SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व ४५१ आदिनाथ-चारत्र बड़ेको वैसा ही आचरण भी करना चाहिये। भाइयोंको राज्य से दूर करके उन्होंने अपना बड़प्पन भली भांति दिखला दिया हैं । जैसे कोई धोखेसे पीतलको सोना और काँचको मणि समझ ले, वैसेही मैं भी अबतक म्रममें पड़ा हुआ उन्हें बड़ा समझ रहा था। . यदि पिता अथवा वंशके किसी अन्य पूर्व-पुरुषने किसीको पृथ्वी दान की हो, तो जबतक वह कोई अपराध नहीं करता, तबतक कोई अल्प राज्यवाला राजा भी. उससे बह दानकी हुई पृथ्वी वापिस नहीं लेता। फिर भरतने भाइयोंके राज्य क्यों छीन लिये ? छोटे भाइयोंका राज्य हरण कर निश्चय ही वे लजित नहीं हुए, इसीसे तो अबके मेरे राज्यको जीत लेनेकी इच्छासे मुझे भी बुला रहे हैं। जेसे नौका समुद्र पार करके किनारे आ लगते.न-लगते किसी पर्वतसे टकरा जाती है, वैसे ही सारे भरतक्षेत्रको जीतने बाद ये मेरे साथ टक्कर लेने आये हैं। लोभी, मर्यादाहीन और राक्षसके समान निर्दय भरतराजको जब मेरे छोटे भाइयोंने ही शर्मके मारे अपना प्रभु नहीं माना, तब मैं ही उनके किस गुणपर रीझ कर उनके वशमें हो जाऊँ ? हे देवताओ! आप लोग सभा. सदोंकी तरह मध्यस्थ होकर विचार करें। यदि भरतराज अपने पराक्रमसे मुझे वशमें कर लेना चाहते हैं, तो भले ही कर देखें, क्योंकि यह तो क्षत्रियोंका स्वाधीन मार्ग ही है। लेकिन इतने पर भी यदि वे समझ बूझ कर पीछे लौट जायें, तो बड़े मजेसे जा सकते हैं। मैं उनकी तरह लोभी नहीं हूँ, कि उनके पीछे लौटनेकी राहमें अडङ्गा लगाऊँ। आप जो यह कह रहे हैं, कि
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy