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________________ आदिनाथ-चरित्र ५४८ प्रथम पर्व “हे महाराज! आपके पिता श्रीऋषभदेव प्रभुने पहले गृहस्थाश्रममें रहकर भी पशुके समान अज्ञ मनुष्योंको व्यवहार नीतिमें प्रवृत्त किया था। इसके बाद दीक्षा लेकर थोड़े ही समयमें केवलज्ञान प्राप्त कर, इस जगतके लोगोंको भवसागरसे उबारनेके लिए धर्ममें प्रवृत्त किया। अन्तमें स्वयं कृतार्थ हो औरोंको भी कृतार्थ कर उन्होंने परम-पद प्राप्त किया। फिर ऐसे परम प्रभुके लिये आप क्यों शोक करते हैं ?” इस प्रकार समझानेपर चक्रवर्ता धीरे-धीरे राजकाजमें मन लगाने लगे। राहुसे छुटकारा पाये हुए चन्द्रमाकी भांति धीरे-धीरे शोकमुक्त होकर भरत चक्रवत्ती बाहर विहार भूमिमें विचरण करने लगे। विन्ध्याचलकी याद करनेवाले गजेन्द्रकी तरह प्रभुके चरणोंका स्मरण करते हुए विषादको प्राप्त होनेवाले महाराजके पास आआकर बड़े-बूढ़े लोग उनका दिल बहलाने लगे। इसीसे वे कभी कभी अपने परिजनोंके आग्रहसे विनोद उत्पन्न करनेवाली उद्यान भूमिमें जाने लगे । और वहाँ मानो स्त्रियोंकाही राज्य हो ौसी सुन्दरी स्त्रियोंको टोलीके साथ लता-मण्डपकी रमणीक शय्यापर क्रीड़ा करने लगे । वहाँ फूल चुननेवाले विद्याधरोकी भांति जवान पुरुषोंको उन्होंने फूल चुननेकी क्रीडा करते देखा। उन्होंने और भी देखा कि, वाराङ्गनाएँ फूलोंकी पोशाक बना-बनाकर उनको अर्पण कर रही हैं । मानो इसी प्रकार वे कामदेवकी पूजा कर रही हों मानों उनकी उपासना करनेके लिये असंख्य श्रुतियाँ आ इकट्ठी हुई हों, ऐसी नगर-नारियाँ अंग-अंगमें फूलोंके गहने पहने उनके
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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