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________________ प्रथम पर्व .४६५ आदिनाथ चरित्र खड़ी रहीं और उनके पीछे उन्हींकी सी साध्वियोंका समूह खड़ा था। भुवनपति, ज्योतिषी और व्यन्तरोंकी स्त्रियाँ, दक्षिण-द्वार से प्रवेश कर, पूर्व विधिके अनुसार प्रदक्षिणा और नमस्कार कर, नैऋत-दिशामें बैठी और इन तीनों श्रेणियोंके देव, पश्चिम द्वारसे प्रवेश कर, उसी प्रकार नमस्कार कर क्रमसे वायव्य दि. शामें बैठे। इस प्रकार प्रभुको समवसरणमें आया हुआ जान कर, अपने विमानोंके समूहसे आकाशको आच्छादित करते हुए 'इन्द्र वहाँ तत्काल आ पहुंचे। उत्तर द्वारसे समवसरणमें प्रवेश कर, स्वामीको तीन प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर, भक्तिमान इन्द्र इस प्रकार स्तुति करने लगे,– “हे भगवन् ! जब बड़े-बड़े योगी भी आपके गुणोंको ठीक-ठीक नहीं जानते, तब आपके उन स्तुति योग्य गुणोंका मैं नित्य-प्रमादी होकर कैसे बखान कऊँ ? तो भी हे नाथ ! मैं यथाशक्ति आपके गुणोंका बखान करूँगा ; क्योंकि लँगड़ा आदमी भी लम्बी मंज़िल मारनेके लिये तैयार हो जाये, तो उसे कोई रोक थोड़े ही सकता है ? हे प्रभो! इस संसाररूपी आतापके तापसे परवश बने हुए प्राणियोंको आपके चरणोंकी छाया, छत्रछायाका काम देती है, इसलिये आप मेरी रक्षा करें। हे नाथ ! सूर्य जैसे केवल 'परोपकारके ही लिये उदय होता है, बैसेही केवल लोकोपकारके ही लिये आप विहार करते हैं, इस लिये धन्य हैं। मध्याह्न-कालके सूर्यकी तरह आप प्रभुके प्रकट होनेपर देहकी छायाकी भाँति प्राणियोंके कर्म चारों ओरसे संकुचित हो जाते हैं। जो सदा आपके दर्शन करते रहते हैं, वे पशु
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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