SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व आदिनाथ-चरित्र चमकती हैं, वे धन्य हैं। हे जगत्पति ! आप किसीसे कुछ भी साम या बलके द्वारा ग्रहण नहीं करते, तो भी आप त्रैलोक्य चक्रवती हैं। हे स्वामिन् ! सारे जलाशयके जलमें रहने वाले चन्द्रबिम्बकी तरह आप एक समान सारे जगत्के लोगोंके चित्तमें निवास करते हैं। हे देव ! आपकी स्तुति करने वाला पुरुष सबको स्तुति करने योग्य हो जाता है, आपकी पूजा करने वाला सबसे पूजा पाने योग्य हो जाता है, आपको नमस्कार करने वाला सबके द्वाग नमस्कृत होने योग्य हो जाता है, इसीलिये आपकी भक्ति उत्तम फलोंको देने वाली कही जाती है। दुःखरूपी दावानलसे जलते हुए जनोंके लिये आप मेघके समान और मोह-रूपी अन्धकारमें मूर्ख बने हुए लोगोंके लिये दीपकस्वरूप हैं। पथके छायायुक्त वृक्षकी भांति आप राजा, रङ्क, मूर्ख और गुणवान् सबके लिये समान उपकारी हैं।" इस प्रकार स्तुति कर वे सबके सब प्रभुके चरणकमलोंमें अपनी दृष्टिको भ्रमर बनाये हुए एक मत होकर बोले,-"ह स्वामिन् ! आपने हमें और भरतको योग्यताके अनुसार अलग-अलग देश के राज्य बाँट दिये हैं। हम तो आपके दिये हुए राज्यको लेकर संतुष्ट हैं ; क्योंकि स्वामीको निश्चित की हुई मर्यादाको विनयी मनुष्य नहीं भङ्ग करते ; पर हे भगवन् ! हमारे बड़े भाई भरत अपने और दूसरोंके छीने हुये राज्योंको पाकर भी अब तक वैसे ही असंतुष्ट हैं, जैसे जलको पाकर भी बड़वाग्निको सन्तोष नहीं होता। उन्होंने जैसे औरोंके राज्य छोन लिये हैं,
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy