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________________ आदिनाथ-चरित्र २०६ प्रथम पर्व 1 - थे । उससे मेघ जैसी गम्भीर आवाज़ निकलती थी और वह शंख के जैसी थी । निर्मल, वर्त्तुलाकार कान्तियोंकी तरङ्ग वाला उनका चेहरा कलङ्क-रहित दूसरे चन्द्रमा-जैसा सुन्दर मालूम होना था; अर्थात् चन्द्रमा में कलङ्क-कालिमा है, पर उनका निर्मल और सुगोल चन्द्रमुख निष्कलङ्क था उसमें कलङ्क - :- कालिमाका लेशभी न था; अतएव वह चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर था । उनके दोनों गाल नरम चिकने और मांस से भरे हुए थे । वे साथ निवास करने वाली वाणी और लक्ष्मी के सुवर्णके दो आईनोंकी तरह दिखाई देते थे - सोनेके दो दर्पणोंकी तरह शोभा देते थे । उनके दोनों कान कन्धों तक लम्बे और अन्दर से सुन्दर आवर्त्तया आँटेवाले थे और उनके मुखकी कान्ति रूपी सिन्धुके तीर पर रहने वाली, दो सीपों की तरह मालूम होते थे । बिम्बाफलके समान लाल उनके होठ थे । कुन्द-कली जैसे बत्तीस दाँत थे और अनुक्रमसे विस्तार वाली और उन्नत बाँस जैसी उनकी नाक थी । उनकी दाढ़ी पुष्ट, गोल, नरम और सत्मश्रु तथा उसमें स्मश्रुका भाग श्यामवर्ण, चिकना और मुलायम था । प्रभुकी जीभ नवीन कल्पवृक्षके मूंगे जैसी लाल, कोमल, नाति स्थूल, और द्वादशाङ्ग आगम - शास्त्र के अर्थ को प्रसव करने वाली थीं : उनकी आँखें भीतरसे काली और धौली तथा प्रान्तभागमें लाल थीं इससे ऐसा जान पड़ता था, मानों वे नीलम, स्फटिक और माणिक से बनायी गयी हों। वे कानों तक पहुँची हुई थीं और उनमें श्याम बरौनियां या बॉफनिया थीं; इस लिये, लीन हुए भौरेबाले खिले हुए
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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