ाव डाला।
प्रातःकाल चारण-भाटोंने अतिथिकी भाँति उन दोनों ऋषभ
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व कुमारों को युद्धोत्सवके लिये रण-निमंत्रण दिया। रातके समय बाहुबलीने सब राजाओंकी सलाहसे अपने सिंह जैसे पराक्रमी सिंह रथ नामक पुत्रको सेनापति नियुक्त किया और पट्टहस्तोकी भाँति उनके मस्तकपर प्रकाशमान प्रतापके समान देदीप्यमान सुवर्णका एक रण-पट्ट आरोपित कर दिया। राजकुमार राजाको प्रणाम कर, उनसे रण-शिक्षा ले, ऐसे आनन्दसे अपने निवास स्थान पर आये, मानों उन्हें पृथ्वी ही मिल गयी हो। महाराज बाहुबलीने अन्यान्य राजाओंको भी युद्धके लिये आज्ञा देकर विदा किया। यद्यपि वे स्वयं रणकी इच्छा रखते थे, तथापि स्वामीकी इस आज्ञाको उन्होंने सम्मानके साथ सिर-आँखोंपर लिया।
इधर महाराज भरतने कुमारों, राजाओं और सामन्तोंकी रायसे श्रेष्ठ आचार्यकी तरह सुषेणको रणदीक्षा प्रदान की उन्हें सेनापति बनाया। सिद्धिमंत्रकी तरह स्वामीकी आज्ञा स्वीकार कर, चक्रवाककी भाँति प्रातःकाल होनेकी बाट जोहता हुआ सुषेण अपने डेरेपर आया। कुमारों, मुकुटधारी राजाओं और सब सामन्तोंको बुलाकर राजा भरतने आज्ञा दी,-"प्यारे शूर-वीरों! मेरे छोटे भाईके साथ युद्ध करते समय बिना भूले तुम लोग सुषेण सेनापतिको मेरेही समान जानना। हे पराक्रमी योद्धओं ! महावत जैसे हाथीको वशमें कर लेता है, वैसेही तुमने अपने अतुल पराक्रमले बड़े-बड़े अभिमानी राजाओंको वशमें कर लिया है
और वैताढ्यपर्वतको लाँधकर देवों तथा असुरोंको पराजित कर, तुमने दुर्जय किरातोंको भी अपने पराक्रमसे खूबही मसल डाला
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प्रथम पर्व
.४३३ आदिनाथ-चरित्र है। पर ठीक जानना, उन लोगों में बाहुबलीके पैदल सिपाहियोंकी बराबरी करनेवाला एक भी नहीं था। हवा जैसे रुईको उड़ा ले जाती है, वैसेही इस बाहुबलीका जेठा बेटा सोमयशा सारी सेना को दसों दिशाओं में उड़ाकर फेंक देनेको समर्थ है। उमरमें छोटा और पराक्रममें बड़ा उसका सिंहरथ नामका छोटा भाई शत्रुओंकी सेनांके लिये दावानलके समान है। अधिक क्या कहूँ ? उसके अन्य पुत्रों और पौत्रोंमें भी एक-एक ऐसा है, जो अक्षौहिणी सेनामें मल्लके समान और यमराजके सदृश भय उत्पन्न कर सकता है। उसके स्वामिभक्त सेवक भी, जो ठीक उसके प्रतिबिम्ब मालम पड़ते हैं, बलमें उसकी समानता कर सकते हैं। औरोंकी सेनामें जैसे एकही महाबलवान् नायक होता है, वैसे उस की सेनामें सबके सब पराक्रमी हैं। महाबाहु बाहुबली तो दूर रहे, उसका एक-एक सेनाव्यूह रणमें वज्रकी तरह अभेद्य है। इसलिये जैसे वर्षाऋतुमें मेघके साथ-साथ पुरवैया हवा चलती है, वैसे ही तुम भी युद्धके लिये यात्रा करते हुए सुषेणके पीछे-पीछे चले जाओ।” ____अपने स्वामीकी अमृतसमान वाणीसे मानों उनके रोम-रोम भर गये हों, इस प्रकार उनके शरीरमें पुलकावली छा गयी। मानों प्रतिवीरों ( शत्रुओं ) की जयलक्ष्मीको स्वयंवर-मण्डपमें धरने जाते हों, इसी तरह महाराजके द्वारा विसर्जन किये हुए वे वीर अपने-अपने डेरोंमें चले गये। दोनों ऋषभपुत्रोंकी प्रसादरूपी समुद्रको तरनेकी इच्छासे दोनों ओरके वीरश्रेष्ठ युद्ध के लिये तैयार
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
होने लगे। सबके सब अपने कृपाण, धनुष, तरकस, गदा और शक्ति आदि आयुधोंकी देवताकी तरह पूजा करने लगे। उत्साहसे नाचते हुए अपने चित्तके तालपर हो, वे वीर अपने आयुधोंके सामने ऊँचे स्वरसे बाजे बजाने लगे। इसके बाद अपने निर्मल यशके समान नवीन और सुगन्धित उबटनसे वे अपने शरीरका मार्जन करने लगे। मस्तक पर बँधे हुए काले वस्त्रके वीरपट्टका अनुकरण करनेवाली कस्तूरोकी विन्दी (टीका ) वे अपने-अपने ललाटमें लगाने लगे। दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्धकथा जारी रहने और शस्त्र पूजाके लिये जागरण करनेके कारण वीरोंको नींद नहीं आयी। मानों वह उनसे डर गयी। प्रातःकाल होने वाले युद्धके लिये उत्साहसे भरे हुए दोनों ओरके वीर सैनिकोंको तीन पहरोंकी वह रात सौ पहरोंवाली मालूम पड़ी और उन्होंने बड़ी मुश्किलसे वह रात काटी।
सवेरा होतेही दोनों ऋषभपुत्रोंकी युद्ध-क्रीड़ा देखनेके कौतूहलसे ही मानों सूर्य उदयाचलकी चोटी पर चढ़ आये। उसी समय एकाएक मन्दराचलसे क्षुब्ध समुद्र-जलकी भाँति, प्रलयकालके पुष्करावर्त्त-मेघकी भांति और वज्रसे ताड़ित पर्वतकी भाँति दोनों सेनाओंमें मारू बाजे बज उठे। उन रणवाद्योंके उस गूंजते हुए नादसे दिग्गजोंने तत्काल कान ऊँचे किये और डर गये-जलमें रहनेवाले जीव भयसे भ्रान्त होने लगे। समुद्र खलबला उठा, क्रूर प्राणी भी चारों ओरसे दौड़ते भागते हुए गुफाओंमें प्रवेश करने लगे, बड़े-बड़े साँप बिलोंमें घुसने लगे, पर्वत
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प्रथम पवे
४३५ आदिनाथ-चरित्र काँप उठे और उनके शिखर गिर पड़नेलगे, पृथ्वीको धारण करने वाले कूर्मराजने अपने चरण और कण्ठका सङ्कोच करना शुरू किया; आकाश टूट पड़ने लगा और पृथ्वी फटती हुई सी मालूम पड़ने लगी। राजाके द्वारपालसे प्रेरित किये हुएके समान दोनों ओरके सैनिक रणवाद्योंसे प्रेरित होकर युद्धकेलिये तैयार हाने लगे। रणके उत्साहसे शरीर फूल उठनेके कारण उनके कवचों के बन्द तड़क उठे और वे नये नये कवच धारण करने लगे। कोई अत्यन्त प्रेमके मारे अपने घोड़ेको भी बख़्तर पहनाने लगा; क्योंकि बड़े बड़े वीर अपनी अपेक्षा भी अपने वाहनोंकी विशेष रक्षा करते हैं। कोई अपने घोड़े की परीक्षा करनेके लिये उसपर बैठकर उसे चलाकर देखने लगा ; क्योंकि दुःशिक्षिन और जड़ अश्व अपने सवारका शत्रुही होता है। बख्तर पहनकर हीसनेवाले घोड़ेकी कोई कोई वीर पूजा करने लगे ; क्योंकि युद्ध में जाते समय घोड़ेका होंसना युद्धमें जीत होनेका लक्षण है। कोई बिना बरूखरका घोड़ा मिलनेसे आप भी अपना बख्तर उतार कर रखने लगा; क्योंकि पराक्रमी पुरुषोंका रणमें यही पुरुषव्रत है। कोई अपने सारथिको ऐसी शिक्षा देने लगा, जिससे वह समुद्र में जैसे मछली चलती है, वैसे ही घोर रणमें सञ्चार करते हुए भी स्खलन नहीं पानेकी चतुराई सीख जाये। जैसे राह चलनेवाले राहखर्चके लिये पूरा सामान अपने पास रख लेते है, वैसेही बहुत दिनोंतक जारी रहनेवाली लड़ाईके लिहाज़से कितनेही वीरोंने अपने रथोंको हथियारोंसे भर लिया। काई दूसरेही अपनो पहचान करादेने
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आदिनाथ- चरित्र.
४३६
प्रथम पर्व
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वाले भाटचारणोंक से अपने गुण बतलानेवाले ध्वजस्तम्भोंको दृढ़ करने लगे । कोई अपने मज़बूत धुरेवाले रथमें, शत्रुसैन्यरूपी समुद्रमें मार्ग पैदा करनेके लिये, जलकान्तरत्नके समान अव जोतने लगे। कोई अपने सारथिको मज़बूत बख़्तर देने लगा, क्योंकि अच्छे घोड़े जुते रहनेपर भी बिना सारथि रथ निकम्मा हो जाता है । कोई मज़बूत लाहेके कंकणकी श्रेणोका सम्पर्क होनेसे कठार बने हुए हाथियोंके दाँतको अपनी भुजाकी तरह पूजने लगे। कोई प्राप्त होनेवाली जयलक्ष्मी के वासगृहके समान पताकाओं के समूह वाली अम्बारोको हाथी के ऊपर रखने लगा । कोई-कोई वीर शकुन समझ कर हाथीके गण्डस्थलसे चूते हए मदका कस्तूरीके समान तिलक करने लगे । कोई दूसरे हाथीकी मदगन्धसे भरी हुई वायुको भो सहन न करनेवाले मनकी तरह मतवाले हाथीपर, सवार होने लगा, सारे महावत रणोत्सवके शृङ्गार वस्त्र के समान सोनेके कड़े हाथियोंको पहिनाने और उनकी सूंड़ोंसे भी ऊँची नालवाले नील कमलकी लीलाको धारण करनेवाले लोहे के मुद्गर भी उनसे उठवाने लगे । कितहीने महावत यमराजके दाँतके समान हाथियोंके दाँतके ऊपर काले लोहेकी तीखी चूड़ियाँ पहनाने लगे ।
इसी समय राजाके अधिकारियोंकी ओरसे आज्ञा जारी हुई, कि सैन्यके पीछे-पीछे अस्त्रोंसे लदे हुए ऊँटों और गाड़ियोंको शीघ्रही ले जाओ, नहीं तो हस्तलाघवतावाले वीर सिपाहियोंको हथियारों का टोटा हो जायगा ; बख्तरोंसे लदे हुए ऊँट भी ले
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र जाओ ; क्योंकि लगातार लड़ाई में डटे हुए वीरोंके पहलेके पहने हुए कवच अवश्यहो टूट जायेंगे। रथी पुरुषोंके पीछे-पीछे दूसरे रथ भी तैयार रखो ; क्योंकि जैसे वज्र पर्वतोंको ढा देता है, वैसे हो शस्त्रोंसे रथ ट्ट जाते हैं। पहलेके घोड़े थक जायें और युद्धमें विघ्न हो, इस भयसे अभीसे सैकड़ों अश्व घुड़सवारोंके पीछेपीछे जानेके लिये तैयार कर रखो। प्रत्येक मुकुटबन्ध राजाके पीछे दूसरा हाथी भी तैयार रखो; क्योंकि एकही हाथीसे संग्राममें काम नहीं चल सकता। प्रत्येक सैनिकके पीछे पानी ढोनेवाले भैंसे तैयार रखो ; क्योंकि युद्धचेष्टा रूपी ग्रीष्मऋतुसे तपे हुए वीरोंके लिये वह चलती-फिरती हुई प्याऊका काम देगा। औषधिपति चन्द्रमाके भण्डारकी भाँति और हिमगिरिके सारके सदृश ताजी व्रण-संरोहिणो औषधियोंके गट्ठर उखड़वा मँगवा- : ओ।” उनके ऐसे कोलाहलसे रणके बाजोंकी ध्वनिरूपी समुद्रमें ज्वार सा आ गया। उस समय सारा संसार चारों ओरसे उठते हुए तुमुल शब्दसे शब्दमय और हथियारोंकी झनझनाहटसे लौहमय हो उठा। मानों पूवकी सभी बातें आँखोंदेखी हों, इस तरह से पूर्वपुरुषोंके चारित्र सुनानेवाले, व्यासकी तरह रण-निर्वाहके फल बतलाने वाले और नारदकी तरह वीर योद्धाओंको जोश दि. लानेके लिये सामने आये हुए शत्रुवीरोंका बारम्बार आदर-सहित बखान करनेवाले चरण-भाट, हरएक हाथी, रथ और घोड़ेके पास जा-जाकर पर्व दिवसकी तरह रणसे चंचल होकर इधरसे उधर घूमने-फिरने लगे।
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व ___ इधर बाहुबली स्नान कर, देवपूजाके लिये मन्दिरमें गये। बड़े आदमी किसो कायके झंझटमें पड़कर अपने चित्तको खिरताको नहीं खो देते। देवमन्दिर में जा, जन्माभिषेकके समय इन्द्रको तरह उन्होंने ऋषभस्वामीकी प्रतिमाको सुगन्धित जलसे स्नान कराया। इसके बाद निःकषाय और परम श्रद्धा-युक्त होकर उन्होंने दिव्य-गन्ध-पूर्ण कषाय-वस्त्रसे, मनमानी श्रद्धाके साथ उस प्रतिमाका मार्जन किया और इसके पश्चात् लालरंगके वस्त्रकी मानों रचना की हो, ऐसा यक्षकर्दमसे उस प्रतिमाका विलेपन किया। सुगन्धमें देववृक्ष पुष्पोंकी मालाकीबहनसी विचित्र पुष्पोंकी मालासे उन्होंने प्रतिमाका अर्चन किया। सोनेकी धूपदानी में दिव्य धूप दिया। उसके धुएं से ऐसा मालूम पड़ने लगा, मानों नीले कमलोंसे पूजाकी जा रही हो। इसके बाद मकरराशिमें आये हुए सूर्यके समान उत्तरासङ्ग कर, प्रकाशमान आरतीको प्रतापके समान ग्रहण कर, आरती उतार, अन्तमें हाथ जोड़कर आदि भगवान्को प्रणाम कर, उन्होंने भक्तिपूर्वक इस प्रकार स्तुति करनी आरम्भ की,__ “ हे सवज्ञ ! मैं अपनी जड़ता दूर कर आपकी स्तुति कर रहा हूँ; क्योंकि आपकी यह दुर्निवार भक्ति मुझे वाचाल कर रही है। हे आदि-तीर्थश! आपकी जय हो, आपके चरण-नखको कान्तियाँ संसाररूपी शत्रुसे त्रास पाये हुए प्राणियोंको वज्रपंजरका काम देती है। हे देव ! आप के चरण-कमलोंके दर्शन करनके लिये दूर-दूरसे जो लोग राजहंसके समान प्रतिदिन
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र आया करते हैं, वे धन्य हैं। जाड़ेसे ठिठरे हुए लोग जैसे सूर्यकी शरणमें आते हैं, वैसेही इस संसारके विकट दुःखोंसे पीड़ित विवेकी व्यक्ति नित्य आपकी ही शरणमें आते हैं। है भगवन् ! जो लोग निर्निमेष नेत्रोंसे देखते हैं, उनको परलोकमें देवत्व दुर्लभ नहीं है। हे देव ! जैसे रेशमी कपड़े पर लगा हुआ अंजनका दाग़ दूधसे धोनेपर मिट जाता है. वैसही पुरुषोंका कर्मरूपी मैल आपकी देशनारूपी जलसे धुल जाता है। हे स्वामी ! जो निरन्तर आपका ऋषभनाथ यह नाम जपा करता है, उस जापकको सब सिद्धियोंका आकर्षण -मन्त्र सिद्ध सा हो जाता है। हे प्रभु ! जो आपकी भक्ति रूपी कवचको धारण कर लेता है, उस पर वज्र या त्रिशूलका असर नहीं होता।"
इस प्रकार भगवान्की स्तुति कर जिनके सारे शरीरके रोंगटे खड़े हो गये हैं, ऐसे वे नृप-शिरोमणि बाहुबली, प्रभुको प्रणाम कर, देवालयसे बाहर निकले। ___ इसके बाद उन्होंने विजयलक्ष्मोके विवाहके लिये बनी हुई काँचलीके समान सुवर्णमाणिक्य-मण्डित वन-कवच धारण कर लिया। जैस बहुतसे प्रबालोंके समूहसे समुद्र शोभा पाता है, वैसेही वे देदीप्यमान कवच पहननेसे सुशोभित दीखने लगे। तदनन्तर उन्होंने पर्वतकी चोटीपर सोहनेवाले मेघमण्डपकी तरह सिरपर शिरस्त्राण धारण कर लिया। बहुतसे सोसे भरे हुए पाताल-विवरके समान, लोहके बाणोंसे भरे हुए दो तरकस उन्हों ने पीठपर बाँध लिये और युगान्तके समय यमराजके उठाये हुए
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
दण्डकी तरह बायें हाथमें धनुष ले लिया। इस प्रकार तयार होनेवाले राजा बाहुबलीको स्वस्तिवाचक पुरुषोंने आपका कल्याण हो,' ऐसा कहकर आशीर्वाद दिया । नाते-गोतेकी बड़ी-बूढी स्त्रियाँ 'जीओ जागो' कहकर उन्हें असीसें देने लगीं। बड़े-बूढ़े और श्रेष्ठ पुरुष 'सानन्द रहो-सानन्द रहो' ऐसा कहने लगे और चारण-भाट 'चिरंजीवी हो, चिरंजीवी हो,' कहकर ऊँचे स्वरसे उनका मङ्गल मनाने लगे। तदनन्तर स्वर्गाधिपति जैसे मेरुपर आरूढ़ होते हैं, वैसेही सबके मुँहसे शुभ शब्द सुनते हुए महाभुज बाहुबली महावतका हाथ पकड़कर गजपतिके ऊपर आरूढ़ हुए।
इधर पुण्य-बुद्धि.महाराज भरत भी शुभलक्ष्मोके कोषागारके समान अपने देवमन्दिरमें पधारे। वहाँ पहुँचकर महामना महाराजने आदिनाथकी प्रतिमाको, दिग्विजयके समय लाये हुए पद्महद आदितीर्थोंके जलसे स्नान कराया ; जैसे उत्तम कारीगर मणिका मार्जन करता है, वैसेही देवदूष्य वस्त्रसे उस अप्रतिम प्रतिमाका मार्जन किया ; अपने निर्मल यशसे उज्ज्वल बनायी हुई पृथ्वीके समान हिमाचल कुमार आदि देवोंके दिये हुए गोशोर्ष-चन्दनसे उस प्रतिमाका विलेपन किया ; लक्ष्मीके सदन-स्वरूप कमलोंके समान प्रफुल्ल कमलोंसे उन्होंने पूजामें नेत्रस्तम्भनको औषधिके समान प्रतिमाको आँगी रची। धूम्रवल्लीसे मानों कस्तूरीकी पत्र-रचना करते हों, ऐसा धूप उन्होंने प्रतिमाके पास जलाया। इसके बाद मानों सर्व कर्मरूपी समाधिका अग्निकुण्ड हो, ऐसी
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प्रथम पर्व
आदिनाथ - चरित्र
प्रदीप्त दीपकवाली आरती ग्रहणकर उस राजदीपकने प्रभुकी आरती सबके अन्त में देवताको प्रणाम कर, हाथ जोड़, उन्होंने. इस प्रकार स्तुति करनी आरम्भ की,
उतारी।
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हे जगन्नाथ ! मैं अज्ञान हूँ, मैं अज्ञान हूँ, तो भी अपनेको योग्य मानकर मैं आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि बालकोंकी तोतली बाणी भी गुरुजनों को उचित ही मालूम पड़ती है । हे देव ! सिद्ध रसके स्पर्शसे जैसे लोहा भी सोना हो जाता है, वैसे ही आपका आश्रय करनेवाले प्राणोंके चाहे जैसे कर्म हों, तो भी वह सिद्ध- पदको प्राप्त हो जाता है । हे स्वामी ! आपका ध्यान, स्तुति और पूजन करनेवाला प्राणी अपने मन, वचन और कायाका फल प्राप्त कर लेता है, और वही धन्यपुरूष हैं । हे प्रभु! पृथ्वीमें विहार करते हुए आपके चरण-चिह्न पुरुषोंके पापरूपी वृक्षको उखाड़नेके लिये हाथी के समान काम करते हैं । हे नाथ ! स्वाभाविक मोहसे जन्मान्ध बने हुए संसारके जीवों को अकेले आपही विवेकरूपी नेत्र देने में समर्थ हो । जैसे मनके लिये मेरु आदि भी कुछ दूर नहीं है, वैसेही आपके चरणकमलों में भ्रमर बनकर लिपटे हुए पुरुषोंके लिये मोक्ष पाना कोई बड़ी बात तहीं है । हे देव ! जैसे मेघका जल पड़नेसे जम्बू वृक्षके फल गिर जाते हैं, वैसे ही आपकी देशना - रूपी वाणीसे ( पानीसे ) प्राणिओंके कर्मरूपी पाश: छिन्न-भिन्न हो जाते हैं । हे जगन्नाथ ! मैं बारम्बार प्रणाम करता हुआ आपसे यही वर माँगता हूँ कि आपमें मेरी भक्ति वैसेही अक्षय हो, जैसे समुद्रका जल कभी नहीं घटता ।”
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
इस प्रकार आदिनाथकी स्तुतिकर, प्रणाम करनेके अनन्तर चक्रवर्ती भक्ति-भरे हृदयके साथ मन्दिरके बाहर आये।
इसके बाद बारम्बार शिथिल करके रचा हुआ कवच उन्होंने अपने हर्षसे उछ्वसित अङ्गोमें धारण किया। माणिक्यको पूजासे जैसे देवप्रतिमा सोहती है, वैसेही अपने अङ्गोंमें दिव्य और मणिमय कवच धारण करनेसे वे भी शोभाको प्राप्त हुए । मानों दूसरा मुकुट ही हो, ऐसा बीचमें उठा हुआ और छत्रकी तरह गोलाकार सुवर्ण रत्नवाला शिरस्त्राण उन्होंने पहन लिया। उन्होंने अपनी पीठ पर सर्पकेसे तीक्ष्ण बाणोंसे भरे हुए दो तर. कस बाँध लिये और इन्द्र जैसे ऋजुरोहित नामक धनुषको धारण करता है, वैसे ही शत्रुओंको भय देनेवाला कालपृष्ठ नामक धनुष अपने बाँयें हाथमें ले लिया। इसके बाद सूर्यकी तरह अन्य तेजस्वियोंके तेजका हरण करने वाले, भद्र गजेन्द्रकी भाँति मस्तानी चालसे चलने वाले, सिंहकी तरह शत्रुओंको तृणके समान जाननेवाले, सर्पकी तरह अपनी दुर्विषह दृष्टिसे भय देनेवाले, और इन्द्रकी तरह बन्दी बनाये हुए देवताओंसे स्तुति करवाने वाले भरतराज निस्तन्द्र गजेन्द्रके ऊपर आ सवार हुए। ___ कल्पवृक्षके समान याचकोंको दान देते हुए, सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रकी तरह चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए, अपनी-अपनी सेनाओं को आया हुआ देखकर, हंस कमल-नालको ग्रहण करता है, वंसेही एक-एक बाणको ग्रहण करते हुए; विलासी पुरुष जैसे रतिवार्ता करता है, वैसे ही युद्धको वार्ता करते हुए, गगन-मण्डल
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प्रथम पवं
आदिनाथ-चरित्र के बीच में आये हुए सूर्यके समान बड़े उत्साह और पराक्रम वाले वे दोनों ऋषभकुमार अपनी-अपनो सेनाओंके बीच में आ विराजे। उस समय अपनी-अपनी सेनाओं के बीचमें टिके हुए भरत औरबाहुबली राजा जम्बूद्वीपमें रहने वाले मेरु पर्वतकी शोभा दिखला रहे थे। उन दोनों सैन्योंके बीचमें पड़ी हुई पृथ्वी, निषध और नील पर्वतोंके बीच में पड़ी हुई महा विदेहक्षेत्र भूमिकी तरह मालूम पड़ती थी। जैसे कल्पान्तके समय पूर्व और पश्चिम समुद्र आमने-सामने वृद्धि पाते हैं, वैसे ही दोनों आमने-सामने पंक्ति बाँधकर चलने लगे। बाँध जिस प्रकार जलके प्रवाहको रोकता है, उसी प्रकार पंक्तिसे अलग होकर चलनेवाले पैदल सिपाहियोंको राजाके द्वारपाल रोक देते थे। ताल सहित संगीत करनेवाले नाटकीय अभिनेताओंकी तरह वीरगण राजाकी आज्ञासे बराबर पाँव रखेहुए चलते थे। वे वीर अपने स्थानको उल्लंघन किये बिना चल रहे थे, इसी लिये दोनों ओरकी सेनाएं एक शरीर वालो मालूम पड़ती थीं। वीर योद्धागण पृथ्वीको रथोंके लोहेके मुखवालेचक्रोंसे विदीर्ण किये डालतेथे,लोहेकी कुदालीके समान घोड़ोंके तीखे खुगेसे खोद डालते थे। मानों लोहेका अद्धचन्द्र हो, ऐसे ऊँटोंके खुरोंसे पृथ्वी छिदी जाती थी। वज्रकीसी कठोर एड़ियों वाले पैदल सिपाही अपने पैरोंसे ही पृथ्वीको विदीर्ण किथे डालते थे। छुरेके समान तेज़ बाणकेसे महिषों ओर सांडोंके खुरोंसे भी पृथ्वी फटी जाती थी। मुद्गलकेसे हाथियोंके.पैर भी पृथ्वीको चूर्ण किये
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व डालते थे। वे वीरगण अपने पैरोंकी धूलसे अन्धकारको आच्छादित कर रहे थे और चमकते हुए हथियारोंसे चारों ओर प्रकाश फैला रहे थे। अपने भारी बोझसे वे कर्मकी पीठको भी क्लेश पहुँचा रहे थे, महावराहको ऊँची डाढ़ों को भी झुका रहे थे और शेषनागके फनके फैलावको भी शिथिल कर रहे थे। वे ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों सारे दिग्गजोंको कूबड़ बनाये डालते हो और सिंहनादसे ब्रह्माण्डरूपी पात्रको खूब ऊँचे स्वर से शब्दायमान कर रहे हों। साथ ही वे ऐसे मालूम पड़ते थे, मानो केराघात मात्रसे ही वे सारे ब्रह्माण्डको फोड़ डालेंगे। प्रसिद्धध्वजाओंके चिह्न से पहचानकर पराक्रमी शत्रुओंके नाम ले-लेकर उनका वर्णन करते हुए उन्हींकेसे शौर्यशाली वीर उन्हें युद्ध के लिये ललकार रहे थे। इस तरह दोनों सैन्योंके अग्रवीर एक दूसरे से भिड़ गये। फिरतो जैसे मगरके ऊपर मगर टूट पड़ता है, वैसे हो हाथी वालेके सामन हाथीवाला आ गया । तरङ्गके ऊपर जैसे तरङ्ग आपड़ती है,वैसेही घुड़सवार घुड़सवारके सामने आ डटा । वायुके साथ जैसे वायु टकराती है,वैसेहो रथीके साथ रथ की टक्कर हो गयी, ओर पर्वतके साथ जैसे पर्वत आ मिला हो, वैसे ही पैदलके साथ पैदलकी भिड़न्त हो गयी। इसी प्रकार सब वीर भाला, तलवार, मुद्गर और दण्ड आदि आयुधोंको परस्पर मिालकर क्रोधयुक्त हो एक दूसरेके निकट आये। इतनेमें त्रैलोक्यके नाशकी आशङ्कासे भयभीत हो, देवतागण आकाशमें आ इकट्ठा हुए। "अरे इन दोनों ऋषभपुत्रों
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ - चरित्र
का जो, एक ही शरीर की दो भुजाओंके समान हैं, परस्पर संघर्ष क्यों हो रहा है ?” ऐसा बिचार कर उन्होंने दोनों ओर के सैनिकों को पुकार -पुकार कर कहा.- "देखो जब तक हम लोग दोनों ओरके मनस्वी स्वामियों को समझाते हैं, तब तक तुममेंसे भी कोई युद्ध न करे, ऐसी ऋषभदेवजी की आज्ञा है ।" देवताओंने जब इस प्रकार तीन लोकोंके स्वामीकी आज्ञा सुनायी, तब दोनों ओर के सैनिक चित्र-लिखे से चुप चाप खड़े हो गये और यही विचार करने लगे, किये देवता बाहुबलीके पक्ष में हैं या भरतराजके । काम भी बिगड़े और लोक कल्याण भी हो जाये, इसी विचार से देवतागण पहले चक्रवतोंके पास आये । वहाँ पहुचते ही 'जय जय' शब्दले आशीर्बाद करते हुए प्रियवादी देवताओंने मंत्रि योंके समान इस प्रकार युक्तिपूर्ण बातें कहनी आरम्भ की; "हे नरदेव ! इन्द्र जैसे दैत्योंको जीतते हैं, वैसे ही आपने छओं खण्ड़ भरत क्षेत्रके सब राजाओंको जीत लिया, यह बहुत ही अच्छा किया, हे राजेन्द्र ! पराक्रम और तेजके कारण सम्पूर्ण राजरूपी मृगोंमें आप शरभके तुल्य हैं- आपका प्रतिस्पर्द्धा कोई नहीं है । जलकुम्भका मथन करनेसे जैसे मक्खनकी साध नहीं मिटती, वैसे ही आपकी युद्धकी साध आजतक नहीं मिटी, इसलिये आपने अपने भाईके साथ लड़ाई छेड़ दी है; परन्तु आपका यह काम अपने ही हाथसे अपने दूसरे हाथको घायल करने के समान है जैसे 1 बड़ा हाथी बड़े वृक्षमें अपना गण्डस्थल घिसता है, उसका कारण उसकी खुजली है, वैसे ही भाईके साथ आपके
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आदिनाथ - चरित्र
प्रथम पर्व
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युद्ध ठाननेका कारण भी आपकी भुजाओं की खुजलीही है ; परन्तु जैसे वनके उन्मत्त गजोंका उत्पात वनके नाशका ही कारण होता है, वैसे ही आपकी भुजाओं की यह कोड़ा जगतमें प्रलय मचा देगी। मांसभक्षी मनुष्य क्षणभरकी रसप्रीतिके लिये जिस प्रकार पक्षिओंके समूहका संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार आप भी अपनी क्रीड़ा मात्रके लिये इस विश्वका संहार करने को क्यों तुले हुए हैं ? जैसे चन्द्रमाको किरणोंसे अग्निकी वृष्टि होनी उचित नहीं, वैसे ही जगत्के त्राता और कृपालु श्रीऋषभदेवके पुत्र होकर आपको ऐसा नहीं करना चाहिये । हे पृथ्वीनाथ ! संयमी पुरुष जैसे संगसे विराम ग्रहण कर लेते हैं, वैसे ही आप भी इस घोर संग्राम से हाथ खींचकर घर लौट जाइये । आप यहाँ तक चले आये, इसलिये आपके छोटे भाई भी आपका साम ना करनेको चले आये; पर यदि आप लौट जायेंगे तो वे भी लौट जायेंगे, क्योंकि कारणसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। विश्वक्षय करनेके पापसे आप छुटकारा पा जाइये, रणका त्याग कर देनेसे दोनों ओरके सिपाहियोंका भला हो जाये, आपकी सेनाके भारसे होने वाली भूमिभङ्गका विराम होजानेसे पृथ्वीके गर्भमें रहने वाले भुवनपति इत्यादिको सुख होये, आपके सैन्यके मर्दनके अभाव से पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, प्रजाजन और सारे जीवजन्तु क्षोभका त्याग कर दें और आपके संग्रामसे होनेवाले विश्व संहारकी शङ्कासे रहित होकर सारे देवता सुखी हो जायें ।"
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देवता इस प्रकारकी पक्षवातपूर्ण बातें कही रहे थे, कि
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
महाराज भरत मेघकी सी गंभोर गिरामें बोले,- "हे देवताओं! आप लोगोंके सिवा विश्वके हितकी बात और भला कौन कह सकता है ? अधिकतर लोग तमाशा देखनेकी इच्छासे ऐसे २ मामलोंमें उदासीन हो रहते हैं, आप लोगोंने हितकी इच्छासे इस लड़ाईके छिड़नेका जो कारण अनुमान किया है, वह वस्तुतः कुछ और ही है। यदि कोई किसी कामका मूल जाने बिना तर्कसे ही कोई बात कह दे, तो वह भले ही वृहस्पति क्यों न हो, पर उसकी बात बिलकुल बेकार होती है। "मैं बड़ा बलवान् हूँ, यही सोचकर मैंने सहसा यह लड़ाई नहीं छेड़ी ; क्योंकि चाहे कितना भी अधिक तेल क्यों न हो; पर उससे पर्वतके शरीरका अभ्यङ्ग नहीं किया जाता। भरतक्षेत्रके छहों खण्डोंके सब राजाओंकों जोतनेवाले मुझ भग्तका कोई प्रतिस्पर्धी न हो, ऐसी बात नहीं है; क्योंकि शत्रुकी तरह प्रतिस्पर्धा करने वाले तथा जय-पराजयके कारणभूत इस बाहुबलीके ओर मेरे बीच में विधिवशात् अनबन हो गयो है। पहले तो यह निन्दासे डरने वाला, लज्जाशील, विवेकी, विनयी और विद्वान् बाहुबली मुझ पिताके समान मानता था ; परन्तु साठ हजार वर्ष बाद दिग्विजय करके आनेर मैं तो देखता हूँ, कि वह कुछका कुछ हो गया है। हम दोनों बहुत कालतक अलग-अलग रहे यही इसका कारण मालूम पड़ता है। बारह वर्षतकराज्याभिषेकका उत्सव होता रहा पर बाहुबली एकवार भी नहीं आया। मैंने सोचा, बह भूल गया होगा । इसीलिये मैंने उसके पास दूत भेजा; पर इसपर भी
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पव
वह नहीं आया। मैंने सोचा, यह उसके मंत्रियोंके विचारका रोष होगा। मैंने उसे किसी लोभसे या उसपर क्रोध करके नहीं बुलवाया था; पर चूँकि जबतक एक भी राजा सिर ऊंचा किये रहेगा, तषतक चक्र नगरमें प्रवेश नहीं करेगा। ऐसी हालतमें मैं क्या करूँ ? इधर चक्र नगर में नहीं प्रवेश करता, उघर बाहुबली मेरे आगे सिर नहीं झुकाता, इससे मुझे तो ऐसा मालूम होता है, कि इन दोनोंमें होड़सी लगी हुई है। मैं इसी संकटमें पड़ा हूँ। यदि मेरा भनस्वी भाई एक वार मेरे पास आये और अति. थिकासा सत्कार ग्रहण करे, तो मैं उसको मनमानी पृथ्वो दे हूँ। इसलिये इस चक्रके नहीं प्रवेश करने के सिवा मेरे युद्ध करनेका कोई दूसरा कारण नहीं है। मैं अपने उस छोटे भाइसे मान पानेकी इच्छा भी नहीं करता ।
देवताओं ने कहा,-"राजन ? संग्रामका कारण बहुत बड़ा होना चाहिये, क्योंकि आपकेसे पुरुषों को छोटे-मोटे कारणोंसे ऐसी प्रकृत्ति नहीं होनी चाहिये। अब हमलोग बाहुबलीके पास जाकर उन्हें भी समझायेंगे और इस युगान्तके समय होनेवाले जनक्षयके समान लोक संहारको रोकने की चेष्टा करेंगे । कदा. चित् वे भी आपकी ही तरह इस युद्धका कोई दूसरा कारण बतलाये, तो भी आपको यह अधम युद्ध नहीं करना चाहिये । महान पुरुष तो दृष्टि, बाहु और दण्ड आदि उत्तम आयुधोंसे ही युद्ध करते हैं, जिससे निरपराध हाथियों आदिका बध न हो।"
भरत चक्रवर्तीने देवताओंकी यह बात स्वीकार करली और
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प्रथम पर्व .
आदिनाथ-चरित्र देवतागण उसी समय बाहुबलीके सैनिक पड़ावमें आ पहुँचे। मन-ही-मन यह विचार कर विस्मयमें डूबते हुए, कि यह बाहुबली तो दृढ़ अवष्टम्भवाली मूर्तिसे भी ढूढ़ है, देवताओंने बाहुबलीसे कहा,___ "हे ऋषभ नन्दन ! हे संसारके नेत्ररूपी चकोरोंको आनन्द देनेवाले चन्द्रमा ! आपकी सदा जय हो और आप सदेव सानन्द रहे। आप समुद्रकी भांति कभी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करते, और कायर पुरुष जैसे युद्धसे डरते हैं, वैसेही आप भी लोकापवाद से डरते हैं। आप न तो अपनी सम्पत्तिका गर्व करते हैं, न दूसरोंकी सम्पत्ति पर आपको ईर्षा होती है। आप दुर्विनीत मनुष्योंके दण्डदाता हैं, गुरुजनोंकी विनय करनेवाले हैं और विश्वको अभय करनेवाले ऋषभस्वामीके योग्य पुत्र हैं। इसलिये आपको ऐसे कार्यमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिये, जिससे बहुतसे लोगोंका सत्यानाश हो जाये। अपने बड़े भाईके ऊपर चढ़ाई करनेकी ऐसी तैयारी करना आपके लिये उचित नहीं और अमृत से जिस प्रकार मृत्यु नहीं हो सकती, उसी प्रकार आपसे ऐसा काम हो भी नहीं सकता। अभीतक कुछ भी नहीं बिगड़ा है, इसलिये खल पुरुषकी मैत्रीकी तरह आप इस युद्धकी तैयारी से हाथ खींच लीजिये । जैसे मन्त्र द्वारा बड़े-बड़े सर्प भी पीछे लौटा दिये जा सकते हैं, वैसेही आपकी आज्ञासे ये वीर योद्धा युद्धके शोरसे अलग हो जाये और आप अपने बड़े भाई भरतराज के पास जाकर उनकी वश्यता स्वीकार कर लीजिथे। ऐसा
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व
करनेसे लोग यही कह-कह कर आपकी प्रशंसा करेंगे, कि आप शक्तिमान होते हुए भी विनयी हैं। भरत राजाने जो भरतक्षेत्र के छहों खण्ड जीत लिये हैं, उनका आप स्वयं जीते हुए देशों की तरह भोग कीजिये, क्योंकि आप दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है ।
ऐसा कहकर जब मेघकी तरह देवगण चुप हो गये, तब बाहुबलीने जरा मुस्करा कर गम्भीर वाणी से कहा, "हे देवताओं ! आप लोग हमारे युद्ध के असल कारणको जाने बिना ही अपनी स्वच्छहृदयताके कारण ऐसा कह रहे हैं । आप लोग हमारे पिताके भक्त हैं और हम दोनों उनके पुत्र हैं; इस सबन्धसे आप लोगों का ऐसा कहना उचित ही है। इससे पहले दीक्षा ग्रहण करते समय पिताजीने जिस प्रकार याचकोंको सोना आदि दिया, उसी प्रकार मुझे और भरतको भी देशोंका विभाग करके दिया । मैं तो उनके दिये हुए राज्यसे सन्तुष्ट होकर रहा; क्योंकि महज़ धन के लिये दूसरोंसे द्रोह कौन करे ? परन्तु जैसे समुद्रकी बड़ी-बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियोंको निगल जाती हैं। वैसेही इस भरतक्षेत्ररूपी समुद्रके सब राजाओंके राज्योंको राजा भरतने निगल लिया। जैसे मरभुक्खा मनुष्यको कितना भी खानेको मिले, पर वह सन्तुष्ट नहीं होता, वैसेही उतने राज्योंको पाकर भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ और उन्होंने अपने सब छोटे भाइयोंके राज्य भी हड़प कर लिये । t जब उन्होंने पिताके दिये हुए राज्यको छोटे भाइयों से छीन लिया, तब तो उन्होंने अपना बड़प्पन मानों अपने आप ही खो दिया। बड़प्पन केवल उमरसे ही नहीं माना जाता, बल्कि
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प्रथम पर्व
४५१ आदिनाथ-चारत्र बड़ेको वैसा ही आचरण भी करना चाहिये। भाइयोंको राज्य से दूर करके उन्होंने अपना बड़प्पन भली भांति दिखला दिया हैं । जैसे कोई धोखेसे पीतलको सोना और काँचको मणि समझ ले, वैसेही मैं भी अबतक म्रममें पड़ा हुआ उन्हें बड़ा समझ रहा था। . यदि पिता अथवा वंशके किसी अन्य पूर्व-पुरुषने किसीको पृथ्वी दान की हो, तो जबतक वह कोई अपराध नहीं करता, तबतक कोई अल्प राज्यवाला राजा भी. उससे बह दानकी हुई पृथ्वी वापिस नहीं लेता। फिर भरतने भाइयोंके राज्य क्यों छीन लिये ? छोटे भाइयोंका राज्य हरण कर निश्चय ही वे लजित नहीं हुए, इसीसे तो अबके मेरे राज्यको जीत लेनेकी इच्छासे मुझे भी बुला रहे हैं। जेसे नौका समुद्र पार करके किनारे आ लगते.न-लगते किसी पर्वतसे टकरा जाती है, वैसे ही सारे भरतक्षेत्रको जीतने बाद ये मेरे साथ टक्कर लेने आये हैं। लोभी, मर्यादाहीन और राक्षसके समान निर्दय भरतराजको जब मेरे छोटे भाइयोंने ही शर्मके मारे अपना प्रभु नहीं माना, तब मैं ही उनके किस गुणपर रीझ कर उनके वशमें हो जाऊँ ? हे देवताओ! आप लोग सभा. सदोंकी तरह मध्यस्थ होकर विचार करें। यदि भरतराज अपने पराक्रमसे मुझे वशमें कर लेना चाहते हैं, तो भले ही कर देखें, क्योंकि यह तो क्षत्रियोंका स्वाधीन मार्ग ही है। लेकिन इतने पर भी यदि वे समझ बूझ कर पीछे लौट जायें, तो बड़े मजेसे जा सकते हैं। मैं उनकी तरह लोभी नहीं हूँ, कि उनके पीछे लौटनेकी राहमें अडङ्गा लगाऊँ। आप जो यह कह रहे हैं, कि
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आदिनाथ- चरित्र
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प्रथम पर्व
उनके दिये हुए भरत क्षेत्रोंको भोगिये - सो क्या यह भी कहीं हो सकता है ? सिंह भी कभी किसीका दिया हुआ खाता है ? नहीं— हर्गिज़ नहीं। उन्हें तो भरत क्षेत्र पर विजय प्राप्त करने में साठ हजार बर्ष लग गये, पर मैं यदि चाहूँ, तो बातकी बात में ले लूँ । परन्तु उनके इतने दिनों के परिश्रमसे प्राप्त किये हुए समस्त भरत क्षेत्रके वैभवको धनवान्के धनकी तरह मैं भाई होकर भी कैसे छीन लूँ ? जैसे चमेलीके फूल तथा जायफल खाने से हाथी मदान्ध हो जाता है, वैसेही यदि वे वैभव पाकर अन्धे हो गये हों, तो सच जानिये, उन्हें सुख की नींद नसीब नहीं होगी। मैं तो उस वैभवको नष्ट हो गया हुआ ही समझ रहा हूँ अपनी ; पर उसपर वार नहीं टपकती, इसीलिये उसकी उपेक्षा कर रहा हूँ । इस समय मानों अपनी जमानत देनेके ही लिये वे अपने अमात्यों, भण्डारों, हाथियों, घोड़ों और यशको लिये हुए उन्हें मेरी नज़र करने आये हैं । इसलिये हे देवताओं ! यदि आप लोग उनकी भलाई चाहते हों, तो उन्हें युद्ध करनेसे रोकिये। यदि वे लड़ाई न करेंगे तो मैं भी नहीं लडूंगा ।”
मेघ गर्जनकी तरह उनके इन उत्कट वचनों को सुनकर विस्मित हो, देवताओंने उनसे फिर कहा, "एक ओर चक्रवर्ती अपने युद्ध करनेका कारण यह बतलाते हैं, कि उनके नगर में चक्र नहीं प्रवेश करता; इसलिये उनके गुरु भी निरुत्तर हो जाते हैं और उन्हें रोकने में असमर्थ हैं। इधर आप कहते हैं, कि मैं तो उसीके साथ युद्ध करने जा रहा हूँ, जिसके साथ युद्ध करना
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
ही उवित है। फिर तो इन्द्र भी आपको युद्धमें जानेसे नहीं रोक सकते। जो हो, आप दोनों ही श्रीऋषभस्वामीके संसर्गसे सुशोभित हैं; बड़े बुद्धिमान हैं, विवेकी हैं, जगत्के रक्षक हैं और साथ ही दयालु भी हैं । परन्तु चूंकि संसारके भाग्यका क्षय हो गया है, इसीलिये यह युद्धरूपी उत्पात उठ खड़ा हुआ है । तो भी हे वीर ! प्रार्थना पूर्ण करनेमें कल्पवृक्षके समान आपसे हमलोग एक प्रार्थना करते हैं और वह यह, कि उत्तम युद्ध करें, अधम युद्ध नहीं ; क्योंकि उग्र तेजवाले आप दोनों भाई यदि अधम युद्ध करने लगेंगे, तो बहुतसे लोगोंका प्रलय हो जायेगा और अकालमें ही प्रलय हुआ मालूम पड़ने लगेगा। इसलिये आप दोनोंके युद्धमें दृष्टि आदिका युद्ध होना चाहिये। इससे आपका भी मान रह जायेगा और लोगोंका प्रलय भी न होगा।" ब हुबलीने इस बातको मान लिया तब उनका युद्ध देखनेके लिये नगरके लोगोंके समान देवता भी पासमें आकर खड़े हो रहे ।
इसके बाद बाहुबलीकी आज्ञासे एक बलवान् प्रतिहार हाथी पर बैठकर गजके समान गजेना करता हुआ अपने सेनिकोंसे कहने लगा,—"हे वीर योद्धाओं! चिरकालसे चिन्तित तुम्हारे वाञ्छित पुत्र लाभके भाँति तुम्हें स्वामीका कार्य करनेका अवसर प्राप्त हुआ था। परन्तु तुम्हारे अल्प-पुण्यके कारण हमारे बलवान् राजासे देवताओंने प्रार्थना की है, कि भरतके साथ द्वन्द्व-युद्ध कीजिये। एक तो स्वामी स्वयं द्वन्द्व-युद्ध करना चाहते हैं, तिस पर देवताओंका अनुरोध होगया। फिर क्या कहना हैं ? इस
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व लिये हमारे इन्द्रकेसे पराक्रमी महाराजबाहुबली तुमको रण-संग्राम करनेसे मना करते हैं । देवताओंके समान तुम भी तटस्थ होकर हस्तिमल्लकी तरह अपने एकाङ्गमल्ल जैसे स्वामीका युद्ध करना देखो और वक्र बने हुए ग्रहों की तरह अपने रथों, घोड़ों और हाथियोंको पीछे लौटा ले जाओ। साँपको जैसे पिटारीके अन्दर बन्द कर लेते हैं, वैसेहो तुम अपने खड्गोंको म्यानमें डाल दो ; केतुके सद्दश भालेको कोषमें रख दो, हाथीकी सूंड़के समान अपने मुद्गरोंको नीचे डाल दो, ललाटकी भृकुटीकी तरह धनुषकी प्र. त्यञ्चा उतार डालो, भण्डारमें जैसे द्रव्य डाल दिया जाता है, वैसेही अपने बाणोंको तरकसमें रख दो और मेघ जैसे बिजली का संवरण करता है, वैसेही अपने शल्यका संवरण कर लो।"
प्रतिहारके वज्र-निर्घोषके समान इन वचनोंको सुन, चकर में आये हुए बाहुबलीके सैनिक बीच-बीच में इस प्रकार विचार करने लगे,-"ओह, इन देवताओंने तो न जाने अकस्मात् कहाँसे आकर स्वामीसे प्रार्थना :कर, हमारे युद्धोत्सवमें विघ्न डाल दिया। मालूम होता है, कि होनेवाले युद्धसे ये देवता बनियोंकी तरह डर गये अथवा इन्होंने भरत राजाके सेनिकोसे रिश्वत ले ली है अथवा ये हमारे पूर्व जन्मके वैरी हैं। अरे ! हमारे सामने आये हुए इस रणोत्सवको तो देवने ठीक उसी तरह छीन लिया, जैसे भोजन करनेके लिये बैठे हुए मनुष्य के सामनेसे परोसी हुई थाली हटा ली जाये अथवा प्यार करनेको जाते हुए मनुष्यको गोदसे कोई उसका बच्चा छीन ले अथवा कुएँ से बाहर निकल कर
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प्रथम पर्व
४५५ . आदिनाथ-चरित्र आते हुए मनुष्यके हाथसे कोई रस्सी खींच ले। भला, भरतराजा जैसा दूसरा कौन शत्रु मिलेगा, जिसके साथ युद्ध करके हम अपने महाराजका ऋण चुकायेंगे? भाई-बन्दों, चोर और पिताके घर रहनेवाली पुत्रवती स्त्रीकी तरह हम लोगोंने तो व्यर्थ ही बाहुबलीका द्रव्य लिया और जङ्गली वृक्षोंके फूलकी सुगन्धकी तरह अपने बाहुदण्डोंका वीर्य भी व्यर्थ ही गया। नपुंसक पुरुषोंके द्वारा किये हुए स्त्री संग्रहके समान अपना यह शस्त्र संग्रह भी बिलकुल बेकार ही गया और तोतेको पढ़ाये हुए शास्त्राभ्यासकी तरह हमारा शस्त्राभ्यास भी व्यर्थ ही हुआ। तापसोंके पुत्रोंको मिला हुआ कामशास्त्रका परिज्ञान जैसे निष्फल होता है, वैसे ही अपनी यह सिपाहीगिरी भी बेकार ही गयी। मूोंकी तरह हमने जो हाथियोंको युद्ध में स्थिर रहनेका अभ्यास करवाया और घोड़ोंको श्रमजय करवाया, वह सब व्यर्थ ही होगया। शरद-ऋतुके मेघोंकी तरह हमारी सारी गरज-ठनक निकम्मी निकली और हमने महर्षियोंकी तरह व्यर्थ ही विकट कटाक्ष किये। सामग्री देखनेवालों की तरह अपनी तैयारियाँ व्यर्थ हो गयीं और युद्ध की लालसा नहीं मिटनेसे अपनी सारी हैंकड़ी किरकिरी हो गयी। - इसी प्रकारके विचारों में डूबे हुए वे लोग खेदरूपी विषसे गर्भित हो, फुफकार छोड़नेवाले साँपकी तरह लम्बी सांसें लेते हुए पोछेको लौटे। क्षात्रव्रत रूपी धनसे धनवान भरत राजाने भी अपनी सेनाको उसी तरह पीछे लौटाया, जैसे समुद्र भाठेको पीछे लौटाता है। पराक्रमी चक्रवर्तीके द्वारा लौटाये हुए
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आदिनाथ - चरित्र
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प्रथम पर्व
सैनिक पग-पग पर रुक जाते और इकट्ठे होकर विचार करने लगते, – “हमारे स्वामी भरतने भला किस वैरीके समान मंत्रीकी सलाह से केवल दो भुजाओंसे होनेवाला द्वन्द-युद्ध स्वीकार कर लिया ? जब छाँछके भोजनकी तरह स्वामीने ऐसाही युद्ध करना स्वीकार कर लिया, तब अपना क्या काम रहा ? भरतक्षेत्रके छओं खण्डों के राजाओंसे युद्ध करते समय क्या हमने किसीको नहीं मारा कूटा ? फिर वे क्यों हमें युद्ध करनेसे रोक रहे हैं ? जबतक अपने सिपाही भाग न खड़े हों, लड़ाई जीत न लें या मारे न जायें, तबतक तो स्वामीको युद्ध हीं करना चाहिये क्योंकि युद्धकी गति बड़ी विचित्र होती है । यदि इस एक बाहुबलीक सिवा और भी कोई शत्रु हो, तो भी अपने मनमें तो स्वामीकी विजय में शङ्का नहीं हो सकती ; परन्तु बलवान भुजाओंवाले बाहुबलीके साथ युद्ध करनेमें जब इन्द्रको ही जीतने के लाले पड़ने लगे, तव और क्या कहा जाये। बड़ी नदीकी बाढ़ के समान दुःसह वेगवाले उस बाहुबलीके साथ पहले-पहल स्वामीको ही युद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि पहले चाबुक सवारोंके द्वारा दमन किये हुए घोड़े पर ही बैठा जाता है ।"
अपने वीर पुरुषोंको इस प्रकार बीच-बीच में रुक-रुककर बातें करते हुए जाते देख चाल-ढालसे उनका भाव ताड़ कर भरत चक्रवर्त्तीने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा, "हे वीरपुरुषों ! जैसे अन्धकारका नाश करने में सूर्य की किरणें सदा तत्पर रहती हैं, वैसेही शत्रुओंका नाश करनेमें तुम भी कभी पीछे
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र पैर देनेवाले नहीं हो। जैसे अगाध खाई में गिरकर हाथी किले तक नहीं आने पाता, वैसेही जबतक तुमसे योद्धा मेरे पास हैं, तबतक मेरे पास कोई शत्रु नहीं आ सकता। पहले तुमने कभी मुझे लड़ते नहीं देखा, इसीलिये तुम्हें व्यर्थकी शङ्का हो रही है; क्योंकि भक्ति उस स्थानमें भी शङ्का उत्पन्न कर देती है, जहाँ शङ्का करनेकी कोई गुञ्जाइश नहीं होती। इसलिये हे वीर ! योद्धाओ ! तुम सब लोग खड़े होकर मेरी भुजाओंका बल देखो, जिसमें तुम्हारी यह शंका मिट जाये, जैसे औषधिमें रोगका क्षय कग्नेको शक्ति है या नहीं, यह सन्देह रोग दूर होते हो दूर हो जाता है।"
यह कह कर भरत चक्रवर्तीने एक बहुत लब्बा-चौड़ा और गहरा गड्डा खुदवाया। इसके बाद जैसे दक्षिण-समुद्रके तीर पर सह्याद्रि पर्वत है, वैसे ही वे आप भी उस गड्डे के ऊपर बैठ रहे और बड़के पेड़के सहारे लटकनेवाली बरोहियों (जटावल्लरी) की तरह उन्होंने बाँयें हाथमें मजबूत साँकले एकके ऊपर दूसरी बंधवायीं । जैसे किरणोंसे सूर्यकी शोभा होती है और लताओंसे वृक्ष शोभा पाता है, वैसे ही उन एक हजार शृखलाओंसे महाराज भी शोभित होने लगे। इसके बाद उन्होंने उन सब सैनिकोंसे कहा,- "हे वीरों जैसे बैल गाडीको खींचते हैं, वैसे ही तुम भी अपने वाहनोंके साथ पूरा जोर लगा कर मुझे निर्भय होकर खींचो। इस प्रकार तुम सब लोग मिलकर अपने एकत्रित बलसे मुझे खींचकर इस गड्ढे में गिरा दो। मेरी भुजाओंमें
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
कितना बल है, इसकी परीक्षा करनेके लिये तुम इस काममें यह सोचकर ढील न करना, कि इससे अपने स्वामीकी बेइज्जती होगी । मैंने ऐसा ही कुछ दुःस्वप्न देखा है, इसलिये तुमलोग उसका नाश कर दो। क्योंकि स्वप्नको स्वयं सार्थक कर दिखलानेवालेका स्वप्न निष्फल हो जाता है।" जब चक्रवर्त्तीने बारबार यही बात कही, तब सैनिकोंने बड़ी-बड़ी मुश्किलोंसे ऐसा करना स्वीकार कर लिया; क्योंकि स्वामीकी आज्ञा हर हालतमें बलवान् होती हैं। इसके बाद देवासुरोंने जिस प्रकार मन्द्राचल पर्वतके रज्जूभूत सर्पको खैंचा था, उसी प्रकार सब सैनिक मिलकर चक्रवर्तीकी भुजामें बांधी हुई वह श्रृंखला खींचनी शुरू की । अब तो वे चक्रीकी भुजासे लिपटी हुई शृंखला में चिपके हुए ऊँचे वृक्षकी डाल पर बैठे हुए बन्दरोंकी तरह मालूम पड़ने लगे । चक्रवतीने कौतुक देखनेके लिये थोड़ी देरतक पर्वतको भेदनेवाले हाथियोंकी तरह अपने को खींचनेवाले उन सैनिकोंको उपेक्षा की दृष्टिसे देखा । इसके बाद महाराजने उस हाथको अपनी छाती से लगाया । इतनेमें हाथ खींच लेनेसे पंक्ति बाँधकर खड़े हुए वे सब सैनिक घटीमालाकी तरह एक साथ गिर पड़े। उस समय खजूरका वृक्ष जैसे फलोंसे सोहता है, वैसेही उन लटकते हुए सैनिकोंसे चक्रवर्तीकी भुजा सोहने लगी । अपने स्वामीका यह अपूर्व बल-पौरुष देख, हर्षित हो, सैनिकोंने उनकी भुजासे लिपटी हुई उन श्रृंखलाओंको पूर्व में की हुई अनुचित शङ्काकी तरह तत्काल तोड़ डाला ।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
तदनन्तर गीत गानेवाले जैसे पहले कहे हुए टेक पर (ध्रुवपद ) फिर लौट आते हैं, वैसेही चक्रवर्ती फिर हाथी पर बैठ कर रणभूमिमें आये । गङ्गा और यमुनाके बीचमें जैसे वेदिका का भाग सोहता है, वैसेही दोनों सेनाओंके बीच में विपुल भूमितल शोभा दे रहा था । जगतका संहार होते-होते रुक गया,. यही सोचकर प्रसन्न हुई वायु न जाने किसकी प्रेरणासे धीरे-धीरे पृथ्वीकी धूलको उड़ाकर जगह साफ करने लगी । समवसरण की भूमिकी तरह उस रणभूमिको पवित्र जाननेवाले देवताओंने सुगन्धित जलकी वृष्टिसे सींचना शुरू किया और जैसे मांत्रिक पुरुष मण्डलकी भूमि पर फूल छोड़ता है, वैसेही रणभूमि पर
खिले हुए फूल बरसाये । तदनन्तर गजकी तरह गर्जन करते
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हुए दोनों राजकुअर हाथी परसे उतरकर रणभूमिमें आये मस्तानी चालसे चलनेवाले वे महापराक्रमी वीर पग-पग पर कूर्मेन्द्रके प्राणोंको संशयमें डालने लगे ।
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पहले दृष्टि-युद्ध करनेकी प्रतिज्ञा कर, दूसरे शक और ईशानइन्द्रकी तरह वे दोनों निर्निमेष नेत्र किये हुए आमने-सामने खड़े हो रहे । रक्त नेत्रवाले वे दोनों वीर सम्मुख खड़े होकर एक दूसरेका मुँह देखने लगे; उस समय वे ऐसे शोभित हुए, मानों सायंकालके समय आमने-सामने रहनेवाले सूर्य और चन्द्रमा हो । बड़ी देरतक वे दोनों वीर ध्यान करनेवाले योगियों की भांति निश्चल नेत्र किये स्थिर खड़े रहे । अन्तमें सूर्य की किरणोंसे आक्रांत - नील कमलके समान ऋषभस्वामीके ज्येष्ठ पुत्र भरतके नेत्र मिंच
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
गये और भरत क्षेत्र के छहों खण्डोंकी विजय करके प्राप्त की हुई बड़ी कीर्त्ति को उनके नेत्रोंने आँसुओंके बहाने पानीमें डाल दिया, ऐसा मालूम पड़ा । प्रातः काल हिलते हुए वृक्षोंकी तरह सिर. हिलाते हुए देवताओंने उससमय बाहुबलीके ऊपर फूलोंकी वर्षा की। सूर्योदय के समय पक्षी जिस प्रकार कोलाहल कर उठते हैं, वैसेही बाहुबलीकी विजय होते ही सोमप्रभ आदि वीरोंने हर्षसे कोलाहल करना शुरू किया 1 कीर्त्तिरूपी नर्त्तकीने मानों नृत्य प्रारम्भ कर दिया हो, वैसेही तैयार खड़े बाहुबलीके से - निकों ने जयके बाजे बजाने शुरू किये । भरत रायके वीर तो ऐसे मन्द-पराक्रम हो गये, मानों सबके सब मूर्च्छित हो गए हों, सो गये हों या रोगातुर हो गये हों । अन्धकार और प्रकाशवाले मेरु पर्वत के दोनों पार्श्वोकी तरह एक सेनामें खेद और दूसरीमें हर्ष फैल गया । उस समय बाहुबलीने चक्रवर्तीसे कहा,"देखना, कहीं यह न कह बैठना, कि मैं कालतालीय न्यायसे जीत गया हूँ । यदि जीमें ऐसी ही धारणा हो, तो अबके वाणीसे युद्ध करके देख लो । ” बाहुबलीकी यह बात सुन, पैर से कुचले हुए साँपकी तरह क्रोधसे भरकर चक्रवर्त्तीने कहा, “भला इस तरह भी तो जीत जाओ ।
"
इन्द्र का हाथी गरज़ता है और मेघ राजाने भी घोर सिंहनाद किया । : पर उसके दोनों किनारे पानीसे
तदनन्तर जैसे ईशानइन्द्रका वृषभ नाद करता है, सौधर्म ठनकता है, वैसेही भरत जैसे बड़ी नदीमें बाढ़ आने लबालब भर जाते हैं, वैसेही
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प्रथम पवे
आदिनाथ-चरित्र
उनका वह सिंहनाद चारों दिशाओं में व्याप्त हो गया। साथ ही ऐसा मालूम पड़ा, मानों वह युद्ध देखनेके लिये आये हुए देवताओंके विमान गिरा रहा हो,आकाशके ग्रह-नक्षत्रों और ताराओंको अपनी जगहसे हटा रहा हो, कुल पर्वतोंके ऊँचे ऊंचे शिखरोंको हिला रहा हो और समुद्रके जलमें खलबली पैदा कर रहा हो। वह सिंहनाद सुनतेही रथके घोड़े वैसेही रासकी परवा नहीं करने लगे, जैसे दुष्टबुद्धिवाले मनुष्य बड़ोंकी आज्ञाकी परवा नहीं करते ; पिशुन लोग जैसे सद्वचनको नहीं मानते, वैसे ही हाथी अंकुशको नहीं मानने लगे; कफ रोगवाले जैसे कड़वे पदार्थको नहीं मानते, वैसेही घोड़े लगामकी परवा नहीं करने लगे; कामी पुरुष जैसे लज्जाको नहीं मानते, वैसेही ऊँट नकेलोंको कुछ नहीं समझने लगे और भूत लगे हुए प्राणीकी तरह खच्चर अपने ऊपर पड़ती हुई चाबुकोंकी मारको भी कुछ नहीं समझने लगे। इस प्रकार चक्रवर्ती भरतके सिंहनादको सुनकर कोई स्थिर न रह सका। इसके बाद बाहुबलीने भी बड़ा भयङ्कर सिंहनाद किया। वह आवाज़ सुनते ही सर्प नीचे उतरे हुए गरुड़के पंखों की आवाज़ समझकर पातालसे भी नीचे घुस जानेकी इच्छा करने लगे। समुद्रके बीचमें रहनेवाले जल-जन्तु वह आवाज सुन, समुद्रमें प्रवेश किये हुए मन्दराचलके मथनकी आवाज़ समझ कर डर गये; कुल पर्वत, उस ध्वनिको सुनकर बारम्बार इन्द्रके छोड़े हुए वज्रकी आवाज़ समझ, अपने नाशकी आशङ्कासे काँपने लगे। मृत्यु-लोकवासी सारे मनुष्य वह शब्द सुन, प्रलयके
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
समय पुष्करावर्तसे निकली हुई विद्युत ध्वनिके भ्रममें पड़ कर पृथ्वीपर लोटने लगे। देवतागण वह कर्णकटु शब्द सुन, असमयमें प्राप्त होनेवाले दैत्यके उपद्रवसे पैदा हुए कोलाहलके भ्रममें पड़कर बड़े ही व्याकुल हो गये। वह दुःश्रव सिंहनाद मानों लोकमालिकाके साथ स्पर्धा करता हुआ अधिकाधिक फैलने लगा । बाहुबलीका सिंहनाद सुन, भरत राजाने फिर देवताओंकी स्त्रियोंको हरिणीकी तरह डरा देनेवाला सिंहनाद किया । इसी प्रकार भरतराजाका नाद क्रमसे हाथीकी सूंड़के समान होतेहोते साँपके शरीरकी तरह न्यून होता चला गया और बाहुबली का नाद नदीके प्रवाह और सजनके स्नेहकी तरह क्रमशः अधिकाधिक बढ़ता चला गया। इस तरह जैसे शास्त्र सम्बन्धी वाग्युद्धमें वादी प्रतिवादीको जीत लेता है, वैसे ही वीर बाहु. बलीने भरत राजाको जीत लिया । ___ इसके बाद दोनों भाई कमर-बन्द हाथियोंकी तरह वाहुयुद्ध करने के लिये कमर कस कर तैयार हुए। उस समय उछलते हुए समुद्रकी भौति गर्जन करते हुए बाहुबलीके एक मुख्य प्रतिहारीने जो सोनेकी छड़ी हाथमें लिये हुएथा, कहा,–“हे पृथ्वी? वज्रकी कीलोंके समान पर्वतों तथा अन्य सब प्रकारके बलोंका आश्रय ग्रहण कर तुम स्थिर रहो। हे नागराज ! चारों ओरके पवनको ग्रहण कर उसके वेगको रोकनेवाले पर्वतकी भाँति दड़ होकर तुम इस पृथ्वीको धारण किये रहो, हे महावराह ! समुद्र के कीचड़में लोटकर पूर्व श्रमको दूर कर फिरसे ताज़ादन होकर
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प्रथम पर्व
४६३
आदिनाथ - चरित्र तुम पृथ्वीको अपनी गोद में रख लो । हे कमठ ! अपने वज्रकेसे अङ्गों को चारों ओरसे सिकोड़ कर, पीठको दृढ़कर पृथ्वीका भार वहन करो। हे दिग्गजो ! पहलेकी तरह प्रमाद या मदसे मिद्राके वशमें न आकर खूब सावधानीके साथ वसुधाको धारण करो। क्योंकि यह वज्रसार बाहुबली चक्रवतोंके साथ बाहुयुद्ध करने जा रहे हैं ।
थोड़ी ही देर बाद वे दोनों महामल्ल बिजलीसे ताड़ित पर्वत के शब्द की भाँति अपने हाथोंसे तालियाँ पीटने लगे । लीलासे पदन्यास करते और कुण्डलोंको हिलाते हुए वे एक दूसरेके सामने चलने लगे । उस समय वे ऐसे मालूम पड़े, मानों वे धातकी खडसे आये हुए दोनों ओर सूर्य-चन्द्रसे शोभित दो मेरु पर्वत हों । जैसे मदमें आकर दो बलवान् हाथी अपने दाँतोंको टकराते हैं, वैसेही वे दोनों परस्पर हाथ मिलाने लगे। कभी थोड़ी देरके लिये परस्पर भिड़ते और कभी अलग हो जाते हुए वे दोनों वीर प्रचण्ड पवन से प्रेरित दो बड़े-बड़े वृक्षोंकी तरह दिखाई देने लगे । दुर्दिनमें खलबलाते हुए समुद्रकी तरह वे कभी तो उछल : पड़ते और कभी नीचे आ रहते थे । मानों स्नेहसे ही हो, इस प्रकार वे दोनों क्रोधले एक दूसरेको अङ्ग-से-अङ्ग मिलाकर दबाते और अलिङ्गन करते थे । साथही जैसे कर्मके बशमें पड़ा हुआ प्राणी कभी नीचे और कभी ऊपर आता जाता है, वैसेही वे दोनों भी युद्ध विज्ञानके वशमें होकर ऊपर नीचे आते जाते थे । जलमें रहने वाली मछलीकी तरह वे इतनी जल्दी-जल्दी पहलू
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व बदलते थे, कि दर्शकोंको यह मालूमही नहीं पड़ता था, कि अमुक व्यक्ति ऊपर है या नीचे । बड़े भारी सर्पकी भाँति वे एक दूसरेके बन्धन-रूप हो जाते थे और तत्काल ही चंचल बन्दरोंकी तरह अपना पीछा छुड़ाकर अलग हो जाते थे। बारम्बार पृथ्वी पर लोटनेसे दोनोंकी देहमें खूब धूल-मिट्टी लग गयी, जिससे वे धूलिमद वाले हाथी मालूम होते थे। चलते हुए पर्वतोंकी तरह उन दोनोंके भारको नहीं सह सकनेके कारण पृथ्वी मानों उनके पदाघातके शब्दके मिषसे रो रही थी, ऐसा मालूम पड़ता था। अन्तमें क्रोधसे तमतमाये हुए अमित पराक्रमी बाहुबलीने, शरभ जिस प्रकार हाथीको पकड़ लेता है, वैसेहो चक्रवर्तीको पकड़ लिया और हाथी जैसे ढूंढ़से उठाकर पशुको ऊपर उछालता है, वैसेही हाथसे उठाकर उन्हें आसमानमें उछाल फेंका। सच है, बलवानोंमें भी बलवान्को सदा उत्पत्ति होती रहती है। धनुष से छूटे हुये बाणकी तरह और यंत्रसे छोड़े हुए पाषाणकी भांति राजा भरत आकाशमें बड़ी दूरतक चले गये। इन्द्रके छोड़े हुए वज्रकी तरह वहाँसे गिरते हुए चक्रवर्तीको देख डरके मारे सभी संग्राम दर्शी खेचर भाग गये और उस समय दोनों सेनाओंमें हाहाकार मच गया; क्योंकि बड़े लोगों पर आपत्ति आती देख भला किसे दुःख नहीं होता ? उस समय बाहुबली सोचने लगे,—“ओह ! मेरे बलको धिकार हैं, मेरी भुजाओंको धिक्कार है, इस प्रकार बिना समझे-बूझे काम करने वाले मुझको धिक्कार है। और इस कृत्य के करने वाले दोनों राज्योंके मन्त्रियोंको धिकार है-पर नहीं
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प्रथम पव
__ ४६५ मादिनाथ चरित्र अभी इस प्रकार निन्दा करनेकी भी क्या ज़रूरत है ? जब तक मेरे बड़े भाई पृथ्वी पर गिरकर चूर-चूर हुआ चाहें, तबतक मैं उन्हें बीचसे ही झेल लूं, तो ठीक हो।" ऐसा विचार कर उन्होंने अपनी दोनों भुजाएँ फैलाकर नोचे शय्या सी तैयार की। उपरको हाथ उठाये रहने वाले तपखियोंकी तरह दोनों हाथ ऊपर उठाये हुए बाहुबली क्षण मात्र तक सूर्य के सम्मुख देखने वाले तपस्वीकी तरह भरतकी ओर देखते रहे। मानों उड़नेकी इच्छा रखते हों, ऐसे उठे हुए पैरों पर खड़े रहकर उन्होंने भरतराजाको गेंदकी तरह बड़ी आसानीसे ग्रहण कर लिया। उस समय दोनों सेनाओंमें उत्सर्ग और अपवाद मार्गकी तरह चक्रीके उठाले जानेसे खेद, और रक्षा पाजानेसे हर्ष हुमा। इस प्रकार भाईकी रक्षा करनेसे प्रकट होने वाले श्री ऋषभदेवजीके छोटे पुत्रके विवेकको देखकर लोग उनकी विद्या शील और गुणके साथ ही-साथ पराक्रमकी भी प्रशंसा करने लगे और देवता ऊपरसे फूलोंकी वर्षा करने लगे। पर ऐसे वीर-व्रतधारी पुरुषका इससे क्या होता है ? उस समय जैसे अग्नि धुएं और लपटसे भरी होती है, वैसेही भरत राजा इस घटनासे खेद गौर क्रोधसे भर उठे। ___ उस समय लज्जासे सिर झुकाये हुए, बड़े भाईकी मेंप दूर करनेके इरादेसे बाहुबलीने गद्गद स्वरसे कहा,- हे जगत्पति ! हे महावीर ! हे महाभुज ! आप खेद न करें। कभी-कभी देवयोगले विजयी पुरुषोंको भी अन्य पुरुष जीत लेते हैं, पर इसी इत
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आदिनाथ चरित्र
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नेसे मैंने न तो आपको जीता है और न मैं विजयी हूँ। अपनी इस विजयको मैं घुणाक्षर न्यायके समान जानता हूँ । हे भुवनेश्वर ! अभी तक इस पृथ्वीमें आप ही एक मात्र वीर हैं; क्योंकि देवताओंके द्वारा मथन किये जाने पर भी समुद्र-समुद्र ही कहलाता है । वह कुछ बावली नहीं हो जाता । हे षट्खण्डभरतपति ! छलाँग मारते समय गिर पड़ने वाले व्याघ्रकी तरह आप चुपचाप खड़े क्यों हो रहे हैं ? झटपट युद्ध के लिये तैयार हूजिये ।"
थम पव
भरतने कहा, – “यह मेरा भुजदण्ड घूँ सेके द्वारा अपना कलङ्क दूर करेगा ।" यह कह कर फणीश्वर जैसे अपना फन ऊपरको उठाता है, वैसेही घूँसा तानकर क्रोधसे लाल लाल नेत्र किये हुए चक्रवर्त्ती तत्काल दौड़े हुये बाहुबलीके सामने आये और हाथी जैसे किवाड़में अपने दाँतका प्रहार करता है, वैसेही वह घूँसा बाहुबलीकी छाती पर मारा । असत्पात्रको किया हुआ दान, बहरेके कानमें किया हुआ जाप, चुगलखोरका सत्कार, खारी जमीन पर बरसने वाली वृष्टि, और बरफके ढेर में पड़ी हुई अग्नि जैसे व्यर्थ हो जाती है; उसी प्रकार बाहुबलीकी छातोमें मारा हुआ घूँसा भी बेकार ही हुआ । इसके बाद इसी आशंकासे, कि कहीं मेरे ऊपर क्रोध तो नहीं किया ? देवताओंसे देखे जाने वाले सुनन्दा-सुनने घूँसा ताने हुए भरत राजाके सामने आकर उनकी छातीमें वैसे ही घूंसा मारा, जैसे महावत अङ्कुशसे हाथी के कुम्भस्थल पर प्रहार करता है। उस प्रहारको न सहकर विहल
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प्रथम पव
__ ३६७ . आदिनाथ-चरित्र हो, भरतपति मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। पतिके गिर पड़नेसे जैसे कुलाङ्गना चंचल हो जाती है, वैसेही उनके गिरते ही पृथ्वो कौर गयी और बन्धुको गिरते देखकर जैसे बन्धु चंचल हो जाता है, वैसे ही पर्वत चलायमान हो गये।
अपने बड़े भाईको 'इस प्रकार मूर्छित हुआ देख, बाहुबलीने अपने मनमें विचार किया,- "क्षत्रियोंके वीर-व्रतके आग्रहमें यह कैसो खुटाई है, कि वे अपने भाईको भी मार डालनेसे नहीं हिचकते ? यदि मेरे ये बड़े भाई नहीं जिये तो मेरा जीना भी व्यर्थ हो है।" इस प्रकार सोचते और नेत्रोंके आँसूसे उनका सिञ्चन करते हुए बाहुबली अपने दुपट्टेसे भरतरायको पंखा झलने लगे । आखिर, भाई भाई ही है । क्षण भर बाद होशमें आने पर चक्रवर्ती साकर उठे हुएके समान उठ बैठे। उन्होंने देखा, कि उनके सामने दासकी तरह उनके भाई खड़े हैं। उस समय दोनों भाइयोंने सिर नीचे कर लिये। सच है, बड़ोंको हार जीत दोनों ही लज्जा जनक होती हैं। तदनन्तर चक्रवर्ती जरा पीछे हटे; क्योंकि युद्धकी इच्छा रखने वाले पुरुषोंका यह लक्षण है। बाहुबलीने विचार किया,-"अभीतक भैया भरत किसी-नकिसी तरहका युद्ध करना ही चाहते हैं ; क्योंकि मानी पुरुष शरीरमें प्राण रहते ज़रा भी मानको हेठा नहीं होने देते। पर भाईकी हत्यासे जो मेरी बदनामी होगी, वह अन्तकाल तक नहीं मिटेगी।" बाहुबली ऐसा सोच ही रहे थे, कि इतनेमें भरतचक्रवर्तीने यमराजकी तरह दण्ड हाथमें लिया।
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आदिनाथ-चरित्र ४६८
प्रथम पर्व जैसे चोटोसे पर्वत सोहता है और छाया-मार्गसे आकाश शोभा पाता है, वैसेही उस ऊपरको उठाये हुए दण्डसे चक्रवत्ती भी शोभा पाने लगे। धूम्रकेतुका धोखा पैदा करनेवाले उस दण्डको चक्रवर्तीने थोड़ी देर तक हवामें घुमाया, इसके बाद जैसे युवा सिंह अपनी पूंछको पृथ्वी पर पटकता है, उसी तरह उन्होंने वह दण्ड बाहुबलीके मस्तक पर दे मारा । साह्याद्रि पर्वतके साथ समुद्रकी वेलाका आघात होनेसे जैसा शब्द होता है वैसा ही भयङ्कर शब्द उस दण्डके प्रहारसे भी उत्पन्न हुआ। निहाई पर रखे हुए लोहेको जिस तरह लोहेका धन चूर्ण कर डालता है, उसी तरह उस प्रहारसे बाहुबलीके सिरका मुकुट चूर-चूर हो गया। साथ ही जैसे हवाके कोरेसे वृक्षोंके अप्रभागके फूल झड़ जाते हैं, वैसेही उस मुकुटके रत्न टुकड़े टुकड़े होकर पृथ्वो पर गिर पड़े। उस चोटसे थोड़ी देरके लिये बाहुबलीकी आँखें झप गयीं और उसके घोर निर्घोषसे लोगोंकी भी वही हालत हुई। इसके बाद नेत्र खोल, बाहुबलीने भी संग्रामके हाथोकी तरह लोहेका उद्दण्ड दण्ड ग्रहण किया । उस समय आकाशको यही शंका होने लगी, कि कहींये मुझे गिरान दे
और पृथ्वी भी इसी डरमें पड़ गयी, कि कहीं ये मुझे उखाड़ कर फेंक न दें। पर्वतके अग्रभागमें बने हुए बिलमें रहनेवाले साँपकी तरह वह विशाल दण्ड बाहुबलीकी मुट्ठीमें शोभित होने लगा। दूरसे यमराजको बुलानेका मानों सङ्केत-वस्त्र हो, उसी तरह वे उस लोहदण्डको घुमाने लगे। जैसे ढेंकीकी चोट धान
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र पर पड़ती है, वैसेही बाहुबलीने उस दण्डका आघात चक्रीके हृदय पर बड़ी निर्भयताके साथ किया। चक्रीका बड़ा ही मज़बूत वस्तर भी इस प्रहारको न सह सका और मिट्टीके घड़ेकी तरह चूर-चूर हो गया। बख्तरके न रहनेसे चक्रवत्ती बादल रहित सूर्य और धूम -हीन अग्निके समान दिखाई देने लगे। सातवीं मदावस्थाको प्राप्त होनेवाले हाथीकी तरह भरत-राज क्षणभर विह्वल होकर कुछ भी न सोच सके। थोड़ी देर बाद सावधान होकर प्रिय मित्रके समान अपनी भुजाओंके पराक्रमका अवलम्बन कर, वे फिर दण्ड उठाये हुए बाहुबली पर लपके। दाँतसे ओठ काटते हुए और भौंहें चढ़ाये भयङ्कर दीखते हुए भरतराजा ने बड़वानलके चक्करकी तरह दण्डको खूब घुमाया और कल्पांत कालका मेघ जैसे बिजलीका दण्ड चलाकर पर्वतका ताड़न करता है, वैसेही बाहुबलीकेमस्तक पर उस दण्डका वार किया। लोहेकी निहाई पर रखे हुए वज्रमणिकी भांति उस चोटको खाकर बाहुवली घुटने तक पृथ्वीमें धंस गथे। मानों अपने अपराधसे डर गया हो, ऐसा वह चक्रवर्तीका दण्ड वज्रके बने हुएके समान बाहुबली पर प्रहार कर आप भी चूर-चूर हो गया। उधर घुटने तक पृथ्वीमें फंसे हुए बाहुबली-पृथ्वीमें कीलकी तरह गड़े हुए पर्वत और पृथ्वीके बाहर निकलते हुए शेषनागकी तरह शोभित होने लगे। उस प्रहारकी वेदनासे बाहुबली इस प्रकार सिर धुनाने लगे, मानों अपने बड़े भाईका पराक्रम देख कर उन्हें अपने अन्त: करणमें बड़ा अचम्भा हुआ हो। आत्मा
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व
नन्दमें मग्न योगीकी तरह उन्होंने क्षण भर तक कुछ भी नहीं सुना। इसके बाद जैसे सरिता तटके सूखे हुए कीचड़मेंसे हाथी बाहर निकलता है, वैसेही सुनन्दाके वे पुत्र भी पृथ्वीले बाहर निकले और लाक्षारसकी सी दृष्टिसे तर्जना करते हुए के समान वे अमर्षाग्रणी अपने भुजदण्ड और दण्डको देखने लगे । इसके बाद तक्षशिलाधिपति बाहुबली तक्षक नागकी तरह उस भयंकर दण्डको एक हाथ से घुमाने लगे । अतिवेगसे घुमाया हुआ उनका वह दण्ड राधा- वेधमें फिरते हुए चक्र की शोभाको धारण कर रहा था । कल्पान्त-कालके समुद्रके भँवर - जालमें घूमते हुए मत्स्यावतारी कृष्णकी तरह भ्रमण करते हुए उस दण्डको देखकर देखनेवालों की आँखें चौंधिया जाती थीं । सैन्यके सब लोग और देवताओंको उस समय शङ्का होने लगी, कि कहीं यह बाहुबली के हाथसे छूटकर उड़ा, तो फिर सूर्यको कांसे के पात्र की तरह फोड़ डालेगा, चन्द्रमण्डलको भारड- पक्षीके अण्डेकी तरह चूर कर डालेगा, तारागणों को आँवलेके फलकी तरह नीचे गिरा देगा, वैमानिक देवोंके विमानोंको पक्षी के घोंसलोंकी तरह उड़ा देगा, पर्वत के शिखरोंको बिलोंकी तरह नष्ट-भ्रष्ट कर देगा, बड़े-बड़े वृक्षोंको नन्हे-नन्हे कुञ्जके तृणोंकी तरह तोड़ देगा, और पृथ्वीको कच्ची मिट्टीके गोलेकी तरह भेद कर देगा । इसी शंकासे देखते हुए सब लोगोंके सामने ही उन्होंने वह दण्ड, चक्रवर्तीके मस्तकपर चला दिया । उस बड़े भारी दण्डके आघातसे चक्रवर्ती मुद्गलसे ठोंकी हुई कीलकी तरह कण्ठतक पृथ्वीमें
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प्रथम पर्व
४७१ आदिनाथ-चरित्र गड़ गये। उनके साथही उनके सब संनिक भी, मानों ऐसी प्रार्थना करते हुए, कि हमें भी हमारे स्वामीकी ही भांति बिलमें घुसा दो, खेदके साथ पृथ्वीपर गिर पड़े। राहुसे ग्रास किये हुए सूर्यके समान अब चक्रवर्ती पृथ्वीमें मग्न हो गये, तब ओकाशमें देवताओंने और पृथ्वीपर मनुष्योंने बड़ा कोलाहल किया । नेत्र मींचे हुए भरतपतिका चेहरा काला पड़ गया और वे क्षणभर लजाके मारे चुपचाप पृथ्वीमें गड़े रहे। इसके बाद शीघ्रही रात बीतनेपर उगनेवाले सूर्यके समान देदीप्यमान होकर वे पृथ्वीसे बाहर निकल आये। - उस समय चक्रवर्तीने सोचा, “जैसे अंधा जुआड़ी हरएक बाज़ीमें मात हो जाता है, वैसेही इस बाहुबलोने सब प्रकारके युद्धोंमें मुझे पराजित कर डाला। इसलिये जैसे गायके खाये हुए घास-पात दूधके रूपमें सबके काममें आते हैं, वैसेही मेरा इतनी मिहनतसे जीता हुआ भरतक्षेत्र भी क्या इसी बाहुबलोके काम आयेगा ? एक म्यानमें दो तलवारों की तरह इस भरतक्षेत्रमें एकही समय दो चक्रवर्ती तो कभी होते नहीं देखे, नसने। जैसे गधेको सींग नहीं होता, वैसेही देवताओंसे इन्द्र हार जायें और राजाओंसे चक्रवर्ती पराजित हो जाथे, ऐसा तो पहले कभी नहीं सुना। तो क्या बाहुबलोसे हारकर मैं अब पृथ्वीमें चक्रवर्ती न कहलाऊँ और मुझसे नहीं हारनेके कारण जगत्से भी अजेय होकर यही चक्रवर्ती कहलायेगा ?" इसी तरहकी चिन्ता करते हुए चक्रवर्तीके हाथमें चिन्तामणिको.तरह यक्षराजाओंने चक्र आरो
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पवे
पित कर दिया। उसीके विश्वाससे अपनेको चक्रवत्ती मानते हुए चक्रवर्ती भरत, उसी प्रकार उस चक्रको आकाशमें घुमाने लगे, जैसे बवंडर कमलकी रजको आसमानमें नचाता है । ज्वालाओंके जालसे विकराल बना हुआ वह चक्र मानों आकाशमें ही पैदा हुई कालाग्नि, दूसरी वड़वाग्नि, अकस्मात उत्पन्न हुई व. जाग्नि, उन्नत उल्का-पुञ्ज, गिरता हुआ सूर्य-बिम्ब अथवा बिजली का गोलासा घूमता मालूम पड़ने लगा। अपने ऊपर छोड़नेके लिये उस चक्रको घुमानेवाले चक्रवतीको देखकर बाहुबलीने अपने मनमें विचार किया,- "अपनेको श्रीऋषभस्वामीका पुत्र माननेवाले भरत राजाको धिक्कार है- साथही इनके क्षत्रियव्रतको भी धिक्कार हैं ; क्योंकि मेरे हाथमें दण्ड होने पर भी इन्होंने चक्र धारण किया। देवताओंके सामने इन्होंने उत्तम युद्ध करनेकी प्रतिज्ञा की थी, पर अपनी इस काररवाईसे इन्होंने बालकोंकी तरह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। इसलिये इन्हें धिक्कार है। जैसे तपस्वी अपने तेजका भय दिखलाते हैं, वैसेही ये भी चक्र दिखलाकर सारी दुनियाकी तरह मुझे भी डरवाना चाहते हैं; पर जैसे इन्हें अपनी भुजाओंके बलकी थाह मिल गयी, वैसे ही इस चक्रका पराक्रम भी भली भाँति मालूम कर लेंगे। ” वे ऐसा सोचही रहे थे, कि राजा भरतने सारा जोर लगाकर उनपर चक्र छोड़ दिया। चक्रको अपने पास आते देख, तक्षशिालाधिपतिने सोचा,- “क्या मैं टूटे हुए बर्तनकी तरह इस चक्रको तोड़ डालू ? गेंदकी तरह इसे उछाल कर फेंक दूं ? पत्थरके
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आदिनाथ चरित्र
टुकड़े की तरह यही क्रीड़ा-पूर्वक इसे आकाशमें उड़ा दू ? बालक के नालकी तरह इसे लेकर पृथ्वीमें गाड़ दूँ ? चश्चल चिड़िया के बच्चे की तरह हाथसे पकड़ लूँ ? मारने योग्य अपराधीकी भाँति इसे दूरहीसे छोड़ दूं' ? अथवा चक्कीमें पड़े हुए किनकों की तरह इसके अधिष्ठाता हज़ारों यक्षोंको इस दण्ड से दल-मसल दूँ ? अच्छा, रहो, मैं इन कामोंको अभी न कर, पहले इसके पराक्रमकी परीक्षा तो लूँ । ” वह ऐसा सोचही रहे थे, कि उस चक्रने बाहुबली के पास आकर ठीक उसी तरह उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की, जैसे शिष्य गुरुकी करता है । चक्रीका चक्र जब सामान्य सगोत्री पुरुष पर भी नहीं चल सकता, तब उनकेसे चरम- शरीरी पर कैसे अपना ज़ोर आज़माये ? इसीलिये जैसे पक्षी अपने घोंसलेमें चला आता है और घोड़ा अस्तबल में, वैसेही वह चक्र लौट आकर भरतेश्वरके हाथ के ऊपर बैठ रहा ।
" मारनेकी क्रियामें विषधारी सर्पके समान एकमात्र अमोघ - अत्र एक यही चक्र था । अब इसके लमान दूसरा कोई अस्त्र इनके पास नहीं है, इसलिये दण्डयुद्ध होते समय चक्र छोड़नेवाले इस अन्यायी भरत और इसके चक्रको मैं मारे मुष्टि-प्रहारके ही चूर्ण कर डालूँ,” ऐसा विचार कर, सुनन्दा- सुत बाहुबली क्रोध से भरकर यमराजकी तरह भयंकर घूँसा ताने हुए चक्रवर्ती पर लपके। सूँड़में मुद्गर लिये हुए हाथी की तरह घूँसा ताने हुए बाहुबली दौड़ कर भरतके पास आये ; पर जैसे समुद्र
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अपनी मर्यादाके भीतर ही रुका रहता है, वैसेही वे भी चुपचाप खड़े हो गये। उन महाप्राण व्यक्तिने अपने मनमें विचार किया,-"ओह ! यह क्या ? क्या मैं भी इन्हों चक्रवर्तीकी तरह राज्यके लोभमें पड़कर बड़े भाईको मारने जा रहा हूँ ? तब तो मैं व्याधसे भी बढ़कर पापी हूँ। जिसके लिये भाई और भतीजों को मारना पड़े, वैसे शाकिनी मंत्रकेसे राज्यके लिये कौन प्रयत्न करने जाये ? राज्य श्री प्राप्त हो और उसे इच्छानुसार भोगनेका भी अवसर मिले, तो भी जैसे शराब पीनेसे शरावियों को तृप्ति नहीं होती वैसेही राजाओंको भी उससे सन्तोष नहीं होता। आराधन करने पर भी थोड़ासा बहाना पाकर रूठ जानेवाले क्षुद्र देवताको भाँति राज्यलक्ष्मी क्षणभरमें ही मुंह मोड़ लेती है। अमावसकी रातकी तरह यह घने अन्धकारसे पूर्ण है, नहीं तो पिताजी इसे किस लिये तृणके समान त्याग देते? उन्हीं पिताजीका पुत्र होते हुए भी मैने इतने दिनोंमें यह बात जान पायी, कि यह राज्यलक्ष्मी ऐसी बुरी है, तो फिर दूसरा कोई कैसे जान सकता है ? अतएव यह राजलक्ष्मी सर्वथा त्याग करने योग्य है। ऐसा निश्चय कर, उस उदार हृदयवाले बाहुबलीने चक्रवर्तीसे कहा, "हे क्षमानाथ ! हे भ्राता ! केवल राज्य के लिये मैंने आपको शत्रुको भांति दुःख पहुँचाया, इसके लिये मुझे क्षमा कीजिये। इस संसाररूपी बड़े भारी तालाबमें तन्तुपाशके समान भाई, पुत्र और स्त्री तथा राज्य आदिसे अब मुझे कुछ भी प्रयोजन नहीं है । मैं तो अब तीनों जगतके स्वामी
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प्रथम पव
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आदिनाथ चरित्र
और विश्वको अभयदोनका सदावत देनेमें बाँटनेवाले अपने पिताजीके मार्गका ही बटोही होने जा रहा हूँ।" , यह कह साहसी पुरुषोंमें अग्रणी और महाप्राण उन बाहुबलीने अपने तने हुए चूसेको खोलकर उसी हाथसे अपने सिरके केशोंको तृणकी तरह नोच लिया। उस समय देवताओंने 'साधु-साधु' कहकर उनपर फूल बरसाये । इसके बाद पांच महाव्रत धारण कर उन्होंने अपने मनमें विचार किया,-" मैं अभी पिताजीके चरण कमलोंके समीप नहीं जाऊँगा ; क्योंकि इस समय जानेसे पहले व्रत ग्रहण करने वाले और ज्ञान पाये हुए छोटे भाइयोंके सामने मेरी हेठी होगी। इस लिये अभी मैं यहीं रहूँ और ध्यान-रूपी अग्निमें सब घाती कर्मोंको जलाकर केवलज्ञान प्राप्त करनेके बाद उनकी सभामें जाऊँ।" ऐसा ही निश्चय कर वह मनस्वी बाहुबली अपने दोनों हाथ लम्बे फैलाकर रत्न प्रतिमाके समान वहीं कायोत्सर्ग करके टिक रहे। अपने भाईका यह हाल देख, राजा भरत, अपने कुकर्मों का विचार कर इस प्रकार नीचे गरदन किये खड़े रहे, मानों वे पृथ्वीमें समाजानेकी इच्छा कर रहे हों। तदनन्तर भरत राजाने अपने रहे-सहे क्रोधको गरम-गरम आँसुओंके रूपमें बाहर निकाल कर मूर्तिमान शान्तरसके समान अपने भाईको प्रणाम किया। प्रणाम करते समय बाहुबलीके नख-रूपी दर्पणोंमें परछाई पड़नेसे ऐसा मालूम होने लगा, मानों उन्होंने अधिक उपासना करनेकी इ. च्छासे अलग-अलग कई रूप धारण कर लिये हैं । इसके बाद
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
४७६ बाहुबली मुनिका गुण गाते हुए, वे अपने अपवाद रूपी रोगकी
औषधिके समान अपनेको इस प्रकार धिक्कार देने लगा,– “तुम धन्य हो कि मेरे ऊपर दया करके तुमने अपना राज्य भी छोड़ दिया । मैं पापी और अभिमानी हूँ ; क्योंकि मैंने असन्तोषके ही मारे तुम्हारे साथ इस प्रकार छेड़-छाड़ की। जो अपनी शक्ति नहीं जानते; जो अन्याय करनेवाले हैं, जो लोभके फन्दे में फंसे हुए हैं-ऐसे लोगोंमें मैं मुखिया है। इस राज्यको जो संसार-रूपी वृक्षका बीज नहीं जानते, वे अधम हैं। मैं तो उनसे भी बढ़कर हूँ ; क्योंकि यह जानता हुआ भी इस राज्यको नहीं छोड़ता। तुम्हीं पिताके सच्चे पुत्र हो—क्योंकि तुमने उन्हींका रास्ता पकड़ लिया। मैं भी यदि तुम्हारे हो जैसा हो जाऊँ, तो पिताका सञ्चा पुत्र कहलाऊँ ।” इस प्रकार पश्चा. त्तापरूपी जलसे विषादरूपी कीचड़को दूर कर भरत राजाने बाहुबलीके पुत्र चन्द्रयशाको उनकी गद्दीपर बैठाया। उसी समयसे जगत्में सैकड़ों शाखाओंवाला चन्द्रवंश प्रतिष्ठित हुआ । बह बड़े-बड़े पुरुष-रत्नोंकी उत्पत्तिका एक कारण-रूप हो गया। ___ इसके बाद महाराज भरत बाहुबलीको नमस्कार कर, स्वर्गकी राजलक्ष्मोकी सहोदरा बहनकी भाँति अपनी अयोध्या नगरी में अपने सकल समाजके साथ लौट आये। ____भगवान् बाहुबली जहाँ-के-तहाँ अकेले ही कायोत्सर्ग-ध्यान में ऐसे खड़े रहे, मानों पृथ्वीसे निकले हों या आसमानसे उतर आये हों। ध्यानमें एकाग्र चित्त किये हुए बाहुबलीकी दोनों आँखें
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र नासिका पर गड़ी हुई थीं। साथ ही वे महात्मा बिना हिले डले ऐसे शोभित हो रहे थे, मानों दिशाओंका साधन करने वाला शंकु * हो। अग्निकी लपटोंकी तरह गरम-गरम बालू चलानेवाली गरमीकी लूको वे वनके वृक्षोंकी भांति सह लेते थे। अग्नि-कुण्डके मध्याह्न-कालका सूर्य उनके सिर पर तपता रहता था, तो भी शुभ-ध्यान-रूपी अमृत-कुण्डमें निमग्न रहनेवाले उन महात्माको इस बातकी खवर ही नहीं होती थी। सिरसे लेकर पैरके अंगूठे तक धूलके साथ पसीना मिल जानेसे शरीर कीचड़ से लिपटा हुआ मालूम पड़ने लगता था। उस समय वे कीचड़ कादेसे निकले हुए वराहकी तरह शोभित होते थे। वर्षा ऋतुमें बड़े जोरकी आँधी और मूसलधार-बृष्टिसे भी वे महात्मा पर्वतकी तरह अचल बने रहते थे। अक्सर अपने निर्घातके शब्दसे पर्वतके शिखरोंको भी कंपाती हुई बिजली गिर पड़ती; तो भी वे कायोत्सर्ग अथवा ध्यानसे विचलित नहीं होते थे। नीचे बहते हुए पानोमें उत्पन्न सिवारोंसे उनके दोनों पैर निर्जन ग्रामकी बावली की सीढ़ियोंके समान लिप्त हो गये। हिम-तुमें हिमसे उत्पन्न होने वाली मनुष्यका नाश करनेवाली नदी जारी होने पर भी वे ध्यानरूपी अग्निमें कर्म-रूपी ईंधनको जलानेमें तत्पर रहते हुए बड़े सुखसे रहे। बर्फसे वृक्षको जलादेने वाली हेमन्त ऋतुकी रात्रियोंमें भी बाहुबलीका ध्यान कुन्दके फलोंकी तरह बढ़ाता ही जाता था। जंगली भैंसे मोटे वृक्षके स्कन्धके समान उनके ध्यान मग्न शरीर
ॐ घड़ीकी वह सुई जिससे दिशाओंका ज्ञान होता है। .
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व पर सींग मारते और अपने कन्धे घिस कर अपनी खुजली मिटाया करते थे। बाघिनोंके झुण्ड अपने शरीरको उनके पर्वतकी तलहटीकेसे शरीर पर टेक कर रातको सोया करते थे। जंगली हाथी सलकी-वृक्षके पल्लवके भ्रममें पड़ कर उन महात्माके हाथपैरोंको बैंचते थे; पर जब नहीं बैंच सकते थे, तब शर्माकर लौट जाते थे। चवरी गायें निःशंक चित्तसे वहाँ आकर आरेकी तरह अपनी काँटेदार विकराल जिह्वासे सिर ऊपर उठाकर उन महात्माके शरीरको चाटती थीं। मृदङ्गके ऊपर लगी हुई चमड़े की बद्धियोंकी तरह उनके शरीर पर सैकड़ों शाखाओं वाली लताएँ फैली हुई थीं। उनके शरीर पर चारों ओर शरस्तम्भजातिके तृण उगे हुए थे, जो ठीक ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों पुराने स्नेहके कारण बाणोंके तरकस उनके कन्धे पर शोभित हो रहे हों। वर्षा ऋतुके कीचड़में गड़े हुए उनके पैरोंको भेदकर वहुतसे नोकदार दर्भ उग आते थे, जिनमें कनखजूरे चला करते थे। लताओंसे ढके हुए उनके शरीर पर बाज़ और अन्य पक्षी परस्परका विरोध त्याग कर घोंसले बनाकर रहते थे। वनके मोरोंकी ध्वनि सुनकर डरे हुए हज़ारों बड़े-बड़े सर्प घनी लताओं वाले उन महात्माके शरीरके ऊपर चढ़ जाते थे। शरीर पर लटकते हुए लम्बे-लम्बे साँपोंके कारण वे महात्मा बाहुबली हज़ार हाथों वाले मालूम पड़ने लगते थे। उनके चरणके ऊपर बने हुए बिलोंमेंसे निकलते हुए सर्प उनके पैरमें लिपट जाते और ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों उनके पैरोंके कड़े हों। ...
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आदिनाथ चरित्र
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इस प्रकार ध्यानमग्न बाहुबलीने आहार बिना विहार करते हुए ऋषभस्वामीकी तरह साल भर बिता दिया। साल पूरा होने पर विश्ववत्सल ऋषभस्वामीने ब्रह्मा और सुन्दरीको बुलाकर कहा, - “इस समय बाहुबली अपने प्रचुर कर्मोंका क्षय कर, शुक्लपक्षको चतुर्दशीकी भाँति तम. रहित हो गया है 1 परन्तु जैसे परदेमें छिपा हुआ पदार्थ देखों में नहीं आता, वैसेही मोहनीय कर्मों के अंश रूप मानके कारण उसे केवलज्ञान नहीं प्राप्त होता अब तुमलोग वहाँ जाओ, तो तुम्हारे उपदेशसे वह मानको त्याग देगा । यही उपदेशका ठीक समय है ।" प्रभुकी यह आज्ञा सुन, उसे सिर आँखों पर ले, उनके चरणों में प्रणाम कर, ब्राह्मी और सुन्दरी बाहुबली के पास चलीं । महाप्रभु ऋषभदेवजी पहलेसे ही बाहुबलीके मनकी बात जानते थे, तो भी उन्होंने सालभर तक उनकी अपेक्षा की क्योंकि तीर्थंकर अमूढ़ लक्ष्यवाले होते हैं, इसीसे अवसर पर ही उपदेश देते हैं। आर्या ब्राह्मी और सुन्दरी उस देशमें गयीं; पर राख लिपटे हुए रत्नकी तरह घनी लताओं से छिपे हुए वे महामुनि उनको दिखाई न दिये । बारम्बार खोजते ढूंढ़ते, वे दोनों आर्याएँ वृक्षकी तरह खड़े हुए उन महात्मा को किसी-किसी तरह पहचान सकीं। बड़ी चतुराई से उन्हें पहचान कर वे दोनों आर्याएँ महामुनि बाहुबलीको तीन वार प्रदक्षिणा कर, बन्दना करती हुई बोलीं, हे बड़े भाई ! भगवान् अर्थात् आपके पिताजीने हमारे द्वारा आपको यही सन्देसा भेजा है, कि हाथी पर चढ़े हुए पुरुषोंको केवल - ज्ञान नहीं प्राप्त होता
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आदिनाथ चरित्र
यही कहकर वे दोनों देवियाँ जिधरसे आयी थीं, उधर ही चली गयीं, उनकी बात सुन मन-ही-मन विस्मित हो महात्मा बाहुबलीने विचार किया, – “सब प्रकारके सावद्य योगोंका त्याग, वृक्षकी तरह कायोत्सर्ग करने वाला मैं इस जंगलमें हाथी पर चढ़ा हूँ । यह कैसी बात है ? वे दोनों आर्याएँ भगवानकी शियाएँ हैं, पर किसी तरह झूठ नहीं बोल सकतीं। फिर मैं उनकी इस बात से क्या समझू ? ओह ! अब मालूम हुआ । व्रत में बड़े और वयसमें छोटे भाइयों को मैं कैसे नमस्कार करूँगा ? यही अभिमान जो मेरे मनमें घुसा हुआ है, वही मानों हाथी है, जिस पर मैं निर्भयताके साथ सवार हूँ। मैंने तीनों लोकके स्वामीकी बहुत दिनों तक सेवा की, तो भी जैसे जलचर जीवोंको जलमें तैरना नहीं आता, वैसेही मुझको भी विवेक नहीं हुआ । इसीलिये तो पहले से ही व्रत ग्रहण किये हुए महात्मा भाइयोंको छोटा समझ कर ही मैंने उनकी बन्दना करनी नहीं चाही। अच्छा, रहो- मैं आजही वहाँ जाकर उन महामुनियोंकी वन्दना करूँगा ।"
ऐसा विचार कर ज्योंही महाप्राण बाहुबलीने अपने पैर उठाये, त्योंही चारों ओरसे लताएँ टूटने लगीं - साथही घाती कर्म भी टूटने लगे और उसी पग पर उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो आया। ऐसे केवलज्ञान और केवल दर्शनवाले सौम्य मूर्त्ति महात्मा बाहुबली उसी प्रकार ऋषभस्वामीके पास आये, जैसे चन्द्रमा सूर्यके पास जाता है । तीर्थंकर की प्रदक्षिणा कर, उन्हें प्रणामकर जगतसे वन्दनीय बाहुबली मुनि, प्रतिज्ञासे मुक्त हो, केवलीकी परिषद् में जा बैठे !
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प्रथम पव
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छठा सर्ग FACS
उन दिनों भगवान् ऋषभस्वामीका शिष्य, अपने नामके समान शास्त्रके एकादश अंगोंका जाननेवाला, साधुगणोंसे युक्त, स्वभावसे सुकुमार और हस्तिपति के साथ-साथ चलनेवाले हाथीके बश्चेकी तरह,स्वामीके साथ विचरण करने वाला, भरतपुत्र मरिचि ग्रीष्म ऋतु में स्वामीके साथ विहार कर रहा था। एक दिन मध्याह्नके समय लुहारोंकी धौंकनीसे फूँकी हुई अग्निके समान चारों ओरके मार्गों की धूल तक सूर्यकी किरणोंसे तप गयी थी और मानों अदृश्य रहने वाली अग्निकी लपटें हों ऐसी गरमगरम लू सब रास्तों पर चल रही थी । उस समय अग्नि से तपे हुए किञ्चित गीले काष्ठके समान सिरसे पाँव तक सारी देह पसीनेसे सराबोर हो गयी थी । जलसे भीगे हुए सूखे चमड़े की दुर्गन्धके समान पसीनेसे तर बने हुए कपड़ोंके कारण उसके अंगोंसे बड़ी कड़ी बदबू निकल रही थी । उसके पैर जल रहे थे, इसीसे तपे हुए स्थान में रहनेवाले कुलकी स्थिति बतला थे और गरमीके कारण वह प्यासले व्याकुल हो गया था । इस. हालतसे व्याकुल होकर मरीचि अपने मनमें सोचने लगा, – “ऐ ! ३१
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आदिनाथ चरित्र ४८२
प्रथम पर्व केवलज्ञान और केवल-दर्शन-रूपी सूर्यचन्द्रसे शोभित मेरुके समान और तीनों लोकके गुरुके समान ऋषभस्वामीका मैं पौत्र है। इसके सिवा अखण्डषट्खण्ड-युक्त महि-मण्डलके इन्द्र और विवेकको अद्वितीय निधिके समान भरत राजाका मैं पुत्र हूँ। साथही मैंने चतुर्विधि संघके सामने ऋषभस्वामीसे पञ्चमहाव्रत का उच्चारण करके दीक्षा ली है; इसलिये जैसे वीर पुरुषोंको युद्धभूमिसे नहीं भागना चाहिये, वैसेही मुझे भी इस स्थानसे लज्जित और पीड़ित होकर घर नहीं चला जाना चाहिये। परन्तु बड़े भारी पर्वतकी तरह इस चारित्रके दुर्वह भारको मुहूर्त-मात्र के लिये उठानेको भी मैं समर्थ नहीं हूँ। न तो मुझसे चारित्रव्रतका पालन करते बनता है, न छोड़ कर घर जानाही बन पड़ता है ; क्योंकि इससे कुलको कलंक लगता है। इसलिये मैं तो इस समय एक ओर नदी और दूसरी ओर सिंहवाली हालतमें पड़ाहुआ हूँ। पर हां, अब मुझे मालूम हुआ, कि जैसे पर्वतके ऊपर भी पगडण्डी बनी होती है, वैसेही इस विषम मार्गमें भी एक सुगम मार्ग है। ___ "ये साधु मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्डको जीतनेवाले हैं , पर मैं तो इन्हींसे जीता गया है, इसलिये मैं त्रिदण्डी हूंगा। वे श्रमणकेशका लोच और इन्द्रियोंकी जय कर, सिर मुंड़ाये रहते हैं, पर मैं तो रेसे सिर मुड़वाकर शिखाधारी हूँगा। वे स्थूल और सूक्ष्म प्राणियोंके हिंसादिकसे विरत रहते हैं , पर मैं तो केवल स्थूल प्राणियोंका ही वध करने
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प्रथम पर्व
४८३
आदिनाथ चरित्र से हाथ खींचे रहूँगा। वे मुनि अकिंचन होकर रहते हैं , पर मैं तो अपने पास सुवर्ण-मुद्रादिक रखूगा। वे ऋषि जूते नहीं पहनते ; पर मैं तो पहनूंगा। वे अठारह हज़ार शीलके अंगोंसे युक्त सुशील होकर सुगन्धित बने रहते हैं, पर मैं शोलसे रहित होने के कारण दुर्गन्ध युक्त हूं, इसलिये चन्दनादिका लेप करूँगा। वे श्रमण मोहरहित हैं और मैं मोहसे ढका हुआ हूँ, इस कारण इस बातकी निशानीके तौर पर मस्तक पर छत्र लगाऊँगा; वे निष्कषाय होनेके कारण श्वेत वस्त्र धारण करते हैं और मैं कषायसे युक्त होनेके कारण उसके स्मारक स्वरूप कषाय वस्त्र धारण करूँगा। वे मुनि पापके भयसे बहुत. जीवोंसे भरे हुए संचित जलका त्याग करते हैं, पर मैं तो काफ़ी जलसे नहाऊँगा और खूब पानी पीऊँगा।" इस प्रकार वह अपनी ही बुद्धिसे अपने लिङ्ग (निशानी ) की कल्पना कर, वैसा ही वेश धारण कर, स्वामीके साथ विहार करने लगा। खञ्चरको जैसे घोड़ा या गधा नहीं कहा जाता ; पर वह है इन दोनोंके ही अंशसे उत्पन्न—इसी तरह मरिचिने न गृहस्थका सा बाना रखा, न मुनियोंका सा; बल्कि दोनोंसे मिलता-जुलता हुआ एक नया ही बाना पहन लिया। हंसोंके बीचमें कौएकी तरह महर्षियोंके बीच में इस अद्भुत मरिचिको देखकर बहुतेरे लोग बड़े कौतुकसे उससे धर्मकी बातें पूछते। उसके उत्तरमें वह मूल उत्तर गुणवाले साधु-धर्मका ही उपदेश करता था। उसकी बातें सुनकर याद कोई पूछ बैठता, कि तुम भी ऐसा ही क्यों नहीं करते? तो वह
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आदिनाथ चरित्र ४८४
प्रथम पर्व इस विषयमें अपनी असमर्थता प्रकट कर देता था। इस प्रकार प्रतिबोध देने पर यदि कोई भव्यजीव दीक्षा लेना चाहता, तो वह उसको प्रभुके पास भेज देता था और उससे प्रतिबोध पाकर आये हुए भव्य-प्राणियोंका भगवान् ऋषभदेव, जो निष्कारण उपकार करनेमें बन्धुके समान हैं, स्वयं दीक्षा दिया करते थे।
इसी प्रकार प्रभु के साथ विहार करते हुए मरिचिके शरीरमें लकड़ीके घुनकी तरह एक बड़ा भारी रोग पैदा हो गया। डाल से चूके हुए बन्दरको तरह, व्रतसे चूके हुए उस मरिचिका उसक साथ वाले साधुओंने प्रतिपालन करना छोड़ दिया। जैसे ईख का खेत बिना रक्षकके सूअर आदि जानवरोंसे विशेष हानि उठाता है, वैसेही बिना दवा-दारूके मरीचिका रोग भी अधिकाधिक पीड़ा देने लगा। तब घने जङ्गलमें पड़े हुए निस्सहाय पुरुषकी भाँति घोर रोगमें पड़े हुए मरिचिने अपने मनमें विचार किया,-"अहा ! मालूम होता है, कि मेरे इसी जन्मका कोई अशुभ कर्म उदय हो आया है, जिससे अपनी जमातके साधु भी मेरी परायेके समान उपेक्षा कर रहे हैं ; परन्तु उल्लको दिनके समय दिखलाई नहीं देता, इसमें जिस प्रकार सूर्यके प्रकाशका कोई दोष नहीं है, उसी प्रकार मेरे विषयमें इन अप्रतिचारी सा. धुओंका भी कोई दोष नहीं। क्योंकि उत्तम कुलवाला जैसे म्लेच्छ की सेवा नहीं करता, वैसेही सावध कर्मोंसे विराम पाये हुए ये साधु मुझ सावध कर्म करनेवालेकी सेवा क्यों कैसे कर सकते है ? बल्कि उनसे अपनी सेवा करानी ही मेरे लिये अनुचित है :
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
क्योंकि उससे मेरा वह पाप, जो व्रतभंगके कारण पैदा हुआ है, वृद्धिको प्राप्त होगा । अब मैं अपने उपचारके लिये किसी अपने ही समान मन्द धर्मवाले पुरुषकी खोज करूँ ; क्योंकि मृगके साथ मृगका ही रहना ठीक होता है ।" इस प्रकार विचार करते हुए कितने ही समय बाद मरिचि रोग मुक्त हो गया क्योंकि खारी जमीन भी कुछ कालमें आप से आप अच्छी हो जाती है
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एक दिन महात्मा ऋषभस्वामी जगत्का उपकार करनेमें वर्षा ऋतु मेघ के समान देशना दे रहे थे। उसीसमय वहाँ कपिल नामका कोई दुष्ट राजकुमार आकर धर्मकी बातें सुनने लगा; पर जैसे चक्रवाकको चाँदनी अच्छी नहीं लगती, उल्लूको दिन नहीं अच्छा लगता, अभागे रोगीको दवा नहीं अच्छी लगती, वायुरोगवालेको ठंढी चीजें नहीं सुहातीं और बकरेको मेघ नहीं अच्छा लगता, वैसेही उसे भी प्रभुका धर्मोपदेश नहीं भाया | दूसरी तरह की धर्म देशना सुननेकी इच्छा रखनेवाले उस राजकुमारने जो इधर-उधर दृष्टि दौड़ायी, तो उसे विचित्र वेषधारी मरिचि दिखलाई दिया। जैसे बाज़ार में चीजें मोल लेनेको गया हुआ बालक बड़ी दुकानसे हटकर छोटी दूकान पर चला आये, उसी प्रकार दूसरे ढङ्गकी धर्म देशना सुननेकी इच्छा रखनेवाला. कपिल भी स्वामीके निकटसे उठकर मरिचिके पास चला आया । उसने मरिचिले धर्मका मार्ग पूछा । यह सुन, उसने कहा,"भाई ! मेरे पास धर्म नहीं है यदि इसकी चाह हो, तो स्वामीजीकी ही शरण में जाओ ।” मरिचिकी यह बात सुन, कपिल
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आदिनाथ चरित्र ४८६
प्रथम पर्व फिर प्रभुके पास आकर धर्म-कथा श्रवण करने लगा। उसके चले जाने पर मरिचिने अपने मनमें विचार किया,– “यह देखो! इस स्वकर्म-दूषित पुरुषको स्वामीकी धर्म-कथा भी नहीं रुची । बेचारे चातकको सारा सरोवर ही मिल जाये, तो उसको इससे क्या होता है ?"
थोड़ी देरमें कपिल फिर मरिचिके पास आकर कहने लगा,"क्या तुम्हारे पास ऐसा-वैसा भी धर्म नहीं है ? यदि नहीं है, तो तुम व्रत काहेका लिये हुए हो।" । .. इसी समय मरिचिने अपने मनमें विचार किया,-"दैवयोग से यह कोई मेरे जैसा मुड्ढ मिला है । बहुत दिनों पर यह जैसेको तैसा मिला है, इसीलिये अब मैं निःसहायसे सहायवाला हो गया।" ऐसा विचार कर उसने कहा,-"वहाँ भी धर्म है और यहाँ भी धर्म है।" बस, इसी एक दुर्भाषणके ऊपर उसने कोटानुकोटि सागरोपम उत्कट प्रपञ्च फैलाया। इसके बाद उसने उसको दीक्षा दी और अपना सहायक बना लिया। बस, उसी दिनसे परिव्राजकताका पाखण्ड शुरू हुआ।
विश्वोपकारी भगवान् ऋषभदेवजी ग्राम, खान, नगर, द्रोणमुख, करबट, पत्तन, मण्डप, आश्रम और जिले-परगनोंसे भरी हुई पृथ्वीमें विचरण कर रहे थे। विहार करते समय वे चारों दिशाओं में सौ योजन तकके लोगोंका रोग निवारण करते हुए वर्षाकालके मेधोंकी तरह जगत्के जन्तुओंको शान्ति प्रदान कर . रहे थे। राजा जिस प्रकार अनीतिका निवारण कर, प्रजाको
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प्रथम पर्व
४.७ आदिनाथ चरित्र सुख देता है, वैसेही मूषक, शुक आदि उपद्रव करनेवाले जीवों की अपवृत्तिसे वे सबकी रक्षा करते थे। सूर्य जिस प्रकार अन्धकारका नाशकर, प्राणियोंके नैमित्तिक और शाश्वत वैरको शान्त करता हुआ सबको प्रसन्न करता है, वैसेही वे सबको प्रसन्न करते थे। जैसे उन्होंने पहले सब प्रकारसे स्वस्थ करनेवाली व्यवहार-प्रवृत्तिसे लोगोंको आनन्दित किया था, वैसेही अब की विहार प्रवृत्तिसे सबको आनन्द दे रहे थे। जैसे औषधि अजीर्ण और अतिक्षुधाको दूर कर देती है, वैसेही वे अनावृष्टि
और अतिवृष्टिके उपद्रवोंको दूर करते थे। अन्तः शल्यके समान स्वचक्र और परचक्रका भय दूर हो जानेसे तत्काल प्रसन्न बने हुए लोग उनके आगमनके उपलक्ष्यमें उत्सव करते थे। साथहो जैसे मान्त्रिक पुरुष भूत-राक्षसोंसे लोगोंको बचाते हैं, वैसेही वे संहार करनेवाले घोर दुर्भिक्षसे सबको रक्षा करते थे। इस प्रकार उपकार पाकर सब लोग उन महात्माकी स्तुति किया करते थे। मानों भीतर नहीं समाने पर बाहर आती हुई अनन्त ज्योति हो, ऐसा सूर्यमण्डलको भी जीतनेवाला प्रभामण्डल वे भी धारण किये हुए थे । * जैसे आगे-आगे चलने__ जहाँ-जहाँ तीर्थ कर विचरण करते हैं, उसके चारों ओर सवासो योजन पर्यन्त उपद्रवकारी रोग शान्त हो जाते हैं, परस्परका वैर मिट जाता है, धान्यादिको हानि पहुंचानेवाले जन्तु नहीं रह जाते, महामारी नहीं होती, अतिवृष्टि नहीं होती, अकाल नहीं पड़ता, स्वचक्र-परचक्रका भय नहीं रहता तथा प्रभुके मस्तकके पीछे प्रभामण्डल रहता है, जो केवलज्ञान प्रकट होनेसे उत्पत्र तथा ग्यारह अतिशयोंमेंसे एक है।
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
वाले चक्र से चक्रवन्त शोभित होता है, वैसेही आकाशमें उनके आगे-आगे चलनेवाले असाधारण तेजमय धर्म-चक्रसे वे भी शोभित हो रहे थे। सब कर्मोंको जीतनेके चिह्नस्वरूप ऊँचे जयस्तम्भके समान हज़ारों छोटी-मोटी ध्वजाओंसे युक्त एक धर्म-वजा उनके आगे-आगे भी चलती थी। मानों प्रयाण करते समय उनका कल्याण- मङ्गल करती हो, ऐसी आप ही आप निभर शब्द करती हुई दिव्य-दुन्दुभि उनके आगे-आगे बजती चलती थी। मानों उनका यश हो, ऐसा आकाशमें घूमता हुआ पादपीठ सहित स्फटिक रत्नका सिंहासन उनको भी शोभित कर रहा था। देवताओंसे रखे हुए सुवर्ण-कमलके ऊपर राजहंस के समान वे भी लीला सहित चरण-न्यास कर रहे थे 1 मानों उनके भय से रसातलमें पैठ जानेकी इच्छा करता हो, ऐसे नीचे मुखवाले उनके तीक्ष्ण दण्ड- रूपी कण्टकसे उनका परिवार आलिंष्ट नहीं होता था । मानों कामदेवकी सहायता करनेके पाप का प्रायश्चित करने की इच्छा करती हो, इस प्रकार छओं ऋतुएँ एक समय में उनकी उपासना करती थीं। मार्गके चारों ओरके नीचेको झुके हुए वृक्ष, जो संज्ञाहीन जड़ वस्तु हैं, दूरही से उनको नमस्कार करते हुए मालूम पड़ते थे पंखे की हवा के समान ठंढी, शीतल और अनुकूल वायु उनकी निरन्तर सेवा करती रहती थी । स्वामीके : प्रतिकूल चलनेवाले की भलाई नहीं होती, मानों यही सोचकर पक्षीगण नीचे उतर, उनकी प्रदक्षिणा कर, उनकी दाहिनी तरफ होकर चलने लगते थे। जैसे चंचल
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
तरङ्गोंसे समुद्र शोभित होता है, वैसेही जघन्यकोटि संख्यावाले और बारम्बार गमनागमन करते हुए सुरासुरोंसे वे भी शोभित हो रहे थे। मानों भक्तिवश दिनमें भी प्रभासहित चन्द्रमा उदय हो आया हो, ऐसा उनका छत्र आकाशमें शोभा दे रहा था।
और मानों चन्द्रमासे पृथक की हुई समस्त किरणोंका कोष हो, ऐसा गङ्गाकी तरंगोंके समान श्वेत चमर उनपर दुल रहा था। नक्षत्रोंसे घिरे हुए चन्द्रमाके समान, तपसे प्रदीप्त और सौम्य. लाखों उत्तम श्रमणोंसे वे घिरे रहते थे। जैसे सूर्य प्रत्येक सागर और.सरोवरमें कमलको खिलाता है, वैसेही वे महात्मा प्रत्येक नगर और ग्राममें भव्य जीवोंको प्रतिबोध दिया करते थे। इस प्रकार विचरण करते हुए भगवान ऋषभदेवजी एक दिन अष्टापद पर्वतपर आये। मानों बढ़ी-चढ़ी हुई सुफेदी के कारण शरदऋतुके बादलोंका एक स्थान पर जमा किया हुआ ढेर हो, स्थिर हुए क्षीर समुद्रका लाकर छोड़ा हुआ वेलाकूट हो अथवा प्रभुके जन्माभिषेकके समय इन्द्र के विक्रय किये हुए चार वृषभोंमेंसे एक वृषभ हो-ऐसाही वह पर्वत मालूम होता था। साथही वह पर्वत नन्दीश्वर-द्वीपको पुष्करिणीमें रहनेवाले दधि-मुख-पर्वतों से एक पर्वत, जम्बुद्वीप रूपी कमलकी एक नाल, अथवा पृथ्वीके ऊँचे श्वेतवर्ण मुकुटकी भाँति शोभा पा रहा था। उसकी निर्मलता और प्रकाशको देखकर यही मालूम होता था, मानों देवतागण उसे सदा जलसे नहलाते और वस्त्रसे पोंछते रहते हैं। वायुसे उड़ायी हुई कमल-रेणुओंसे निर्मल
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आदिनाथ चरित्र ४६०
प्रथम पर्व बने हुए उसके स्फटिक मणिके तटको स्त्रियाँ नदीके . जलके समान देखती रहती थीं। उसके शिखरोंके अग्रभागमें विश्राम लेनेको बैठी हुई विद्याधरोंकी स्त्रियोंको वह पर्वत वैताढ्य और क्षुद्र हिमालयकी याद दिलाता था। वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानों स्वर्ग-भूमिका अन्तरिक्षमें टिका हुआ दर्पण हो, दिग्वधुओंका अतुलनीय हास्य हो और ग्रह-नक्षत्रों के निर्माणके काममें आनेवाली मिट्टीका अक्षय आश्रय-स्थल हो। उसके शिखरों के मध्यभागमें दौड़-धूप करके थके हुए मृग बैठा करते थे, इससे वह अनेक मृगलाञ्छनों ( चन्द्रों ) का धोखा दे रहा था। उससे जो बहुतसे झरने जारी थे, वे उसके छोड़े हुए निर्मल वस्त्रसे मालूम पड़ते थे और सूर्यकान्त-मणियोंकी फैलती हुई किरणोंसे वह ऊँची-ऊँची पताकाओंवाला मालूम होता था। उसके ऊँचे शिखरके अग्रभागमें जब सूर्यका संक्रमण होता था, तब वह सिद्धोंकी स्त्रियोंको उदयाचलका भ्रम पैदा करता था। मानों मोरपंखोंका बना हुआ छत्र तना हो, इस प्रकार उसपर हरे-हरे पत्तोंवाले वृक्षोंकी छाया :निरन्तर छायी रहती थी। खेचरों की स्त्रियाँ कौतुकसे मृगोंके बच्चोंका लालन-पालन करती थीं, इससे हरिणियोंके झरते हुए दूधसे उनकी सब लता-कुजें सिंच जाती थीं। कदलीपत्रकी लंगोटियाँ पहने हुई शबरियोंका नाच देखनेके लिये वहाँ नगरकी स्त्रियाँ आँखोंकी पंक्ति लगाये रहती थीं। रतिसे थकी हुई साँपिने वहाँ जंगलकी मन्द-मन्द हवा पिया करती ; पवन-नटकी तरह लताओंको नचा-नचा
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र कर खेल करता था; किन्नरोंकी स्त्रियाँ रतिके आरम्भसे ही उसकी गुफाओंको मन्दिर बना लेती और स्नान करनेके लिये आयी हुई अप्सराओंकी भीड़-भाड़के मारे उसके सरोवरका जल तरङ्गित होता रहता था। कहीं चौपड़ खेलते हुए, कहीं पान-गोष्ठी करते हुए, कहीं जुआ खेलते हुए यक्षोंसे उसके मध्यभागमें कोलाहल होता रहता था। उस पर्वत पर कहीं किन्नरों की स्त्रियां, कहीं भीलोंकी स्त्रियाँ और कहीं विद्याधरोंकी स्त्रियाँ क्रीड़ा करती हुई गीत गाया करती थीं। कहीं पके हुए दाखके फल खाकर उन्मत्त बने हुए शुक-पक्षी शब्द कर रहे थे, कहीं आमकी मोजरें खाकर मस्त कोयलें पंचम स्वरमें अलाप रही थीं, कहीं कमल-तन्तुके आस्वादसे उन्मत्त बने हुए हंस मधुर शब्द कर रहे थे, कहीं नदीके किनारे मदोन्मत्त क्रौञ्च-पक्षी किलकारियाँ सुना रहे थे, कहीं बिल्कुल पास आकर लटके हुए मेघोंको देखकर बेसुध हो जानेवाले मोर शोर कर रहे थे और कहीं सरोवरमें तैरते हुए सारस-पक्षियोंका शब्द सुनाई दे रहा था । इन सब बातोंसे वह पर्वत बड़ा ही मनोहर मालूम होता था। कहीं तो वह पर्वत अशोकके लाल लाल पत्तोंसे कुसुंबी वनवाला, कहीं ताल-तमाल और हिन्तालके वृक्षोंसे श्याम वस्त्रवाला, कहीं सुन्दर पुष्पवाले पलास-वृक्षोंसे पीले वस्त्रवाला, और कहीं मालती और मल्लिकाके समूहले श्वेत वस्त्रवाला मालूम पड़ता था। आठ योजन ऊँचा होनेके कारण वह आकाशः जैसा ऊँचा मालूम पड़ता था। ऐसे उस अष्टापद-पर्वतके
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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व ऊपर गिरिकी तरह गरिष्ट जगत्गुरु आ विराजे। हवाके झोंके . से गिरनेवाले फूलों और झरनोंके जलसे वह पर्वत मानों जगत्पति प्रभुको अद्यार्थ्या-पाद्य दे रहा हो, ऐसा मालूम पड़ता था। प्रभुके चरणोंसे पवित्र बना हुआ वह पर्वत, प्रभुके जन्म-स्नात्र से पवित्र बने हुए मेरुसे अपनेको कम नहीं समझता था। हर्षित कोकिलादिकके शब्दोंके मिषसे वह पर्वत मानों जगत्पति का गुण गान कर रहा था। ___ अब उस पर्वतके ऊपर वायुकुमार देवोंने एक योजन प्रदेश में मार्जन करनेवाले सेवकोंसे ऐसी सफाई करवा दी, कि कहीं तृणकाष्ठादि नहीं रहे। इधर मेघकुमारोंने पानी ढोनेवाले भैंसोंकी तरह बादलोंको लाकर उस भूमिको सुगन्धित जलसे सींच दिया। इसके बाद देवताओंने सुवर्ण रत्नोंकी विशाल शिलाओंसे दपेण जैसी समतल (चौरस ) भूमि बना ली। उसपर व्यन्तर , देवताओंने इन्द्र-धनुषके खण्डकी भांति पाँच रंगोंवाले फूलोंकी घुटने भर वृष्टि कर डाली और यमुना नदी की तरंगोंकी शोभा धारण करनेवाले वृक्षोंके आर्द्र-पल्लवोंके तोरण चारों ओर बाँधे। चारों ओर स्तम्भों पर बाँधे हुए मक
राकृति तोरण, सिन्धुके दोनों तटोंमें रहनेवाले मगरकी तरह दिखला रहे थे। उसके बीचमें मानों चारों दिशाओंरूपिणी देवियोंके दर्पण हों, ऐसे चार छत्र और आकाश गङ्गाकी चञ्चल तरङ्गोंका धोखा देनेवाली पवनसे सञ्चालित ध्वजा-पताकाएँ शोभा दे रही थी। उन तोरणोंके नीचे मोतीका बना हुआ
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प्रथम पर्व
बादिनाथ चरित्र
स्वस्तिक "सारे जगत्का यहाँ मङ्गल है” ऐसी चित्र- लिपिका भ्रम उत्पन्न कर रहा था। चौरस बनायी हुई भूमि पर विमानचारी देवताओंने रत्नाकरकी शोभा के सर्वस्वके समान रत्नमय गढ़ बनाया और उस पर मानुषोत्तर पर्वतकी सीमा पर रहने वाली सूर्य चन्द्रकी किरणोंकी मालाके समान माणिक्य के कयूरों की पंक्तियाँ बनायीं। इसके बाद ज्योतिषपति देवताओंने वलयाकार बने हुए हिमाद्रि पर्वत के शिखर के समान एक निर्मल सुवर्णका मध्यम गढ़ बनाया और उसके ऊपर रत्नमय कँगूरे लगाये ! उन कंगूरों पर दर्शकों की परछाई पड़नेपर वे ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों उनमें चित्र खिंचे हुए हों। उसके बाद भुवन - पतियोंने, कुण्डलाकार बने हुए शेषनागके शरीरका धोखा पैदा करनेवाला चाँदीका गढ़ अन्तमें तैयार किया और उसपर क्षीर सागर के तटके जलपर बैठी हुई गरुड़ श्रेणीकी भाँति सोनेके कंगूरोंकी श्रेणी बैठायी। इसके बाद यक्षोंने अयोध्याके किलेकी तरह इन गढ़ों में से भी प्रत्येक में चार-चार दरवाजे लगाये और उनपर मानिकके तोरण बँधवाये । अपनी फैलती हुई किरणोंसे वे तोरण सौगुने से मालूम पड़ते थे प्रत्येक द्वार पर व्यन्तरोंने नेत्रोंकी कोर में लगे हुए काजलकी रेखाके समान धुएँ की तरंगे उठानेवाली धूपदानी रख दी थी । मध्यम गढ़के भीतर, ईशान कोणमें, घरमें बने हुए देवमन्दिर की तरह प्रभुके विश्राम करनेके लिये एक “ देवच्छन्द ' ( देवालय ) रचाया गया। जैसे जहाज़के बीच में मास्तूल होता है, वैसे ही व्यन्तरोंने उस समवसरणके बीचोबीच तीन कोस
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आदिनाथ चरित्र ४६४
प्रथम पर्व ऊँचा चैत्य-वृक्ष बनाया। उस चैत्य-वृक्षके नीचे अपनी किरणों से मानों वृक्षको मूलसे ही पल्लवित करता हुआ एक रत्नमय पीठ बनाया और उस पीठ पर चैत्य-वृक्षकी शाखाओंके पल्लवोंसे बारबार स्वच्छ होता हुआ एक रत्नच्छन्द बनाया । उसके मध्यमें पूर्वकी ओर विकसित कमलकी कलीके मध्यमें कर्णिकाकी तरह पादपीठ सहित एक रत्न-सिंहासन तैयार किया और उस पर गङ्गाकी तीन धाराओंके समान तीन छत्र बनाये। इस प्रकार वहाँ देवों और असुरोंने झटपट समवसरण बनाकर रख दिया, मानों वे पहलेसे ही सब कुछ तैयार रखे हुए हो अथवा कहींसे उठा लाये हों।
जगत्पतिने भव्य-जनोंके हृदयकी तरह मोक्षद्वार-रूपी इस समवसरणमें पूर्व दिशाके द्वारसे प्रवेश किया। पहुँचते ही उन्होंने उस अशोककी प्रदक्षिणा की, जिसके डालके अन्तमें निकलनेवाले पलवोंको उन्होंने कर्ण-भूषण बना रखा था। इसके बाद पूर्व दिशाकी ओर आ, “नमस्तीर्थाय" कह कर, जैसे राजहंस कमल पर आ बैठे, वैसेही वे भी सिंहासन पर आ विराजे । त. त्काल ही शेष तीनों दिशाओंके सिंहासनों पर व्यन्तर देवोंने भगवानके तीन रूप बना रखे। फिर साधु, साध्वी और वैमानिक देवताओंकी स्त्रियोंने पूर्व-द्वारसे प्रवेश कर, प्रदक्षिणा करके भक्तिपूर्वक जिनेश्वर और तीर्थको नमस्कार किया और प्रथम गढ़में प्रथम धर्म-रूपी उद्यानके वृक्षरूप साधु, पूर्व और दक्षिण दिशाके बीचमें बैठे। उसी प्रकार पृष्ठ-भागमें वैमानिक देवताओंकी स्त्रियाँ
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र खड़ी रहीं और उनके पीछे उन्हींकी सी साध्वियोंका समूह खड़ा था। भुवनपति, ज्योतिषी और व्यन्तरोंकी स्त्रियाँ, दक्षिण-द्वार से प्रवेश कर, पूर्व विधिके अनुसार प्रदक्षिणा और नमस्कार कर, नैऋत-दिशामें बैठी और इन तीनों श्रेणियोंके देव, पश्चिम द्वारसे प्रवेश कर, उसी प्रकार नमस्कार कर क्रमसे वायव्य दि. शामें बैठे। इस प्रकार प्रभुको समवसरणमें आया हुआ जान कर, अपने विमानोंके समूहसे आकाशको आच्छादित करते हुए 'इन्द्र वहाँ तत्काल आ पहुंचे। उत्तर द्वारसे समवसरणमें प्रवेश कर, स्वामीको तीन प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर, भक्तिमान इन्द्र इस प्रकार स्तुति करने लगे,– “हे भगवन् ! जब बड़े-बड़े योगी भी आपके गुणोंको ठीक-ठीक नहीं जानते, तब आपके उन स्तुति योग्य गुणोंका मैं नित्य-प्रमादी होकर कैसे बखान कऊँ ? तो भी हे नाथ ! मैं यथाशक्ति आपके गुणोंका बखान करूँगा ; क्योंकि लँगड़ा आदमी भी लम्बी मंज़िल मारनेके लिये तैयार हो जाये, तो उसे कोई रोक थोड़े ही सकता है ? हे प्रभो! इस संसाररूपी आतापके तापसे परवश बने हुए प्राणियोंको आपके चरणोंकी छाया, छत्रछायाका काम देती है, इसलिये आप मेरी रक्षा करें। हे नाथ ! सूर्य जैसे केवल 'परोपकारके ही लिये उदय होता है, बैसेही केवल लोकोपकारके ही लिये आप विहार करते हैं, इस लिये धन्य हैं। मध्याह्न-कालके सूर्यकी तरह आप प्रभुके प्रकट होनेपर देहकी छायाकी भाँति प्राणियोंके कर्म चारों ओरसे संकुचित हो जाते हैं। जो सदा आपके दर्शन करते रहते हैं, वे पशु
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
पक्षी भी धन्य है और जो आपके दर्शनोंसे वञ्चित हैं, वे स्वर्ग में रहते हुए भी अधन्य हैं । हे तीनों लोकके स्वामी ! जिनके हृदयमन्दिर में आपही अधिष्ठाता देवताकी भाँति निवास करते हैं, वे भव्य जीव श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ हैं। बस आपसे मेरी केवल यही एक प्रार्थना हैं, कि नगर - नगर और ग्राम ग्राम विहार करते हुए आप कदापि मेरे हृदयको नहीं त्यागे
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इस प्रकार प्रभुकी स्तुति कर, पाँचों अङ्गो से पृथ्वीका स्पर्श करते हुए प्रणाम कर स्वर्गपति इन्द्र पूर्व और उत्तर दिशाओ के मध्यमें बैठे | प्रभु अष्टापद - पर्वत पर पधारे हैं, यह समाचार शीघ्रही शैल-रक्षक पुरुषोंने चक्रवर्तीसे जाकर कह सुनाया : क्योंकि वे इसी कामके लिये वहाँ रखे गये थे। भगवान के आगमनका समाचार सुननेवाले लोगोंको उदार चक्रवर्त्तीने साढ़े बारह करोड़ सुवर्ण दान किया । भला ऐसे अवसर पर वे जो न दे देते, कम ही था । फिर महाराजने सिंहासनसे उठकर उस दिशाकी ओर सात आठ कदम चलकर विनयके साथ प्रभुको प्रणाम किया और फिर सिंहासन पर बैठ कर इन्द्र जैसे देवताओंको बुलाते हैं, वैसेही प्रभुकी वन्दना करनेको जानेके लिये चक्रवर्ती ने अपने सैनिकों को बुलवाया, वेलासे समुद्रकी ऊँची तरङ्ग पंक्ति के समान भरत राजाकी आज्ञा से सम्पूर्ण राजा चारों ओरसे आकर एकत्रित हो गये । हाथी ऊँचे स्वरसे गर्जना करने लगे । घोड़े हिनहिनाने लगे । उनका इस प्रकार शब्द करना ऐसा मालूम होता था मानों वे अपने सवारोंको स्वामीके पास जानेके लिये
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प्रथम पचे
आदिनाथ-चरित्र जल्दी तैयार होनेको कह रहे हों । पुलकिल अंगोवाले रथी और पैदल लोग तत्काल हर्षपूर्वक चल पड़े। क्योंकि एक तो भगवान्के पास जाना, दूसरे, राजाकी आज्ञाका पालन, मानो सोने में सुगन्ध आ गयी . बड़ी नदीके दोनों तटोंमें भी जैसे बाढ़का जल नहीं समाता, बैसेही अयोध्या और अष्टापदपर्वतके बीच में वह सेना नहीं समाती थी। आकाशमें श्वेत छत्र और मयूरछत्र का सङ्गम होने से गङ्गा यमुनाके वेणो-सङ्गमकी तरह शोभा दि. खाई दे रही थी। घुड़सवारोंके हाथमें सोहनेवाले भाले, अपनी किरणों के कारण, ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों उन्होंने भी अपने हाथमें भाले लिये हो। हाथियों पर चढ़े हुए, वीरकुञ्जर हर्षसे उत्कट गर्जन करते हुए ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों हाथीपर दूसरा हाथी सवार हो। सभी सैनिक जगत्पतिके दर्शन करने के लिये भरत चक्रवर्तीले भी बढ़कर उत्सुक हो रहे थे, क्योंकि तलवार की अपेक्षा उसकी म्यान और भी तेज होती है। उन सबके मिले हुए कोलाहलने मानों द्वारपालकी तरह मध्यमें विराजित भरत राजासे यह निवेदन किया, कि सब सैनिक इकट्ठे हो गये। इसके बाद जैसे मुनीश्वर राग-द्वेषको जीतकर मनको पवित्र कर लेते है, वैसेही महाराजने स्नान करके अङ्गोंको पवित्र किया और प्रायश्चित तथा मंगल कर अपने चरित्रके समान उज्ज्वल वस्त्र धारण किये। मस्तक पर :श्वेत छत्र और दोनों ओर श्वेत बंघरोंसे शोभित वे महाराज अपने महलके आँगनमें आये और सूर्य से पूर्वाचल पर आरूढ़ होता है, वैसेही आंगन में पधारे हुए
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व महाराज, आकाशके मध्यमें आनेवाले सूर्यकी भाँति महागज पर आरूढ़ हुए। भेरी, शङ्ख और नगाड़े आदिके उत्तम बाजोंके ऊंचे शब्दसे फव्वारेके जलके समान आकाशको व्यान करते हुए, हाथियोंके मद-जलसे दिशाओंको पूर्ण करते हुए, तरंगोंसे आच्छा. दित समुद्रकी तरह तुरङ्गोंसे पृथ्वोको आच्छादित करते हुए
और कल्पवृक्षसे युक्त युगलियोंके समान हर्ष और त्वरा (जल्दी से युक्त महाराज, थोड़ी देरमें अन्तःपुर और परिवारके लोगोंके साथ अष्टापदमें आ पहुँचे। __जैसे संयम स्वीकार करनेकी इच्छा रखनेवाला पुरुष गृहस्थ धर्म से उतर कर ऊँचे चरित्र-धर्मपर आरूढ़ होता है, वैसेही महागज से उतर कर महाराज उस महागिरि पर चढ़े। उत्तर दिशावाले द्वारसे समवसरणके भीतर प्रवेश करतेही उन्होंने आनन्द-रूपी अंकुर उत्पन्न करनेवाले मेघके समान प्रभुको देखा । प्रभुकी तीन बार प्रदक्षिणा कर, उनके चरणोंमें नमस्कार कर, हाथोंकी अंजलि बना, सिरसे लगाकर भरतने उनकी इस प्रकार स्तुति की,"हे प्रभु ! मेरे जैसे मनुष्यका आपकी स्तुति करना, घड़ेसे समुद्र का पान करनेके समान है। तथापि मैं आपकी स्तुति करता हूँ: क्योंकि मैं भक्तिके कारण निरंकुश हूँ। हे प्रभो ! जैसे दीपकके सम्पर्कसे बत्ती भी दीपक ही कहलाती है, बैसेही आपके आश्रित भव्यजन भी आपके तुल्य ही हो जाते हैं। हे .स्वामिन् ! मदसे उन्मत्त इन्द्रियरूपी हाथियों का मद उतारनेमें औषधिके समान और सच्चे मार्गको बतलानेवाला आपका शासन सर्वत्र विजय
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ- चरित्र
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पाता है 1 हे त्रिभुवनेश्वर ! मैं तो यही मानता हूँ, कि आप जो चार घातीकर्मीका नाश कर, बाकी चार कर्मों की उपेक्षा करते हैं, वह लोगोंके कल्याण के निमित्त ही करते हो । हे प्रभु ! गरुड़ के पंखों के नीचे रहनेवाले पुरुष जैसे समुद्रको लाँघजाते हैं, वैसे ही आपके चरणों में लिपटे हुए भव्य-जन इस संसार समुद्र को पार कर जाते हैं । हे नाथ ! अनन्त कल्याणरूपी वृक्षको उल्लसित करनेमें दोहद स्वरूप और मोहरूपी महानिद्रा में पड़े हुए विश्वके लिये प्रातःकाल के समान आपका दर्शन सदाही जय-युक्त है 1 आपके चरण कमलोंके स्पर्शसे प्राणियोंका कर्म-विदारण हो जाता है, क्योंकि चन्द्रमाकी शोतल किरणोंसे भी हाथीके दाँत फूटते हैं। मेघोंसे झरनेवाली वृष्टिकी तरह और चन्द्रमाकी चांदनी के समान ही, हे जगन्नाथ ! आपका प्रसाद सबके लिये समान है
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इस तरह प्रभुकी स्तुति कर, प्रणाम करनेके अनन्तर भरत- पति सामानिक देवताकी भाँति इन्द्र के पीछे बैठ रहे । देवताओं के पीछे अन्य पुरुषगण बैठे और पुरुषो के पीछे स्त्रियाँ खड़ी हो रहीं । प्रभुके निर्दोष शासनमें जिस प्रकार चतुर्विध-धर्म रहता है, उसी प्रकार समवसरध के पहले गढ़ में यह चतुर्विध-संघ बैठा । दूसरे गढ़में परस्पर विरोधी होते हुए भी सब जीव-जन्तु सहोदर भाइयोंकी तरह सहर्ष बैठ रहे। तीसरे किलेमें आये हुए राजाओंके हाथी-घोड़े आदि वाहन देशना सुननेके लिये कान ऊपर को उठाये हुए थे। फिर त्रिभुवनपतिने सब भाषाओं में प्रवर्त्तित
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आदिनाथ चरित्र
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होनेवालो और मेघ के शब्दको भाँति गम्नोर वाणीमें देशना देनी आरम्भ की। देशना सुनते हुए सभी पशु-पक्षी मनुष्य और देवतागण हर्ष के मारे ऐसे स्थिर हो रहें, मानों वे किसी बड़े भारी बोझ से छुटकारा पा गये हों, इट पदको प्राप्त हो गये हों, कल्याण-अभिचेक कर चुके हो, ध्यानमें डूबे हों, अहमिन्द्र पदको प्राप्त कर चुके हो, अथवा परब्रह्मको ही पा लिया हो । देशना समाप्त होनेपर, महाव्रतका पालन करनेवाले अपने भाइयों को देखकर मनमें दुःखित होते हुए भरतराज विचार किया, "अहा ! अग्निकी तरह सदा असन्तुर रहते हुए मैंने अपने इन भाइयोंका राज्य लेकर क्या किया ? अब इस भोगफलवाली लक्ष्मीको दूसरों को दे देना, तो राखमें घी छोड़नेके ही समान और मेरे लिये निष्फल है। कौए भी दूसरे कौओं को खिलाकर अन्नादिक भक्षण करते हैं; पर मैं तो अपने इन भाइयों को भी हटाकर भोग भोग रहा हूँ, इसलिये कौनसे भी गया-न 1-बीता हूं । मासक्षाणक* जिस प्रकार किसी दिन मिक्षा ग्रहण करते हैं. वैसे ही यदि मैं फिर उनको उनकी भोगी हुई सम्पत्ति वापिस कर दूँ, तो मेरा बढ़ाही पुण्योदय होगा, यदि वे उसे ग्रहण कर लें " ऐसा विचार कर, प्रभु के चरणों के पास जा, अंजलि - बद्ध होकर उन्होंने अपने भाइयों से उस सम्पत्ति को भोगनेके लिये कहा ।
तत्र प्रभु कहा, "हे सालहृदय राजा ! तुम्हारे ये भाई बड़े ही सतोगुणी हैं और इन्होंने महाव्रत का पालन करनेकी प्रतिज्ञा
8 महीन भर उपवास करनेवाला ।
प्रथम पव
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
की है। अतएव संसारको असारताको जानते हुए ये लोग वमन किये हुए अनकी तरह त्याग किये हुए भोगको फिर नहीं ग्रहण कर सकते ।”
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जब प्रभुने इस प्रकार भोगसम्बन्धी उनके आमन्त्रणका निषेध किया, तब फिर पश्चात्ताप युक्त होकर चक्रवर्तीने विचार किया, - यदि मेरे ये सर्व-सङ्ग-विहीन भाई कदापि भोगका संग्रह नहीं कर सकते, तो भी प्राण धारणके लिये आहार तो करेंगे ही ? ऐसा विचारकर उन्होंने ५०० गाड़ियों में भरकर आहार मँगवाया और अपने छोटे भाइयोंसे फिर पहले की तरह उन्हें स्वीकार कर लेने को कहा। इसके उत्तर में प्रभुने कहा, "हे भरतपति ! यह आधाकर्मी* आहार यतियों के योग्य नहीं है ।"
प्रभुने जब इस प्रकार निषेध किया । तब उन्होंने अकृत और अकारित | अन्नके लिये उन्हें निमन्त्रण दिया ; क्योंकि सरलता में सब कुछ शोभा देता है। उस समय "हे राजेन्द्र ! मुनियाँको राजपिण्ड नहीं चाहिये ।" यह कह कर धर्म- चक्रवतीने फिर मना कर दिया। तब ऐसा विचारकर, कि प्रभुने तो मुझे सब प्रकार से निषेधही कर दिया, महाराज भरत पश्चात्तापके कारण राहुग्रस्तचन्द्रमा की भांति दुःखित होगये । उनको इसप्रकार उदास होते देखकर इन्द्रने प्रभुसे पूछा, "हे स्वामी ! अवग्रह | कितने तरहका होता है ?
* मुनियोंके लिये तैयार किया हुआ । + मुनिके लिये नहीं किया हुआ और नहीं कराया हुआ । * रहने और विचरनेके स्थानके लिये जो आज्ञा लेनी पड़ती है, उसे अवग्रह कहते हैं ।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम : पर्व
प्रभुने कहा, – “इन्द्र - सम्बन्धी, चक्री सम्बन्धो, राजा-सम्बन्धी, गृहस्थ-सम्बन्धी और साधु-सम्बन्धी - ये पाँच प्रकारके अवग्रह होते हैं । ये अवग्रह उत्तरोत्तर पूर्व पूर्वको बाधा देते हैं। इनमें पूर्वोक्त और परोक्त विधियोंमें पूर्वोक्तही बलवान् है ।" इन्द्र ने कहा, - "हे देव ! जो साधु 'मेरे अवग्रहमें विहार करते हैं, उन्हें मैंने अपने अवग्रहके लिये आज्ञा दे रखी है ।" यह कह, इन्द्र प्रभुके चरणकमलोंकी वन्दना कर खड़े हो रहे । यह सुन भरतराजाने पुनः विचार किया, – “यद्यपि इन मुनियोंने मेरे लाये हुए अन्नादिको स्वीकार नहीं किया, तथापि अवग्रहके अनुग्रहकी आज्ञासे तो आज कृतार्थ हो जाऊँ !” ऐसा विचार कर, श्रेष्ठ हृदयवाले चक्रवतीने इन्द्र की तरह प्रभुके चरणोंके पास पहुँचकर अपने अवग्रहकी आज्ञा दी । तदनन्तर अपने सहधर्मी ( सामान्य धर्मबन्धु ) इन्द्रसे पूछा – “अब मैं यहाँ लाये हुए अपने अन्न-जल आदिको कौनसी व्यवस्था करूँ ?”
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इन्द्रने कहा, "वह सब गुणोंमें बढ़े- चढ़े हुए पुरुषोंको दे डालो ।”
भरतने विचार किया, “साधुओंके सिवाय विशेष गुणवान् पुरुष और कौन होगा ? अच्छा, अब मुझे मालूम हुआ । देश - विरतिके समान श्रावक विशेष गुणोत्तर हैं, इसलिये यह सब उन्हीं को अर्पण कर देना चाहिये ।”
यही निश्चय कर, भरत चक्रवत्तींने स्वर्गपति इन्द्रके प्रकाशमान और मनोहर आकृतिवाले रूपको देख, विस्मित होकर उनसे
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प्रथम पवे
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आदिनाथ-चरित्र पूछा,– “हे देव ! स्वर्गमें भी आप इसी रूपमें रहते हैं या किसी
और रूपमें ? क्योंकि देवता तो कामरूपी कहलाते हैं अर्थात् वे जब जैसा चाहें, वैसा रूप बना लेते हैं।" ___ इन्द्रने कहा,—"हे राजन् ! स्वर्ग में मेरा यह रूप नहीं रहता। वहाँ जो रूप रहता है, उसे कोई मनुष्य नहीं देख सकता।"
भरतने कहा,-" आपका वह रूप देखनेको मेरी बड़ी प्रबल इच्छा हो रही है। इसलिये हे स्वर्गेश्वर ! चन्द्रमा जैसे चकोरको आनन्द देता है, वैसेही आप भी मुझे अपनी वह दिव्यमूर्ति दिखला कर मेरी आँखोंको आनन्द दीजिये।"
इन्द्रने कहा,-- “हे राजन् ! तुम उत्तम पुरुष हो, इसलिये तुम्हारी प्रार्थना व्यर्थ नहीं जानी चाहिये, अतएव लो, मैं तुम्हें अपने एक अङ्गका दर्शन कराता हूँ।" यह कह, इन्द्रने उचित अलङ्कार से सोहती हुई और जगतरूपी मन्दिरमें दीपकके समान अपनी एक उँगली राजा भरतको दिखलायी, उसचमकती हुई कान्तिवाली इन्द्रकी उँगलीको देख, मेदिनीपतिको वैसाही आनन्द हुआ, जैसा चन्द्रमाको देखकर समुद्रको होता है। भरतराजाका इस प्रकार मान रखकर, भगवान्को प्रणामकर, इन्द्र सन्ध्या-कालके मेघकी भांति तत्काल अन्तर्ध्यान हो गये। चक्रवर्ती भी, स्वामीको प्रणाम कर, करने योग्य कामका मन-ही-मन विचार कर, अपनी अयोध्या-नगरीको लौट आये । रातको इन्द्रकी अंगुलीका आरोपण कर, उन्होंने वहाँ अष्टाहिका-उत्सव किया, सत्पुरुषोंका कर्तव्य भक्ति और स्नेहमें एकसाही होता है । उस दिनसे इन्द्रका
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आदिनाथ चरित्र
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स्तम्भ आरोपित कर लोग सर्वत्र इन्द्रोत्सव करने लगे रीति अब तक लोकमें प्रचलित है 1
सूर्य जैसे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाता है, वैसेही भव्य-जनरूपी कमलोंको प्रबुद्ध करनेके ( खिलानेके ) लिये भगवान् ऋषभस्वामी ने भी अष्टापद-पर्वतसे अन्यत्र विहार किया I
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इधर अयोध्यामें भरत राजाने सब श्रावकों को बुलाकर कहा,"तुम लोग सदा भोजनके लिये मेरे घर आया करो और कृषि आदि कार्यों में न लग कर, स्वाध्याय में निरत रहते हुए निरन्तर अपूर्व ज्ञानको ग्रहण करनेमें तत्पर रहा करो भोजन करनेके बाद मेरे पास आकर प्रतिदिन तुम्हें यही कहना होगा, कि-जिनो भवान् वर्द्धते भीस्तस्मान् माहन माहन (अर्थात् तुम जीते गये हो.. भय वृद्धिको प्राप्त होता है, इसलिये 'आत्मगुण' को न मारो, न मारो ) ।” चक्रवर्तीकी यह बात मान, वे लोग सदा उनके घर आकर जीमने लगे और पूर्वोक्त वचनका स्वाध्यायमें तत्पर मनुष्य की भाँति पाठ करने लगे। देवताओंकी तरह रतिमें मग्न और प्रमादी चक्रवर्त्तीने उन शब्दों को सुनकर, अपने मनमें विचार किया,"अरे ! मैं किससे जीता गया हूं और किससे मेरा भय बढ़ता है ? हाँ, अब जाना । कषायोंने मुझे जीत लिया है और इन्हीं के करते भय वृद्धिको प्राप्त होता है । इसीलिये ये विवेकी पुरुष मुझे नित्य इस बातकी याद दिलाया करते हैं, कि आत्माकी हत्या न करोन करो, परन्तु तो भी मेरी यह कंसी प्रमादशीलता और विषयलुधता है । धर्मके विषय में मेरी यह कैसी उदासीनता है ! इस
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आदिनाथ-चरित्र
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संसारमें मेरा वसा अनुराग है ! आर यह सब महापुरुषोके आचारसे कैसा उलटा पड़ता है!” इस प्रकारकी बातें सोचनेसे राजा के मन में ठीक उसी प्रकार धर्मका ध्यान क्षण भरके लिये समा गया, जैसे समुद्र में गङ्गाका प्रवाह प्रवेश करता है। परन्तु पीछे वे बारम्बार शब्दादिक इन्द्रियोंमें आसक्त हो जाते थे, क्योंकि भोग-फल-कर्मको अन्यथा कर डालनेको कोई समर्थ नहीं होता।
एक दिन पाक-शालाके अध्यक्षने महाराजके पास आकर कहा,-" महाराज ! इतने लोग भोजन करने आते हैं, कि यह समझ में नहीं आता, कि ये सबके सब श्रावक ही हैं या और भी कोई हैं ?” यह सुन, राजा भरतने आशा दी, कि तुम भी तोश्रावक हो हो, इसलिये आजसे परीक्षा करके भोजन दिया करो। अवतो पूछने लगा, कि तुम कौन हो.? जब वह बतलाना, कि मैं श्रावक हूँ, तब वह पूछता, कि तुममें श्रावकोंके कौन-कौनसे व्रत हैं । ऐसा पूछने पर जब वे बतलाते, कि हमारे निरन्तर पाँच अणुव्रत और सात शिक्षा-प्रत हैं, तब वह संतुष्ट होता। इसी प्रकार परीक्षा करके घह श्रावकों को भरत राजाको दिखलाता और महाराज भरत, उनकी शुद्धिके लिये उनमें कांकिणी-रत्नसे उत्तरासङ्गकी भांति तीन रेखाएँ ज्ञान, दर्शन और चारित्रकेचिह्न-स्वरूप करने लगे । इसी प्रकार प्रत्येक छठे महीने नये-नये श्रावकोंकी परीक्षा की जाती
और उनपर कांकिणी-रत्नके चिह्न अङ्कित किये जाते। उसी चिह्नको देखकर उन्हें भोजन दिया जाता और वे "जितोभवान् इत्यादि बचनका ऊँच स्वरसे पाठ करने लगते। इसीका पाठ
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व करनेके कारण वे क्रमशः “माहना” नामसे प्रसिद्ध हो गये। वे अपने बालक साधुओंको देने लगे। उनमें से कितनेही स्वेच्छापूर्वक विरक्त होकर व्रत ग्रहण करने लगे और कितने ही परिषह सहन करनेमें असमर्थ होकर श्रावक होगथे। काँकिणी-रत्नसे अङ्कित होनेके कारण उन्हें भी भोजन मिलने लगा। राजा उनको इस प्रकार भोजन देते थे, इसीलिये और-और लोग भी उनको जिमाने लगे। क्योंकि बड़ों से पूजित मनुष्य सबसे पूजित होने लगते हैं । उनके स्वाध्यायके लिये चक्रवर्तीने अहेन्तों की स्तुति और मुनियों तथा श्रावकोंकी समाचारीसे पवित्र चार वेद रचे । क्रमशः वे ही माहनासे ब्राह्मण कहलाने लगे और काँकिणी-रत्नकी तीन रेखा
ओं के बदले यज्ञोपवीत धारण करने लगे। भरत राजाके बाद जब उनके पुत्र सूर्ययशा गद्दी पर बैठे, तब उन्होंने कांकिणीरत्नके अभावमें सुवर्णके यज्ञोपवीतकी चाल चलायी। उनके बाद महायशा आदि राजा हुए। इन लोगोंने चाँदीका यज्ञोपवीत चलाया। पीछे पट्ट-सूत्रमय यज्ञोपवीत जारी हुआ और अन्तमें साधारण सूतकेही यज्ञोपवीत रह गये।
भरत राजाके बाद सूर्ययशा राजा हुए। उनके बाद महायशा, तब अतिबल, तब बलभद्र, तब बलवीर्य तव कीर्तीवीर्य तब जलवीर्य और उनके बाद दण्डवीर्य इन—आठ पुरुषों तक ऐसाही आचार जारी रहा। इन्हों ने भी इस भरतार्द्धका राज्य भोगा और इन्द्रके रचे हुए भगवानके मुकुटको धारण किया। फिर दूसरे राजाओंने मुकुटकी बड़ी लम्बाई-चौड़ाई देख, उसे नहीं धारण
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र किया: क्यो कि हाथीका भार हाथी ही सह सकता है, दूसरेसे नहीं सहा जा सकता। नवें और दसवें तीर्थङ्करके बीचमें साधुका विच्छेद हुआ और इसी प्रकार उनके बाद सात प्रभुओंके बीचमें शासनका विच्छेद हुआ। उस समय भरत-चक्रवर्तीकी रची हुई अर्हन्त-स्तुति तथा यति एवं श्रावकोंके धर्मसे पूर्ण वेद आदि बदले गये। इसके बादं सुलस और याज्ञवल्क्य आदि ब्राह्मणोंने अनार्य वेदोंकी रचना की।
इन दिनों चक्रधारी राजा भरत, श्रावकोंको दान देते और कामक्रीड़ा सम्बन्धी विनोद करते हुए दिन बिता रहे थे। एक दिन चन्द्रमा जैसे आकाशको पवित्र करता है, वैसेही अपने चरणोंसे पृथ्वीको पवित्र करते हुए भगवान् आदीश्वर, अष्टापद-गिरि पर पधारे। देवताओंने तत्काल वहाँ समवसरणकी रचना की और उसीमें बैठकर जगत्पति देशना प्रदान करने लगे। प्रभुके वहाँ आनेकी बात संवाद-दाताओंने झटपट भरतराजाके पास जाकर कह सुनायी। भरतने पहलेकी ही भाँति उन्हें इनाम दिया। सच है, कल्पवृक्ष सदा दान देता है, तोभी क्षीण नहीं होता। इसके बाद अष्टापद-गिरिपर समवसरणमें बैठे हुए प्रभुके पास आ, उनकी प्रदक्षिणाकर नमस्कार करते हुए भरतराजाने उनकी इसप्रकार स्तुति की,-“हे जगत्पति ! मैं अज्ञ हूँ, तथापि आपके प्रभावसे मैं आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि चन्द्रमाको देखनेवालोंकी दृष्टि मन्द होनेपर भी काम देने लगती है। हे स्वामिन् ! मोह-रूपी अन्धकारमें पड़े हुए इस जगत्को प्रकाश देनेमें दीपकके समान और
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
आकाशकी भाँति अनन्त जो आपका केवल ज्ञान है, वह सदा सय जगह जय पाता है । हे नाथ! प्रमाद-रूपी निद्रामें पड़े हुए मुझसरीखे मनुष्यों केही लिये आप सूर्यकी तरह बारम्बार आते-जाते रहते हैं । जैसे समय पाकर ( जाड़ेके दिनोंमें ) पत्थर की तरह जमा हुआ घी भी आगको आँचसे पिघल जाता है, वैसेही लाखों जन्मों के उपार्जन किये हुए कर्म भी आपके दर्शनोंसे नष्ट हो जाते हैं । हे प्रभु! एकान्त 'सुखम्-काल' से तो यह 'सुखं दुःखम्-काल' ही अच्छा है. जिसमें कल्पवृक्षसे भी विशेष फलके देनेवाले आप उत्पन्न हुए हैं । हे समस्त भुवनों के स्वामी ! जैसे राजा गांवों और भवनोंसे अपनी नगरीकी शोभा बढ़ाता है, वैसेहो आप भी इस भुवनको भूषित करते हैं। जैसा हित माता- -पिता, गुरु और स्वामी भी नहीं कर सकते, वैसा अकेला होनेपर भी अनेक-: - रूप होकर आप किया करते हैं। जैसे चन्द्रमासे रात्रि शोभा पाती है, हंससे सरोवर शोभा पाता है और तिलकसे मुखकी शोभा होती है, वैसेही आपसे यह सारा भुवन शोभा पाता है ।
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इस प्रकार विधि पूर्वक भगवान की स्तुति कर, भरत अपने योग्य स्थानपर बैठ रहे ।"
विनयी राजा
इसके बाद भगवान्ने योजन- भरतक फैलती हुई और सब भाषाओं में समझी जानेवाली वाणीमें विश्वके उपकारके लिये देशना दी । देशना के अन्तमें भरतराजाने प्रभुको प्रणामकर, रोमाञ्चित शरीर के साथ हाथ जोड़े हुए कहा, – “हे नाथ ! जैसे इस भरत - खण्ड में आप विश्वका हित करते फिरते हैं, वैसे और कितने धर्म-चक्री
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प्रथम पवे
.. आदिनाथ-चरित्र
और चक्रवर्ती होंगे। हे प्रभु! आप कृपाकर उनके नगर, गोत्र, माता-पिताके नाम, आयुवर्ण, शरीरका मान, परस्पर अन्तर, दीक्षा-पर्याय और मति आदि मुझे बतला दीजिये ।” ___ भगवान ने कहा,-" हे चक्रो! मेरे बाद इस भरतखण्डमें तेईस अर्हन्त और होंगे और तुम्हारे बाद और भी ग्यारह चक्र. वत्ती होंगे। उनमें बीसवें और बाईसवें तीर्थकर गौतम-गोत्रके होंगे और शेष सब कश्यप-गोत्रके । वे सब मोक्षगामी होंगे। अयोध्यामें जितशत्रु राजा और विजयारानीके पुत्र अजित दूसरे तीर्थङ्कर होंगे। उनकी बहत्तर लाख पूर्वकी आयु, सुवर्णकीसी कान्ति और साढ़े चार सौ धनुषोंकी काया होगी और वे पूर्वाङ्ग* से न्यून लक्षपूर्वके दीक्षा-पर्यायवाले होंगे। मेरे और अजितनाथके निर्वाणकालमें पचास लाख कोटि सागरोपमका अन्तर होगा । धावस्तो-नगरोमें जितारि राजा और सोनारानीके पुत्र सम्भव तीसरे तीर्थङ्कर होंगे। उनका सोनेका सा वर्ण साठ लाख पूर्वकी आयु और चार-चार सौ धनुषोंको ऊँचाईका शरीर होगा । वे चार पूर्वाइसे हीन लाख पूर्वका दीक्षा-पर्याय पालन करेंगे और अजितनाथ तथा उनके निर्वाणके बीचमें तीस लाख कोटि सागरोपमका अन्तर होगा । विनीतापुरीमें राजा संवर और रानी सिद्धार्थाके पुत्र, अभिनन्दन नामसे चौथे तीर्थङ्कर होंगे । उनको पचास लाख पूर्वकी आयु, साढ़े तीन सौ धनुषकी काया और सोने कीसी शरीरकी कान्ति होगी। उनका दीक्षा-पर्याय आठ
*ौरासी लाख वर्षको पूर्वाङ्ग कहते है ।
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
पूर्वाङ्गसे कम लाख पूर्व का होगा और दस लाख कोटि सागरोपमका अन्तर होगा । उसी नगरीमें मेघराजा और मङ्गलारानीके पुत्र सुमति नामसे पाँचवें तीर्थङ्कर होंगे 1 उनका सुवर्ण जैसा वर्ण, चालीस लाख पूर्व का आयुष्य और तीनसौ धनुषोंकी काया होगी । व्रत-पर्याय द्वादश पूर्व से कम लाख पूर्व का होगा और अन्तर नौ लाख कोटि सागरोपमका होगा । कौशाम्बी नगरी में धर राजा और सुसीमा देवीके पुत्र पद्मप्रभ नामके छठे तीर्थङ्कर होंगे 1 उनका लाल रंग, तीस लाख पूर्व' का आयुष्य और ढाई
धनुबकी काया होगी। इनका व्रतपर्याय सोलह पूर्वाङ्गसे न्यून लाख पूर्वका और अन्तर नब्बे हजार कोटि सागरोपमका होगा ! वाराणसी-नगरीमें राजा प्रतिष्ठ और रानी पृथ्वीके पुत्र सुपाव नामके सातवें तीर्थङ्कर होंगे। उनकी सोनेकीसी कान्ति, बीस लाख पूर्व की आयु और दो सौ धनुषकी काया होगी । उनका व्रतपर्याय बीस पूर्वाङ्गसे कम लाख पूर्व का और अन्तर नौव हज़ार कोटि सागरोपमका होगा । चन्द्रानन नगरमें महासेन राजा और लक्ष्मणादेवीके पुत्र चन्द्रप्रभ नामसे आठवें तीर्थङ्कर होंगे । उनका वर्ण श्वेत, आयु दश लाख पूर्व की और काया डेढ़ सौ धनुषोंके बराबर होगी। उनका व्रतपर्याय चौबीस पूर्वाङ्गसे तीन लक्ष पूर्व का और नौ सौ कोटि सागरोपमका अन्तर होगा । काकन्दी नगरी में सुग्रीव राजा और रामादेवीके पुत्र सुविधि नामके नव तीर्थङ्कर होंगे। उनका वर्ण श्व ेत, आयु दो लाख पूर्व की और काया एक सौ धनुषों की होगी। उनका व्रतपर्याय अट्ठाईस पूर्वाङ्ग
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र से हीन लक्ष पूर्व का और अन्तर नव्वे कोटि सागरोपमका होगा। भहिलपुरमें दूढ़रथ राजा और नन्दादेवीके पुत्र शीतल नामसे दसवें तीर्थङ्कर होंगे। उनका सुवर्ण जैसा वर्ण, लक्ष पूर्व की आयु, नब्बे धनुषकी काया, पञ्चीस हज़ार पूर्वका व्रतपर्याय और नौ कोटि सागरोपमका अन्तर होगा । सिंहपुर में विष्णु राजा और विष्णुदेवीके पुत्र श्रेयांस नामसे ग्यारहवें तीर्थङ्कर होंगे । उनकी सुवर्ण जैसी कान्ति, अस्सी धनुषोंकी काया, चौरासी लाख वर्षकी आयु, इक्कीस लाख वर्षका व्रतपर्याय तथा छत्तीस हज़ार और छाछठ लाख वर्षसे तथा सौ सागरोपमसे न्यून एक करोड़ सागरोपमका अन्तर होगा। चम्पापुरीमें वसुपूज्य राजा और जयादेवीके पुत्र वासुपूज्य नामसे बारहवें तीर्थङ्कर होंगे। उनका वर्ण लाल, आयु बहत्तर लाख वर्षकी और काया सत्तर धनुषके समान, दीक्षा-पर्याय चौवन लाख वर्षकी और अन्तर चौवन सागरोपमका होगा । काम्पिल्य नगरमें राजा कृतवर्मा और श्यामादेवीके पुत्र विमल नामके तेरहवें तीर्थङ्कर होंगे। उनकी साठ लाख वर्षकी आयु, सुवर्णकी सी कान्ति और साठ धनुष की काया होगी। इनके व्रतमें पन्द्रह लाख वर्ष व्यतीत होंगे और वासुपूज्य तथा इनके मोक्षमें तीस सागरोपमका अन्तर होगा । अयोध्यामें सिंहसेन राजा और सुयशादेवीके पुत्र अनन्त नामके चौदहवें तीर्थङ्कर होंगे। इनकी सुवर्णकीसी कान्ति, तीस लाख वर्षको आयु, और पचास धनुषोंकीसी ऊँची काया होगी। इनका व्रत-पर्याय साढ़े सात लाख वर्षका और विमलनाथ तथा ..
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पव इनके मानके बोचमें नौ सागरापमका अन्तर होगा। रत्नपुर में भानु राजा और सुवनादेवोके पुत्र धर्म नामके पन्द्रहवें तीर्थङ्कर होंगे। उनका मुवर्णकासा वर्ण, दश लाख वर्षकी आयु और पैंतालिस धनुषों कीसो काया होगी। उनका व्रत-पर्याय ढाई लाख वर्षका और अनन्तनाथ तथा उनके मोक्ष बोच चार सागरोपम का अन्तर होगा। इसी तरह गजपुर नगरमें विश्वसेन राजा और अधिरादेवाके पुत्र शान्ति नामके सोलहवें तीर्थङ्कर होंगे। उनका सुवर्ग समान वर्ग, आठ लाख वर्षकी आयु, चालीस ध नुयों को काया पश्चीस हज़ार वर्षका ब्रापर्याय और पौन पल्यो. पम न्यून तीन सागरोगमका अन्तर होगा। उसी गजपुग्में शूर राजा ओर श्रीदेवो गनोके पुत्र कुल्थ नामके सत्रहवें तीर्थङ्कर होंगे। उनका सुवणेकामा वर्ण, पञ्च नये हजार वर्षकी आयु, पैंतीस धनुषाकी काया, तेई न हतार साढ़ेसात सौ वर्षों का व्रतपर्याय और शान्तिनाथ तथा इनके मोक्षमें अर्द्ध पल्योगमका अन्तर होगा। उसी गनपुरमें सुदर्शन राजा ओर देवोरानीके अर नामक पुत्र अठारहवें तीर्थङ्कर होंगे। उनकी सुवर्ण जैसी कान्ति, चौरासी हज़ार वर्षको आयु और तोस धनुषों को काया होगी। उनका व्रत. पर्याय इक्कीस हज़ार वर्षका तथा कुन्युनाश और उनके मोक्षकाल में एक हजार करोड़ वर्ष न्यून पल्योपमके चौथाई हिस्सेका अ. न्तर होगा। मिथिलापुरोमें कुम्भ राजा और प्रभावती देवीके पुत्र मलिनाथ नामके उन्नीसवें तीर्थङ्कर होंगे। उनका नील वर्ण पचपन हजार वर्षको आयु और पच्चीस धनुषकी काया होगी।
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'प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र उनका व्रतपर्याय बीस हज़ार नौ सौ वर्ष तथा मोक्षमें एक हज़ार कोटि वर्षका अन्तर होगा। राजगृह नगरमें सुमित्र राजा और पद्मादेवीके पुत्र सुव्रत नामके बीसवें तीर्थकर होंगे। उनका रङ्ग काला, आयु तीस हज़ार वर्षकी और काया. बीस धनुषों की होगी। उनका व्रतपर्याय बीस हजार नौ सौ वर्ष तथा मोक्ष में चौवन लाख वर्षका अन्तर होगा। मिथिला-नगरीमें विजय राजा और वप्रादेवीके पुत्र नमि नामके इक्कीसवें तीर्थङ्कर सुवर्ण जैसे वर्णवाले, दस हज़ार वर्षकी आयुवाले और पन्द्रह धनुषके समान उन्नत शरीरवाले होंगे। इनका व्रतपर्याय ढाई हज़ार वर्षका तथा इनके और मुनि सुव्रतके मोक्षमें छः लाख वर्षका अन्तर होगा। शौर्यपुरमें समुद्रविजय राजा और शिवादेवीके पुत्र नेमि नामके बाईसवें तीर्थङ्कर होंगे। उनका वर्ण श्याम, आयु हज़ार वर्षकी और काया दस धनुषकी होगी। इनका व्रतपार्याय सातसौ वर्षका और इनके तथा नमिनाथके मोक्षमें पाँच लाख वर्षको अन्तर होगा। वाराणसी (काशी) नगरोमें राजा अश्वसेन और वामा रानीके पुत्र पार्श्वनाथ नामकेतेईसवें तीर्थङ्कर होंगे। उनका नील वर्ण, सौ वर्षेकी आयु, नौ हाथकी काया, सत्तर वर्षका व्रतपर्याय और मोक्षमें तिरासी हज़ार साढ़ेसात सौ वर्षका अन्तर होगा। क्षत्री-कुण्ड ग्राममें सिद्धार्थ राजा और त्रिशलादेवीके पुत्र महावीर नामके चौबीसवें तीर्थङ्कर होंगे। उनका वर्णसुवर्णके समान, आयु बहत्तर वर्षकी, काया सात हाथ की, व्रतपर्याय बयालीस वर्ष का और पार्श्वनाथ तथा उनके बीच ढाई सौ वर्षका अन्तर होगा।
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आदिनाथ चरित्र
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"सब चक्रवर्ती कश्यपगोत्रके और सुवर्णकी सी कान्तिवाले होंगे I उनमें आठ चक्री तो मोक्षको प्राप्त होंगे, दो स्वर्गको जायेंगे और दो नरकको । मेरे समयमें जैसे तुम हुए हो, वैसेही अयोध्या नगरी में अजितनाथ के समय में सगर नामके दूसरे चक्रवर्त्ती होंगे। वे सुमित्र राजा और यशोमती रानीके पुत्र होंगे । उनकी साढ़े चार सौ धनुषकी काया और वहत्तर लाख पूर्व की आयु होगी । श्रावस्ती नगरीमें समुद्रविजय राजा और भद्रारानी के पुत्र माघवा नामके तीसरे चक्रवर्ती होंगे। उनकी साढ़े चालीस धनुषकी काया और पाँच लाख वर्षकी आयु होगी । हस्तिनापुर में अश्वसेन राजा और सहदेवी रानीके पुत्र सनत्कुमार नामक चौथे चक्रवत्तीं तीन लाख वर्षकी आयुवाले और साढ़े उन्तालीस धनुषकी कायावाले होंगे। धर्मनाथ और शान्तिनाथ
1
1
I
वे अरनाथ और
के बीच में होनेवाले ये दोनों चक्रवर्त्ती तीसरे देवलोक में जायेंगे शान्ति. कुन्थु, और अर- ये तीन तो अर्हन्त ही चक्रवर्त्ती होंगे। इनके बाद हस्तिनापुर में कृतवीर्य राजा और तारा रानीके पुत्र सुभूम नामके आठवें चक्रवर्ती होंगे उनकी साठ हज़ार वर्ष की आयु और अट्ठाईस धनुषकी काया होगी। मल्लिनाथके समय के बीच में होंगे और सातवें नरक में जायेंगे इनके बाद वाराणसीमें पद्मोत्तर राजा और ज्वाला रानी के पुत्र पद्म नामके नवें चक्रवर्ती होंगे। उनकी तीस हज़ार वर्षकी आयु और बीस धनुषकी काया होगी । काम्पिल्य- नगर में राजा महाहरि और मेरा देवीके पुत्र हरिषेण नामक दसवें चक्रवर्त्ती दस
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आदिनाथ-चरित्र
हज़ार वर्षकी आयुवाले और पन्द्रह धनुषकी कायावाले होंगे। ये दोनों चक्रवर्ती मुनि सुव्रत और नमिनाथ अर्हन्तके समयमें होंगे। तदनन्तर राजगृह नगरमें विजय राजा और वप्रा देवीके पुत्र जय नामके ग्यारहवे' चक्रवती होंगे। उनकी तीस हज़ार वर्षको आयु और बारह धनुषकी काया होगी। वे नमिनाथ और नेमिनाथके समयके बीचमें होंगे। वे तीनों चक्रवर्ती मोक्षको प्राप्त होंगे। सबसे पीछे काम्पिल्प-नगरमें ब्रह्म राजा और चुलनी रानी के पुत्र ब्रह्मदत्त नामके बारहवें चक्रवर्ती नेमिनाथ और पार्श्व. नाथके समयके बीचमें होंगे। उनकी सात सौ वर्षों की आयु
और सात धनुषोंकी काया होगी। वे रौद्र ध्यानमें तत्पर रहते हुए सातवीं नरक-भूमिमें जायेंगे।" । ___ ऊपर लिखी बातें कह, प्रभुने, भरतके कुछ भी नहीं पूछने पर भी कहा,-"चक्रवर्तीसे आधे पराक्रमवाले और तीनखण्ड पृथ्वी के भोग करनेवाले नौ वासुदेव भी होंगे, जो काले रङ्गके होंगे। उनमें आठवाँ वासुदेव कश्यपगोत्री और बाकीके आठ गौतमगोत्री होंगे। उनके नौ सौतेले भाई भी होंगे, जो बलदेव कहलायेंगे और गोरे रङ्गके होंगे। उनमें पहले पोतनपुर नगरमें त्रिपृष्ठ नामक वासुदेव होंगे, जो प्रजापति राजा तथा मृगावती रानी के पुत्र और अस्ली धनुषोंकी कायावाले होंगे। श्रेयांस जिनेश्वर जिस समय पृथ्वी में विहार करते होंगे, उसी समय वे चौरासी लाख वर्षकी आयु भोग कर, अन्तिम नरकमें जायेंगे। द्वारका नगरीमें ब्रह्म राजा और पद्मा देवीके पुत्र द्विपृष्ठ नामके दूसरे वासु
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आदिनाथ चरित्र
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देव होंगे । उनकी सत्तर धनुषोंकी काया और बहत्तर लाख वर्षको आयु होगी। वे वासुपूज्य जिनेश्वर के विहारके समय में होंगे और अन्त में छठी नरक - भूमिको जायेंगे । द्वारकामें ही भद्रराजा और पृथ्वीदेवी के पुत्र स्वयंभु तीसरे वासुदेव होंगे, जो साठ धनुष की कायावाले, साठ लाख वर्षकी आयुवाले और त्रिमल प्रभुकी वन्दना करनेवाले होंगे। वे आयु पूरी होने पर छठी नरकभूमि में जायेंगे। उसी नगरी में पुरुषोत्तम नामके चौथे वासुदेव सोम राजा और सीता देवीके पुत्र होंगे। उनकी पचास धनुषकी काया होगी 1 वे अनन्तनाथ प्रभुके समय में तीस लाख वर्षकी आयु पूरी कर, अन्त में छठी नरकभूमिमें जायेंगे। अश्वपुर नगर में शिवराज और अमृता देवीके पुत्र पुरुषसिंह पाँचवे वासुदेव होंगे । वे चालीस धनुरकी काया और दस लाख वर्षकी आयुवाले होंगे। धर्मनाथ जिनेश्वर के समयमें आयु पूरी कर, वे छठी नरक भूमिमें जायेंगे । चक्रपुरीमें महाशिर राजा और लक्ष्मीवती रानीके पुत्र पुरुष - पुण्डरीक नामक छठे वासुदेव होंगे । जो उनतीस धनुष की काया और पैंसठ हज़ार वर्ष की आयुवाले होंगे। अरनाथ और मल्लीनाथके समय के बीच अपनी आयु पूरीकर वे छठी नरकभूमिमें जायेंगे। काशी नगरीमें राजा अग्निसिंह और रानी शेषवती के पुत्र दत्त नामक सातवें वासुदेव होंगे । वे छव्वीस धनुष की काया और छप्पन हज़ार वर्षकी आयुवाले होंगे। वे भी अनाथ तथा मल्लीनाथ के समय के बीच आयु पूरी कर. पाँचवीं नरकभूमिमें जायेंगे | अयोध्या ( राजगृह ) में राजा दशरथ
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
सुमित्रा रानीके पुत्र लक्ष्मण ( नारायण ) नामके आठवें वासुदेव होंगे । उनकी सोलह धनुषकी काया और बारह हज़ार वर्षकी आयु होगी। मुनि सुव्रत और नमि तीर्थंकर के समय के बीच में अपनी आयु पूरी कर चौथी नरकभूमिमें जायेंगे । मथुरा नगरी में वसुदेव और देवकीके पुत्र कृष्ण नवें वासुदेव दस धनुषकी काया और हज़ार वर्षकी आयुवाले होंगे । नेमिनाथके समय में मृत्युको प्राप्त होकर वे भी तीसरी नरक भूमिको जायेंगे 1 “भद्रा नामकी मातासे उत्पन्न अचल नामक पहले बलदेव * . पचासी लाख वर्षकी आयुवाले होंगे । सुभद्रा नामकी माता से उत्पन्न विजय नामके दूसरे बलदेव होंगे । उनकी भी पचहत्तर लाख वर्षकी आयु होगी । सुप्रभा नामकी माताके पुत्र भद्र नामक तीसरे बलदेव पैंसठ लाख वर्षकी आयुवाले होंगे। सुदर्शन नामकी माताके लड़के सुप्रभ नामके चौथे बलदेव पचपन लाख वर्षकी आयु वाले होंगे । विजया नामकी माताके सुदर्शन नामक पाँचवे बलदेव सत्तर लाख वर्षकी आयुवाले होंगे । वैजयन्ती नामकी माता के पुत्र आनन्द नामके छठे बलदेव पचासी हज़ार वर्ष की आयुवाले होंगे। जयन्ती नामकी माताके पुत्र नन्दन नामके सातवें बलदेव पचास हज़ार वर्षकी आयुवाले होंगे। अपराजिता कौसल्या नामकी माताके पुत्र पद्म (रामचन्द्र ) नामके आठवें बलदेव पन्द्रह हज़ार वर्ष की आयुवाले होंगे रोहिणी नामक माताके पुत्र राम
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ॐ वासुदेव और बलदेवके पिता एक ही थे, इसलिये बलदेवकी काया वासुदेव की काया के ही समान जानना
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आदिनाथ चरित्र ५१८
प्रथम पर्व (बलभद्र) नामके नवें बलदेव बारह सौ वर्षकी आयुवाले होंगे। इन नवोंमेंसे आठ बलदेव मोक्षको प्राप्त होंगे और नवें राम(बलभद्र) ब्रह्म नामक पाँचवें देवलोकमें जायेंगे और वहाँसे आनेवाली उत्सर्पिणीमें इसी भरतक्षेत्रमें अवतार लेकर कृष्ण नामक प्रभुके तीर्थमें सिद्ध हो जायगे । अश्वग्रोव, तारक, मेरक, मधु, निष्कुम्भ, बलि, प्रहलाद, रावण और मगधेश्वर ( जरासन्ध ) ये नौ प्रति वासुदेव* होंगे। वे चक्र चलानेवाले, चक्रधारी होंगे, अतएव वासदेव उनको उन्हींके चक्रसे मार गिरायेंगे।"
ये सब बातें सुन और भव्य जीवों से भरी हुई उस सभाको देख, हर्षित होते हुए भरतपतिने प्रभुसे पूछा,- "हे जगत्पति ! मानों तीनों लोक यहीं आकर इकट्ठे हो गये हैं, ऐसी इस सभामें जहाँ तियञ्च, नर और देव तीनों आये हुए हैं, क्या कोई ऐसा पुरुष है, जो आपकी ही भाँति तीर्थको प्रवृत्त कर, इस भरतक्षेत्रको पवित्र करेगा?" __ प्रभुने कहा,– “यह तुम्हारा पुत्र मरिचि, जो पहला परिब्राजक (त्रिदण्डो) हुआ है, वह आर्त और रौद्र ध्यानसे रहित हो समकितसे शोभित हो, चतुर्विध धर्मध्यानका एकान्तमें ध्यान करता हुआ स्थित है। उसका जीव अभी कीचड़ लगे हुए रेशमी वस्त्रकी तरह और मुंहको भाप लगनेसे दर्पणकी तरह मलिन हो रहा है ; पर अग्निसे शुद्ध किये हुए वस्त्र तथा अच्छी जाति. वाले सुवर्णकी तरह शुक्ल ध्यान-रूपी अग्निके संयोगसे वह धीरे
* ये प्रतिवासुदेव नरकमें जानेवाले होंगे।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
-धीरे शुद्धिको प्राप्त हो जायेगा। इसके बाद वह पहले तो इस भरतक्षेत्र के पोतनपुर नामक नगर में त्रिपृष्ठ नामका प्रथम वासुदेव होगा । पीछे पश्चिम महाविदेहमें धनंजय और धारिणी नामक दस्पतीका पुत्र प्रियमित्र नामक चक्रवत्त होगा । तदनन्तर बहुत दिनों तक संसार में भ्रमण करनेके बाद इसी भरतक्षेत्रमें महावीर नामका चौबीसवाँ तोर्थङ्कर होगा ।"
यह सुन, स्वामीकी आज्ञा ले, भरतराजा भगवानकी ही भाँति मरिचिकी वन्दना करने गये । वहाँ जाकर उसकी वन्दना करते हुए भरतने उससे कहा, –“तुम त्रिपृष्ट नामक प्रथम वासुदेव होगे अ'थवा महाविदेहक्षेत्र में प्रियमित्र नामके चक्रवर्त्ती होंगे, यह जानकर मैं तुम्हारे वासुदेव पद या चक्रवर्त्तित्वको सिर नहीं झुकाता और न तुम्हारे परिव्राजकपनेकी ही वन्दना करता हूँ; बल्कि तुम चौबीसवें तीर्थङ्कर होगे, इसीसे मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ ।" -यह कह, हाथ जोड़, प्रदक्षिणा कर, सिर झुकाकर भरतेश्वरने मरीचिकी वन्दना की। इसके बाद पुनः जगत्पतिकी वन्दना कर, सर्पराज जैसे भोगवती-पुरीमें चला जाता है, वैसेही भरत- राजाभी अयोध्या नगरीमें चले आये I
भरतेश्वरके चले जाने बाद, उनकी बातें सुनकर प्रसन्न बने हुए मरिचिने तीन बार तालियाँ बजायीं और अधिक हर्षित हो, इस प्रकार कहना आरम्भ किया, "अहा ! मैं सब वासुदेवों में पहला हुँगा, विदेहमें चक्रवर्ती हूँगा, सबसे पिछला तीर्थंकर हूँगा, अब बाकी क्या रहा ? सब अर्हन्तों में मेरे दादाही आदि-तीर्थंकर
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व हैं, सब चक्रवर्तियोंमें मेरे पिता ही पहले चक्रवर्ती हुए; सब वासुदेवोंमें मैं ही पहला वासुदेव हूँगा। अहा ! मेरा कुल भी कैसा श्रेष्ट है। जैसे हाथियोंमें ऐरावत श्रेष्ठ है, वेसेही तीनों लोकके सब कुलोंसे मेरा कुल श्रेष्ठ है। जैसे सब ग्रहोंमें सूर्य बड़ा है, सब ताराओंसे चन्द्रमा बड़ा है, वैसेही सब कुलोंसे मेरा कुल गौरवमें बढ़ा हुआ है।" जैसे मकड़ी आपही अपने जालमें फंस जाती है, वैसेही मरिचिने भी इस प्रकार कुलाभिमान करके नीच गोत्र बांधा।
पुण्डरीक आदि गणधरोंसे घिरे हुए ऋषभस्वामी विहारके बहाने पृथ्वीको पवित्र करते हुए वहाँसे चल पड़े। कोशलदेशके लोगों पर पुत्रकी तरह कृपा करके उन्हें धर्ममें कुशल बनाते हुए, बड़े पुराने मुलाकातियों की तरह मगध देशवालोंको तपमें प्रवीण करते हुए कमलकी कलियोंको जैसे सूर्य खिला देता है, वैसेही काशीके लोगोंको प्रबोध देते हुए, समुद्रको आनन्द देनेवाले चन्द्रमाकी भाँति दशार्ण देशको आनन्दित करते हुए, मूर्छा पाये हुएको होशमें लानेके समान चेदी देशको सचेत (ज्ञानवान्) बनाते हुए बड़े-बड़े बैलों की तरह मालव देशवालोंसे धर्म-धुराको वहन कराते हुए, देवताओंकी तरह गुर्जर-देशको पाप-रहित शुद्ध आशय वाला बनाते हुए और वैद्यकी तरह सौराष्ट्र देशवासियोंको पटु ( सावधान ) बनाते हुए महात्मा ऋषभदेवजी शत्रुञ्जय पर्वत पर आ पहुंचे।
अपने अनेक रौप्यमय शिखरोंके कारण वह पर्वत ऐसा
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र मालूम पड़ता था, मानों विदेशमें लाकर खड़ा किया हुआ वैताढ्य पर्वत हो; अपने सुवर्णमय शिखरोंके कारण वह मेरु पर्वतसा दिखायी दे रहा था ; रत्नोंकी खानोंसे दूसरा रत्नाचल ही जान पड़ता था और औषधियों के समूहके कारण दूसरे स्थानमें आया हुआ हिमाद्रि-पर्वत ही प्रतीत होता था। नीचेको झुक आये हुए बादलोंके कारण वह वस्त्रोंसे शरीर ढके हुएके समान मालूम पड़ता था और उसपरसे जारी होनेवाले झरनेके सोते उसके कन्धे पर पड़े हुए दुपट्टोंकी तरह दिखाई देते थे। दिनके समय निकट आये हुए सूर्यसे वह मुकुट-मण्डित मालूम पड़ता था और रातको पास पहुँचे हुए चन्द्रमाके कारण वह माथेमें चन्दनका तिलक लगाये हुए मालूम होता था। आकाश तक पहुँचनेवाले उसके शिखर उसके अनेकानेक मस्तकसे जान पड़ते थे और ताड़के वृक्षोंसे वह अनेक भुजाओंवाला मालूम होता था। वहाँ नारियलोंके वनमें उनके पक जानेसे पीले पड़े हुए फलोंको अपने बच्चे समझकर बन्दरोंकी टोली दौड़-धूप करती दिखाई देती थी और आमके फलोंको तोड़ने में लगी हुई सौराष्ट्र-देशकी स्त्रियोंके मधुर गानको हरिण कान खड़ा करके सुना करते थे। उसकी ऊपरी भूमि शुलियोंके मिषसे मानों श्वेत केश हो गये हों, ऐसे केतकीके जीर्ण वृक्षोंसे भरी हुई रहती थी। हरएक स्थानमें चन्दन बृक्षकी रसकी तरह पाण्डुवर्णके बने हुए सिन्धुवारके बृक्षोंसे वह पर्वत ऐसा मालूम पड़ता था, मानों उसने अपने समस्त अंगों में माङ्गलिक तिलक कर रखे हों। वहाँ शाखामा
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
पर रहने वाले बन्दरों की पूँछोंसे वेष्टित इमलीके वृक्ष पीपल और
बड़के वृक्षों का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे । अपनी अद्भुत विशालता की सम्पत्ति मानों हर्षित हुए हों, ऐसे निरन्तर फलनेवाले पनस वृक्षों से वह पर्वत शोभित हो रहा था । अमावस्या की रात्रिके अन्धकारकी भाँति श्लेष्मान्तक वृक्षसे वह पर्वत ऐसा मालूम होता था, मानों वहाँ अञ्जनाचलकी चोटियाँ ही चली आयी हों । तोतेकी चोंचकी तरह लाल फूलोंवाले केसुड़ीके वृक्षोंसे वह पर्वत लाल तिलकोंसे सुशोभित हाथीकी तरह शोभायमान मालूम होता था । कहीं दाखकी, कहीं खजूर की और कहीं ताड़ की ताड़ी पीनेमें लगी हुई भीलोंकी स्त्रियाँ उस पर्वतके ऊपर पानगोष्टी जमाये रहती थीं। सूर्यके अचूक किरणरूपी वाणसे अभेद्य ताम्बूल-लता के मण्डपों से वह पर्वत कवचावृत्तता मालूम होता था । वहाँ हरी-हरी दूबोंको खाकर हर्षित हुए मृगों का समूह बड़े-बड़े वृश्नोंके नीचे बैठकर जुगाली करता रहता था । मानों अच्छी जातिके वैडूर्य-मणि हों, ऐसे आम्र फलोंके स्वाद में जिनकी चोंचें मग्न हो रही हैं, ऐसे शुक्र पक्षियोंसे वह पर्वत बड़ा मनोहर दिखाई देता था । चमेली, अशोक, कदम्ब, केतकी और मौलसिरीके वृक्षोंका पराग उड़ाकर ले आनेवाले पवनने उस पर्वत की शिलाओं को रजोमय बना दिया था और पथिकोंके फोड़े हुए नारियलोंके जलसे उसके ऊपर की भूमि पंकिल हो गयी थी । मानों भद्रशाल आदि वनमें से ही कोई वन यहाँ लाया गया हो, ऐसे अनेक बड़े-बड़े वृक्षोंसे शोभित वनके कारण वह पर्वत बड़ा सुन्दर
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प्रथम पर्व
আৱিনাথ বিশ্ব लगता था। मूलमें पचास योजन, शिखरमें दस योजन और ऊँचाईमें आठ योजन ऐसे उस शत्रुञ्जय-पर्वत पर भगवान् ऋषभदेवजी आरूढ़ हुए। .. वहाँ देवताओं द्वारा तत्काल बनाये हुए समवसरणमें सर्व हितकारी प्रभु बैठे हुए देशना देने लगे। गम्भीर गिरासे देशना देते हुए प्रभुके पीछे वह पर्वत भी मानों गुफाओंसे उत्पन्न होते हुए प्रति शब्दोंके बहाने बोल रहा हो, ऐसा मालूम पड़ता था। चौमासेके अन्तमें जैसे मेघ वृष्टिसे विराम पा जाते हैं, वैसेही प्रथम पौरुषी होने पर प्रभुने भी देशनासे विश्राम पाया और वहाँसे उठकर मध्यम.गढ़के मण्डलमें बने हुए देवच्छन्दके ऊपर जा बैठे। इसके बाद जैसे माण्डलिक राजाओं के पास युवराज बैठते हों, वैसेही सव गणधरों में प्रधान श्रीपुण्डरीक गणधर स्वामीके मूल सिंहासनके नीचेवाले पाद-पीठपर बैठ रहे और पूर्ववत् सारी सभा बैठी। तब वे भी भगवानकी ही भाँति धर्म-देशना देने लगे। सवेरेके समय पवन जिस प्रकार ओसकी बूंदोंके रूपमें अमृतकी वर्षा करता है, वैसेही दूसरी पौरुषी पूरी होने तक वे महात्मा गणधर देशना देते रहे । प्राणियों के उपकारके लिये इसी प्रकार देशना देते हुए प्रभु अष्टापदकी तरह वहाँ भी कुछ काल तक ठहरे रहे। एक दिन दूसरी जगह विहार करनेकी इच्छासे जगद्गुरुने गणधरों में पुण्डरीकके समान पुण्डरीक गणधरको आज्ञा दी,–“हे महामुनि! मैं यहाँसे अन्यत्र विहार करूँगा और तुम कोटि मुनियोंके साथ यहीं रहो।
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
इस क्षेत्रके प्रभावसे तुम्हें परिवार सहित थोड़े ही समय में केवलज्ञान उत्पन्न हो जायगा और शैलेशो-ध्यान करते हुए तुम्हें परिवार सहित इसी पर्वत पर मोक्ष प्राप्त होगा ।"
प्रभुकी यह आज्ञा अङ्गीकार कर, प्रणाम करनेके अनन्तर पुण्डरीक गणधर कोटि मुनियोंके साथ वहीं रहे । जैसे उद्वेलित समुद्र किनारोंके खण्डों में रत्न - समूहको फेंक कर चला जाता है, वैसेही उन सब लोगों को वहीं छोड़कर महात्मा प्रभुने परिवार सहित अन्यत्र विहार किया । उदयाचल पर्वत पर नक्षत्रों के साथ रहनेवाले चन्द्रमा की तरह अन्य मुनियोंके साथ पुण्डरीक गणधर उस पर्वत पर रहने लगे । इसके बाद परम संवेगवाले वे भी प्रभुकी तरह मधुरवाणीसे अन्यान्य श्रमणोंके प्रति इस प्रकार कहने लगे,
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"हे मुनियों ! जयकी इच्छा रखनेवालेको जैसे सीमा- प्रान्तकी भूमिको सुरक्षित बनानेवाला किला सिद्धि दायक है, वैसेही मोक्षको इच्छा रखनेवालेको यह पर्वत क्षेत्रके ही प्रभावसे सिद्धि देनेवाला है । तो भो अब हमलोगोंको मुक्तिके दूसरे साधनके समान संलेखना करनी चाहिये । यह संलेखना दो तरह से होती है, — द्रव्यसे और भावसे । साधुओंके सब प्रकार के उन्माद और महारोगके निदानका शोषण करना ही द्रव्य-संलेखना कहलाती है और राग, द्वेष, मोह और सब कषायरूपी स्वाभाविक शत्रुओंका विच्छेद करना ही भाव-संलेखना कही जाती है ।" इस प्रकार कहकर पुण्डरीक गणधरने कोटि श्रमणोंके साथ प्रथमतः सब
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'प्रथम पवं
५२५ मादिनाथ-चरित्र प्रकारके सूक्ष्म और बादर अतिचारोंकी आलोचना की और पुन: अति शुद्धिके निमित्त महाव्रतका आरोपण किया, क्योंकि वस्त्रको दो चार बार धोनेसे जैसे विशेष निर्मलता आती है, वैसेही अतिचारसे विशेषरूपसे शुद्ध होना भी निर्मलताका कारण होता है । इसके बाद “सब जीव मुझे क्षमा करें, मैं सबका अपराध क्षमा करता हूँ। मेरी सब प्राणियोंके साथ मैत्री है, किसीके साथ मेरा वैर नहीं है।" यही कहकर उन्होंने आगार-रहित और पुष्कर भव चरित्र अनशनव्रत उन सब अमणोंके साथ ग्रहण किया । क्षपकश्रेणी में आरूढ़ हुए उन पराक्रमी पुण्डरीकके सभी घाती कर्म पुरानी रस्सोकी तरह चारों तरफसे क्षीण हो गये। अन्यान्य साधुओंके भी घाती कर्म तत्काल क्षयको प्राप्त हो गये । क्योंकि तप सबके लिये समान होता है। एक मासकी संलेखनाके अन्तमें चैत्र मासकी पूर्णिमाके दिन सबसे पहले पुण्डरीक गणधर को केवल-ज्ञान हुआ। इसके बाद अन्य सब साधुओंको भी केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ । शुक्ल-ध्यानके चौथे चरण पर स्थित होकर वे अयोगी शेष अघाती कर्मोंका क्षय कर मोक्ष-पदको प्राप्त हुए। उस समह स्वर्गसे आकर मरुदेवीके समान भक्तिके साथ उनके मोक्ष-गमनका उत्सव मनाया। जैसे भगवान् ऋषभस्वामी पहले तीर्थङ्कर कहलाये, वैसेही वह पर्वत भी उसी दिनसे प्रथम तीर्थ हो गया। जहाँ एक साधुको सिद्धि प्राप्त हो, वही जब पवित्र तीर्थ कहलाने लगता है, तब वहाँ अनगिनत महर्षि सिद्ध हुए हों, उस स्थानकी पवित्रताकी उत्कृष्टताके सम्बन्धमें और क्या कहा जाये ?
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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम प्रव
उस शत्रुञ्जय-पर्वत पर भरत राजाने मेरु-पर्वतकी चूलिकाकी राबबरीका दावा करनेवाला एक रत्न-शिलामय चैत्य बनवाया और जैसे अन्त:करणमें चेतना विराजती है, वैसंही उसके मध्यमें पुण्डरीकजीके साथ-ही-साथ भगवान् ऋषभस्वामीकी प्रतिमा स्थापित करवायी।
भगवान ऋषभदेवजीकी भिन्न-भिन्न देशों में विहार कर, अन्धे को आँख देनेकी तरह भव्य प्राणियोंको बोधिबीज समकित ) का दान कर अनुगृहीत कर रहे थे । केवल-ज्ञान प्राप्त हानेके बादसे प्रभुके परिवारमें चौरासी हज़ार साधु, तीन लाख साध्वियों, तीन लाख पचास हजार श्रावक, पाँच लाख चौवन हज़ार श्राविकाएँ चार हज़ार सात सौ पचास चौदह पूर्वी, नो हज़ार अवधि-ज्ञानी, बीस हज़ार केवलज्ञानी और छः सौ वैक्रिय लब्धिवाले, बारह हज़ार छः सौ मनःपर्यव ज्ञानो, इतने ही वादी और बाईस हज़ार अनुत्तर विमानवासी महात्मा हुए। उन्होंने व्यवहार में जैसे प्रजाका स्थापन किया था, वैसेही आदि-तीर्थङ्कर होनेपर उन्होंने धर्म-मागेमें चतुर्विध संघका स्थापन किया। दीक्षाके समयसे लेकर लक्ष पूर्व बीत जाने पर उन्होंने जाना, कि अब मेरा मोक्षकाल समोप आ गया है, तब महात्मा प्रभु झटपट अष्टापद पर्वत पर आ पधारे। पास पहुँचने पर प्रभु मोक्षरूपी महलकी सीढ़ियोंके समान उस पर्वत पर अपने परिवारके साथ चढ़ने लगे। तब प्रभुने वहाँ दस हजार मुनियों के साथ चतुर्दश तप (छः उपवास) करके पादपगमन अनशन किया।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
पर्वतके रक्षकोंने विश्वपतिके इस अवस्थामें रहनेका हाल तत्काल ही महाराज भरतसे जाकर कह सुनाया। प्रभुने चतुविध आहारका प्रत्याख्यान कर दिया है, यह सुनकर भरतको ऐसा दुःख हुआ, मानों उनके कलेजेमें तीर चुभ गया हो । साथ ही जैसे वृक्षसे जलविन्दु टपकते हैं, वैसेही शोकाग्निसे पीड़ित होनेके कारण उनकी आँखो से भी आँसू टपकने लगे । तदनन्तर दुर्वार दुःखसे पीड़ित होकर वे भी अन्तःपुर परिवारके साथ पाँव प्यादे ही अष्टापदकी ओर चल पड़े। उन्होंने रास्तेके कठोर ककड़ों की कुछ परवा नहीं की; क्योंकि हर्षे या शोकमें किसी तरहकी शारीरिक वेदना मालूम नहीं होती। कङ्कड़ गड़ जानेसे उनके पैरोंसे रुधिरकी धारा निकलने लगी, जिससे महावरके चिह्नकी तरह उनके पैरोंकी सर्वत्र निशानी पड़ती गयी। जिसमें पर्वत पर आरोहण करने में छिन भरकी भी देर न हो, इसीलिये वे अपने सामने आ पड़नेवाले लोगोंका भी कुछ ख्याल नहीं करते थे । उनके सिर पर छत्र था, तो भी वे धूपमें ही चल रहे थे, क्योंकि जीकी जलन तो अमृतकी वर्षासे भी ठण्ढो नहीं होती। शोकग्रस्त चक्रवर्ती हाथकासहारा देनेवाले सेवकोंको भी रास्तेमें आड़े आनेवाली वृक्ष-शाखाकी भांति दूर कर देते थे । सरिता या नदके मध्यमें चलती हुई नाव जैसे तीरके वृक्षोंको पीछे छोड़ जाती है, वैसेही वे भी अपनी तेज चालके कारण आगे-आगेचलनेवाले छड़ीवरदरोंको पीछे छोड़ देते थे। चित्तके वेगकी तरह तेज़ीके साथ चलने में उत्सुक राजा भरत पग-पग पर ठोकरें
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आदिनाथ-चरित्र ५२८
प्रथम पर्व खानेवाली चमर डुलाने वालियोंकी राह भी नहीं देखते थे। बड़ी तेज़ीके साथ चलनेके कारण उछल-उछल कर छातीसे टकरानेवाला मोतियोंका हार टूट गया, सो भी उन्हें नहीं मालूम हुआ। उनका मन प्रभुके ध्यानमें लगे होने के कारण वे बार-बार प्रभुका समाचार पूछने के लिये छड़ीवरदारोंके द्वारा पर्वतके रखवालोंको अपने पास बुलवाते थे। ध्यान-स्थित योगीके समान राजाको और कुछ भी नहीं दीख पड़ता था। वे किसीकी बात भी नहीं सुनते थे-केवल प्रभुकाही ध्यान करते हुए चले जा रहे थे। मानों अपने वेगसे रास्तेको कम कर दिया हो, इस प्रकार हवासे बातें करते हुए तेज़ीके साथ चलकर वे अष्टापदके पास आ पहुँचे । साधारण मनुष्योंकी तरह पाँव प्यादे चल कर आनेपर भी परिश्रमकी कुछ भी परवा नहीं करते हुए वे चक्रवर्ती अष्टापद पर चढ़े। वहाँ पहुँचकर शोक और हर्षसे व्याकुल हुए राजाने जग. त्पतिको पयङ्कासन पर बैठा देखा। प्रभुकी प्रदक्षिणा कर. वन्दना करनेके अनन्तर चक्रवर्ती देहकी छायाके समान उनके पास बैठकर उन की उपासना करने लगे। __“प्रभुका ऐसा प्रभाव वर्त्तते हुए भी इन्द्रगण अपने स्थान पर कैसे बैठे हुए हैं ?" मानों यही बात सोच कर उस समय इन्द्रोंके आसन डोल गये । अवधिज्ञानसे आसन डोल जानेके कारणको जानकर इन्द्रगण उसी समय प्रभुके पास आ पहुँचे । जगत्पतिकी प्रदक्षिणा कर, वे विषादकी मूर्ति बने, चित्र-लिखेसे चुपचाप भगवानके पास बैठ रहे।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र .... इस अवसर्पिणीके तीसरे आरेमें जब निन्यानवे पक्ष बाकी रह गये थे, उसी समय माघ मासकी कृष्ण त्रयोदशीके दिन, पू
हिमें ही, जब चन्द्रमाका योग अभिजित-नक्षत्र में आया हुआ था, तभी पर्यङ्कासन पर बैठे हुए उन महात्मा प्रभुने बादर-काय-योग में रहकर बादर मनोयोग और बादर वचनयोगका रोध कर लिया। इसके बाद सूक्ष्म काय-योगका आश्रय ग्रहण कर, बादर काययोग, सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोगका रोध कर डाला। अन्तमें सूक्ष्म काययोगको भी लुप्त करके सूक्ष्मक्रिय नामके शुक्लध्यानके तीसरे चरणके अन्तमें प्राप्त हुए। इसके बाद उच्छिन्नक्रिय नामक शुक्लध्यानके चौथे चरणका आश्रय लिया, जिसका काल परिमाण पाँच ह्रस्वाक्षरके उच्चारण में जितना सयय लगता है, उतना ही है। इसके बाद केवलज्ञानी, केवलदर्शनी सब दुःखोंसे परे, अष्टकाँका क्षय कर सब अर्थोके सिद्ध करनेवाले, अनन्तवीर्य,अनन्तसुख और अनन्त ऋद्धिसे युक्त प्रभु, बन्धके अभावसे एरण्ड-फलके बीजके समान ऊर्द्ध-गति पाकर, स्वभावसेही सरल मार्गसे लोकानको प्राप्त हुए। दस हज़ार श्रमणोंने भी, अनशनबत ग्रहण कर, क्षपकश्रेणीमें आरूढ़ हो, केवलज्ञान लाभकर, मन-वचन और कायाके योगको सब प्रकारसे रुद्ध कर, स्वामीकी ही भांति तत्काल परमपद लाभ किया।
प्रभुके निर्वाण-कल्याणकके समय, सुखका नाम भी नहीं जाननेवाले नारकीयोंकी दुःखाग्नि भी क्षणभरके लिये शान्त हो गयी। उस समय शोकसे विह्वल होकर चक्रवर्ती क्नसे ढाये हुए पर्वत
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आदिनाथ-चरित्र ५३०
प्रथम पवे की तरह मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। भगवान्के विरहका महान् दुःख सिरपर आ पड़ा था, तो भी दुःखका भार कम करने में सहायक होनेवाले रोदनको मानों लोग भूल ही गये थे। इसी लिये चक्रवर्तीको यह बतलाने और इस तरह हृदयका भार हलका करनेकी सलाह देनेके लिये ही मानों इन्द्रने चक्रवर्तीके पास बैठेबैठे ज़ोर-ज़ोरसे रोना शुरू किया। इन्द्रके बाद और सब देवता भी रोने लगे। क्योंकि एकसाँ दुःख अनुभव करनेवालोंकी चेष्टा भी एकसो होती है। उन लोगोंका रोना सुन, होशमें आकर चक्र. वत्तीं भी ऐसे ऊँचे स्वरसे रोने लगे,कि ब्रह्माण्ड फट पड़ने लगा। मोटी धारकी तेजीसे जैसे नदीका बांध टूट जाता है, वैसेही दिल खोलकर रो पड़नेसे महाराजको शोक-ग्रन्थि भी टूट गयी। उस समय देवों, असुरों और मनुष्योंके रोदन---काण्डसे तीनों लोकमें करुण-रसका एकच्छत्र राज्यसा हो गया। उस दिनसे ही जगत् में प्राणियोंके शोकसे उत्पन्न कठिन शल्यको निकाल बाहर करने वाले रोदनका प्रचार हुआ। महाराज भरत, स्वाभाविक धैर्यको छोड़, दुःखसे पीड़ित होकर, इस प्रकार पशु-पक्षियोंको भी रुला देनेवाला विलाप करने लगे,-
. . “हे पिता !हे जगद्वन्धु ! हे कृपारसके समुद्र! मुझ अक्षानीको इस संसार-रूपी अरण्यमें अकेले क्यों छोड़े जा रहे हो ? जैसे बिना दीपकके अन्धकारमें नहीं रहा जाता, वैसेही बिना आपके मैं इस संसारमें कैसे रह सकूँगा ? हे परमेश्वर ! छद्मवेशी प्राणीकी तरह तुमने आज मौन क्यों स्वीकार कर लिया है ?' मौन त्यागकर
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
देशना क्यों नहीं देते ? देशना देकर मनुष्योंपर दया क्यों नहीं करते ? हे भगवन् ! तुम तो लोकायको चले जा रहे हो, इसीलिये नहीं बोलते ; पर मुझे दुखी देखकर भी मेरे ये भाई मुझसे क्यों नहीं बोलते ? हाँ, अब मैंने जाना। वे भी तो खामीकेही अनुगामी हैं। जब स्वामीही नहीं बोलते, तब ये कैसे बोलें ? अहो, अपने कुलमें मेरे सिवा और कोई तुम्हारा अनुगामी नहीं हुआ हो, ऐसी बात नहीं है। तीनों जगत्की रक्षा करनेवाले तुम. बाहुबलि आदि मेरे छोटे भाई, ब्राह्मी और सुन्दरी बहनें, पुण्डरीकादिक मेरे पुत्र, श्रेयांस आदि पौत्र- ये सब लोग कर्म-रूपी शत्रुकी हत्याकर, लोकामको चले गये ; केवल मैंही आजतक जीवनको प्रिय मानता हुआ जी रहा हूँ !"
इस प्रकार शोकसे निवेदको प्राप्त हुए चक्रवत्तीको मानों मरनेको तैयार देख, इन्द्रने उन्हें इस प्रकार समझाना शुरू किया," हे महाप्राण भरत ! हमारे ये स्वामी स्वयं भी संसार-रूपी समुद्र से पार उतर गये और औरोंको भी उतार दिया। महानदीके किनारेके समान इनके प्रवर्तित किये हुए शासनसे सांसारिक प्राणी संसार-समुद्रके पार पहुँच जायेंगे। प्रभु आप तो कृतकृत्य हुएही, साथही वे औरोंको भी कृतार्थ करनेके लिये लक्ष पूर्व पर्यन्त दीक्षावस्था में रहे। हे राजा ! सब लोगोंपर अनुग्रह करके मोक्ष स्थानको गये हुए जगत्पतिके लिये तुम क्यों शोक करते हो? जो मृत्यु पाकर महादुःखके भण्डारके समान चौरासी लाख योनियों में बहुत कालतक घूमते रहते हैं, उनके लिये शोक करना ठीक
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आदिनाथ चरित्र ५३२
प्रथम पर्व है ; परन्तु मृत्यु पाकर मोक्षस्थानको प्राप्त होनेवालेके लिये शोक करना उचित नहीं। इसलिये हे राजा ! साधारण मनुष्योंकी तरह प्रभुके लिये शोक करते हुए क्या लज्जा नहीं आती ? शोक करनेवाले तुमको और शोचनीय प्रभुको देखते हुए यह शोक उचित नहीं है। जो एक बार प्रभुकी धर्म-देशना सुन चुका है, उसे भी हर्ष या शोक नहीं व्यापता, फिर तुम तो न जाने कितनी बार देशना सुन चुके हो, तब तुम क्यों हर्ष-शोकसे विचलित होते हो ? जैसे समुद्रका सूखना, पर्वतका हिलना, पृथ्वीका उलटना, वज्रका कुण्ठित होना, अमृतका नीरस होना और चन्द्रमामें गरमी होना असम्भव है, वैसेही तुम्हारा यह रोना भी असम्मवसा ही मालूम पड़ता है। हे धराधिपति ! धैर्य धरो और अपनी आत्माको पहचानो ; क्योंकि तुम तीनों लोकके स्वामी, परम धीर भगवान्के पुत्र हो।" इस प्रकार घरके बड़े-बूढेकी तरह इन्द्रके समझानेबुझानेसे भरतराजाने जल जैसी शीतलता धारण की और अपने स्वाभाविक धैर्यको प्राप्त हुए। . ....
तत्पश्चात् इन्द्रने आभियोगिक देवताओंको, प्रभुके अंग-संस्कार के लिये सामग्री लानेकी आज्ञा दी। वे भटपट नन्दन-वनले गोशीर्ष चन्दनकी लकड़ियाँ उठा लाये। इन्द्र के आज्ञानुसार देवताओने पूर्व-दिशामें प्रभुके शरीर-संस्कारके लिये गोशीर्ष-चन्दन-काष्ठ की एक गोलाकार चिता रचायी। इक्ष्वाकु-कुलमें जन्म ग्रहण करनेवाले महर्षियोंके लिये दक्षिण दिशामें एक दूसरी त्रिकोणाकार चिता रची गयी। साथही अन्यान्य साधुओंके लिये पश्चिम दिशामें
पत्र पूर्व दिशामें पता चायी। सा दूसरी त्रिकोण
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आदिनाथ चरित्र
re. - ०००200
D. Bamuj
इन्द्रने प्रभुके चरणों में सिर झुका स्वामीके शरीरको सिरपर उठाकर शिविका में बैठाया ।
[ पृष्ठ ५३३ ]
Narsingh Press, Calcutta.
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
एक तीसरी चौकोर चिता प्रस्तुत की गयी। फिर मानों पुष्करावर्तमेघ हों, ऐसे उन देवताओंसे इन्द्रने उसी समय क्षीर-समुद्रका जल मँगवाया। उसी जलसे भगवान्के शरीरकोनहलाकर उसपर गोशीर्ष-चन्दनका रस लेपन किया गया। तदनन्तर हंसकेसे उज्ज्वल देवदुर्लभ वस्त्रोंसे परमेश्वरके शरीरको ढक कर इन्द्रने उसे दिव्य माणिक्यके आभूषणोंसे ऊपरसे नीचे तक विभूषित किया। अन्यान्य देवताओंने भी इन्द्रकी ही भाँति अन्य मुनियोंके शरीरोंकी स्नानादिक क्रियाएँ भक्तिके साथ सम्पन्न की। तदनन्तर मानों देवतागण अपने-अपने साथ लेते आये हों, ऐसे तीनों लोकके चुने हुए रत्नोंसे सजी हुई, सहस्र पुरुषोंके वहन करने योग्य तीन शिवि- , काएं तैयार हुईं। इन्द्रने प्रभुके चरणोंमें सिर झुका, स्वामीके शरीरको सिरपर उठाकर शिविकामें बैठाया। अन्यान्य देवताओंने मोक्ष-मार्गके पथिकोंके समान इक्ष्वाकु-वंशके मुनियोंके शरीर सिरपर ढो-ढोकर दूसरी शिविकामें ला रखे और तीसरी शिविकामें शेष साधुओंके शरीर रखे गये। प्रभुका शरीर जिस शिविकापर था,उसे इन्द्रने स्वयं उठाया और अन्य मुनियोंकी शिविकाएँ अन्याय देवताओंने उठायीं । उस समय एक ओर अप्सराएँ ताल दे-देकर नाच रहो थीं और दूसरी ओर मधुर स्वरसे गीत गा रही थीं। शिविकाके आगे-आगेदेवता धूपदान लिये हुए चल रहे थे। धूपदानसे निकलते हुए धुएं को देखकर ऐसा मालूम होता था, मानों . वे भी रो रहे हों । कुछ देवता उस शिविका पर फूल फेंक रहे थे और कोई उन्हें शेषा (निर्माल्यप्रसाद ) समझ कर चुन लेते थे।
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आदिनाथ चरित्र ५३४
प्रथम पर्व कोई आगे-आगे देव-दृष्य वस्त्रोका तोरण बनाये हुए थे तो कोई यक्षकईमसे छिड़काव करते चलते थे। कोई गोफणसे * फेंके हुए पत्थरकी तरह शिविकाके आगे लोट रहे थे और कोई भंग पिये हुए मस्तानेकी तरह पीछेकी तरफ़ दौड़ रहे थे। कोई तो " हे नाथ! मुझे शिक्षा दो !" ऐसी प्रार्थना कर रहा था और कोई "अब हमारे धर्म-संशयोंका छेदन कौन करेगा?" ऐसा कह रहा था। कोई यही कह-कहकर पछता रहा था, कि अब मैं अन्धेकी तरह होकर कहाँ जाऊँ ? कोई बार-बार धरतीसे यही वर मांगता हुआ मालूम पड़ता था, कि वह फट जाये और वह उसमें समा जाये।
इस प्रकार बर्त्तते और बाजे बजाते हुए इन्द्र और देवतागण उन शिविकाओंको चिताओंके पास ले आथे। वहाँ आकर कृतशता-पूर्ण हृदयसे इन्द्रने, पुत्रके समान, प्रभुके शरीरको धीरे-धीरे पूर्व दिशाकी चितापर ला रखा। दूसरे देवताओंने भी भाईकी तरह इक्ष्वाकु-कुलके मुनियों के शरीरको दक्षिण दिशावाली चितामें ला रखा और उचितानुचितका विचार रखनेवाले अन्यान्य देवताओंने भी शेष साधुओंके शरीर पश्चिम दिशावाली चितामें लाकर रख दिये। पीछे अग्निकुमार देवताओंने इन्द्रके आज्ञानुसार उन चिता
ओंमें अग्नि प्रकट की और वायुकुमार देवोंने हवा चलाकर चारों ओर धांय-धाय आग जला दी। देवता ढेर-का-ढेर कपूर और घड़े भर-भर कर घी तथा मधु चितामें छोड़ने लगे। जब सिवा हड्डोके और सब
* गोफण-अकसर लड़के खेलमें रस्सी आदिमें ईट या पत्थर बाँधकर फेंकते हैं। उसीको गोफण कहते हैं।
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प्रथस पर्व
५३५ आदिनाथ-चरित्र धातुयें जल गयीं, तब मेघकुमार देवताओंने क्षीर-समुद्रके जलसे चिताग्रिको शान्त कर दिया। इसके बाद अपने विमानमें प्रतिमाकी तरह रखकर पूजा करनेके लिये सौधर्मेन्द्रने प्रभुकी. ऊपरवाली दाहिनी डाढ़ ले ली, ईशानेन्द्रने ऊपरकी वायीं डाढ़ ले ली, चमरेन्द्रने नीचेकी दाहिनी डाढ़ ली, बलि-इन्द्रने नीचेकी बायीं डाढ़ ली, अन्यान्य इन्द्रोंने प्रभुके शेष दांत ले लिये और अन्य देवताओने और-और हड्डियाँ ले ली। उस समय जिन श्रावकोंने अग्नि मांगी, उन्हें देवताओंने तीनों कुण्डोंकी अग्नि दी। वे ही लोग अग्निहोत्री ब्राह्मण कहलाये। वे उस चिताग्निको अपने घर ले जाकर पूजने लगे और धनपति जिस प्रकार निर्वात प्रदेशमें रख कर लक्ष-दीपकी रक्षा करते हैं, वैसेही उस अग्निकी रक्षा करने लगे। इक्ष्वाकु-वंशके मुनियोंकी चिताग्नि शान्त हो जाती तो उसे स्वामीकी चिताग्निसे जागृत कर लेते और अन्य मुनियोंकी शान्त हुई चिताग्निको इक्ष्वाकु-वंशके मुनियोंकी चिताग्निसे चेता देते थे ; परन्तु दूसरे साधुओं की चिताग्निका वे अन्य दोनों चि. नानियोंके साथ संक्रमण नहीं होने देते थे। वही विधि अब तक ब्राह्मणोंमें प्रचलित है। कितनेही प्रभुकी चिताग्निकी भस्मको भक्तिके साथ प्रणाम करते हुए देहमें लगाते थे। उसी समयसे भस्म-भूषाधारी तापस होने लगे।
फिर मानों अष्टापद पर्वतके तीन नये शिखर हों, ऐसे उन चिताओं के स्थानपर तीन-रत्न-स्तूप देवताओंने बना दिये । वहाँसे नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर उन लोगोंने शाश्वत प्रतिमाके समीप अ-.
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
ष्टाहिका-उत्सव किया और फिर इन्द्र सहित सारे देवता अपने अपने स्थानको चले गये। वहाँ पहुंच कर इन्द्रोंने अपने-अपने विमानों में सुधर्मा-सभाके अन्दर माणवक-स्तम्भ पर वज्रमय गोल डिब्बियोंमें प्रभुकी डाढोंको रखकर प्रतिदिन उनकी पूजा करनी आरम्भ की, जिसके प्रभावसे उनका सदैव विजय-मङ्गल होनेलगा।
महाराज भरतने प्रभुका जहाँ संस्कार हुआ था, वहाँकी भूमि के पासवाली भूमिमें छ: कोस ऊँचा मोक्ष-मन्दिरकी वेदिकाके समान सिंहनिषद्या' नामका प्रासाद रत्नमय पाषाणों और वार्द्धकिरत्नोंसे बनवाया। उसके चारों तरफ़ उन्होंने प्रभुके समवसरणकी तरह स्फटिक रत्नोंके चार द्वार बनवाये और प्रत्येक द्वारके दोनों तरफ़ शिव-लक्ष्मीके भाण्डारकी भाँति रत्न-चन्दनके सोलह कलश बनवाथे। प्रत्येक द्वारपर साक्षात् पुण्यवल्लीके समान सोलहसोलह रत्नमय तोरण बनवाये। प्रशस्त लिपिकी भाँति अष्टमाङ्गलिककी सोलह-सोलह पंक्तियाँ बनवायीं और मानों चारों दिक. पालोंकी सभा ही वहाँ लायी गयी हो, ऐसे विशाल मुखमण्डप बनवाये। उन चारों मुखमण्डपके आगे चलते हुए श्रीवल्ली मण्डपके अन्दर चार प्रेक्षासदन-मण्डप बनवाये। उन प्रेक्षामण्डपोंके बिचोंबीचमें सूर्यबिम्बको लजानेवाले वज्रमय अक्षवाट रचाये और प्रत्येक अक्षवाटके मध्यमें कमलकी कर्णिकाकी भांति एक-एक मनोहर सिंहासन बनवाया। प्रेक्षामण्डपके आगे एक एक मणि-पीठिका बनायी गयी, उसके ऊपर रत्नोंका मनोहर चैत्य-स्तूप बना और प्रत्येक चैत्य-स्तूपमें आकाशको प्रकाशित
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प्रथम पर्व
. ५३७ आदिनाथ-चरित्र करनेवाली बड़ीसी मणि-पीठिका प्रत्येक दिशामें बनायी गयी । उन मणि-पीठिकाओंके ऊपर चैत्य-स्तुपके सम्मुख पाँच सौ धनुषों के प्रमाणवाली, रत्ननिर्मित अङ्गवाली, ऋषभानन,वर्द्धमान, चन्द्रानन और वारिषेण- इन चार नामोंवाली, पर्यङ्कासनपर बैठी हुई, मनोहर नेत्ररूपी कुमुदोंके लिये चन्द्रिकाके समान, नन्दीश्वर-महाद्वीपके चैत्यके अन्दर जैसी हैं वैसी, शाश्वत जिन प्रतिमाएँ बनवा कर स्थापित करवायीं। प्रत्येक चैत्य-स्तूपके आगे अमूल्य माणिक्यमय विशाल एवं सुन्दर पीठिकाएँ तैयार करवायीं । उस प्रत्येक पीठिकाके ऊपर एक-एक चैत्यवृक्ष बनवाया
और हरएक चैत्यवृक्षके पास एक-एक मणि-पीठिका और बनवायी, जिसके ऊपर एक-एक इन्द्रध्वज भी रखा गया । वे इन्द्रध्वज ऐसे मालूम होते थे, मानों धर्मने प्रत्येक दिशामें अपना जयस्तम्भ स्थापित कर रखा हो। प्रत्येक इन्द्रध्वजके आगे तीन सीढ़ियों और तोरणोंवाली नन्दा नामकी पुष्करिणी बनवायी गयी। स्वच्छ और शीतल जलसे भरी हुई तथा विचित्र कमलोंसे सोहती हुई वे पुष्करिणियाँ, दधि-मुख-पर्वतकी आधार-भूता पुष्करिणीकी भाँति मनोहर मालूम होती थीं।
महाराजने उस सिंहनिषद्या नामक महाचैत्यके मध्यभागमें एक बड़ीसी मणि-पीठिका बनवायो और समवसरणकी तरह उसके मध्यमें एक विचित्र रत्नमय देवच्छन्द बनवाया । उसके ऊपर उन्होंने विविध वर्णोके वस्त्रोंके चँदवे तनवाये, जो अकालमें ही सन्ध्या समयके बादलोंकी शोभा दिखलाते थे। उन चंदवों
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आदिनाथ-चरित्र . ५३८
प्रथम पर्व के बीचमें और आसपास वज्रमय अङ्कश बने हुए थे, तथापि उनकी शोभा निरंकुश हो रही थी। उन अंकुशोंमें कुम्भके सदृश गोल और आँवलेके फलके समान स्थूल मुक्ताफलोंके बने हुए अमृतधाराके समान हार लटक रहे थे। उन हारों के प्रान्त-भाग में निर्मल मणि मालिकाएँ बनवायी गयी थीं। वे मणियाँ ऐसी मालूम होती थीं, मानो तीनों लोककी मणियोंकी खानोंसे बतौर नमूनेके लायी गयी हो । मणिमालिकाओंके प्रान्तभागमें रहनेवाली निर्मल वज्रमालिकाएं ऐसी मालूम होती थीं,मानों सखियाँ अपनी कान्ति-रूपिणी भुजाओंसे एक दूसरीको आलिङ्गन कर रही हों। उस चैत्यकी दीवारों में विचित्र मणिमय गवाक्ष (खिड़कियाँ ) बनवाये गये थे, जिनमें लगे हुए रत्नोंके प्रभा-पटलसे ऐसा मालूम होता था मानों उनपर परदे पड़े हुए हो। उसके अन्दर जलते हुए अगुरुधूपके धुएं से ऐसा प्रतीत होता था, मानों पर्वतके ऊपर नयी नील-चूलिकाएं पैदा हो आयी हों। ___ अब पूर्वोक्त मध्य देवच्छन्दके ऊपर शैलेशी-ध्यानमें मग्न, प्रत्येक प्रभुकी देहके बराबर मानवाली, उनकी देहके रंगकेही समान रंगवाली, ऋषभस्वामी आदि चौवीसों तीर्थङ्करोंकी निर्मल रत्नमय प्रतिमाएं बनवा कर उन्होंने रखवा दी, जो ठीक ऐसी मालूम होती थीं, मानों प्रत्येक प्रभु स्वयं ही वहाँ आकर विराज रहे हों। उनमें सोलह प्रतिमाएं सुवर्णकी, दो राजवर्त रत्नकी ( श्याम ) , दो स्फटिक रत्नकी ( उज्ज्वल ), दो वैडूर्य-मणिकी ( नील ) और दो शोणमणिकी ( लाल ) थीं। उन सब प्रतिमाओंके नख रोहिताक्ष
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
मणिके ( लाल ) रंगके समान अङ्क-रत्नमय (श्वेत) थे और नाभि, केश-मूल, जिहा, तालु, श्रीवत्स, स्तनभाग तथा हाथ-पैरोंके तलभाग सुवर्णके ( लाल ) थे। बरौनी, आँखकी पुतली, रोंगटे भौहें और मस्तकके केश रिष्टरत्नमय (श्याम ) थे। ओठ प्रबालभय ( लाल ), दांत स्फटिक रत्नमय ( श्वेत); मस्तकका भाग वज्रमय और नासिका भीतरसे रोहिताक्ष-मणिके आभासकोसुवर्णकी-बनी हुई थी। प्रतिमाओंकी दृष्टियाँ लोहिताक्षमणिके प्रान्त भागवाली और अङ्कमणिकी बनवायी गयी थीं। ऐसी अनेक प्रकारकी मणियोंसे तैयार की हुई वे प्रतिमाएं बहुत ही शोभायमान मालूम होती थीं।
उन प्रतिमाओंमेंसे पत्येकके पीछे एक-एक यथायोग्य मानवाली छत्रधारिणी, रत्नमय प्रतिमा बनायी गयी थी। वे छत्रधारिणी पतिमाएँ कुरंटक-पुष्पकी मालाओंसे युक्त, मोतियों और लालोंसे गुथे हुए तथा स्फटिक-मणिके डंडोंवाले श्वेत छत्र धारण किये हुए थीं । प्रत्येक पुतिमाके दाहिने-बाँयें रत्नोंके चैवर धारण करनेवाली दो प्रतिमाएँ और आगे नाग, यक्ष, भूत और कुण्डधार की दो-दो पतिमाएँ थीं। हाथ जोड़े हुई, सर्वाङमें उज्ज्वल शोभा धारण किये हुई, वे नागादिक देवोंकी रत्नमयी प्रतिमाएं ऐसी शोभायमान मालूम होती थीं, मानों वे वहाँ साक्षात बैठी हुई हों।
देवच्छन्दके ऊपर उज्ज्वल रत्नोंके चौवीस घण्ट, संक्षिप्त किये हुए सूर्य-विम्बके समान माणिक्यके दर्पण, उनके पास उचित स्थानपर रखी हुई सुवर्णकी दीपिकाएं, रत्नोंकी पिटारियाँ, नदीके
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आदिनाथ-चरित्र ५४०
प्रथम पर्व भंवरकी तरह गोल-गोल चेंगेरियाँ, उत्तम रुमाल, आभूषणों के डब्बे, सोनेकी धूपदानी और आरती, रत्नोंके मङ्गलदीप, रत्नोंकी झारियाँ, मनोहर रत्नमय थाल, सुवर्णके पात्र, रत्नोंके चन्दनकलश, रत्नोंके सिंहासन, रत्नमय अष्टमाङ्गलिक, सुवर्णका बना तेल भरनेका डब्बा, सोनेका बना धूप रखनेका पात्र, सोनेका कमल-हस्तक-ये सब चीजें प्रत्येक अर्हन्तकी प्रतिमाके पास रखी हुई थीं। इसलिये प्रत्येक वस्तुकी गिनती चौवीस थी। ___ इस प्रकार नाना रत्नोंका बनाया हुआ वह तीनों लोकसे सुन्दर चैत्य, भरतचक्रीकी आज्ञा होतेही, सब कलाओंके जाननेवाले कारीगरोंने तत्काल विधिके अनुसार बनाकर तैयार कर दिया। मानों मूर्त्तिमान् धर्म हो ऐसे चन्द्रकान्त-मणिके परकोटेसे तथा चित्रमें लिखे हुए सिंह, वृषभ, मगर, अश्व, नर, किन्नर, पक्षी, बालक, हरिण, अष्टापद, चमरी-मृग, हाथी, वन-लता और कमलोंके कारण अनेक वृक्षोंवाले उद्यानकी तरह मालम होनेवाला वह विचित्र तथा अद्भुत रचनावाला चैत्य बड़ा ही सुन्दर दिखाई देताथा । उसके आस-पास रत्नोंके खम्भे गड़े हुए थे। वह मन्दिर आकाशगङ्गाकी तरङ्गोंकी तरह मालूम पड़नेवाली ध्वजाओंसे बड़ा मनोहर दिखाई देता था, ऊँचे किये हुए सुवर्णके ध्वजदण्डोंसे वह ऊँचा मालूम होता था और निरन्तर फहराती हुई ध्वजाओंमें लगे हुए घुघरूकी आवाज़से वह विद्याधरोंकी स्त्रियोंकी कटि-मेखलाओंकी ध्वनिका अनुसरण करता हुआ मालूम होता था। उसके ऊपर विशाल कान्तिवाली पद्मरागमणिके कलशसे वह ऐसा मालूम होता
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
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था। मानों माणिक्य जड़ी हुई मुद्रिका पहने हुए हो। कहीं तो पल्लवित होता हुआ, कहीं कवच धारण किये, कहीं रोमाञ्चित बना हुआ और कहीं किरणोंसे लिप्त मालूम पड़ता था। गोशीर्ष-चन्दन के रसके तिलकसे वह जगह-जगह चिह्नित किया गया था। उसकी सन्धियाँ इस कारीगरीसे मिलायी गयी थीं, कि सारा मन्दिर एक ही पत्थरका बना हुआ मालूम पड़ता था। उस चैत्यके नितम्बभागपर अपनी विचित्र चेष्टासे बड़ी मनोहर दीखती हुई माणिककी पुतलियाँ बैठायी हुई थीं। इससे वह ऐसा मालूम होता था, मानों अप्सराओंसे अधिष्ठित मेरुपर्वत हो। उससे द्वारके दोनों ओर चन्दनसे लेपे हुए दो कुम्भ रखे हुए थे। उनसे वह ऐसा मालूम होता था, मानों द्वार-स्थलपर दो पुण्डरीक-कमल उग आये हों और उस की शोभाको बढ़ा रहे हों। धूपित करके तिरछी बाँधी हुई लटकती मालाओंसे वह रमणीय मालूम होता था। पंचरंगे फूलोंसे उसके तलभागपर मण्डल भरे हुए थे। जैसे यमुना-नदीसे कलिन्दपर्वत सदा प्लावित होता रहता है, वैसेही कपूर, अगर और कस्तूरीसे बने हुए धूपके धूएँ से वह भी सदैव व्याप्त रहता था। आगे-पीछे और दाहिने-बायें सुन्दर चैत्यवृक्ष और माणिककी पीठिकाएँ बनी हुई थीं। इनसे वह ऐसा मालूम होता था, मानों गहने पहने हुए हों और अपनी पवित्रताके कारण वह ऐसा शोभायमान दीखता था, मानो अष्टापदपर्वतके शिखरपर मस्तकके मुकुटका माणिक्य-भूषण हो तथा नन्दीश्वरादि चैत्योंकी स्पर्धा कर रहा हो।
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आदिनाथ - चरित्र
प्रथम पर्व
उसी चैत्यमें भरतराजाने अपने निन्यानवे भ्राइयोंकी दिव्यरत्नों की बनी हुई प्रतिमाएं स्थापित कीं और प्रभुकी सेवा करती हुई अपनी भी एक प्रतिमा वहीं प्रतिष्ठित की। भक्तिकी अतृप्तिका यह भी एक लक्षण है। उन्होंने चैत्यके बाहर भगवान्का एक स्तूप और उसीके पास अपने भाइयोंके भी स्तूप बनवाये । वहाँ आनेवाले लोग आते-जाते हुए उन प्रतिमाओंकी आशातना (अपमान) न करने पायें, इसके लिये उन्होंने लोहे के बने, कल-पुर्जे लगे हुए पहरेदार भी खड़े कर दिये। इन लोहेके बने पहरेदारोंके कारण वह स्थान मनुष्योंके लिये ऐसा दुर्गम हो गया, मानों मर्त्यलोकके बाहर हो । तब चक्रवर्त्तीने अपने दण्डसे उस पर्वतके ऊबड़-खाबड़ पत्थरोंको तोड़कर गिरा दिया। उससे वह पर्वत सीधे और ऊँचे स्तम्भके समान लोगोंके चढ़ने योग्य नहीं रह गया । तब महाराजने उस पर्वतकी टेढ़ी-मेढ़ी मेखलाके समान और मनुष्योंसे नहीं लाँघने योग्य आठ सीढ़ियाँ एक-एक योजनके अन्तर पर बनवायीं । तभीसे उस पर्वतका नाम अष्टापद पड़ा और लोकमें वह हराद्रि, कैलास और स्फटिकाद्रि आदि नामोंसे भी प्रसिद्ध हुआ ।
इस प्रकार चैत्य निर्माण कर, उसमें प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठाकर, श्वेतवस्त्रधारी चक्रवर्त्तीने उसमें उसी तरह प्रवेश किया, जिस तरह चन्द्रमा बादलोंमें प्रवेश करता है । परिवार सहित उन प्रतिमाओंकी प्रदक्षिणा कर, महाराजने उन्हें सुगन्धित जलसे नहलाया और देवदृष्य वस्त्रोंसे उनका मार्जन किया । इससे वे प्रतिमाएँ रत्नके आईने की तरह अधिक उज्ज्वल हो गयीं I इसके
५४२
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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र बाद उन्होंने चन्द्रिका समूहकी तरह निर्मल, गाढ़े और सुगन्धित गोशीर्ष-चन्दनके रससे उनका विलेपन किया तथा विचित्र रत्नोंके आभूषणों, चमकती हुई दिव्य मालाओं और देवदृष्य वस्त्रोंसे उनकी अर्चना की। घंटा बजाते हुए महाराजने उनको धूप दिखाया, जिससे उठते हुए धुएंकी कुण्डलीसे उस चैत्यको अन्तर्भाग नीलवल्लोसे अङ्कित किया हुआ मालूम पड़ने लगा। इसके बाद मानों संसार-रूपी शोत-कालसे भय पाये हुए लोगोंके लिये जलता हुआ अग्नि-कुण्ड हो, ऐसी कपूरको आरती उतारी।
इस प्रकार पूजनकर, ऋषभस्वामीको नमस्कार कर,शोक और भयले आक्रान्त होकर, चक्रवर्तीने इस प्रकार स्तुति की,-"हे जगत्सुधाकर ! हे त्रिजगत्पति! पाँच कल्याणकोंसे नारकीयोंको भी सुख देनेवाले आपको मैं नमस्कार करता हूँ। हे स्वामिन् ! जैसे . सूर्य संसारका उपकार करनेके लिये भ्रमण करते रहते हैं, वैसेही आप भी जगत्के हितके लिये सर्वत्र विहार करते हुए चराचरजीवोंको अनुगृहीत कर चुके हैं। आर्य और अनाये, दोनों पर आपकी प्रीति थी, इसीलिये आप चिरकाल विहार करते फिरे । अतएव आपकी और पवनकी गति परोपकारके ही लिये हैं। है प्रभु! इस लोकमें तो आप मनुष्योंके उपकारके लिये सदा विहार करते रहे ; पर मोक्षमें आप किसका उपकार करनेके लिये गये हैं ? आपने जिस लोकान (मोक्ष) को अपनाया है, वह आज सचमुच लाकान ( सब लोकोंसे बढ़कर ) हो गया और आपसे छोड़ दिया हुआ यह मयं लोक सचमुच मर्त्यलोक (मृत्यु पाने योग्य)
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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
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प्रत्यक्ष ही
उन्हें भी आप
हो गया है हे नाथ! जो आपकी विश्वोपकारिणी देशनाको स्मरण करते हैं, उन भव्य प्राणियोंको आप आज भी दिखाई पड़ते हैं। जो आपके रूपको ध्यान करते हैं, प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । हे परमेश्वर ! जैसे आपने ममता - रहित होकर इस सारे संसारको त्याग दिया है, वैसेही कभी मेरे मनका भी त्याग न कर दें ।"
इस प्रकार आदीश्वर भगवान् की स्तुति करनेके बाद अन्य जिनेन्द्रोंको नमस्कार कर, उन्होंने प्रत्येक तीर्थङ्कर की इसप्रकार स्तुति - "हे विषय कषायोंसे अजित, विजयामाताकी कोखके माणिक और जितशत्रुराजाके पुत्र, जगत्स्वामी अजीतनाथ ! तुम्हारी जय हो ।
की,
➖➖➖➖
“हे संसार-रूपी आकाशको अतिक्रमण करनेमें सूर्य के समान, श्रीसेना देवीके उदरसे उत्पन्न, जितारि राजाके पुत्र सम्भवनाथ ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ ।
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हे संवर-राजाके बंशके आभूषण स्वरूप, सिद्धार्था देवीरूपिणी पूर्व दिशा के सूर्य और विश्वके आनन्ददायक अभिनन्दन स्वामी तुम मुझे पवित्र कर दो ।
"
हे मेघराजाके वंशरूपी वनमें मेघ के समान और मङ्गला-रूपिणी मेघमाला में मोतीके समान सुमतिनाथजी ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ ।
माता
“ हे धर-राजा-रूपी समुद्रके लिये चन्द्रमा के समान और सुसीमा देवी रूपिणी गङ्गानदी में उत्पन्न कमलके समान पद्मप्रभु ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ ।
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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
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“ हे श्रीप्रतिष्ठ राजाके कुलरूपी गृहके प्रतिष्ठा स्तम्भ - स्वरूप और पृथ्वी माता- रूपी मलयाचलके चन्दनके समान सुपार्श्वनाथ ! मेरी रक्षा करो
I
“हे महासेन राजाके वंशरूपी आकाशके चन्द्रमा और लक्ष्मणा देवीके कोख-रूपी सरोवर के हंस चन्द्रप्रभुजी ! तुम्हीं मेरी रक्षा करो
"हे सुग्रीव राजाके पुत्र और श्रीरामादेवी - रूपिणी नन्दन - वन के कल्पवृक्षस्वरूप सुविधिनाथजी मेरा शीघ्र कल्याण कीजिय “हे दृढ़रथ राजाके पुत्र, नन्दादेवीके हृदयको आनन्द देनेवाले और जगत्को आहादित करनेमें चन्द्रमा के समान शीतलस्वामी । तुम मेरे लिये हर्षकारी हो ।
"हे श्रीविष्णुदेवीके पुत्र, विष्णु राजाके वंशमें मोतीके समान और मोक्षरूपिणी लक्ष्मीके स्वामी श्रेयांस प्रभु ! तुम मेरे कल्याके निमित्त हो ।
"है वसुपूज्यराजाके पुत्र, जयादेवी रूपिणी विदूर- पर्वतकी भूमिमें उत्पन्न रत्नके समान और जगत्में पूजनीय वासुपूज्यस्वामीजी तुम मुझे मोक्ष-लक्ष्मी प्रदान करो ।
“हे कृतवर्म राजा के पुत्र और श्यामादेवी रूपिणी शमीवृक्षसे उत्पन्न अग्निके समान विमलस्वामी ! तुम मेरा मन निर्मल बना दो ।
“हे सिंहसेन राजाके कुलमें मङ्गल- दीपकके समान, सुयशा देवीके पुत्र अनन्तभगवान् ! मुझे अनन्त सुख दो ।
“हे सुव्रतादेवी-रूपिणी उदयाचल तटीके सूर्यस्वरूप, भानुराजाके पुत्र धर्मनाथ प्रभु ! तुम मेरी बुद्धिको धर्म में लगा दो ।
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पव
_ "हे विश्वसेन राजाके कुलभूषण स्वरूप, अचिरादेवीक पुत्र शान्तिनाथ भगवान् ! तुम मेरे कर्मोंकी शान्तिके निमित्त होओ।
"हे शूरराजाके वंशरूपी आकाशमें सूर्य के समान, श्रीदेवोके उदरसे उत्पन्न और कामदेवका उन्मथन करनेवाले जगत्पति कुन्थुनाथजी ! तुम्हारी जय हो।
"सुदर्शन राजाके पुत्र, और देवी-माता-रूपिणी शरद्दमोमें कुमुदके समान अरनाथजी! तुम मुझे संसारसे पार उतरनेका वैभव प्रदान करो। ____ "हे कुम्भराजा-रूपी समुद्र में अमृत कुम्भके समान और कर्मक्षय करने में महामलके समान प्रभावती देवीसे उत्पन्न मलिनाथजी तुम मुझे मोक्षलक्ष्मी प्रदान करो। ___"हे सुमित्र-राजा-रूपी हिमाचलमें पद्मद्रहके समान और पद्मावतीके पुत्र मुनिसुव्रत प्रभु ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। ___“हे वप्रादेवी रूपिणो वज्रकी खानसे निकले हुए वज्रके समान, विजय राजाके पुत्र और जगत्से वन्दनीय चरण-कमलों वाले नमिप्रभु! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ।
"हे समुद्र ( समुद्रविजय ) को आनन्द देनेवाले चन्द्रमाके समान, शिवादेवीके पुत्र और परम दयालु, मोक्षगामी अरिएनेमि भगवान! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ।
"हे अश्वसेन राजाके कुलमें चूड़ामणि स्वरूप, वामादेवीके पुत्र पार्श्वनाथजी! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ।
"हे सिद्धार्थ राजाके पुत्र, त्रिशला माताके हृदयको आश्वासन
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प्रथम पर्व
५४७ आदिनाथ-चरित्र देनेवाले और सिद्धि प्राप्तिके अर्थको सिद्ध करनेवालेमहावीर प्रभु ! मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ।"
इस प्रकार प्रत्येक तीर्थंकरकी स्तुति कर, प्रणाम करते हुए महाराज भरत उस सिंहनिषद्या-चैत्यसे बाहर निकले और प्यारे मित्रकी तरह पीछे मुड़-मुड़ कर तिरछी नज़रोंसे उसे देखते हुए अष्टापद-पर्वतसे नीचे उतरे। उनका मन उसी पर्वतमें अटका हुआ था, इसीलिए अयोध्याधिपति ऐसी मन्द-मन्द गतिसे अयोध्याकी ओर चले, मानों उनके वस्त्रका छोर वहीं अँटक रहा हो। शोककी बाढ़की तरह सैनिकोंकी उड़ायी हुई धूलसे दिशाओंको व्याकुल करते हुए शोकातं चक्रवत्तों अयोध्याके समीप आपहुँचे, मानो चक्रवतॊके सहोदर हों, इस प्रकार उनके दुःखसे अत्यन्त दुःखित नगर निवासियों द्वारा आँसू भरी आँखोंसे देखे जाते हुए महाराज अपनी विनीता नगरीमें आये। फिर भगवान्का स्मरणकर, वृष्टि के बाद बचे हुए मेघकी तरह अश्रु जलके बूंद बरसाते हुए वे अपने राजमहलके अन्दर आये। जिसका धन छिन जाता है, वह जिस प्रकार द्रव्यका ही ध्यान किया करता है, वैसेही प्रभुरूपी धनके छिन जानेसे वे भी उठते,-बैठते चलतेफिरते, सोते-जागते, बाहर-भीतर, रात-दिन प्रभुका ही ध्यान करने लगे। यदि कोई किसी और ही मतलबसे उनके पास अष्टापद-पर्वतकी ओरसे आ जाता, तो वे यही समझते, मानों वह भी पहलेहीकी भांति प्रभुका ही कोई संदेसा लेकर आया है।
महाराजको ऐसा शोकाकुल देखकर मन्त्रियोंने उनसे कहा-.
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आदिनाथ-चरित्र
५४८
प्रथम पर्व
“हे महाराज! आपके पिता श्रीऋषभदेव प्रभुने पहले गृहस्थाश्रममें रहकर भी पशुके समान अज्ञ मनुष्योंको व्यवहार नीतिमें प्रवृत्त किया था। इसके बाद दीक्षा लेकर थोड़े ही समयमें केवलज्ञान प्राप्त कर, इस जगतके लोगोंको भवसागरसे उबारनेके लिए धर्ममें प्रवृत्त किया। अन्तमें स्वयं कृतार्थ हो औरोंको भी कृतार्थ कर उन्होंने परम-पद प्राप्त किया। फिर ऐसे परम प्रभुके लिये आप क्यों शोक करते हैं ?” इस प्रकार समझानेपर चक्रवर्ता धीरे-धीरे राजकाजमें मन लगाने लगे।
राहुसे छुटकारा पाये हुए चन्द्रमाकी भांति धीरे-धीरे शोकमुक्त होकर भरत चक्रवत्ती बाहर विहार भूमिमें विचरण करने लगे। विन्ध्याचलकी याद करनेवाले गजेन्द्रकी तरह प्रभुके चरणोंका स्मरण करते हुए विषादको प्राप्त होनेवाले महाराजके पास आआकर बड़े-बूढ़े लोग उनका दिल बहलाने लगे। इसीसे वे कभी कभी अपने परिजनोंके आग्रहसे विनोद उत्पन्न करनेवाली उद्यान भूमिमें जाने लगे । और वहाँ मानो स्त्रियोंकाही राज्य हो ौसी सुन्दरी स्त्रियोंको टोलीके साथ लता-मण्डपकी रमणीक शय्यापर क्रीड़ा करने लगे । वहाँ फूल चुननेवाले विद्याधरोकी भांति जवान पुरुषोंको उन्होंने फूल चुननेकी क्रीडा करते देखा। उन्होंने और भी देखा कि, वाराङ्गनाएँ फूलोंकी पोशाक बना-बनाकर उनको अर्पण कर रही हैं । मानो इसी प्रकार वे कामदेवकी पूजा कर रही हों मानों उनकी उपासना करनेके लिये असंख्य श्रुतियाँ आ इकट्ठी हुई हों, ऐसी नगर-नारियाँ अंग-अंगमें फूलोंके गहने पहने उनके
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र आसपास क्रीड़ा करने लगी। फिर तो मानो ऋतुदेवताओमें सेही कोई देवता आ गया हो, उसी प्रकार सर्वाङ्गमें फूलोंकेगहने पहने हुई उन स्त्रियोंके मध्यमें महाराज भरत शोभित होने लगे।
किसी-किसी दिन वे भी अपनी स्त्रियोंको साथ लेकर राजहंसकी तरह क्रीड़ावापीमें स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा करनेके लिये जाने लगे। जैसे गजेन्द्र अपनी कामिनियों के साथ नर्मदा-नदीमें कीड़ा करता है, वैसेही वे भी उन सुन्दरियोंके साथ क्रीड़ा करने लगे। मानों उन सुन्दरियोंकी ही सिखलायी पढ़ायी हुई हों, ऐसी उस जलकी तरंगे कभी महाराजके कण्ठको, कभी भुजाओंको और कभी हृदयको आलिंगन करने लगीं। उस समय कमलके कर्णाभरण और मोतियोंके कुण्डल पहने हुए महाराज जलमें साक्षात् वरुणदेवके समान शोभा पाने लगे, मानो लीलाविलासके राज्य पर उनका अभिषेक कर रही हो, इसी ढंगसे वे स्त्रियाँ, “मै पहले मैं पहले” कहती हुई उनके ऊपर पानीके छींटे छोड़ रही थीं। उन्हें चारों ओरसे घेरे हुई जलक्रीड़ामें तत्पर उन रमणियों के साथ जो अप्सराएँ या जलदेवियांसी मालूम पड़ती थीं । महाराजने बड़ी देरतक जलक्रीड़ा को। अपनी होड़ करनेवाले कमलो को देखकर ही मानो उन मृगाक्षियों की आँखें कोपले लाल लाल हो आयीं और उन अङ्गनाओ'के अंगो से गिरे हुए घने अङ्ग-रागके कारण वह सारा जल यक्ष-कर्दमसा मालूम पड़ने लगा। इसी प्रकार वे अकसर क्रीड़ा किया करते थे।
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आदिनाथ-चरित्र ५५०
प्रथम पर्व ___ किसी समय इसी प्रकार जलक्रीड़ाकर महाराज भरत, इन्द्रकी तरह सङ्गीत करानेके लिये विलास-मण्डपमें आये। वहाँ वंशी बजानेमें चतुर पुरुष वैसेही वंशीमें पहले मधुर स्वर भरने लगे, जैसे मन्त्रों में पहले ओडारका उच्चारण किया जाता है। वे वंशी बजानेवाले कानोंको सुख देनेवाली और व्यञ्जन धातुओंसे स्पष्ट, पुष्पादिक स्वरसे ग्यारह प्रकारकी बंशी बजाने लगे। सूत्रधार उनके कवित्वका अनुसरण करते हुए नृत्य तथा अभिनयकी माताके समान प्रस्तारसुन्दर नामका ताल देने लगे। मृदङ्ग और प्रणव नामके बाजे बजाने वाले प्रिय मित्रकी तरह, ज़रा भी ताल-सुरमें फ़र्क नहीं आने देते हुए अपने-अपने बाजे बजाने लगे। हाहा और हूहू नामके गन्धर्वोके अहङ्कारको हरनेवाले गायक स्वर-गीतिसे सुन्दर और नयी-नयी तरहके राग गाने लगे। नत्य तथा ताण्डवमें चतुर नटियाँ विचित्र प्रकारको नाज़ो अदासे सबको आश्चर्य में डालती हुई नाचने लगीं। महाराज भरत उस देखने योग्य नाटकको निर्विघ्न देखते रहे ; क्योंकि उनकेसे समर्थ पुरुष चाहे जो करें, उसमें कौन रोक-टोक कर सकता है ? इस प्रकार संसार-सुखको भोगते हुए भरतेश्वरने प्रभुके मोक्ष-दिवसके पश्चात् पाँच लाख पूर्व बिता दिये ।
एक दिन भरतेश्वर, स्नान कर, बलि कर्म कर, देवदूष्य वस्त्रसे शरीरको साफ़ कर, केशमें पुष्पमाला गूथ, गोशीर्षचंदन का सब अङ्गोंमें लेपकर, अमूल्य और दिव्यरत्नोंके आभूषण सब अंगोंमें धारण कर, अन्तःपुरकी श्रेष्ठ सुन्दरियोंका समूह साथ लिये
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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र छड़ीबरदारोंके दिखलाये हुए रास्तेसे, अन्तःपुरके मध्यमें रत्नोंके आदर्शगृहमें आये। वहाँ आकाश और स्फटिकमणिकी भांति निर्मल तथा जिसमें अपने सब अङ्गोंकी परछाई पूरी तरह दिखायी देती हो, ऐसे शरीर-प्रमाण :( कदआदम ) आईनेमें अपना रूप देखते हुए महाराजकी एक अङ्गलीमेंसे अंगूठी गिर पड़ी। जैसे मयूरके कलापमेंसेएक पङ्क गिर जाने पर उसे इसकी खबर नहीं होती, वैसेही उस अंगूठीका गिरना भी महाराजको नहीं मालूम हुआ। क्रमसे शरीरके सब भागोंको देखते-देखते उन्होंने दिनमें चाँदनीके बिना फीकी पड़ी हुई चन्द्रकलाके समान अपनी मुद्रिकारहित अंगुलीको कान्ति-रहित देखा, “ओह ! यह अंगुली ऐसी शोभाहीन क्यों है ?" यह सोचते हुए भरत राजाने जमीन पर पड़ी हुई अँगूठी देखी, तब उन्होंने सोचा,-"क्या और-और अङ्ग भी आभूषणके बिना शोभा हीन लगते होंगे।"
यह ख़याल पैदा होते ही उन्होंने अन्य आभूषणोंको भी उतारना शुरू किया। ___ सबसे पहले उन्होंने सिर परसे माणिकका मुकुट उतारा। उतारते ही सिर भी अंगूठी बिना अंगुलीकी तरह मालूम पड़ने लगा। कानोंके माणिकवाले कुण्डल उतार दिये, तब वे भी चंद्र-सूर्यके बिना श्रीहीन दिखायी देनेवाली पूर्व और पश्चिम दिशाओंके समान मालूम पड़ने लगे। कण्ठाभूषण अलग करते ही ग्रीवा बिना जलके नदीकी भाँति शोभाहीन मालूम पड़ने लगी। वक्षस्थलसे हार उतरने पर वह तारा-रहित आकाशकी
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आदिनाथ चरित्र ५५२
प्रथम-पर्व भाँति शून्य प्रतीत होने लगा। बाजूबन्द निकालतेही दोनों हाथ अर्द्धलतापाशसे हीन दो शालके वृक्ष जैसे दिखने लगे। दोनों हाथोंके कड़े निकाल डाले, तब वे बिना कड़ी काठके प्रासाद से दिखायी देने लगे। और-और अंगुलियोंकी भी अंगूठियाँ उतार दी, तव वे मणि-रहित सर्पके फणके समान मालूम होने लगीं। परोंमेंसे पाद-कंटक दूर कर देने पर वे गजेन्द्र के सुवर्ण कंकण विहीन दाँतके समान दिखाई देने लगे। इस प्रकार सर्वाङ्गके आभूषणोंका त्याग करनेसे अपने शरीरको पत्र-रहित बृक्षके समान शोभाहीन होते देख, महाराजने एक बार सारे शरीरको देखकर कहा,—“आह ! इस शरीरको धिक्कार है। जैसे दीवार पर चित्र आदि अंकित कराकर बनावटी शोभा लायी जाती है, वैसेही इस शरीरकी भी गहनों आदिसे बनावटी शोभा की जाती है। अन्दर विष्ठादिक मलसे और बाहर मूत्रादिक प्रवाहसे मलिन इस शरीरमें यदि विचार कर देखा जाय, तो कोई वस्तु शोभाकारी नहीं है। खारी जमीन जैसे बरसातके पानीको भी बिगाड़ देती है, वैसेही यह शरीर अपने ऊपर विलेपन किये हुए कपूर और कस्तूरी आदिको भी दूषित कर देता है। जिन्होंने विषयोंसे विरक्त होकर मोक्षफलको देनेवाली तपस्या की है, उन्होंने ही इस शरीरका लाभ उठाया है।” इसी प्रकार विचार करते हुए, सम्यक् प्रकार से अपूर्वकरणके अनुक्रमणसे, क्षपक-श्रेणीमें आरूढ़ हो, शुक्ल ध्यानको पाये हुए महाराजको घाती कर्मोंके क्षय हो जानेके कारण वैसेही
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प्रधम पर्व
आदिनाथ-चरित्र केवल-ज्ञान प्राप्त हो गया, जैसे बादल हट जानेसे सूर्य का प्रकाश निकल आता है। ... .. ठीक उसी समय इन्द्रका आसन कांप गया, क्योंकि अचेतन वस्तुएँ भी महत् पुरुषोंकी विशाल समृद्धिको बात कह देती हैं। अवधिशानसे असल हाल मालूम कर, इन्द्र भरत राजाके पास आथे। भक्तजन स्वामीकी ही तरह स्वामीके पुत्रकी भी सेवा करनी स्वीकार करते हैं। फिर वे स्वामीके पुत्रको केवल-ज्ञान उत्पन्न होनेपर भी उसकी सेवा क्यों नहीं करते ? इन्द्रने वहाँ आकर कहा,-“हे केवलज्ञानी ! आप द्रव्यलिग स्वीकार कीजिये, जिसमें मैं आपकी वन्दना करूं और आपका निष्क्रमण-उत्सव करू।" भरततेश्वरने उसी समय बाहुबलीकी भांति पांच मुट्ठी केश उखाड़ कर दीक्षाका लक्षण अङ्गीकार किया अर्थात् पाँच मुट्ठी केश नोंचकर देवताओंके दिये हुए रजोहरण आदि उप. करणोंको स्वीकार किया। इसके बाद इन्द्रने उनकी वन्दना की, क्योंकि भले ही केवल ज्ञान प्राप्त हो गया हो तो भी अदी. क्षित पुरुषको चन्दना नहीं की जाती-ऐसा ही आचार है । उस समय भरत राजाके आश्रित दस हज़ार राजाओंने भी दीक्षा ले ली, क्योंकि उनके समान स्वामीकी सेवा परलोकमें भी सुख देनेवाली होती है।
इसके बाद इन्द्रने पृथ्वीका भार सहनेवाले भरतचक्रवर्तीके पुत्र आदित्ययशाका राज्याभिषेक-उत्सव किया।
ऋषभस्वामीकी तरह भरत मुनिने भी केवलज्ञान उत्पन्न .
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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पव
होनेके बाद ग्राम, खान, नगर, अरण्य, गिरि और द्रोणमुख आदि सभी स्थानोंमें जा-जाकर धर्मदेशनासे भव्य प्रणियोंको प्रबोध देते हुए परिवार सहित लक्ष-पूर्व पर्यन्त विहार किया । अन्तमें उन्होंने भी अष्टापद पर्वत पर जाकर विधिसहित चतुर्विध आहारका प्रत्याख्यान किया। एक मासके अन्तमें जब चन्द्रमा श्रवण-नक्षत्रमें आया, तब अनन्त चतुष्क ( अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त-चारित्र और अनन्त-वीये ) सिद्ध हुआ हैं जिनका, ऐसे वे महर्षि सिद्धिक्षेत्रको प्राप्त हुए।
इस प्रकार भरतेश्वरने सतहत्तर पूर्वलक्ष कुमारावस्थामें बिताया। उस समय भगवान् ऋषभदेवजी पृथ्वीका प्रतिपालन कर रहे थे। भगवान् दीक्षा लेकर हज़ार वर्षतक छद्मस्थ अवस्थामें रहे। इन्होंवे एक हजार वर्ष मांडलिकतामें बिताये। हज़ार वर्ष कम छः लाख पूर्व तो इन्होंने चक्रवर्ती रहकर बिताये। केवलज्ञान उत्पन्न होनेके बाद विश्वके कल्याणके लिये वे दिवसमें प्रकाशित होने वाले सूर्यकी तरह एक पूर्व तक पृथ्वीपर विहार करते रहे। इस कार चौरासी पूर्वलक्षकी आयु भोगकर, महाराज भरतने मोक्ष पाया। तत्काल उसी समय हर्षसे भरे हुए देवताओंके साथ-साथ स्वर्ग-पति इन्द्रने भी उनकी मोक्षमहिमा गायी।
* समाप्त । IRRREKKERTA
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शान्ति के समय मनोरञ्जन करने योग्य हिन्दी जैन साहित्य की
सर्वोत्तम पुस्तकें
आदिनाथ चरित्र
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इस पुस्तक में जैनोंके पहले तीर्थङ्कर भगवान आदिनाथ स्वामीका सम्पूर्ण जीवन चरित्र दिया गया है, इसको साद्यन्त पढ़ जानेसे जैनधर्मका पूर्ण तत्व मालूम हो जाता है, भाषा भी ऐसी सरल शैली से लिखी गई है, कि साधारण हिन्दी जानने वाला बालक भी बड़ी आसानी के साथ पढ़ सक्ता है, सचित्र होनेके कारण पुस्तक खिल उठी है, जैन समाज में भाजतक ऐसी अनोखी पुस्तक कहीं नहीं प्रकाशित हुई। अगर आप ऋषभदेव भगवान का सम्पूर्ण चरित्र पढ़नेकी इच्छा रखते हैं, अगर आप जैन धर्म के प्राचीन रीति रिवाज़ों को जानना चाहते हैं, अगर आप अपने को उपदेशक बनाकर समाज का भला करना चाहते हैं, अगर आप अपनी सन्तानों को जैन धर्मकी शिक्षा प्रदान कराना चाहते हैं, अगर आप लोक-परलोकसाधन करना चाहते हैं । अगर आप धर्म क्रिया के समय शान्ति का आश्रय लेना चाहते हैं, तो इस पुस्तक को मंगवाने
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( २ ) के लिए आज ही आर्डर दीजिये। मूल्य सजिल्द का ५) अजिल्द का ४) डाकखर्च अलग।
शांतिनाथ चरित्र
इस पुस्तकमें जैनोंके सोलहवें तीर्थङ्कर भगवान शान्तिनाथ स्वामीका चरित्र ( संपूर्ण बारह भवों का) मय चित्रों के दिया गया है। इस पुस्तक का संस्कृत पुस्तक से हिन्दी अनुवाद किया गया है। अगर आप प्राचीन घटनाओं को नवीन औपन्यासिक ढङ्गपर, पढ़ने की इच्छा रखते हैं, अगर आपको शान्ति का अनुसरण करना है, अगर आप सामायिक पौषध आदि.धर्म क्रियाके .समय ज्ञान-ध्यान करना चाहते हैं, तो इस पुस्तक को अवश्य मँगवाइये।
बड़ी खबीयह की गई है, कि प्रत्येक कथापर एक एक हाफटोन चित्र दिया गया है, जिनके अवलोकन मात्रसे मूलका आशय चित्तपर अंकित हो जाता है। जैन संप्रदायमें यह एक नयी बात की गई है।
त्रियों के लियेयह ग्रन्थ अतीव उपयोगी एवं शिक्षाप्रद है, अगर आप अपनी स्त्रियोंके हृदयमें उदारता, क्षमता, आदि गुणोंका समावेश कराना चाहते हैं, अगर :आप अपनी पुत्रीको शिक्षिता
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( ३) करना चाहते हैं, अगर आप अपनी पुत्री को अपने सम्प्रदायमें, ही गुढ़ रखना चाहते हैं, अगर आप अपनी पुत्रियोंसे, अपनी बूढ़ी माताओं को धर्मोपदेश प्रदान करवाना चाहते हैं, अगर आप अपनी पुत्रियों को सुलक्षणा करना चाहते हैं, तो इस पुस्तकको अवश्य मँगवाकर पढ़ाइये। इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा भी ऐसी सरल शैलीसे लिखी गई है, कि साधारण हिन्दी लिखने पढ़नेवाली बालिका भी अतीव सरलता से पढ़ सक्ती है। एक समय हमारी बातपर विश्वासकर कम-से-कम एक पुस्तक , अवश्य मँगवाकर अपनी स्त्रियोंको दीजिये, अगर आप को हमारी बात प्रमाणित मालूम हो जाय तो दूसरी पुस्तक मंगवाइये। मूल्य रेशमी सुनहरी जिल्द ५) अजिल्द सादा कवर ४) डाकखर्च अलग।
अध्यात्म अनुभव योग:प्रकाश इस पुस्तकमें योग सम्बन्धी सर्वविषयोंकी व्यक्तता की गई है, योगके विषयको समझानेवाली, हिन्दी साहित्यमें आजतक ऐसी सरल पुस्तक कहीं नहीं प्रकाशित हुई। इस पुस्तकमें हठयोग तथा राजयोगका साङ्गोपाङ्ग वर्णन, चित्तको स्थिर करने आदिके उपाय ऐसी सरल शैलोसे लिखे गये हैं, जिन्ह सामान्य बुद्धिवाला बालक भी बड़ी आसानीके साथ समझ सकता है, इस ग्रन्थ-रत्नके कर्ता एक प्रखर विद्वान् जैनाचार्य हैं, जिन्होंने निष्पक्षपात दृष्टिसे प्रत्येक विषयाँको खूब अच्छी
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तरह खोल-खोल कर समझा दिया है। पाठकोंसे हमारी विनीत प्रार्थना है, कि एक बार हमारी बात पर विश्वास कर एक प्रति अवश्य मंगवावें। अगर आपको हमारी बात पर प्रतीति हो जाय तो फिर अपने इष्ट मित्रोंसे भी मँगवानेके लिये प्रेरणा करें। मूल्य अजिल्द ३॥) सजिल्द ४॥)
__ सती शिरोमणी
चन्दनबाला इस पुस्तकमें सुश्राविका सती-शिरोमणी चन्दनबाला का चरित्र बड़ीही मनोहर भाषा में लिखा गया है, चन्दनबाला को सतीत्व की रक्षा करने के लिये जो-जो विपत्तिय सहनी पड़ी हैं और सतीत्व के प्रभाव से उनके जीवन में जो-जो घटनायें हो गई हैं, सो इस पुस्तक में खूब अच्छी तरह खोल-खोल कर समझा दिया गया है । जैनी व अजैनी सब को यह पुस्तक देखनी चाहिये । सती-शिरोमणी चन्दनबाला की जीवनी प्रत्येक कुल लक्ष्मियों को पढ़ना चाहिये। बालक, स्त्री, पुरुष सभी इस पुस्तकको पढ़ कर मनोरञ्जन और शिक्षा लाभ कर सकते हैं। सारी पुस्तक उपन्यास के ढङ्ग पर लिखी गई है, जिससे पढ़ने में अधिकाधिक आनन्द आता है। और पाठक को पढ़ने में ऐसा जी लगता है, कि पुस्तक छोड़ते नहीं बनती। आपने चन्दनबाला का चरित्र और कहीं पढ़ा सुना भी होगा; पर हम दावेके साथ कहते हैं
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( ५ )
कि ऐसा सरल और सर्वाङ्ग सुन्दर चरित्र आपने कहीं नहीं पढ़ा होगा । अतः पाठकों से हमारा निवेदन है, कि हमारी बात पर विश्वास कर एक प्रति अवश्य मँगवाइये ।
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पुस्तक की छपाई सफाई बड़ी ही नयनाभिराम है। एण्टीक कागज पर सुन्दर सुवाच्य अक्षरों में छापी गई है। इस के अतिरिक्त स्थान-स्थान पर नयनान्दकर उत्तमोत्तम छ चित्र दिये गये हैं, जिनसे सारी पुस्तक खिल उठी है। जैनसंप्रदाय में यह एक नवीन शैली निकाली गई है अवश्य देखिये, यह पुस्तक अपने ढङ्ग की पहली है । मूल्य ॥ ) आने) डाक खर्च अलग ।
नलदमयती
इस पुस्तक में नल और दमयन्तोकी जीवनी मय चित्रोंके दी गई है, अधिकांश तो इस पुस्तक में पतिव्रता धर्म-सूचक ज्ञानका भण्डार भर दिया गया है, इसको पढ़कर स्त्रियों को अपने आपका ख़याल हो आता है । इस पुस्तक को प्रत्येक बालक, युवा और वृद्ध नारियों को अवश्य देखना चाहिये ; संसार में नल-दमयन्ती की जीवनियाँ अनेकानेक प्रकाशित हो चुकी हैं, पर आजतक जैनाचार्यकी कलम से लिखी हुई पुस्तक कहीं नहीं प्रकाशित हुई, अतएव पाठक और पाठिका - ओंसे हमारा सानुरोध निवेदन है, कि एक बार इस पुस्तक को मँगवाकर अवश्य देखें | मूल्य ||) डाक खर्च अलग।
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सुदर्शन सेठ
इस पुस्तक में सुदर्शन सेठ का चरित्र दिया गया है, जन समाज में ऐसा कोई पुरुष न होगा जिसने सुदर्शन सेठकी
जीवनी न सुनी हो । ब्रह्मचर्यव्रत पर सुदर्शन सेठकी कथा सुप्रसिद्ध है, शील को बचानेके कारण सुदर्शन सेठ को असह्य विपत्ति का सामना करना पड़ा। पूर्व के महापुरुषों ने शील की रक्षा के लिये प्राणत्याग करना स्वीकार किया; पर शील को त्यागना नहीं स्वीकार किया, इसी विषय पर सुदर्शन सेठ के जीवन में अनेकानेक घटनायें हो गई हैं, जिनके पढ़ने से प्रत्येक नर नारी को अपने शील के विषय में ख़याल हो आता है 1 अगर आप अपनी समाज में लोगों को कुसङ्ग से बचाना चाहते हैं। अगर आप अपनी समाज में शीलका महत्व बतलाना चाहते हैं, तो इस पुस्तक को अवश्य मँगवाइये मूल्य ॥ )
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डाकखर्च अलग |
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कयवन्ना सेठ
इस पस्तक में कयवना सेठ की जीवनी दी गई है। सचित्र होने के कारण कयवन्ना सेठ की अनोखी घटना आँखों के सामने दिख आती है | चारित्र सुधार के
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पुस्तक अतीव लाभदायक हैं। दुर्जन और
विषय में यह सज्जन पुरुषों
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के संसर्गसे मनुष्य को क्या क्या लाभ और क्या क्या हानियां उठानी पड़ती हैं। इसी विषय पर कयवना के जीवन में अनेका नेक आश्चर्यजनक घटनायें हो गई हैं, जिसके पढ़ जाने से मनुष्य मात्र को, अपने आपे का ख्याल हो आता है। अगर आप अपने पुत्र को चारित्र सुधार की शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं, अगर आप अपने पुत्र को सदाचारी बनाना चाहते हैं, तो इस पुस्तक को अवश्य मैंगवाइये। मूल्य ॥) डाक खर्च अलग।,
रतिसार कुमार . इस पुस्तक में रतिसार कुमार का चरित्र अतीव सरल और सुन्दर भाषा में लिखा गया है। प्रत्येक नर नारी को इस पुस्तक को अवश्य देखना चाहिये। पुस्तक की छपाई सफाई बड़ी ही नयनाभिराम है चित्रों के कारण रतिसार कुमार का चरित्र अपनी आँखों के सामने दिख आता है । मूल्य ॥) डाक खर्च अलग। लीजिये! लीजिये। लीजिये ॥
'हिन्दी भाषामें छपा हुआ
ज्योतिषसार पुस्तक का विषय नाम से ही मालूम हो जाता है, जैसा नाम है, वैसा ही गुण है, ग्रन्थकर्ताने भी इस छोटीसी पुस्तक में सारे ज्योतिष शास्त्र का निचोड़ भर दिया है। अनुवादक ने भी
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एकदम नबीन शैली के अनुसार हिन्दी भाषा में खूब खुलासा कर दिया है, जिससे साधारण लिखा पढ़ा बालक भी बड़ी आसानी के साथ समझ सकता है।
भगर आप बिना गुरु के ज्योतिष का ज्ञान करना चाहते हैं, अगर आपको नये कारोबार, नये मकान बनवानेके, विदेश जानेके, देव प्रतिष्ठा, नई दीक्षा, आदि प्रत्येक शुभ कार्योंके मुहूर्त देखने हों तो आज ही “ज्योतिषसार" मंगवानेको आर्डर दीजिये।
बड़ी खूबीयह की गई है, कि इस पुस्तक में छाया लक्ष और शुभाशुभ योमों का वर्णन यंत्रों के साथ दिया गया है, जिससे देखने वाला बड़ी आसानी के साथ देख सकता है।
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पंडित काशीनाथ जैन
प्रिंटर पब्लिशर बुकसेलर नरसिंह प्रेस, .
२०१, हरीसन रोड, ( कलकत्ता )
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