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________________ आदिनाथ-चरित्र २१० प्रथम पर्व mmmm तायें शोभती थीं । उसका तीन रेखाओंवाला कंठ शंखके विलासको हरण करता था। वह अपने ओठोंसे पके हुए बिम्बाफलकी कान्ति का पराभव करती थी। वह अधर रूपी सीपीके अन्दर रहनेवाले दाँत रूपी मोतियों तथा नेत्ररूपी कमल की नाल जैसी नाकसे अतीव मनोहर लगती थी। उसके दोनों गाल ललाटकी स्पर्धा करनेवाले, अर्द्धचन्द्र की शोभा कोचुरानेवाले थे और मुखकमलमें लीन हुए भौंरोंके जैसे उसके सुन्दर बाल थे। सर्वाङ्गसुन्दरी और पुण्य-लावण्य रूपी अमृतकी नदी सी वह बाला वनदेवी की तरह जंगल में घूमती हुई वनको जगमगा रही थी। उस अकेली मुग्धाको देख, कितनेही युगलिये किंकर्त्तव्य विमूढ़, हो नाभिराजाके पास ले आथे। श्री नाभिराजाने " यह ऋषभ की धर्मपत्नी हो,” ऐसा कहकर,नेत्ररूपी कुमुद को चाँदनीके समान उस बाला को स्वीकार किया। सौधर्मेन्द्रका पुनरागमन । भगवान् से विवाह की प्रार्थना करना । इसके बाद, एकदिन सौधर्मेन्द्र प्रभुके विवाह समय को अवधिज्ञानसे जानकर वहाँ आया और जगत्पतिके चरणोंमें प्रणाम कर, प्यादे की तरह सामने खड़ा हो, हाथ जोड़ कहने लगा-“हे नाथ ! जो अज्ञानी आदमी ज्ञानके ख़ज़ाने-स्वरूप प्रभुको अपने विचार या बुद्धिसे किसी काम में लगाता है, वह उपहास का पात्र होता है। लेकिन स्वामी जिनको सदा मिहरबानी की
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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