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________________ प्रधम पर्व आदिनाथ-चरित्र पीछे सेना सहित उन दोनोंके साथ अलगअलग और मिलकर, विविध प्रकारसे युद्ध होने लगा। क्योंकि जय लक्ष्मी युद्धसे ही उपार्जन करने योग्य है ; अर्थात विजय लक्ष्मी युद्धसे ही प्राप्त की जाती है। बारह वर्षतक युद्ध करके, अन्तमें चक्रवर्ती ने उन दोनों विद्याधरोंको जीत लिया। पराजित होने के बाद, हाथ जोड़ और प्रणाम करके उन्होंने भरतेश्वरसे कहा--'हे कुल. स्वामी! सूर्यसे दूसरा अधिक तेजस्वी नहीं,वायुसे अधिक दूसरा वेगवान नहीं और मोक्षसे अधिक दूसरा सुख नहीं, उसी तरह आपसे अधिक दूसरा कोई शूरवीर नहीं। हे ऋषभपुत्र ! आज आपको देखने से हम साक्षात ऋषभदेवको ही देख रहे हैं। हमने अज्ञानतासे जो कष्ट आपको दिया है, उसके लिये क्षमा कीजिये; क्योंकि हमने आपको मूर्खतासे जागृत किया है। जिस तरह पहले हम ऋषभस्वामीके दास थे ; उसी तरह अबसे हम आपके सेवक हुए। क्योंकि स्वामीकी तरह, स्वामी पुत्र को सेवा भी लज़ाकारक नहीं होती। हे महाराज! दक्षिण और उत्तर भरतार्द्ध के मध्यमें स्थित वैताढ्य पर्वतके दोनों ओर, दुर्गरक्षककी तरह, आपकी आज्ञामें रहेंगे।” इस तरह कहकर विनमि राजाने जो कि महाराजको कुछ भेंट देने की इच्छा रखते थे,मानो कुछ मांगना चाहते हों इस तरह, नमस्कार कर हाथ जोड़,-मानो स्थिर हुई लक्ष्मी हो ऐसी,स्त्रियोंमें रत्नरूप अपनी सुभद्रा नामक पुत्री चक्रवर्तीके अर्पण की। मानो सूत लगा कर बनाई हो, ऐसी उसकी सम चौरस
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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