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________________ आदिनाथ चरित्र ४२६ प्रथम पव बतलायें -- मुझे इसकी कोई परवा नहीं । संसारमें धन से अथवा पुरुषार्थसे सब कुछ मिल जा सकता है; पर ऐसा भाई किसी तरह नहीं मिल सकता । मंत्रियो ! मेरा यह कहना मेरे योग्य है या नहीं ? तुम लोग क्यों चुपचाप मौनी बाबा बने बैठे हो ? जो उचित जान पड़े, वह कहो । " बाहुबलीकी दुर्विनीतता और अपने स्वामीकी इस क्षमासे चोट खाये हुए की तरह सेनापति सुषेणने कहा, – “ऋषभस्वामी के पुत्र भरतराजको तो क्षमा करनी ही चाहिये, पर यह क्षमा उन्हीं लोगों पर दिखलायी जानी चाहिये, जो कृपाके पात्र हों । जो जिसके गाँव में रहता है, वह उसके अधीन होता है और यह बाहुबली तो एकही देशका राजा है, तथापि मुँह से भी आपकी वश्यता स्वीकार नहीं करता । प्राणोंका ग्राहक, पर प्रताप की वृद्धि करनेवाला शत्रु अच्छा; परन्तु अपने भाईके प्रतापको नष्ट करनेवाला बन्धु अच्छा नहीं । राजा, अपने भण्डार, सैन्य, मित्र, पुत्र और शरीर से भी अपने तेजकी रक्षा करते हैं, क्योंकि तेजहो उनका जीवन है। अपने आपके राज्यमें ही क्या नहीं था, जो आप छ खण्डों पर विजय प्राप्त करने गये ? यह सब तेजही के लिये तो ? एक बार जिस सतीका शील नष्ट हो गया, वह सदा असती ही कहलाती है, वैसेही एक स्थान पर नष्ट हुआ तेज सभी जगहों से नष्ट हुआ समझा जाता है। गृहस्थ में भाई-भाईके बीच द्रव्यका बराबर बँटवारा होता है : तो भी वे तेजको छीननेवाले भाईकी ज़रा भी उपेक्षा नहीं करते। अखिल भरतखण्डकी विजय कर
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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