SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिनाथ-चरित्र प्रथम पर्व अग्रणी और महा बुद्धिमान् महाराजने छड़ीदार द्वारा सेवक पुरुषोंको बुलवा कर हुक्म दिया-“ हे अधिकारी पुरुषों ! तुम हाथी पर बैठ और सब जगह घूम घूम कर इस विनीता नगरी को बारह बरसके लिए किसी भी प्रकारको जकात-चुंगी, महसूल, कर, दण्ड, कुदण्ड और भयसे रहित कर सुखी करो।" अधिकारियोंने तत्काल उसी तरह उद्घोषण कर, ढिंढोरा पीट, महाराजके हुक्मकी तामील की। कार्यसिद्धिमें चक्रवर्तीकी आज्ञा पन्द्रहवाँ रत्न है। इसके बाद महाराजा रत्नमय सिंहासनसे उठे। उनके साथ उनके प्रतिबिम्बकी तरह और सब लोग भी उठे। पर्वतके जैसीस्नान-पीठ परसे भरतेश्वर अपने आनेके मार्गसे नीचे उतरे। साथ ही और लोग भी अपने अपने रास्तेसे उतरे। फिर मानों अपना असह्य प्रताप हो, ऐसे उत्तम हाथी पर बैठ चक्रवर्ती अपने महलमें पधारे। वहाँ स्नानघर या गुशलखानेमें जाकर, निर्मल जलसे स्नान कर उन्होंने अष्टम भक्तका पारणा किया। इस तरह बारह वर्षमें अभिषेकोत्सव समाप्त हुआ। तब चक्रवतीने स्नान, पूजा, प्रायश्चित्त और कौतुक मंगल कर, बाहरके सभास्थानमें आ, सोलह हज़ार आत्मरक्षक देवोंका सत्कार कर उनको बिदा किया। फिर विमानमें रहने वाले इन्द्रकी तरह महाराजा अपने उत्तम महलमें रह कर विषय-सुख भोगने लगे। ___महाराजकी आयुधशाला या अस्त्रागारमें चक्र, छत्र, खङ्ग और दण्ड-ये चार एकेन्द्रिय रत्न थे। जैसे रोहणाचलमें माणिक्य भरे रहते हैं, वैसेहो उनके लक्ष्मीगृहमें कांकिणीरत्न, चर्म
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy