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________________ प्रथम पर्व २७१ आदिनाथ चरित्र फिर बाल-क्रोड़ा करता हुआ सुशोभित है। अपने घरके आँगन में आये हुए प्रभु के चरण कमलों में लौटकर, वह अपने भौंरेके भ्रमको उत्पन्न करनेवाले वालों से उन्हें पोंछने लगा। इसके बाद उसने फिर उठकर जगदीश की तीन प्रदक्षिणाकी। फिर मानो हर्ष से धोताहो, इस तरह चरणोंमें नमस्कार किया। फिर खड़े होकर प्रभु के मुखकमल को इस तरह देखने लगा, जिस तरह चकोर चन्द्रमाको देखते हैं। “ऐसी सूरत मैंने कहीं देखी है" यह विचार करते हुए, उसको विवेक वृक्षका वीज रूप जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उससे उसे मालूम हुआ कि पहले जन्म पूर्व विदेह क्षेत्र में भगवान् वज्रनाभ नामक चक्रवर्ती थे। मैं उनका सारथी था। उस भव या जन्म में स्वामी के वज्रसेन नामक पिता थे, उनके ऐसे ही तीर्थङ्कर चिन्ह थे। वज्रनाभने वनसेन तीर्थङ्कर के चरणोंके समीप दीक्षा ली। उस समय मैं ने भी उन्हींके साथ दीक्षाली। उस वक्त वज्र सेन अर्हन्त के मुंहसे मैंने सुना था, कि यह वज्रनाभभरतखण्डमें पहला तीर्थकर होगा। स्वयं प्रभादिकके भवों में मैंने इनके साथ भ्रमण किया था। ये अब मेरे प्रपितामह लगते हैं। इनको आज मैं भाग्य योग से ही देख सका हूँ । आज ये प्रभु साक्षात् मोक्षकी तरह समस्त जगत्का और मेरा कल्याण करने के लिये पधारे हैं,। युवराज इस प्रकार से विचार कर ही रहा था कि इतने में किसीने नवीन ईख-रससे भरे हुए घड़े प्रसन्नता पूर्वक युवराज श्रेयांस को भेंट किये। निर्दोष भिक्षा देने की विधि को जानने वाले कुमार ने
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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