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________________ प्रथम पर्व २४३ आदिनाथ चरित्र छायामें जो सुख और आनन्द है; वह उज्ज्वल छत्रकी छाया में भी नहीं है। यदि मैं आपका विरही हूँ, यदि आप मुझसे अलहिदा हों, अगर आपकी और मेरी जुदाई हो, तो फिर साम्राज्यलक्ष्मीका क्या प्रयोजन है ? आपके न रहनेसे यह साम्राज्यलक्ष्मी निष्प्रयोजन हैं। इसमें कुछ भी सार और सुख नहीं है । क्योंकि आपकी सेवाके सुख रूपी क्षीर सागरमें राज्यका सुख एक बूंदके समान है ; अर्थात आपकी सेवाका सुख क्षीरसागरवत् है और उसके मुकाबले में राज्यका सुख एक बूंदके समान है। स्वामी का प्रत्युत्तर भरत को राजगद्दी । भरतकी बातें सुनकर स्वामीने कहा-"हमने तो राज्यको त्याग दिया है। अगर पृथ्वी पर राजा न हो, तो फिरले मत्स्यन्याय होने लगे। सबसे बड़ी मछली जिस तरह छोटी मछलियों को निगल जाती है, उसी तरह बलवान लोग निर्बलोंकी चटनी कर जायें, उन्हें हर तरहसे हैरान करें। जिसकी लाठी उसकी भैंसवाली कहावत चरितार्थ होने लगे। संसारमें निर्बलोंके खड़े होनेको भी तिल भर ज़मीन न मिले । इसलिये हे वत्स ! तुम इस पृथ्वीका यथोचित रूपसे पालन करो। तुम हमारी आज्ञापर चलने वाले हो और हमारी आज्ञा भी यही है।" प्रभुका ऐसा सिद्धादेश होने पर भरत उसे उल्लङ्घन कर न सकते थे, अतः उन्होंने प्रभुकी बात मंजूर कर ली ; क्योंकि गुरुमें ऐसी ही विनय स्थित
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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