SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व ५०१ आदिनाथ चरित्र की है। अतएव संसारको असारताको जानते हुए ये लोग वमन किये हुए अनकी तरह त्याग किये हुए भोगको फिर नहीं ग्रहण कर सकते ।” 44 ७ जब प्रभुने इस प्रकार भोगसम्बन्धी उनके आमन्त्रणका निषेध किया, तब फिर पश्चात्ताप युक्त होकर चक्रवर्तीने विचार किया, - यदि मेरे ये सर्व-सङ्ग-विहीन भाई कदापि भोगका संग्रह नहीं कर सकते, तो भी प्राण धारणके लिये आहार तो करेंगे ही ? ऐसा विचारकर उन्होंने ५०० गाड़ियों में भरकर आहार मँगवाया और अपने छोटे भाइयोंसे फिर पहले की तरह उन्हें स्वीकार कर लेने को कहा। इसके उत्तर में प्रभुने कहा, "हे भरतपति ! यह आधाकर्मी* आहार यतियों के योग्य नहीं है ।" प्रभुने जब इस प्रकार निषेध किया । तब उन्होंने अकृत और अकारित | अन्नके लिये उन्हें निमन्त्रण दिया ; क्योंकि सरलता में सब कुछ शोभा देता है। उस समय "हे राजेन्द्र ! मुनियाँको राजपिण्ड नहीं चाहिये ।" यह कह कर धर्म- चक्रवतीने फिर मना कर दिया। तब ऐसा विचारकर, कि प्रभुने तो मुझे सब प्रकार से निषेधही कर दिया, महाराज भरत पश्चात्तापके कारण राहुग्रस्तचन्द्रमा की भांति दुःखित होगये । उनको इसप्रकार उदास होते देखकर इन्द्रने प्रभुसे पूछा, "हे स्वामी ! अवग्रह | कितने तरहका होता है ? * मुनियोंके लिये तैयार किया हुआ । + मुनिके लिये नहीं किया हुआ और नहीं कराया हुआ । * रहने और विचरनेके स्थानके लिये जो आज्ञा लेनी पड़ती है, उसे अवग्रह कहते हैं ।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy