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________________ आदिनाथ-चरित्र २६४ प्रथम पर्व बसाये, उस देशका उन्होंने वही नाम रक्खा। इन सब मगरों में, हृदय की तरह, सभाके अन्दर नमि और विनमि ने नाभिमन्दन की मूर्ति स्थापित की। विद्याधर विद्या से दुर्मद होकर दुविनीत न हो जाय, अर्थात् विद्यासेमत वाले होकर उद्धण्ड और उच्छल न हो जाय इसलिये धरणेन्द्र ने ऐसी मर्यादा स्थापन की—'जो दुर्मद वाले पुरुष-जिनेश्वर, जिन चैत्य, चरमशरीरी, और कायोत्सर्गमें रहने वाले किसी भी मुनिका पराभव या उल्लङ्घन करेंगे, उन्हें विद्याएँ उसी तरह त्याग देंगी, जिस तरह आलसी पुरुषको लक्ष्मी त्याग देती है। जो विद्याधर किसी स्त्री के पति को मार डालेगा और स्त्री के बिना मरज़ी के उसके साथ भोग करेगा, उसको भी विद्यायें तत्काल छोड़ देंगी' । नागराजने ये मर्यादा ज़ोर से सुनाकर, वह यावत् चन्द्र रहें; यानी जब तक चन्द्रमारहे तब तक रहें, इस ग़रज़ से उन्हें रत्नभित्ति की प्रशस्ति में लिख दी। इस के बाद नमि और विनमि दोनों विद्याधरों का राजत्व प्रसाद सहित स्थापन कर एवं और कई व्यवस्थाएँ करके नागपति अन्तर्धान होगये।। .. नमि विनमि की राज्य स्थिति। :: अपनी अपनी विद्याओं के नामसे विद्याधरों के सोलह निकाय या जातियाँ हुई। उन में गौरी विद्या से गौरेय हुए। मनु विद्या से मनु हुए, गान्धार विद्यासे गान्धार हुए; मानवी से मानव हुए, कौशिकी विद्यासे कौशिकी पूर्व हुए; भूमितुण्ड विद्यासे भूमि
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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