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________________ प्रथम पत्र ४१ आदिनाश.रित हुए पथिकोंके लिए बादल, क्षण भर को, छातोंका काम करने लगे हैं। सङ्घके साँड अपने खुरोंसे जमीनको खोद रहे हैं ; मालूम होता है, सुख पूर्वक चलनेके लिए, वे ज़मीनको हमवार या चौरस कर रहे हैं। पहले जो मार्गके प्रवाहगर्जना करते और पृथ्वी पर उछलते हुए दिखाई देतेथे, वे इस समय–वर्षाकालकेबादलोंकी तरह-नष्ट हो गये हैं। फलों के भार से झुकी हुई डालियों और कदम-कदम पर मिलने वाले साफ पानी के झरनोंसे, पथिकगण, मार्ग में बिना किसी प्रकार के यत्नके ही, पाथेयवाले हो गये हैं। उत्साह-पूर्ण चित्तवाले उद्यमी लोग, राजहंस की तरह, देशान्तर जाने के लिए उतावल कर रहे है ।' मङ्गल-पाठक की उपरोक्त बातें सुन कर, इसने मुझे प्रयाण-समय की सूचना दी है' ऐसा विचार कर, सार्थवाहने प्रयाण-भेरी बजवा दी। गोपालोके गोङ्गनादसे जिस तरह गायों का झुण्ड चलता है, उसी तरह पृथ्वी और आकाशके मध्य भाग को पूर देने वाले भेरी-नाद से सारा सार्थ वहाँ से चल दिया । भव्य प्राणी-रूपी कमलों को बोध करने में दक्ष, मुनियों से घिरे हुए आचार्य नेभी--किरणो से घिरे हुए भास्करकी तरह-वहाँ से विहार किया। सङ्घ की रक्षा के लिए, आगे-पीछे और दोनों बाजू, रक्षा करने वाले सवारों को तैनात करके, धन सेठने वहाँसे कृच किया। सार्थवाह जब उस घोर वन को पार कर गया, तब उस से आज्ञा लेकर, धर्मघोष आचार्य अन्यत्र विहार कर गये। जिस तरह नदियों का समूह समुद्र में पहुंच जाता है, उसी तरह सार्थवाह भी, बिना किसी प्रकार की विघ्न-बाधा के, मार्ग को तय
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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