SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिनाथ-चरित्र ३१० प्रथम पर्व रक्षाकरो! रक्षाकरो! पिता, भाई, भतीजे.एवं अन्य स्वजननातेदार, जो इस संसार-भ्रमण के एक हेतु रुप हैं, और इसी से अहितकारी या अनिष्ट करने वाले हो रहे हैं, उनकी क्या ज़रुरत है ? हे जगत्शरण्य ! हे संसार-सागर से तारनेवाले-पार लगाने वाले ! मैंने तो आपका आश्रय ले लिया है, आपकी शरण में आगया हूँ। इसलिये मुझे दीक्षा दीजिये ओर मुझ पर प्रसन्न होइये। इस प्रकार कहकर ऋषभसेन ने भरत के अन्य पाँचसौ पुत्र और सात सौ पौत्रों के साथ व्रत ग्रहण किया। सुर-असुरों द्वारा की हुई प्रभुके केवल ज्ञान की महिमा देखकर, भरतके पुत्र मरीचि ने भी व्रत ग्रहण किया। भरत के आज्ञा देने से ब्राह्मी ने भी व्रत ग्रहण किया ; क्योंकि लघुकर्म करने वाले जीवों को बहुत करके गुरुका उपदेश साक्षी मात्र ही है। बाहुबलि से मुक्त की गई सुन्दरी भी व्रत ग्रहण करने की आकांक्षा रखती थी; पर जब भरत ने निषेध किया-व्रत ग्रहण करने की मनाही की, तब वह पहली श्राविका हुई। भरतने प्रभुके समीप श्रावकपना अंगीकार किया; यानी उसने श्रावक होनेका व्रत अङ्गीकार किया; क्योंकि भोग कर्मोंके भोगे बिना व्रत या चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। मनुष्य तिर्यञ्च, और देवताओं की मण्डलियों में से किसी ने व्रत ग्रहण किया, किसीने श्रावकपना अङ्गीकार किया, और किसीने सम. कित धारण किया। पहले के राजतपस्वियों में से कच्छ और महाकच्छके सिवा और सभीने स्वामीके पास आकर फिर खुशी से दीक्षा ग्रहणकी। ऋषभसेन-पुण्डरीक प्रभृति साधुओं, ब्राह्मी
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy