SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 489
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिनाथ-चरित्र ४४४ प्रथम पर्व डालते थे। वे वीरगण अपने पैरोंकी धूलसे अन्धकारको आच्छादित कर रहे थे और चमकते हुए हथियारोंसे चारों ओर प्रकाश फैला रहे थे। अपने भारी बोझसे वे कर्मकी पीठको भी क्लेश पहुँचा रहे थे, महावराहको ऊँची डाढ़ों को भी झुका रहे थे और शेषनागके फनके फैलावको भी शिथिल कर रहे थे। वे ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों सारे दिग्गजोंको कूबड़ बनाये डालते हो और सिंहनादसे ब्रह्माण्डरूपी पात्रको खूब ऊँचे स्वर से शब्दायमान कर रहे हों। साथ ही वे ऐसे मालूम पड़ते थे, मानो केराघात मात्रसे ही वे सारे ब्रह्माण्डको फोड़ डालेंगे। प्रसिद्धध्वजाओंके चिह्न से पहचानकर पराक्रमी शत्रुओंके नाम ले-लेकर उनका वर्णन करते हुए उन्हींकेसे शौर्यशाली वीर उन्हें युद्ध के लिये ललकार रहे थे। इस तरह दोनों सैन्योंके अग्रवीर एक दूसरे से भिड़ गये। फिरतो जैसे मगरके ऊपर मगर टूट पड़ता है, वैसे हो हाथी वालेके सामन हाथीवाला आ गया । तरङ्गके ऊपर जैसे तरङ्ग आपड़ती है,वैसेही घुड़सवार घुड़सवारके सामने आ डटा । वायुके साथ जैसे वायु टकराती है,वैसेहो रथीके साथ रथ की टक्कर हो गयी, ओर पर्वतके साथ जैसे पर्वत आ मिला हो, वैसे ही पैदलके साथ पैदलकी भिड़न्त हो गयी। इसी प्रकार सब वीर भाला, तलवार, मुद्गर और दण्ड आदि आयुधोंको परस्पर मिालकर क्रोधयुक्त हो एक दूसरेके निकट आये। इतनेमें त्रैलोक्यके नाशकी आशङ्कासे भयभीत हो, देवतागण आकाशमें आ इकट्ठा हुए। "अरे इन दोनों ऋषभपुत्रों
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy