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________________ प्रथम पर्व ३६६ आदिनाथ चरित्र रूपी अत्रोंसे निरन्तर युद्ध करते हुए पुरुषों को चाहिये, कि इन बेरियोंको जीते और सत्य शरण भूत धर्मकी सेवा करें, जिससे शाश्वत आनन्दमय पदकी प्राप्ति सुलभ हो । यह राज- लक्ष्मी अनेक योनियोंमें भ्रमण करने वाली, अतिशय पीड़ा देनेवाली, अभिमान रूपी फल देने वाली और नाशवान है I इसलिये हे पुत्रों ! पूर्व में स्वर्गके सुखोंसे भी जब तुम्हारी तृष्णा न मिटी, तब कोयला करने वालेके समान मनुष्य सम्बन्धी भोगों से वह कैसे मिटेगी ? कोयला करने वालेका सम्बन्ध इस प्रकार है "कोई कोयला करने वाला पुरुष पानीसे भरी हुई मशक लिये हुए एक निर्जल अरण्य में कोयला करनेके लिये गया । वहाँ मध्याह्न और अँगारेको गरमी से उसे ऐसी तृषा उत्पन्न हुई, कि वह अपने साथ लायी हुई मशकका सारा पानी पी गया, तो भी उसकी प्यास नहीं मिटी । इतनेमें उसे नींद आगयी । स्वप्नमें ही वह मानों अपने घर पहुँच गया और घर के अन्दर जितने घड़े, आदि पात्र जल से भरे रखे थे । उन सबको सफाचट कर गया, तथापि जैसे तेल पीकर अग्नि तृप्त नहीं होती, वैसे ही उसकी भी तृषा नहीं दूर हुई। तब उसने बावली कुएँ और सरोवरका जल सोख लिया । इसी तरह नदियों और समुद्रों का जल भी उसने सोख लिया, पर उसकी नारकी जीवोंकी सी तृषा-वेदना नहीं दूर हुई । इसके बाद उसने मरुदेशमें ( मारवाड़ में ) जाकर रस्सीके सहारे दभेका दोना बना कर जलके निमित्त कुएँ में डाला - क्योंकि आर्त्त मनुष्य क्या नहीं करता ? कुऍमें जल बहुत नीचे था; इसलिये
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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