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________________ प्रथम एवं १८५ आदिनाथ चरित्र शरीरपर पड़ते ही मण्डलाकार हुआ कुम्भजल मस्तक के ऊपर सफेद छत्र के समान, ललाट-भागपर फैला हुआ कान्तिमान ललाट के आभूषण जैसा, कर्ण भाग में वहाँ आकर विश्रान्ति को प्राप्त हुए नेत्रों की कान्ति जैसा, कपोल भाग में कपूर की पत्र रचना के समूह जैसा, मनोहर होठोंपर विशद हास्य की कान्ति के समान, कंठ देश में मनोहर मुक्कामाल जैसा, कन्धोंपर गोशीर्ष चन्दन के तिलक जैसा, भुजा, हृदय और पीठपर विशाल वस्त्र के सदृश एवं कमर और घुटनों के बीच में विस्तृत उत्तरीय वस्त्रके समान – इस तरह क्षीरोदधि - क्षीर सागर का सुन्दर जल भगवान् के प्रत्येक अङ्ग में जुदी-जुदी शोभा को धारण करता था । जिस तरह चातक- पपैहिया - मेहके जलको ग्रहण करता है; उसी तरह कितने ही देवता भगवान् के स्नान के जल को ज़मीनपर पड़ते ही श्रद्धासे ग्रहण करने लगे । ऐसा जल फिर कहाँ मिलेगा, यह विचार करके कितने ही देवता उसे, मरुदेश या मारवाड़ के लोगों की तरह, अपने-अपने सिरों पर छिड़कने लगे । कितने ही देवता, गरमी से घबराये हुए हाथियोंकी तरह, अभिलाष पूर्वक, उस जल से अपने-अपने शरीर सींचने लगे । मेरु पर्वत की चोटियोंपर, ज़ोर से फैलनेवाला वह जल चारों तरफ हज़ार नदियों की कल्पना कराने लगा और पांडुक, सौमनस, नन्दन तथा भद्रशाल बागीचों में फैलनेवाला वह जल धारों की लीलाको धारण करने लगा ।' स्नान करते-करते भीतर का जल कम होने से नीचे मुखवाले इन्द्र के घड़े मान
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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