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________________ प्रथम पर्व १०७ मित्र, जीवानन्द के साथ, उन मुनिराजके पास गये । वह मुनि महाराज एक बड़ के वृक्ष के नीचे, वृक्ष के पाद की तरह निश्चल होकर, कायोत्सर्ग में तत्पर थे। मुनि को नमस्कार करके उन्होंने कहा, – 'हे भगवन् ! आज चिकित्सा-कार्य से, हम आपके धर्म - कार्य में विघ्न करेंगे 1 आप आज्ञा दाजिये और पुण्य से हमपर अनुग्रह कीजिये । मुनि ने ज्योंही चिकित्सा की आज्ञा दी, त्योंही वे एक मरी हुई गाय को ले आये; क्योंकि सद्वैद्य कभी भी विपरीत चिकित्सा नहीं करते। इस के बाद उन्होंने मुनि के प्रत्येक अङ्ग में लक्षपाक तैल की मालिश की जिस तरह क्यारी का जल बाग़ में फैल जाता है : उस तरह वह तेल उन की नसनस मे फैल गया । उस तेल के अत्यन्त उष्णवीर्य होने के कारण, मुनि बेहोश होगये । उग्र व्याधि की शान्ति के लिए उग्र औषधिका ही प्रयोग करना पड़ता है । तेल से व्याकुल हुए कृमि मुनि के शरीर से इस तरह निकलने लगे; जिस तरह बिल में जल डालने से चींटियाँ बाहर निकलती हैं। कीड़ों को निकलते देख, जीवानन्द ने मुनि को रत्न - कम्बल से इस तरह आच्छा हादित कर दिया: जिस तरह चन्द्रमा अपनी चाँदनी से आकाश को आच्छादित कर देता है । उस रत्न - कम्बल में शीतलता होने की वजह से, सारे कीड़े उस में उसी तरह लीन हो गये: जिस तरह गरमी के मौसम की दोपहरी में तपी हुई मछलियाँ शैवाल में लीन हो जाती हैं । इसके पीछे रत्न- कम्बल को बिना हिलाये धीरे. • धीरे उठाकर, सारे कीड़े गाय की लाश पर डाल दिये गये । आदिनाथ चरित्र -
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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