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________________ आदिनाथ-चरित्र प्रथम पर्व । साथ ही यह - अभिमानमें चूर होकर तीनों लोकको तृण समान जानते हैं और सिंहकी तरह किसीको अपनी बराबरीका वीर नहीं मानते । मैंने जब आपके सेनापति सुषेण और आपकी सेनाका वर्णन किया, तब उन्होंने उसी तरह नाक साकोड ली, जैसे दुर्गंधकी महंक पाकर आदमी नाक सिकोड़ लेता है भी कहा, कि ये किस गिनतोमें है ? जब आपकी षट्खण्ड विजयका मैंने वर्णन किया, तब उन्होंने उसे अनसुना सा कर, अपने भुजदण्डको देखते हुए कहा, – “मैं अपने पिताके दिये हुये राज्य से हो सन्तुष्ट हूँ, इसीलिये मेरी उपेक्षाके हो कारण भरत भरत क्षेत्रके छहों खण्डों को पा सके हैं ।” सेवा करनी तो दूर रही, अभी तो वे निर्भयताके साथ आपको रणके लिये बुलावा दे रहे हैं, जैसे कोई सिंहनीको दूहनेके लिये बुलाये आपके भाई ऐस े पराक्रमी, मानी और महाभुज हैं, कि वे गन्धहस्तीकी तरह असा और पराये पराक्रमको नहीं सहन करनेवाले हैं । इन्द्रके सामानिक देवताओंकी तरह उनकी सभा में बड़े प्रचण्ड पराक्रमी सामन्तराजा हैं; इसलिये वे न्यून आशयवाले भी नहीं हैं उनके राजकुमार भी अपने राजतेज के कारण अत्यन्त अभिमानी हैं । युद्ध के लिये उनकी बाँहोंमें खुजली पैदा हो रही है, इसी लिये वे बाहुबली से दसगुने पराक्रमी मालूम पड़ते हैं। उनके अभिमानी मन्त्री भी उन्हींके विचारोंके अनुसार चलते हैं; क्योंकि जैसा स्वामी होता है, वैसाही उसका परिवार भी होता है । सती स्त्रियाँ जैसे पराये पुरुषको नहीं देखतीं, वैसेही उनकी प्रजा 1 ४२४
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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