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________________ प्रथम पर्व २६५ आदिनाथ-चरित्र तुण्ढक हुए ; मूलवीर्य्य विद्यासे मूलविय्येक हुथे, शंकुका विद्यासे शंकुक हुए, पाण्डुकी विद्यासे पाण्डुक हुए, काली विद्यासे कालिकेय हुए, श्वपाकी विद्यासे श्वपाक हुए, मातंगी से मातंग हुए वंशालया से वंशालय हुए, पांसुमूल विद्यासे पांसुमूलक हुए और वृक्षमूल विद्यासे वृक्षमूलक हुए। इन सोलह जातियों के दो विभाग करके नमि और विनमि राजाओंने आठ आठ भाग ले लिये। अपने अपने निकाय या जाति में अपनी कायाकी तरह भक्ति से विद्याधिपति देवताओं की स्थापना की। नित्य ही ऋषभ स्वामी की मूर्ति की पूजा करने वाले वे लोग धर्म में बाधा न पहुँचे, इस तरह कालक्षेप करते हुए देवताओं की तरह भोग भोगने लगे। किसी किसी समय वे दोनों मानो दूसरे इन्द्र और ईशानेन्द्र हों इस तरह जम्बूद्वीप की जगति के जालेके कटक में स्त्रियों को लेकर क्रीड़ा करते थे। किसी किसी समय मेरु पर्वत पर नन्दन आदिक बनों में, हवा की तरह, अपनी इच्छानुसार आनन्द पूर्वक विहार करते थे। किसी समय श्रावक की सम्पत्ति का यही फल है, ऐसा धार कर, नन्दीश्वरादि तीर्थों में शाश्वत प्रतिमा की अर्चना करनेके लिए जाते थे। किसी वक्त विदेहादिक क्षेत्रोंमें, श्री अर्हन्त के समवसरण के अन्दर :जाकर, प्रभु के वाणी रूप अमृत का पान करते थे और हिरन जिस तरह कान ऊँचे करके संगीत ध्वनि सुना करते हैं, उसी तरह कभी कभी वे चारण मुनियों से धर्म-देशना या धर्मोपदेश सुनते थे। समकित और अक्षीण भण्डार को धारण करनेवाले वे दोनों
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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