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________________ प्रथम पर्व ४४५ आदिनाथ - चरित्र का जो, एक ही शरीर की दो भुजाओंके समान हैं, परस्पर संघर्ष क्यों हो रहा है ?” ऐसा बिचार कर उन्होंने दोनों ओर के सैनिकों को पुकार -पुकार कर कहा.- "देखो जब तक हम लोग दोनों ओरके मनस्वी स्वामियों को समझाते हैं, तब तक तुममेंसे भी कोई युद्ध न करे, ऐसी ऋषभदेवजी की आज्ञा है ।" देवताओंने जब इस प्रकार तीन लोकोंके स्वामीकी आज्ञा सुनायी, तब दोनों ओर के सैनिक चित्र-लिखे से चुप चाप खड़े हो गये और यही विचार करने लगे, किये देवता बाहुबलीके पक्ष में हैं या भरतराजके । काम भी बिगड़े और लोक कल्याण भी हो जाये, इसी विचार से देवतागण पहले चक्रवतोंके पास आये । वहाँ पहुचते ही 'जय जय' शब्दले आशीर्बाद करते हुए प्रियवादी देवताओंने मंत्रि योंके समान इस प्रकार युक्तिपूर्ण बातें कहनी आरम्भ की; "हे नरदेव ! इन्द्र जैसे दैत्योंको जीतते हैं, वैसे ही आपने छओं खण्ड़ भरत क्षेत्रके सब राजाओंको जीत लिया, यह बहुत ही अच्छा किया, हे राजेन्द्र ! पराक्रम और तेजके कारण सम्पूर्ण राजरूपी मृगोंमें आप शरभके तुल्य हैं- आपका प्रतिस्पर्द्धा कोई नहीं है । जलकुम्भका मथन करनेसे जैसे मक्खनकी साध नहीं मिटती, वैसे ही आपकी युद्धकी साध आजतक नहीं मिटी, इसलिये आपने अपने भाईके साथ लड़ाई छेड़ दी है; परन्तु आपका यह काम अपने ही हाथसे अपने दूसरे हाथको घायल करने के समान है जैसे 1 बड़ा हाथी बड़े वृक्षमें अपना गण्डस्थल घिसता है, उसका कारण उसकी खुजली है, वैसे ही भाईके साथ आपके
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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