SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिनाथ- चरित्र ११४ वज्रनाभ चक्रवर्ती का वर्णन । वज्रसेन भगवान का श्रागमन । प्रथम पर्व वज्रनाभ को वैराग्य 1 अब वज्रसेन भगवान् को, आत्मा के ज्ञानादि गुणों को नष्ट करने वाले घाति कर्म रूपी मल के नाश होने से, दर्पण के ऊपर का मैल नाश होने से जिसतरह दर्पण में उज्ज्वलता होती हैं, उसी तरह उज्ज्वल ज्ञान उत्पन्न हुआ । उसी समय वज्रनाभ राजा की आयुधशाला अथवा अस्त्रागार में, सूर्यका भी तिरस्कार करनेवाले, प्रभाकर की प्रभा को भी नीचा दिखानेवाले, चक्रने प्रवेश किया। और तेरह रत्न भी उन को उसी समय मिल गये । जल के प्रमाण से जिस तरह पद्मिनी ऊँची होती है; उसी तरह सम्पत्ति भी पुण्य के प्रमाण से मिलती है । जल जितना ही ऊँचा होता है, कमलिनी भी उतनीही ऊँची होती है । पुण्य जितना ही अधिक होता है; सम्पत्ति भी उतनी ही अधिक मिलती है । पुण्य जितना ही कम होता है; सम्पत्ति भी उतनी ही कम मिलती है । सुगन्ध से खींचे गये भौरों की तरह ; प्रबल पुण्यों से खींची हुई निधियाँ उस के घर की टहल करने लगीं ; अर्थात् पुण्यबल से नौ निधियाँ उसके घर में रहने लगीं । * श्रात्मा के ज्ञानादि गुणो को घात करने या नष्ठ करने वाले, ज्ञानावरणी । दर्शनावरणी, मोहनी अन्तराय, – ये चार कर्म धाति कर्म कहलाते हैं ।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy