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________________ आदिनाथ चरित्र ३३४ प्रथम पर्व काले साँपको थप्पड़ मारनेको तैयार हो, मैढ़ा जिस तरह अपने सीगों से हाथी को मारने की इच्छा करे और हाथी अपने दाँतोंसे पर्वत को ढाहने की चेष्टा करें; ठीक उसी तरह मन्दबुद्धि से मैं ने भी भरत चक्रवर्ती से युद्ध करने की इच्छा की !” ख़ैर, अभी तक कुछ भी नहीं बिगड़ा, यह निश्चय करके उसने अपने नौकरों को भेंटका सामान जुटाने की आज्ञा दी । फिर वाण और अपूर्व भेंटों को लेकर, वह उसी तरह चक्रवर्ती के पास जानेको तैयार, हुआ, जिस तरह इन्द्र वृषभध्वज के पास जाता है चक्रवर्ती के पास पहुँचकर और नमस्कार करके वह यों बोला :- हे पृथ्वी के इन्द्र ! इनकी तरह, आपके बाण द्वारा बुलाये जाने पर मैं आज यहाँ हाज़िर हुआ हूँ । आपके स्वयं पधारने पर भी, मैं सामने नहीं आया, मेरी मूर्खता के इस दोष को आप क्षमाकरें ! क्योंकि अज्ञता दोषको आच्छादन करती है; अर्थात् मूर्खता दोष को ढकती है । हे स्वामिन ! थका हुआ आदमी जिस तरह आश्रयस्थलरहने का स्थान पाता है और प्यासोंको जिस तरह जलपूर्ण सरोवर मिलता है; उसी तरह मुझ स्वामी रहित को आज आपके समान स्वामी मिला है। हे पृथ्वीनाथ ! समुद्र में जिस तरह वेलंधर पर्वत होते हैं, उसी तरह आज से मैं आपका नियता किया हुआ, आपकी मर्यादा में रहूँगा ।' यह कहकर भक्तिभावसे पूर्ण बरदामपति ने पहले की धरोहर रक्खी हो, इस तरह वह बाण वापस सौंपा। सूर्यकी कान्ति से गुथे हुए के जैसा और अपनी कान्ति से दिशाओं को प्रकाशित करने वाला एक रत्नमय
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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