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________________ आदिनाथ चरित्र ३६८ वैसेही हमारे राज्य भी हड़प कर लेना चाहते हैं। उन्होंने औरऔर राजाओं की तरह हमारे पास दूत भेज कर यह कहला भेजा है, कि या तो तुम अपने राज्य छोड़ दो अथवा मेरी सेवा करो | हे प्रभु ! हम लोग अपने बड़े भाई भरत की इस बातको सुनते ही क्यों अपने पिताका दिया हुआ राज्य नामर्दोंकी तरह छोड़ दें ? हम अधिक धन-दौलत भी तो नहीं चाहते, फिर हम उनकी सेवा क्यों करें ? जब हम राज्य भी नहीं छोड़ते और सेवा करने को भी तैयार नहीं होते, तब युद्ध होना एक प्रकारसे निश्चित साही है। 1 तो भी आपसे पूछे बिना हम लोग कुछ भी नहीं कर सकते ।” प्रथम पव पुत्रोंकी यह प्रार्थना सुन जिनके निर्मल केवल ज्ञान में सारा जगत साफ़ दीख रहा है, ऐसे कृपालु भगवान् आदीश्वर ने उन्हें इस प्रकार आज्ञा दी, – “पुत्रो ! पुरुष व्रत धारी बीर पुरुषों को चाहिये, कि अत्यन्त द्रोह करने करने वाले वैरियोंके ही साथ युद्ध करें। राग, द्वेष, मोह और कषाय- ये जीवों के सैकड़ों जन्मों तक दुःख देने वाले शत्रु हैं 1 राग, सद्गतिकी राहमें ले जाने वालोंके लिये लोहेकी जंजीर की तरह बन्धनका काम देता है । द्वेष, नरकमें पहुँचाने वाला बड़ा भारी ज़बरदस्त गवाह है । मोहने तो मानो इस बातका ठेका ही ले रखा है, कि मैं लोगोंको संसारके भँवर - जालमें घुमाया करूँगा और कषाय ? यह तो मानों अग्निके समान अपने ही आश्रितजनों को जला कर ख़ाक कर देता है । इसलिये अविनाशी उपाय
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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