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________________ आदिनाथ-चरित्र प्रथम पत्र है और उस सन्देहको दूर भी करते हैं। बड़ी ऋद्धि वाले और कान्तिसे प्रकाशमान देवता जो स्वर्गमें रहते हैं, वह आपकी भक्तिके लेशमातृका फल है। जिस तरह मूल्को ग्रन्थका अभ्यास क्लेशके लिये होता है, उसी तरह आपकी भक्ति बिना वोर तप भी मनुष्योंको कोरी मिहनतके लिये होता है ; अर्थात् आपकी भक्ति बिना घोर तपश्चर्या वृथा कष्ट देने वाली है। आपकी भक्ति ही सर्वोपरि है। हे प्रभो ! जो आपकी स्तुति करते है, जो आपमें श्रद्धा-भक्ति रखते हैं और जो आपसे द्वेष रखते हैं, उन दोनोंको ही आप समदृष्टि या एक नज़रसे देखते हैं, परन्तु उनको शुभ और अशुभ-बुरा और भला फल अलग-अलग मिलता है ; इसलिये हमें आश्चर्य होता है। हे नाथ ! मुझे स्वर्गकी लक्ष्मीसे भी सन्तोष नहीं है-मेरी तृष्णाकी सीमा नहीं है; अतः मैं विनीत भावसे प्रार्थना करता हूँ, कि आपमें मेरी अक्षय और अपार भक्ति हो ।” इस प्रकार स्तुति और नमस्कार कर, इन्द्र स्त्री, मनुष्य, नरदेव और देवताओंके अगले भागमें अञ्जलि जोड़ कर बैठ गया। मरुदेवा माता का विलाप । भरत का समाधान । इधर तो यह हो रहा था ; उधर अयोध्या नगरीमें विनयी भरत चक्रवर्ती, प्रातः समय, मरूदेवा माताको प्रणाम करनेको गया। अपने पुत्रकी जुदाईके कारण, अविश्रान्त आँसुओंकी धारा गिरने
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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