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________________ प्रथम पर्व २६१ आदिनाथ चरित्र व्यन्तर देवता पच्छम दिशाके दरवाज़ेसे घुस, नमस्कार कर, परिक्रमा दे, वायव्य कोण में बैठ गये । वैमानिक देवता, मनुष्य और मनुष्यों की स्त्रियाँ उत्तर दिशाके द्वारसे घुस पहले आने वालों की तरह नमस्कारादि कर ईशान दिशामें बैठगये । वहाँ पहले आये हुए अल्प ऋद्धिवाले, जो बड़ी ऋद्धि वाले आते उनको नमस्कार करते थे । और आने वाले पहले आये हुओं को नमस्कार करके आगे बढ़ जाते थे प्रभु के समवसरण में किसी को रोकटोक नहीं थी; किसी तरह की विकथा नहीं थी । बैरियों में भी आपसका वैर नहीं था और किसी को किसी का भय न था दूसरे गढ़में आकर तिर्यञ्च बैठे और तीसरे गढ़में सब आने वालों के वाहन या सवारियाँ थीं। तीसरे गढ़ के बाहरी हिस्से में कितनेही तिर्यञ्च, मनुष्य और देवता आते जाते दिखाई देते थे । इस प्रकार समवसरण की रचना हो जाने पर, सौधर्म कल्पका इन्द्र हाथ जोड़ नमस्कार कर इस तरह स्तुति करने लगा - "हे स्वामी ! कहाँ में बुद्धिका दरिद्र और कहाँ आप गुणोंके गिरिराज ? तथापि भक्ति से अत्यन्त वाचाल हुआ मैं आपकी स्तुति करता हूँ । हे जगत्पति जिस तरह रत्नोंसे रत्नाकर - सागर शोभा पाता है; उसी तरह आप एकही अनन्त ज्ञान दर्शन और वीर्य - आनन्दले शोभा पाते हैं, हे देव ! इस भरतक्षेत्र में बहुत समय से नष्ट हुए धर्म-वृक्षको फिर पैदा करनेमें आप वीजके समान हैं। हे प्रभो ! आपके महात्म्य की कुछ भी अवधि नहीं; क्योंकि अपने स्थानमें रहने वाले अनुत्तर विमानके देवताओंके सन्देहको आप यहींसे जानते
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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