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________________ आदिनाथ- चरित्र प्रथम पर्व गये, तबसे यह सुन्दरी केवल प्राणरक्षणके निमित्त आम्बिल तप कर रही है I आपने इसे दीक्षा लेनेको मना कर दिया था, इसीलिये यह भावदीक्षित होकर रहती आयी है ।" ३६० यह सुन, राजाने सुन्दरीकी ओर देखकर पूछा, "हे कल्याणी ! क्या तुम दीक्षा लेना चाहती हो ? " 66 सुन्दरीने कहा, ai!" - यह सुन, भरतरायने कहा, – “ ओह ! केवल प्रमाद और सर. लताकै कारण मैं अबतक इसके व्रतमें विघ्नकारी बनता आया । यह बेटी तो ठीक पिताजीके ही समान निकली और मैं उन्हींका पुत्र होकर सदा विषयोंमें आसक्त और राज्य में अतृप्त बना रहा । वह आयु समुद्रको जलतरंगकी तरह नाशवान् है, परन्तु विषयभोग मैं पड़े हुए मनुष्य इसे नहीं जानते । देखते-ही-देखते नाशको प्राप्त हो जानेवाली बिजलीके सहारे जैसे रास्ता देख लिया जाता है, वैसे ही इस चंचल आयुमें भी साधु-जनों को मोक्षकी साधना कर लेनी चाहिये । मांस, विष्टा, मूत्र, मल, प्रस्वेद और व्याधियोंसे भरे हुए शरीरको सँवारना - सिंगारना क्या है, घरकी मोरीका शृङ्गार करना है प्यारी बहन ! शाबाश! तुम धन्य हो, कि इस शरीर के द्वारा मोक्षरूपी फलको उत्पन्न करनेवाले व्रतको ग्रहण करने की इच्छा तुम्हारे मनमें उत्पन्न हुई । चतुर लोग खारी समुद्रमेंसे भी रत्न निकाल लेते हैं।" यह कह, महा I * एक धार्मिक व्रत, जिसमें खट्ट, चरपरे. गरम और भारी पदार्थ नहीं खाये जाते ।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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