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________________ आदिनाथ-चरित्र प्रथम पर्व यदि मैं भाईचारेके नाते भी उनकी सेवा करूं, तो लोग उसे चक्रवर्तीके ही नाते की हुई सेवा समझेगे; क्योंकि लोगोंके मुंह पर कौन हाथ रख सकता है ? मैं उनका निर्भय भाई हूँ और वे आज्ञा करने योग्य हैं ; पर इसमें जातिपनके स्नेहका क्या काम है ? एक जाति ऐसे वज्रसे क्या वज्रका भी विदारण नहीं हो जाता ? सुर, असुर और मनुष्योंकी उपासनासे वे भले ही प्रसन्न हों; पर उससे मेरा क्या आता-जाता है ? सजा-सजाया रथ भी ठीक रास्ते में हो चलनेको समर्थ होता है, टेढ़े-मेढ़े रास्तेमें तो गिर कर चूर-चूर ही हो जाता हैं। इन्द्र पिताजीके भक्त हैं, इस. लिये यदि उन्होंने उनका ज्येष्ठ पुत्र समझ कर भरतराजको अपने आधे आसन पर बैठाया, तो इससे वे इतना अभिमान क्यों करते हैं? इस भरतरूपी समुद्र में और-और राजा भले ही सैन्य-सहित सत्तूकी पिण्डियों की तरह समा जायें; पर मैं तो बड़वानल हूँ और अपने तेजके कारण दुस्सह भी हूँ। जिस तरह सूर्यके तेजके आगे और सबका तेज छिप जाता है, उसी तरह राजा भरत अपने समस्त हाथी-घोड़े, पैदल और सेनापतियोंके साथ मेरे सामने झेप जायेंगे। लड़कपन ही में मैंने हाथीकी तरह उन्हें पैरोंसे दबा कर, हाथसे उठा कर मिट्टीके ढेलेकी तरह आसमानमें उछाल दिया था। आसमानमें बहुत ऊँचे जाकर जब वे नीचे गिरने लगे, तब मैंने यही सोचकर उन्हें फूल की तरह स्वयंअपने ऊपर ले लिया, कि कहीं उनके प्राण न चले जायें; परन्तु अब मालूम होता है, कि वे वाचाल हो गये हैं और हारे हुए राजाओंकी खुशामद भरी बातों
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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