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________________ प्रथम पर्व ४७१ आदिनाथ-चरित्र गड़ गये। उनके साथही उनके सब संनिक भी, मानों ऐसी प्रार्थना करते हुए, कि हमें भी हमारे स्वामीकी ही भांति बिलमें घुसा दो, खेदके साथ पृथ्वीपर गिर पड़े। राहुसे ग्रास किये हुए सूर्यके समान अब चक्रवर्ती पृथ्वीमें मग्न हो गये, तब ओकाशमें देवताओंने और पृथ्वीपर मनुष्योंने बड़ा कोलाहल किया । नेत्र मींचे हुए भरतपतिका चेहरा काला पड़ गया और वे क्षणभर लजाके मारे चुपचाप पृथ्वीमें गड़े रहे। इसके बाद शीघ्रही रात बीतनेपर उगनेवाले सूर्यके समान देदीप्यमान होकर वे पृथ्वीसे बाहर निकल आये। - उस समय चक्रवर्तीने सोचा, “जैसे अंधा जुआड़ी हरएक बाज़ीमें मात हो जाता है, वैसेही इस बाहुबलोने सब प्रकारके युद्धोंमें मुझे पराजित कर डाला। इसलिये जैसे गायके खाये हुए घास-पात दूधके रूपमें सबके काममें आते हैं, वैसेही मेरा इतनी मिहनतसे जीता हुआ भरतक्षेत्र भी क्या इसी बाहुबलोके काम आयेगा ? एक म्यानमें दो तलवारों की तरह इस भरतक्षेत्रमें एकही समय दो चक्रवर्ती तो कभी होते नहीं देखे, नसने। जैसे गधेको सींग नहीं होता, वैसेही देवताओंसे इन्द्र हार जायें और राजाओंसे चक्रवर्ती पराजित हो जाथे, ऐसा तो पहले कभी नहीं सुना। तो क्या बाहुबलोसे हारकर मैं अब पृथ्वीमें चक्रवर्ती न कहलाऊँ और मुझसे नहीं हारनेके कारण जगत्से भी अजेय होकर यही चक्रवर्ती कहलायेगा ?" इसी तरहकी चिन्ता करते हुए चक्रवर्तीके हाथमें चिन्तामणिको.तरह यक्षराजाओंने चक्र आरो
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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