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________________ आदिनाथ- चरित्र ४५२ प्रथम पर्व उनके दिये हुए भरत क्षेत्रोंको भोगिये - सो क्या यह भी कहीं हो सकता है ? सिंह भी कभी किसीका दिया हुआ खाता है ? नहीं— हर्गिज़ नहीं। उन्हें तो भरत क्षेत्र पर विजय प्राप्त करने में साठ हजार बर्ष लग गये, पर मैं यदि चाहूँ, तो बातकी बात में ले लूँ । परन्तु उनके इतने दिनों के परिश्रमसे प्राप्त किये हुए समस्त भरत क्षेत्रके वैभवको धनवान्‌के धनकी तरह मैं भाई होकर भी कैसे छीन लूँ ? जैसे चमेलीके फूल तथा जायफल खाने से हाथी मदान्ध हो जाता है, वैसेही यदि वे वैभव पाकर अन्धे हो गये हों, तो सच जानिये, उन्हें सुख की नींद नसीब नहीं होगी। मैं तो उस वैभवको नष्ट हो गया हुआ ही समझ रहा हूँ अपनी ; पर उसपर वार नहीं टपकती, इसीलिये उसकी उपेक्षा कर रहा हूँ । इस समय मानों अपनी जमानत देनेके ही लिये वे अपने अमात्यों, भण्डारों, हाथियों, घोड़ों और यशको लिये हुए उन्हें मेरी नज़र करने आये हैं । इसलिये हे देवताओं ! यदि आप लोग उनकी भलाई चाहते हों, तो उन्हें युद्ध करनेसे रोकिये। यदि वे लड़ाई न करेंगे तो मैं भी नहीं लडूंगा ।” मेघ गर्जनकी तरह उनके इन उत्कट वचनों को सुनकर विस्मित हो, देवताओंने उनसे फिर कहा, "एक ओर चक्रवर्ती अपने युद्ध करनेका कारण यह बतलाते हैं, कि उनके नगर में चक्र नहीं प्रवेश करता; इसलिये उनके गुरु भी निरुत्तर हो जाते हैं और उन्हें रोकने में असमर्थ हैं। इधर आप कहते हैं, कि मैं तो उसीके साथ युद्ध करने जा रहा हूँ, जिसके साथ युद्ध करना
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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