SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व ८६ आदिनाथ-चरित्र होता ही है। उसके परिजनोंके मुँह से अपशकुनमय-शोककारक और विरस वचन निकलने लगे। कहा है, कि बोलनेवाले के मुख से होनहार के अनुरूप ही बात निकलती है । जन्मसे प्राप्त हुई लक्ष्मी और लजारूपी प्रिया ने, मानो उस ने कोई अपराध किया हो इस तरह, उसे छोड़ दिया। चींटी के जिस तरह मृत्यु-समय पंख आ जाते हैं, उसी तरह, उसके अदीन और निद्रारहित होने पर भी, उसमें दीनता और निद्रा आगई । हृदय के साथ उस के सन्धि-बन्धन ढीले होने लगे। महाबलवान् पुरुषों से भी न हिलनेवाले उस के कल्पवृक्ष काँपने लगे। उसके नीरोगी अङ्ग और उपाङ्गों की सन्धियाँ मानो भविष्य में आनेवाली वेदना की शङ्का से टूटने लगीं। जिस तरह दूसरों के स्थायी भाव देखने में असमर्थ हो; उस तरह उस की दृष्टि पदार्थग्रहण करने में असमर्थ होने लगी : यानी उस की नज़र कमहो गई । मानो गर्भावास में निवास करने के दुःखोंका भय लगता हो, इस तरह उस के सारे अङ्ग काँपने लगे। ऊपर महावत वैठा हो ऐसे गजेन्द्र की तरह, उस ललिताङ्ग देव को रम्य क्रीड़ा-पर्वत, नदी, बावड़ी और बगीचे भी प्यारे नहीं लगते थे। उस की ऐसी हालत देखकर देवी स्वयंप्रभा ने कहा,---“हे नाथ ! मैंने आप का क्या अपराध किया है, कि आप का मन मुझ से फिरा हुआ सा जान पड़ता है ?"
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy