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________________ प्रथम पर्व ३३५ आदिनाथ चरित्र कटिसूत्र या कमर में पहनने की कर्द्धनी तथा यश के समूह - जैसी बहुत दिनों की सञ्चित की हुई मोतियों की राशि उसने महाराज भरतको भेंट की इनके सिवा अपनी उज्ज्वल कान्ति से प्रकाशमान रत्नाकर - सागर के सर्व्वस्व जैसा रत्नों का ढेर भी महाराज को अर्पण किया। ये सब स्वीकार करके महाराज ने वरदापमति को अनुग्रहीत किया और उसे वहाँ अपने कीर्त्तिकर की तरह मुकर्रर किया। इसके बाद वरदामपतिको कृपापूर्वक बुलाकर विदा किया और विजयी महाराज स्वयं अपने कटक में पधारे । रथ में से उतर कर राजचन्द्रने परिजनोंके साथ अष्टम भक्त का पारणा किया और इसके बाद बरदाम पतिका अष्टान्हिक उत्सव किया । महात्मा लोग आत्मीय जनों को लोक में महत्व प्रदान करने के लिये मान देते हैं । प्रभास तीर्थ की ओर प्रयाण । प्रभास पति का अधिन होना । इसके पीछे, पराक्रममें मानो दूसरा इन्द्र हो, इस तरह चक्रवर्त्ती चक्र के पीछे-पीछे, पश्चिम दिशा में प्रभास तीर्थकी ओर चले | सेनाके चलने से उड़ी हुई धूल से पृथ्वी और आकाश के बीचले भाग को भरते हुए, कितने ही दिनों में वे, पश्चिम समुद्र के ऊपर आ पहुँचे। सुपारी, ताम्बूली और नारियलके वन से व्याप्त पश्चिम समुद्र के किनारे पर उन्होंने अपनी सेनाका पड़ाव किया। वहाँ प्रभासपतिके उद्देश से अष्टमभक्त व्रत किया और पहले की तरह पौषध
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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