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________________ आदिनाथ-चरित्र प्रथम : पर्व प्रभुने कहा, – “इन्द्र - सम्बन्धी, चक्री सम्बन्धो, राजा-सम्बन्धी, गृहस्थ-सम्बन्धी और साधु-सम्बन्धी - ये पाँच प्रकारके अवग्रह होते हैं । ये अवग्रह उत्तरोत्तर पूर्व पूर्वको बाधा देते हैं। इनमें पूर्वोक्त और परोक्त विधियोंमें पूर्वोक्तही बलवान् है ।" इन्द्र ने कहा, - "हे देव ! जो साधु 'मेरे अवग्रहमें विहार करते हैं, उन्हें मैंने अपने अवग्रहके लिये आज्ञा दे रखी है ।" यह कह, इन्द्र प्रभुके चरणकमलोंकी वन्दना कर खड़े हो रहे । यह सुन भरतराजाने पुनः विचार किया, – “यद्यपि इन मुनियोंने मेरे लाये हुए अन्नादिको स्वीकार नहीं किया, तथापि अवग्रहके अनुग्रहकी आज्ञासे तो आज कृतार्थ हो जाऊँ !” ऐसा विचार कर, श्रेष्ठ हृदयवाले चक्रवतीने इन्द्र की तरह प्रभुके चरणोंके पास पहुँचकर अपने अवग्रहकी आज्ञा दी । तदनन्तर अपने सहधर्मी ( सामान्य धर्मबन्धु ) इन्द्रसे पूछा – “अब मैं यहाँ लाये हुए अपने अन्न-जल आदिको कौनसी व्यवस्था करूँ ?” - इन्द्रने कहा, "वह सब गुणोंमें बढ़े- चढ़े हुए पुरुषोंको दे डालो ।” भरतने विचार किया, “साधुओंके सिवाय विशेष गुणवान् पुरुष और कौन होगा ? अच्छा, अब मुझे मालूम हुआ । देश - विरतिके समान श्रावक विशेष गुणोत्तर हैं, इसलिये यह सब उन्हीं को अर्पण कर देना चाहिये ।” यही निश्चय कर, भरत चक्रवत्तींने स्वर्गपति इन्द्रके प्रकाशमान और मनोहर आकृतिवाले रूपको देख, विस्मित होकर उनसे . ५०२ -
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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