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________________ आदिनाथ चरित्र प्रथम पर्व को पहले की अपेक्षा भी संक्षिप्त करता हुआ, इन्द्र जम्बूद्वीप के दक्खन भरतार्द्ध में, आदि तीर्थङ्करकी जन्मभूमिमें आ पहुँचा । सूर्य जिस तरह मेरु की प्रदक्षिणा करता है; उसी तरह वहाँ उस ने उस विमान से प्रभु के सूतिकागार की प्रदक्षिण की और घर के कोने में जिस तरह धन रखते हैं; उसी तरह ईशान कोण में उस विमान को स्थापन किया । १७४ सौधर्मेन्द्रका भगवान के चरणों में प्रणाम करना । मरुदेवा माता को परिचय देना । भगवान् को ग्रहण करना । ; पीछे महामुनि जिस तरह मान से उतरता है-मान का त्याग करता है - उसी तरह प्रसन्नचित्त शक ेन्द्र विमान से उतर कर प्रभु के पास आया । प्रभु को देखते ही उस देवाधिपति ने पहले प्रणाम किया क्योंकि 'स्वामी के दर्शन होते ही प्रणाम करना स्वामी की पहली भेट है।' इस के बाद माता सहित प्रभु की प्रदक्षिणा करके, उसने फिर प्रणाम किया। क्योंकि भक्ति में पुनरुक्ति दोष नहीं होता; यानी भक्ति में किये हुए काम को बारम्बार करने से दोष नहीं लगता। देवताओं द्वारा मस्तकपर अभिषेक किये हुए उस भक्तिमान् इन्द्र ने, मस्तक पर अञ्जलि जोड़कर, स्वामिनी मरुदेवा से इस प्रकार कहना आरम्भ किया :-- -" अपने पेट में रत्नरूप पुत्र को धारण करनेवाली
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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