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________________ आदिनाथ चरित्र ३०६ प्रथम पर्ब चाना जाता है । अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न हो, उसे शम कहते हैं; अथवा सम्यक् प्रकृति से कषायों के परिणाम के देखने को भी शम कहते हैं । कर्मके परिणाम और संसार की असारता को विचारने वाले पुरुष को जो वैराग्य उत्पन्न होता है, उसे संवेग कहते हैं । संवेग वाले पुरुष को संसार में रहना जेलखाने के समान है; अर्थात् वह संसार को कारागार समझता है और स्वजनों को बन्धन मानता है। जिसके ऐसे वचार होते हैं, उसे निर्वेद कहते हैं। 1 एकेन्द्रिय आदि प्रा. णियों को संसार में डूबते जो क्लेश होता है, उसे देखकर दिलका पसीजना, उनके दुःखों से दुखी होना और उनके दुःख दूर करने की यथा साध्य चेष्टा करना - अनुकम्पा है, दूसरे तत्वों को सुनने पर भी, अर्हत तत्वमें प्रतिपत्ति रहना--"आस्तिक्य" कहलाता है । इस तरह सम्यक् दर्शन वर्णन किया है। इसकी क्षणमात्र भी प्राप्ति होने से बुद्धि में जो पहले का अज्ञान होता है, उसका पराभव होकर मतिज्ञान की प्राप्ति होती है । और श्रुत अज्ञानका पराभव होकर श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है और विभंग ज्ञानका नाश होकर अवधि ज्ञान की प्राप्ति होती है। चारित्र वर्णन । 1 समस्त सावद्य योगके त्याग करने को “चारित्र" कहते हैं वह अहिंसा प्रभृति के भेद से पांच तरह का होता है। अहिंसा . सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य्य, और परिग्रह – ये पांचवत पाँच पाँच
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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