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________________ प्रथम पर्व आदिनाथ चरित्र बाद उन्होंने चन्द्रिका समूहकी तरह निर्मल, गाढ़े और सुगन्धित गोशीर्ष-चन्दनके रससे उनका विलेपन किया तथा विचित्र रत्नोंके आभूषणों, चमकती हुई दिव्य मालाओं और देवदृष्य वस्त्रोंसे उनकी अर्चना की। घंटा बजाते हुए महाराजने उनको धूप दिखाया, जिससे उठते हुए धुएंकी कुण्डलीसे उस चैत्यको अन्तर्भाग नीलवल्लोसे अङ्कित किया हुआ मालूम पड़ने लगा। इसके बाद मानों संसार-रूपी शोत-कालसे भय पाये हुए लोगोंके लिये जलता हुआ अग्नि-कुण्ड हो, ऐसी कपूरको आरती उतारी। इस प्रकार पूजनकर, ऋषभस्वामीको नमस्कार कर,शोक और भयले आक्रान्त होकर, चक्रवर्तीने इस प्रकार स्तुति की,-"हे जगत्सुधाकर ! हे त्रिजगत्पति! पाँच कल्याणकोंसे नारकीयोंको भी सुख देनेवाले आपको मैं नमस्कार करता हूँ। हे स्वामिन् ! जैसे . सूर्य संसारका उपकार करनेके लिये भ्रमण करते रहते हैं, वैसेही आप भी जगत्के हितके लिये सर्वत्र विहार करते हुए चराचरजीवोंको अनुगृहीत कर चुके हैं। आर्य और अनाये, दोनों पर आपकी प्रीति थी, इसीलिये आप चिरकाल विहार करते फिरे । अतएव आपकी और पवनकी गति परोपकारके ही लिये हैं। है प्रभु! इस लोकमें तो आप मनुष्योंके उपकारके लिये सदा विहार करते रहे ; पर मोक्षमें आप किसका उपकार करनेके लिये गये हैं ? आपने जिस लोकान (मोक्ष) को अपनाया है, वह आज सचमुच लाकान ( सब लोकोंसे बढ़कर ) हो गया और आपसे छोड़ दिया हुआ यह मयं लोक सचमुच मर्त्यलोक (मृत्यु पाने योग्य)
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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